सुरक्षित-ऊर्जा तथा पर्यावरण

हाल की एक अंतर्राष्ट्रीय रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत की ओर से हो रही ग्लोबल वॉर्मिंग या वैश्विक-तापन में 19-प्रतिशत वृहद बाँधों के कारण है। विश्वभर के वृहद बाँधों से हर साल उत्सर्जित होने वाली मिथेन का लगभग 27.86-प्रतिशत अकेले भारत के वृहद बाँधों से होता है, जो अन्य सभी देशों के मुकाबले सर्वाधिक है।

हाल ही में संयुक्त राष्ट्र के खाद्य अधिकारों संबंधी एक विशेषज्ञ ने कुछ मुख्य खाद्य फसलों के जैविक-ईंधन (बायोफ्यूल) हेतु प्रयोग पर चिन्ता व्यक्त करते हुए चेतावनी दी है कि इससे विश्व में हजारों की संख्या में भूख से मौतें हो सकती हैं। चाहे वह खाद्य-फसल हो या अखाद्य कृषि में जैव ईंधन की निर्माण सामग्री उगाने से जैव-विविधता, खाद्य-सुरक्षा तथा पर्यावरण को पहुँचते नुकसानों को लेकर विश्व के कई भागों में चिन्ता प्रकट होती रही है।ग्लोबल-वार्मिंग(विश्विक-भूताप) की गंभीर चुनौती का सामना करने के लिए भारत- ऊर्जा के वैकल्पिक स्त्रोतों की दिशा में अग्रसर हैं। पर उसे यह भी समझना होगा कि विकल्पों की भी अपनी सीमाएँ हैं तथा उनको बहुत वृहद पैमाने पर अंधाधुंध अपनाने से कई समस्याएं भी उत्पन्न हो सकती हैं। चाहे वह टिहरी बाँध हो या सरदार सरोवर बाँध या अन्य बड़ी पन-विद्युत योजनाएं हों वृहद स्तर के विस्थापन, आजीविकाओं के नष्ट होने, मुआवजे या पुनर्वास की आस में दर-दर भटकने की त्रासदी तो सामने है ही साथ ही डूब क्षेत्र की चपेट में आयी अमूल्य प्राकृतिक विरासत-वन, वनस्पति, अन्य जीव भी हम खोते रहे हैं।

प्राय: वृहद बाँधों की उपयोगिता तथा कार्य क्षमता समय के साथ तब जाती रहती है, जब जलाशय में गाद भरती जाती है तथा तब बाँध गैर-टिकाऊ व महंगा सौदा सिद्ध होता हैं। भूकम्प व भूस्खलन जैसी प्राकृतिक-आपदाओं की सम्भावना तथा विनाशक क्षमता बढ़ाने में भी वृहद बाँधो की भूमिका मानी गई है। जैसा कि पिछले कुछ समय में हमारे देश के कई भागों में घटा है वृहद बाँध विनाशकारी बाढ़ लाने वाले सिद्ध हुए हैं! विद्युत उत्पादन क्षमता बढ़ाने के लिए कई बार बाँधों के जलाशय में सामान्य से अधिक जल भर लिया जाता है। ऐसे में वर्षा आने पर जलाशय में क्षमता से अधिक पानी हो जाता है। बाँध को टूटने से बचाने के लिए तब अचानक तेजी से बहुत मात्रा में पानी छोड़ा जाता है, जो विनाशकारी बाढ़ ले आता है। बदलती जलवायु तथा सिकुड़ते ग्लेशियर नदी तथा अंतत: बाँध के भावी अस्तित्व पर सहज ही प्रश्नचिह्न लगाते हैं।

डूब क्षेत्र की चपेट में आए तथा जलाशय में बहकर आए जैविक-पदार्थ जब सड़ते हैं, तो जलाशय की सतह से मिथेन, कार्बन डाई ऑक्साइड जैसी कई ग्रीन-हाऊस गैसें उत्सर्जित होती हैं। पनविद्युत निर्माण प्रक्रिया में जलाशय का ग्रीन हाऊस या हरित गृह गैस युक्त जल जब टरबाइन या स्पिल-वे पर गिरता है तो भी ऐसी गैसें वातावरण में छूटती हैं। बड़ी पनविद्युत योजनाओं से आम लोगों की अपेक्षा वृहद औद्योगिक लाभ अधिक सिद्ध होते हैं। सरदार-सरोवर प्रोजेक्ट की कच्छ (गुजरात) के सूखा प्रभावित क्षेत्र के सन्दर्भ में भूमिका बताती भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग; दी कंट्रोलर एंड ऑडिटर जनरल ऑफ इण्डिया) की रिपोर्ट कहती है — औद्योगिक प्रयोग के लिए पानी की अधिक खपत होगी। घरेलू आवश्यकताओं के लिए पानी की उपलब्धता इससे कम होगी। वर्ष 2021 तक इससे कच्छ जिले के लोगों की पेयजल उपलब्धता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।’

सौर- ऊर्जा तथा पवन- ऊर्जा, ऊर्जा के बेहतरीन विकल्प माने गए हैं । राजस्थान में इन दोनों विकल्पों के अच्छे मानक स्थापित हुए हैं। सोलर लैम्प, सोलर-कुकर जैसे कुछ उपकरण प्राय: लोकप्रिय रहे हैं। पर यदि ऊर्जा की बढ़ती असीमित मांगों के लिए इन दोनों विकल्पों का दोहन हो तथा बहुत वृहद पैमाने के प्लांट लगाए जाएं तो कोई गारंटी नहीं की इनमें भी समस्याएं उत्पन्न न हों। एशियन-डेवलपमेंट-बैंक (एडीबी) के साथ मिलकर टाटा पॉवर कम्पनी लिमिटेड देश में (विशेषकर महाराष्ट्र में) कई करोड़ों रुपये के वृहद पवन-ऊर्जा प्लांट लगाने की योजना बना रही हैं।

इसी तरह से दिल्ली सरकार भी ऐसी कुछ निजी कम्पनियों की ओर ताक रही है जो राजस्थान में पैदा होती पवन- ऊर्जा दिल्ली पहुँचा सकें। परमाणु-ऊर्जा के निर्माण से पैदा होते परमाणु कचरे में प्लुटोनियम जैसे ऐसे रेडियो-एक्टिव तत्वों का यह प्रदूषण पर्यावरण में भी फैल सकता हैं तथा भूमिगत जल में भी परमाणु-ऊर्जा संयंत्रों में दुर्घटना व चोरी की सम्भावना भी मौजूद रहती है। ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के एक मुख्य अनुसंधान समूह ने कहा है कि विश्व भर में परमाणु-ऊर्जा के विस्तार से कार्बन-उत्सर्जन में इतनी कमी की सम्भावना नहीं जितना कि इससे विश्व में परमाणु हथियारों के बढ़ने का खतरा मौजूद है। भारत-अमरीकी परमाणु संधि ने यूरेनियम के खर्चीले आयात का भावी बोझ भारत के कंधों पर लादा है तथा भविष्य में परमाणु संयंत्र लगाने मे काफी भूमि की खपत की समस्या पैदा की है।

इस के अतिरिक्त अमरीका में पहले प्रयोग हो चुके परमाणु-ईंधन की भी रिप्रोसेसिंग भारत के लिए कितनी सुरक्षित होगी, यह भी विवादास्पद है। पौधों से बने ईंधन या बायोफ्यूल का स्वच्छ या ग्रीन ईंधन के रूप में विश्व भर में प्रचार-प्रसार हो रहा है। विकसित देशों की कई कम्पनियां विकासशील देशों में उपलब्ध भूमि, सस्ते श्रम व पर्यावरण नियमों में ढिलाई के मद्देनजर बायोईंधन के पौधे उगाने में यहाँ निवेश कर रही हैं। भारत में छत्तीसगढ़, राजस्थान जैसे राज्यों में लाखों हेक्टेयर भूमि रतनजोत (जैट्रोफा) के उत्पादन के लिए कम्पनियों को दी जा रही हैं। मुख्य खाद्य फसलों जैसे मक्का, सोयाबीन या खाद्य तेलों रेपसीड, पाम ऑयल का उपयोग यदि ईंधन उगाने के लिए होगा; तो खाद्य उपयोग खाद्य फसलों से अधिक उगाने के लिए होगा तो भी खाद्य संकट पैदा होगा। खाद्य सुरक्षा के लिए यह एक मुख्य चुनौती माना जा रहा है।बायो-ईंधन प्राय: इतनी- ऊर्जा देता नहीं जितनी- ऊर्जा (जीवाश्म ईंधन की) इस के निर्माण व ट्रांसपोर्ट में लग जाती है। इस प्रक्रिया में ग्रीन-हाऊस गैस उत्सर्जन भी कम नहीं होता। इस के ग्रीन या क्लीन ईंधन के रूप में औचित्य पर ही सवाल उठ जाता है। ईंधन की बढ़ती मांग के मद्देनजर बायोफ्यूल की कृषि भी सुविधानुसार मोनोलक्चर वाली, रसायनों वाली तथा जेनेटिकली मॉडिफाइड बीजों की हो रही हैं। इससे स्थानीय फसलों, वनस्पतियों समेत पर्यावरण के लिए गंभीर खतरे पैदा होते हैं। वृहद पैमाने पर वनभूमि का प्रयोग भी बायोईंधन लगाने के लिए हो रहा है। जैसे इण्डोनेशिया, मलेशिया में पाम ऑयल प्लांटेशन के विस्तार के लिए वृहद पैमाने पर वनों की बलि दी जा रही हैं। यह जैव विविधता के लिए खतरा तो है ही; साथ ही वनों की ग्लोबल वॉर्मिंग को नियंत्रण में रखने की क्षमता की भी उपेक्षा कर रहा हैं।

वनों पर निर्भर समुदाय अपने परम्परागत अधिकारों से भी वंचित हो रहे हैं, उजड़ रहे हैं। उल्लेखनीय है कि हमारे देश में राजस्थान में कुछ वनभूमि भी जैट्रोफा की कृषि के विस्तार हेतु दी जानी तय हुई है!राजस्थान में लगभग समूची बंजर या परत भूमि रतनजोत की कृषि के लिए कम्पनियों को लीज पर दी जा रही हैं। यह बंजर भूमि वास्तव में यहाँ के आम लोगों के लिए कतई बेकार नहीं है। काफी कुछ पशुपालन पर निर्भर ग्रामीण समुदायों के लिए यही भूमि चारे का स्रोत है। जलाऊँ लकड़ी इसी से मिलती है तथा गांव की अन्य सामूहिक आवश्यकताएं भी पूरी होती हैं। ऐसी 30% भूमि पर उगी झाड़ियों पर भेड़, बकरी, ऊंट आदि पशु निर्भर करते हैं। बायो-ईंधन उत्पादन को तेजी से बढ़ाने के उद्देश्य से इसमें जेनेटिकली मॉडिफाइड बीजों की कृषि को बढ़ावा मिल रहा है जिस के पर्यावरण, स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभावों संबंधी वैज्ञानिक चेतावनियां भी दी जाती रही हैं। वास्तव में जब तक- ऊर्जा तथा ईंधन की निरंतर बढ़ती मांगों को नियंत्रित नहीं किया जाएगा; तब तक विकल्पों पर भी दबाव पड़कर समस्याएं उपजती ही रहेगी। स्थानीय स्तर पर सीमित व बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति में ये वैकल्पिक स्रोत अपना कमाल दिखा सकते हैं; पर इनका अंधाधुंध विस्तार पर्यावरण समाज व अर्थव्यवस्था में अस्थिरता ही अधिक पैदा करता है।
 

तेल प्रदूषण


यह बात आजकल बहुत गंभीरता से विचारणीय है कि जिस पेट्रोलियम को अधुनिक सभ्यता का अग्रदूत कहा जाता है, वह वरदान है अथवा अभिशाप है, क्योंकि इस के उपयोग से भारी प्रदूषण हो रहा है जिससे इस धरती पर जीवन चुनौतीपूर्ण हो गया। आज पेट्रोलियम तथा औद्योगिक कचरा समुद्रों का प्रदूषण बढ़ा रहा है, तेल के रिसाव-फैलाव नई मुसीबतें हैं। इस तेल फैलाव तथा तेल टैंक टूटने ने समुद्री इकोसिस्टम्स को बुरी तरह हानि पहुँचाई है। इससे सागर तटों पर सुविधाओं को क्षतिग्रस्त किया है तथा पानी की गुणवत्ता को प्रभावित किया है। वर्ष में शायद ही कोई ऐसा सप्ताह निकलता हो, जब विश्व के किसी न किसी भाग से 2000 मीट्रिक-टन से अधिक तेल समुद्र में फैलने की घटना का समाचार न आता हो। ऐसा दुर्घटना के कारण भी होता है या वृहद टैंकरों को धोने से अथवा बंदरगाहों पर तेल को भरते समय भी होता रहता है।

भारत सरकार ने हाल में भारतीय समुद्र क्षेत्र में व्यापार परिवहन में लगे जहाजों पर गहरी चिन्ता जताई है, जो देश के तटीय जल में तेल का कचरा फैलाते हैं, अन्य तरह का प्रदूषण फैलाते हैं, पर्यावरण की क्षति करते हैं तथा जीवन तथा सम्पत्ति दोनों को खतरे में डालते हैं। राष्ट्रीय समुद्र विज्ञान संस्थान की रिपोर्ट के अनुसार भारत के केरल के तटीय क्षेत्रों में प्रदूषण के कारण झींगा, चिंगट तथा मछली उत्पादन 25-प्रतिशत घट गया है। सर्वोच्च न्यायालय ने पहले आदेश दिया था कि प्रदूषण फैलाने वाले जल कृषि (एक्वाकल्चर) फार्म्स को तटीय राज्यों में बंद कर देना चाहिये, क्योंकि ये पर्यावरण संदूषण के साथ भूमि क्षरण भी करते हैं।

न्यायालय ने यह भी आदेश दिया था कि पूरे देश में तटीय क्षेत्रों से 500 मीटर तक कोई भी निर्माण न किया जाए, क्योंकि औद्योगिकरण तथा नगरीकरण ने इन क्षेत्रों के पारिस्थिकीय संतुलन को खतरे में डाल दिया है। हाल ही में लगभग 1900 टन तेल के फैलाव से डेनमार्क के बाल्टिक तट पर प्रदूषण की चुनौती उपस्थित हुई थी। इक्वाडोर के गैलापेगोस द्वीपसमूह के पास समुद्र के पानी में लगभग 6,55,000 लीटर डीजल तथा भारी तेल के रिसाव ने वहाँ की भूमि, दुर्लभ समुद्री जीवों तथा पक्षियों को खतरे में डाल दिया। भूकम्प के बाद गुजरात में कांडला बंदरगाह पर भण्डारण टैंक से लगभग 2000 मीट्रिक-टन हानिकारक रसायन एकोनाइट्रिल (एसीएन) रिस जाने से उस क्षेत्र के आसपास के निवासियों का जीवन खतरे से घिर गया है। इससे पहले कांडला बंदरगाह पर समुद्र में फैले लगभग तीन लाख लीटर तेल से जामनगर तट रेखा से परे कच्छ की खाड़ी के उथले पानी में समुद्री नेशनल पार्क (जामनगर) के निकट अनेक समुद्री जीव खतरे में आ गए थे।

टोकियो के पश्चिम में 317 किलोमीटर दूरी पर तेल फैलाव ने जापान के तटवर्ती नगरों को हानि पहुँचाई थी। बेलाय नदी के किनारे डले एक तेल पाइप से लगभग 150 मीट्रिक-टन तेल फैलाव ने भी रूस में यूराल पर्वत में दर्जनों गांवों के पीने के पानी को संदूषित किया हैं। एक आमोद-प्रमोद जहाज के सैनजुआन (पोर्टोरीको) की कोरल रीफ में घुस जाने के कारण अटलांटिक तट पर रिसे 28.5 लाख लीटर तेल से रिसोर्ट बीच संदूषित हुआ। बम्बई हाई से लगभग 1600 मीट्रिक-टन तेल फैलाव (जो नगरी तेल पाइप लाइन खराब होने से हुआ था) ने मछलियों, पक्षी जीवन तथा जन-जीवन की गुणवत्ता को हानि पहुँचाई।

ठीक इसी प्रकार बंगाल की खाड़ी में क्षतिग्रस्त तेल टेंकर से रिसे तेल ने निकोबार द्वीप समूह तथा अन्य क्षेत्रों में मानव तथा समुद्री जीवन को नुकसान पहुँचाया। लाइबेरिया आधारित एक टेंकर से रिसे 85,000 मीट्रिक-टन कच्चे तेल ने स्कॉटलैण्ड को गंभीर रूप से प्रदूषित किया तथा द्वीप समूह के पक्षी जीवन को घातक हानि पहुँचाई। सबसे बुरा तेल फैलाव यू.एस.ए. के अलास्का में प्रिंसबिलियम साउण्ड में एक्सन वाल्डेज टेंकर से हुआ था। अनुमान हैं कि एक्सन वाल्डेज तेल फैलाव के बाद प्रथम 6 महीनों की अवधि में 35,000 पक्षी, 10,000 औटर तथा 15 व्हेल मर गई थीं। मगर यह इराक द्वारा खाड़ी युद्ध में पम्प किए गए तेल तथा अमरीका द्वारा तेल टेंकरों पर की गई बमबारी से फैले तेल की मात्रा के सामने बौना है। एक आकलन के अनुसार 110 लाख बैरल कच्चा तेल फारस की खाड़ी में प्रवेश कर गया हैं तथा कई पक्षी किस्में विलुप्त हो गई हैं।

प्रदूषण से मानव पर भी प्रभाव पड़ता हैं। विश्व में 63 करोड़ से अधिक वाहनों में पेट्रोलियम का उपयोग प्रदूषण का मुख्य कारण हैं। विकसित देशों में प्रदूषण रोकने के नियम होने के बावजूद 150 लाख टन कार्बन मोनोऑक्साइड, 10 लाख टन नाइट्रोजन ऑक्साइड तथा 15 लाख टन हाइड्रोकार्बन्स प्रति वर्ष वायुमंडल में बढ़ जाते हैं। जीवाश्म ईंधन के जलने से वायुमंडल प्रति वर्ष करोड़ों टन कार्बन डाइऑक्साइड आती हैं। विकसित देश वायुमंडल प्रदूषण के लिए 70-प्रतिशत जिम्मेदार हैं। भारत प्रति वर्ष कुछ लाख टन सल्फर डाइड्रोकार्बन्स, कार्बन मोनो ऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड तथा हाइड्रोकार्बन्स वायुमंडल में पहुँचाता हैं। इन प्रदूषकों से अनेक बीमारियां, जैसे फेफड़े का कैंसर, दमा, ब्रोंकाइटिस, टी.बी. आदि हो जाती हैं।वायुमंडल में विषैले रसायनों के कारण कैंसर के 80-प्रतिशत मामले होते हैं। मुम्बई में अनेक लोग इन बीमारियों से पीड़ित हैं। दिल्ली में फेफड़ों के मरीजों की संख्या देश में सर्वाधिक है। इसकी 30-प्रतिशत आबादी इसका शिकार है। दिल्ली में सांस तथा गले की बीमारियां 12 गुना अधिक हैं। इराक के विरूद्ब 2003 के युद्ध ने इराक तथा उस के आसपास के क्षेत्र को बुरी तरह विषैला कर दिया हैं जिससे पानी, हवा तथा मिट्टी बहुत प्रदूषित हुए तथा लोगों का जीवन खतरे में पड़ गया। इससे पहले 1991 के खाड़ी युद्ध ने संसार में पर्यावरण संतुलन को विनाश में धकेल दिया। वहाँ जो मानव तथा पर्यावरण की हानि हुई, वह संसार में हुए हिरोशिमा, भोपाल तथा चेरनोबिल से मिलकर हुई बर्बादी से कम नहीं हैं।

कुवैत के तेल कुआं, पेट्रोल रिफाइनरी के जलने तथा तेल के फैलने से कुवैत के आस-पास का विशाल क्षेत्र धूल, गैसों तथा अन्य विषैले पदार्थों से प्रदूषित हुआ हैं। इराक जहरीला रेगिस्तान बन गया है, जहाँ एक वृहद क्षेत्र में महामारी फैली है। पेट्रोलियम अपशिष्ट ने समुद्री खाद्य पदार्थों को भी बुरी तरह प्रभावित किया है। प्रदूषित पानी से ओंस्टर (शेल फिश) कैंसरकारी हो जाती हैं। समुद्री खाद्य पदार्थों का मनुष्य द्वारा उपयोग करने पर उनमें होठों, ठोड़ी, गालों, उंगलियों के सिरों में सुन्नता, सुस्ती, चक्कर आना, बोलने में असंगति तथा जठर आंत्रीय विकार होने लगते हैं। विश्व के सामने अपने वायुमंडल को बचाने की कड़ी चुनौती खड़ी है। सबक है कि पेट्रोलियम की भयंकर तबाही के परिणामों के मद्दे नजर कम विकसित देशों को अपनी औद्योगिक प्रगति के लिए अन्य सुरक्षित- ऊर्जा स्रोत विकसित करने चाहिये।
 

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