सरकार द्वारा विरोध दबाने के लिये सशस्त्र पुलिस उतारने की धमकी

आन्दोलन के अन्य जगहों पर फैलने के अन्देशे से सरकार ने पुलिस बन्दोबस्त को पूरा मजबूत करके रखा था जिसकी प्रतिक्रिया में महिलायें और बच्चे भी आन्दोलन में शामिल हो गये। वह तटबन्धों के निर्माण के लिये बनाई गई खाइयों में जाकर सो जाते थे कि तटबन्ध उनकी लाश पर बनेगा। इन लोगों पर सरकार की किसी हार-मनुहार का न तो कोई असर पड़ रहा था और न ही आला अफसरान के गाँवों में शिविर लगाने का।

कोसी तटबन्धों के विरोध में लोगों का आक्रोश धीरे-धीरे बढ़ रहा था और कई स्थानों पर काम बन्द कर देना पड़ा। पश्चिमी तटबन्ध पर काम-बन्दी के सवाल को सरकार के सामने भी उठाया गया और सरकार यह मानती थी कि जन-प्रतिरोध के कारण और उचित मात्रा में सशस्त्र बल उपलब्ध नहीं होने के कारण पश्चिमी तटबन्ध पर काम बन्द करना पड़ा है और जैसे ही मार्च 1957 के आम-चुनाव के बाद सशस्त्र पुलिस बल उपलब्ध होगा, काम शुरू कर दिया जायेगा।

जयदेव सलहैता के नेतृत्व में 4 फरवरी 1957 को कुसमौल गाँव में 87 गाँवों के प्रतिनिधियों की एक मीटिंग हुई जिसमें यह निर्णय लिया गया कि सरकार पर यह दबाव डाला जाय कि वह तटबन्ध के उसी अलाइनमेन्ट का अनुसरण करे जो कि मधेपुर हो कर जाता था। इन लोगों की मान्यता थी कि मात्र 14 गाँवों को बचाने के लिये तटबन्धों के अन्दर फंसने वाले 79 गाँवों के हितों की कुरबानी दे दी गई है और इन लोगों ने यह प्रतिज्ञा की कि वह आखि़री दम तक अपने हितों के लिए लड़ेगें। इनका यह भी मानना था कि मधेपुर अलाइनमेन्ट पर अब तक 20 लाख से अधिक की राशि खर्च हो चुकी है और इसे बदल कर इसे नष्ट करना उचित नहीं होगा। उन्होंने यह भी कहा कि तटबन्धों के बीच फासला कम होने से तटबन्धों के बीच बसे हुये गाँव नदी की तेज धारा में बह जायेंगे। यह सारी बातें उन्होंने कोसी परियोजना के अधिकारियों तक पहुँचा दी थी और उन्हें धरना पर बैठे एक सप्ताह बीत चुका था।15 देखें बॉक्स-सरकार अपने तटबन्ध समेत बीच में फंसी थी।

करीब 36 गाँवों को दफा 107 के नोटिस जारी किये गये और सहरसा के कलक्टर ने 28 फरवरी 1957 को कोसी परियोजना के अधिकारियों को यह आश्वासन दिया कि 13 मार्च 1957 तक सभी जरूरी स्थानों पर सशस्त्र पुलिस तैनात कर दी जायेगी। तब तक 1957 के आम चुनाव के बाद पुलिस बल के खाली हो जाने का अनुमान था।

जब से सरकार ने तटबन्ध निर्माण के लिये सशस्त्र पुलिस उतारने की धमकी दी उसके बाद से इंजीनियरों का रुख भी कड़ा पड़ने लगा। कोसी प्रोजक्ट के अतिरिक्त मुख्य इंजीनियर पी. आर. गुहा ने सभी को साफ शब्दा में बता दिया कि अब तटबन्ध के अलाइनमेन्ट में कोई परिवर्तन नहीं किया जायेगा। देखें बॉक्स-तटबन्ध ने तो हम लोगों को लड़ाया आपस में...।

भारत सेवक समाज के यूनिट लीडर, जो कि कार्यस्थल से चले गये थे, वह अब वापस लौटने लगे थे मगर उन्हें डर था कि काम शुरू होने पर उनके साथ हाथा-पाई हो सकती है। अतः वह भी पुलिस की सुरक्षा चाहते थे।

ऐसा लगता है कि पुलिस महानिरीक्षक ने पहले ही चीफ इंजीनियर को आश्वस्त कर दिया था कि कार्यस्थलों पर जल्दी ही सुरक्षा उपलब्ध करवा दी जायेगी।

कोसी प्रोजेक्ट के उप-मुख्य प्रशासक सचिन दत्त फरवरी 57 में भलुआही में 5 दिन शिविर लगा कर पड़े रहे कि लोगों को समझा-बुझा कर तटबन्ध बनने देने के लिए राजी कर सकें। वह तथा अतिरिक्त मुख्य अभियंता प्राणरंजन गुहा नीचे जमालपुर तक गये जहाँ सभी जगह तटबन्ध के अलाइनमेन्ट को लोग फुटबाल की तरह लात मार कर दूसरे के पाले में ठेलने लगे हुये थे। उत्तर में करहारा से भेजा तक तथा दक्षिण में जमालपुर से भंथी तक प्रदर्शनकारियों का दिन रात पहरा रहता था और जैसे ही कोई इंजीनियर/ओवरसियर झंडी, रस्सी या डम्पी लेवेल के साथ दिखाई पड़ता था, उसे खदेड़ दिया जाता था। इसी तरह की घटनाएं पूर्वी तटबन्ध पर धरहरा थाने में भी हो रही थीं। सरकार के एक प्रतिनिधि ने 8 मार्च 1957 को प्रेस से बात करते समय यह जानकारी दी कि सरकार के सामने काम बन्द कर देने का विकल्प हमेशा खुला हुआ है और उसने यह भी चेतावनी दी कि उस हालत में अगर लोगों को बाढ़ की त्रासदी झेलनी पड़ी तो सरकार उनकी मदद में आगे नहीं आयेगी।

मार्च 1957 में दूसरी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने और नई सरकार के गठन के तुरन्त बाद नई सरकार ने अपनी बात रखते हुये कोसी तटबन्धों के निर्माण स्थल पर सशस्त्र पुलिस भिजवा दी और पश्चिमी कोसी तटबन्ध का काम एक बार फिर शुरू हो गया। परियोजना का विरोध लेकिन फिर भी नहीं थमा। चुन्नी से टेकुना टोल, भेजा से तरही और तरही से जमालपुर के बीच में यह विरोध अब पहले से कहीं ज्यादा मुखर था। परियोजना अधिकारियों की तो करहारा, द्वालख, टेंगराहा, बरियरवा, डारह, खरीक, भखराइन, रहुआ, संग्राम, मुसहरिया और बगेवा जैसे गाँवों में एक तरह से शामत सी आ गई थी। सरकार की तरफसे कितने ही लोगों को इन गाँवों में नोटिस मिला कि वह सरकारी कामों में दखल देने से बाज आयें।

1957 के आम चुनाव समाप्त होने पर जहाँ एक ओर सरकार पूरे कोसी क्षेत्र पर जहाँ-जहाँ भी तटबन्ध निर्माण में विरोध के सुर सुनाई पड़ रहे थे वहाँ सशस्त्र पुलिस लगाकर दमन की कार्यवाही चला रही थी वहीं जिला प्रशासन की शह पर कोसी परियोजना के अधिकारी एक कड़ा रुख लेने का प्रयास कर रहे थे। अब मान-मनौवल का दौर खत्म हो चुका था और लोगों के सीने पर संगीनें थी। आज बहुत से लोग यह मानते हैं कि कोसी परियोजना का सारा काम बड़े सौहार्द्रपूर्ण वातावरण में हुआ और कहीं किसी प्रकार का कोई विरोध नहीं था। वह यह भी कहते हैं कि अगर किसी को कोसी परियोजना से कोई असहमति थी तो वह अपना विरोध दर्ज कर सकता था। ‘‘ ...आपको मालूम होना चाहिये कि यह योजना जन-सहयोग से बनी थी। अगर लाभ नहीं होता तो लोग लेट जाते जमीन पर कि हमारी छाती पर होकर इसे बनाइये।’’ सच यह है कि हुआ ऐसा ही था मगर अपनी सुविधा के अनुसार याददाश्त रखने वालों और उसी के मुताबिक अनजान बनने वालों से पार पाना बड़ा मुश्किल है खासकर तब जब ऐसा आदमी हाकिम-हुकुम का रुतबा रखता हो। बहरहाल, सरकार को एक विज्ञप्ति के माध्यम से लोगों को खबरदार करना पड़ा कि वह अराजकता या हिंसा से बाज आयें। देखें बॉक्स- बिहार सरकार की विज्ञप्ति।

सरकार स्थानीय लोगों को दो पालियों में बांटने में कामयाब हो गई थी। इनमें से एक तरफ के लोग चाहते थे कि तटबन्धों के बीच की दूरी घटाई जाय ताकि उनके गाँव कन्ट्री साइड में चले जायें। दूसरी तरफ वह लोग थे जो कि किसी भी हालत में तटबन्धों के अन्दर रहने के लिए अभिशप्त थे और चाहते थे कि तटबन्धों के बीच की दूरी को यथा-संभव बढ़ाया जाये ताकि उन पर नदी के पानी का कम असर पड़े। सरकार इस समय तक यह फैसला कर चुकी थी कि पश्चिमी तटबन्ध किशुनीपट्टी से करहारा होते हुये भंथी तक जायेगा। लोगों की लड़ाई अब सड़कों पर उतर आई थी और मधेपुर प्रखण्ड के करहारा गाँव में तटबन्धों के बीच रहने वालों और पश्चिमी तटबन्ध के बाहर के गाँवों के लोग लाठियों के साथ आमने-सामने थे।

अब ऐसी हालत में पश्चिमी तटबन्ध पर प्रायः पूरी लम्बाई में आपस में लोगों में झगड़ा लग गया और पुलिस की मार ऊपर से। कितने ही लोगों को काम में रोड़े अटकाने के खि़लाफनोटिस दिया गया। अलाइनमेन्ट के विरोधियों ने भारत सेवक समाज के कार्यकर्ताओं को जगह-जगह पर खदेड़ा, उनके दफ्ऱतरों में आग लगा दी और मजदूरों की झोपड़ियों को भी नहीं बख्शा।

मजदूरों को डराया धमकाया गया और अधिकारियों के साथ हाथा-पाई तक की नौबत आ गई। अगरगढ़ा धार के पास स्थिति बहुत तनावपूर्ण थी और झगरुआ तथा नीमा के बीच किसी भी वक्त चिनगारी सुलगने के पहले की शान्ति थी।

आन्दोलन के अन्य जगहों पर फैलने के अन्देशे से सरकार ने पुलिस बन्दोबस्त को पूरा मजबूत करके रखा था जिसकी प्रतिक्रिया में महिलायें और बच्चे भी आन्दोलन में शामिल हो गये। वह तटबन्धों के निर्माण के लिये बनाई गई खाइयों में जाकर सो जाते थे कि तटबन्ध उनकी लाश पर बनेगा। इन लोगों पर सरकार की किसी हार-मनुहार का न तो कोई असर पड़ रहा था और न ही आला अफसरान के गाँवों में शिविर लगाने का। सारे ठेकेदार काम छोड़ कर जा चुके थे और ऐडिशनल चीफ इंजीनियर उनको मनाते रहे कि वह काम शुरू करें मगर ठेकेदारों पर इस पहल का कोई असर नहीं पड़ता था। इन सब झगड़े-झमेलों के बीच में थाना-पुलिस तक की नौबत आयी और बहुत से लोगों को जेल तक जाना पड़ा। देखें बॉक्स-हम लोग जेल गये।

बैद्यनाथ मेहता, परमेश्वर कुंअर, तुलमोहन राम, युवराज जनक सिंह और जानकी नन्दन सिंह जैसे विधायकों ने क्षेत्र की समस्या और तटबन्धों के अलाइनमेन्ट के प्रश्न को विधान सभा और उसके बाहर उठाने में कोई कसर नहीं रखी। मेहता ने तो यहाँ तक कहा कि, ‘‘ ...जब वहाँ पर जायेंगे तो पायेंगे कि कोसी किस तरह शेर की तरह गरजती हुई वहाँ की जमीन और आबादी को बरबाद करती है... जब वहाँ के लोगों ने जो दो बांधों के बीच में पड़ते हैं, आपसे पूछा ‘‘मेरा भविष्य क्या होगा’’, ‘‘जो काम आप करने जा रहे हैं उसका नक्शा क्या होगा’’, ‘‘मेरे लिये सरकार क्या कर रही है’’, तो आपने उनको जेल में बन्द कर दिया।’’

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading