सूखे की मार

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देश के एक बड़े हिस्से पर सूखे की काली छाया मंडरा रही है। बारिश का मौसम आधा बीतने के बाद ऎसा लग रहा है कि मानसून की समाप्ति सूखे के साथ होगी। समूचे देश में जून में आम तौर पर जितनी बारिश होती है, उसकी आधी ही इस बार हुई। गनीमत रही कि जुलाई में औसत से कुछ ही कम बारिश हुई। अगस्त में अब तक बारिश न के बराबर हुई है। उम्मीद की किरण है कि 15 अगस्त के बाद शायद अच्छी बारिश हो जाए। लेकिन यदि ऎसा नहीं हुआ, तो कुछ क्षेत्रों में हालात गंभीर हो सकते हैं। अगस्त में कुल मानसूनी बारिश की लगभग 30 प्रतिशत बारिश होती है। इस महीने के शुरूआती दिनों में बहुत कम बारिश होने के कारण देशभर में मौसमी बारिश में कमी 25 प्रतिशत तक पहुंच गई है।

पिछले 130 वर्षों के बारिश के आंकड़ों के आधार पर प्रमुख मौसम विज्ञानियों का कहना है कि जून-जुलाई में समूचे देश में यदि 12 प्रतिशत कम बारिश हो तो मानसून के आखिर तक सूखे की संभावना 67 प्रतिशत रहती है।

पिछली सदी के सातवें दशक (1960-69) और 1987 में अपने देश को भीषण सूखा झेलना पड़ा था। तब सरकार ने बड़ी संख्या में राहत शिविर खोलकर जनता की मुश्किलें कम की थीं। सरकार ने रेल टैंकरों से भी पेयजल पहुंचाने की व्यवस्था की थी। उसके बाद से देश ने सूखे जैसी स्थिति का सामना नहीं किया। उस समय जो अकाल नियमावली बनी थी, वह कहीं धूल फांक रही होगी और होगी भी तो वह अब पुरानी पड़ गई होगी।

उत्तर भारत में पिछले 40-42 सालों में साल-दर साल आम तौर पर अच्छी बारिश होती रही है। ऎसा लगता है कि वह समय अब बीत गया है। इस साल कृषि उत्पादन पर मानसून के असर के आसार अच्छे नहीं हैं। ऎसी आशंका है कि चालू खरीफ मौसम फसल को बहुत ज्यादा नुकसान होगा। खरीफ की बुवाई पर बुरा असर पड़ा है इसलिए धान व अन्य फसलों की उपज में भारी गिरावट आ सकती है। खाद्य सामग्री के दाम पहले ही आसमान छू रहे हैं, खराब फसल के कारण दाम और ऊपर जा सकते हैं, जिससे हालात बिगड़ेंगे।प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने स्वयं पुष्टि की है कि पानी की दृष्टि से इस बार 'सूखा' है और इसका असर 141 जिलों पर पड़ रहा है। खेती की दृष्टि से सूखे की पुष्टि सितम्बर तक होगी। हालात गंभीर हैं, यह इस तथ्य से भी स्पष्ट है कि स्वयं प्रधानमंत्री राज्यों के मुख्य सचिवों से मिले और उनसे फसल, पेयजल और जनता व पशुओं के स्वास्थ्य के लिए अविलम्ब आकस्मिक योजना बनाने के लिए कहा। उन्होंने देश को आश्वस्त किया सरकार किसी को भी भूखा नहीं रहने देगी।

पिछले साल सर्दियों से ही ऎसे संकेत मिलने लगे थे कि यदि 2009 में मानसून कमजोर रहा तो हालात विकट हो जाएंगे। वर्ष 2008 की सर्दियों में बारिश सामान्य से कम हुई थी। इस कारण जमीन में नमी पहले ही कम थी। हर बार जून में ही सूखे के संकेत मिलने लगते हैं। इस बार भी ऎसा ही हुआ, फिर आकस्मिक योजनाएं बनाने में देरी क्यों की गईक् सरकार ने आश्वस्त किया है कि अन्न भंडार भरे पड़े हैं। बेशक लोगों में विश्वास कायम करने के लिए तो यह ठीक है, लेकिन जब एक फसल चक्र टूटता है तो राज्यों से मांग एकाएक बढ़ जाती है। ऎसी स्थिति में अन्न भंडार की स्थिति इतनी अच्छी नहीं रहने वाली। केन्द्र ने किसानों को कम पानी की जरू रत वाली फसलें बोने की सलाह दी है। स्पष्ट है कि यह आपात उपाय है क्योंकि हमारी कृषि नीति और समर्थन मूल्य प्रणाली में ऎसी फसलों को कभी बढ़ावा नहीं दिया गया। भारत सीमान्त किसानों का देश है और ऎसे मुश्किल समय में उनकी रक्षा करना बहुत जरूरी है।

आवश्यक वस्तुओं के दाम नित नई ऊंचाइयां छू रहे हैं, इसलिए सरकार की जमाखोरों और सट्टेबाजों से सख्ती से निपटना चाहिए। साथ ही सार्वजनिक वितरण प्रणाली को भी प्रभावी ढंग से काम करने लायक बनाना होगा। सूखा पड़े या न पड़े, यह काम तो बहुत पहले हो जाना चाहिए था।

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