सूखे का मुकाबला तालाबों से

8 Sep 2014
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water harvesting
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बुंदेलखंड में दबे पांव एक मौन क्रांति हो रही है और यह तालाब क्रांति। इस इलाके में पानी की कमी और सूखा कोई नई बात नहीं है, लेकिन इस संकट को जलवायु बदलाव ने और बढ़ा दिया है। अब सूखा कोई एक साल की बात नहीं है, यह स्थाई हो गया है। इससे निजात पाने के लिए राज, समाज और मीडिया ने साझा अभियान छेड़ दिया है। पिछले दो साल में यहां लगभग 4 सौ तालाब बन चुके हैं। जिसका फौरी परिणाम यह हुआ है कि लोगों के सूखे खेत हरे-भरे हो गए हैं।

हाल ही मुझे उत्तर प्रदेश के महोबा में इन किसानों से मिलने और उनके तालाब देखने का मौका मिला। जहां कजली मेला में किसानों के सम्मान का भव्य कार्यक्रम था। यहां 13 अगस्त को सैकड़ों की तादाद में किसान एकत्रित हुए। अपना तालाब अभियान किसान महोत्सव का आयोजन महोबा संरक्षण एवं विकास समिति, नगर पालिका परिषद और अपना तालाब अभियान ने किया था। यहां आए कई किसानों ने न केवल अपने खेतों में तालाब का निर्माण किया है बल्कि कई और किसानों को तालाब बनाने के लिए प्रोत्साहित किया है।कजली मेला में किसानों को जल प्रहरी सम्मान से नवाजा गया। दूसरे दिन हम बरबई, काकुन और चरखारी गांवों में तालाब देखने गए और किसानों से मिले।

इस इलाके में हाल के वर्षों में पानी की इतनी कमी हो गई थी कि सरकार ने महोबा जिले के सभी विकासखंडों को डार्क जोन घोषित कर दिया था। डार्क जोन का मतलब है कि जितना पानी जमीन में जा रहा है उससे कई गुना निकाला जा रहा है। यानी धरती रेगिस्तान बन रही है और पानी पाताल चला गया है।

लगातार सूखे और अकाल ने लोगों का जीना मुहाल कर दिया। यह संकट सिर्फ खेती तक सीमित नहीं रहा बल्कि सूखे का ऐसा असर हुआ कि लोगों के लिए पीने का पानी और घर की जरूरतों के लिए पानी मिलना बंद हो गया।

Visit for Apna Talab Abhiyan Work, 14 august 2014, Mahobaकाम की तलाश में लोग गांवों से शहरों की ओर भागने लगे। गांव-के-गांव खाली होने लगे। गांवों में सिर्फ बुजुर्ग और कमजोर व्यक्ति ही बच गए। नए युवाओं की शहरों की ओर भगदड़ मच गई। वे पूरे साल भर ही खाने कमाने के लिए बाहर रहने लगे। देश के अन्य प्रांतों की भांति यहां भी किसान आत्महत्याओं की खबरें आने लगीं।

मवेशी चारे और पानी के अभाव में दम तोड़ने लगे। अन्ना प्रथा यानी लोगों ने अपने मवेशियों को खुला छोड़ दिया। क्योंकि चारे व पानी की व्यवस्था वे नहीं कर सकते थे। सैकड़ों गायों ने अपना बसेरा सड़कों पर बना लिया। इनमें कई सड़क दुर्घटना में मारी जाती हैं और कई चारे पानी के अभाव में कमजोर होकर मर रही हैं। किसानों के लिए यह परेशानी का सबब बनी हुई हैं क्योंकि उनकी फसलों को मवेशियों का झुंड चट कर जाता है।

सवाल उठता है कि आखिर पानी कहां गया? लगातार जंगल कट रहे हैं। बुंदेलखंड में अच्छा जंगल हुआ करता था। जंगल पानी को स्पंज की तरह सोखकर रखते थे। वो नहीं रहे तो पानी भी नहीं रहा। एक बड़ा कारण बारिश का कम होना भी है, वर्षा के औसत दिन कम हो गए हैं। रिमझिम बारिश कम हो गई जिससे अब धरती का पेट नहीं भरता। यह तो हुई भूपृष्ठ की बात।

भूजल को अंधाधुंध तरीके से नलकूपों, मोटर पंपों और हैंडपंपों के जरिए उलीच लिया। भूजल नीचे खिसकते जा रहा है। हरित क्रांति के प्यासे बीजों ने हमारा पानी पी लिया। पर इससे भी कोई सबक नहीं लिया। उल्टे भूमंडलीकरण के दौर में दूसरी हरित क्रांति की बात की जा रही है। नई नकदी फसलों को जो ज्यादा पानी मांगती है, बोने की सलाह दी जा रही है।

बुंदेलखंड में तालाब की समृद्ध संस्कृति रही है। चंदेल और बुंदेला राजाओं ने अपने समय में सैकड़ों तालाब बनवाए थेे। तालाबों की सौंदर्य छटा तो निराली थी ही, जीवनोपयोगी थे। इससे सैकड़ों परिवार की रोजी-रोटी भी जुड़ी थी। महोबा के चरखारी में ही करीब डेढ़ दर्जन तालाब हैं। इसकी एक अलग पहचान है। इनमें सिंघाडा, कमलगट्टा और मछली पालन होता है। लेकिन जब वे 2007 में सूखने लगे तो लोगों को उनकी उपयोगिता समझ आई और यही से इनकी देखरेख और मरम्मत का सिलसिला चल पड़ा।साठ के दशक में हरित क्रांति से देश की संपन्नता का सपना देखा गया था। कुछ हद तक हमने सफलता पाई भी। लेकिन आज हरित क्रांति के कारण कई और समस्याएं सामने आ गई हैं। बेजा रासायनिक खादों के इस्तेमाल से हमारे खेतों की मिट्टी जवाब देने लगी। भू-सतह का पानी जहरीला हो गया। भूजल पाताल चला जा रहा है। खाद्यान्न जहरीला होते जा रहा है। खेती की लागत बढ़ रही है, उपज लगातार घट रही है। लिहाजा अन्नदाता किसान कर्ज के बोझ से दबकर अपनी जान देने को मजबूर है।

तालाब सूख रहे हैं, नदियां दम तोड़ रही हैं। पहाड़ों को खोदा जा रहा है, उन्हें क्षत-विक्षत किया जा रहा है। पहाड़ों को खोदकर गिट्टी बनाने के लिए बड़ी-बड़ी मशीनों का उपयोग किया जा रहा है जिससे धूल की धुंध हमेशा छाई रहती है। इन सबका जनजीवन और पर्यावरण पर क्या असर होता है, यह अलहदा बात है।

बरबई के किसान बृजपाल बताते हैं कि ब्लास्टिंग से पहाड़ों को तोड़ा जा रहा है। उनकी निचाई 500 फुट नीचे तक पहुंच गई है। ऊपर से देखने से ट्रैक्टर कछुआ की तरह दिखता है। वातावरण में गरमी बढ़ रही है। धूल से लोग परेशान हैं। फसलें भी नहीं हो पा रही हैं।

पानी के गहराते संकट के समय लोगों को तालाब याद आ रहे हैं। प्राचीन सभ्यताओं में पानी की कीमत समझी जाती थी। परंपरागत ढांचों, स्रोतों को समाज की संपत्ति माना जाता था। जैसा सामलाती जीवन था वैसा ही समाज की उपयोगी चीजों पर लोगों की चिंता होती थी। उसका वे रखरखाव करते थे। सुरक्षा करते थे। देश में ऐसी कई पानीदार परंपराएं हैं। राजस्थान में पानी बचाने की समृद्ध परंपरा तो है ही। मध्य प्रदेश के पड़ोसी राज्य छत्तीसगढ़ में भी आज भी तालाब की संस्कृति इसकी मिसाल है।

Visit for Apna Talab Abhiyan Work, 14 august 2014, Mahobaबुंदेलखंड में तालाब की समृद्ध संस्कृति रही है। चंदेल और बुंदेला राजाओं ने अपने समय में सैकड़ों तालाब बनवाए थेे। तालाबों की सौंदर्य छटा तो निराली थी ही, जीवनोपयोगी थे। इससे सैकड़ों परिवार की रोजी-रोटी भी जुड़ी थी। महोबा के चरखारी में ही करीब डेढ़ दर्जन तालाब हैं। इसकी एक अलग पहचान है। इनमें सिंघाडा, कमलगट्टा और मछली पालन होता है। लेकिन जब वे 2007 में सूखने लगे तो लोगों को उनकी उपयोगिता समझ आई और यही से इनकी देखरेख और मरम्मत का सिलसिला चल पड़ा।

तालाब बनाओ अभियान में महोबा के जिलाधिकारी और कृषि विभाग के अफसरों ने खुले दिल से सहयोग दिया। जिलाधिकारी ने यह तय किया कि जो किसान अपने खेत में तालाब बनाएंगे, वहां वे खुद जाएंगे और उस तालाब का उद्घाटन करेंगे। सामाजिक कार्यकर्ता पुष्पेंद्र भाई और इंडिया वाटर पोर्टल (हिंदी) दिल्ली के सिराज केसर ने गांव-गांव जाकर किसानों के साथ बातचीत की। धीरे-धीरे माहौल बदलने लगा। पिछले दो सालों में करीब 400 तालाब बन गए हैं और यह सिलसिला जारी है।

अगर आपके पास कम पानी है या बिल्कुल पानी नहीं है तो आपको खेतों में ऐसे देशी बीज लगाने होंगे जिनमें प्रतिकूल परिस्थितियों में अपने आपको जिंदा रखने की कूबत हो। पानी के परंपरागत स्रोतों को खड़ा करना होगा। जैसा काम राजस्थान, मध्य प्रदेश के देवास के जीवट लोगों ने कर दिखाया है। हमें टिकाऊ और पर्यावरण के संरक्षण वाली खेती की ओर लौटना होगा तभी हम सूखा और बदलते जलवायु बदलाव का मुकाबला कर सकेंगे। बहरहाल, बुंदेलखंड में तालाब संस्कृति का फिर से पुनजीर्वित होना, सराहनीय होने के साथ अनुकरणीय भी है।

Visit for Apna Talab Abhiyan Work, 14 august 2014, Mahoba

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं

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