सूखे को कैसे पछाड़ा बागलकोट ने

2 Jul 2015
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ड्राउट प्रूफिंग (सूखा रोधन) हमारे शब्दकोष में हाल में आई नई अवधारणा है। लेकिन यह कौशल बागलकोट जिले के लिये नया नहीं है। स्थानीय किसानों ने जल संरक्षण के लिये ऐसे तमाम तरीके खोजे थे जो कि विशेषज्ञों की जानकारी में भी नहीं थे। यहाँ उनके अपनाए गए तरीकों पर पैनी नजर डाली जा रही है।

जिस सूखे के कारण पूरे राज्य के अन्य जिलों में प्रतिकूल स्थितियाँ बनीं उनसे निपटने के लिये इन गाँवों ने कौन सी प्रणाली अपनाई? दुर्भाग्य से इस बारे में बहुत ही कम जानकारियाँ उपलब्ध हैं। फिर भी अनुभव बताता है कि बागलकोट के गुमनाम से दिखने वाले इन गाँवों में पारम्परिक विवेक मौजूद है जिसके कारण कम वर्षा का भी उन्होंने अधिकतम उपयोग किया और सूखे के असर को नियन्त्रित कर लिया।

कर्नाटक में बागलकोट जिला राज्य में सबसे कम वर्षा यानी 543 मिलीमीटर औसत के रूप में पहचाना जाता है। सरकारी अनुमान के अनुसार 2002-04 के बीच इस जिले में सूखे की स्थितियों और पानी की कमी के कारण 1500 करोड़ रुपए की फसल का नुकसान हुआ।

हालांकि जिले के कुछ गाँव ऐसे हैं जिन्होंने कम वर्षा और सूखे की स्थितियों के विरुद्ध अपने को बचा लिया। हुनागुंडा और बेनाकट्टी तालुका में स्थित इन गाँवों के नाम हैं-बड़वाडागी, चित्तरागी, , रामवाडागी, कराडी, कोडीहाला, इस्लामपुर, नंदवाडागी, केसरभावी।

लेकिन जिस सूखे के कारण पूरे राज्य के अन्य जिलों में प्रतिकूल स्थितियाँ बनीं उनसे निपटने के लिये इन गाँवों ने कौन सी प्रणाली अपनाई? दुर्भाग्य से इस बारे में बहुत ही कम जानकारियाँ उपलब्ध हैं। फिर भी अनुभव बताता है कि बागलकोट के गुमनाम से दिखने वाले इन गाँवों में पारम्परिक विवेक मौजूद है जिसके कारण कम वर्षा का भी उन्होंने अधिकतम उपयोग किया और सूखे के असर को नियन्त्रित कर लिया। स्थानीय स्तर पर इस ज्ञान का इस्तेमाल सूखे से निपटने के लिये पड़ोस के किसान, खेती के सलाहकार और मीडिया के लोग कर सकते हैं। वास्तव में पारम्परिक ज्ञान न सिर्फ जिले या राज्य के लिये, बल्कि देश के लिये भी गौरव का विषय हो सकता है।

सूखा रोधन (ड्राउट-प्रूफिंग) शब्दकोष में आई नई अवधारणा है। लेकिन यह कौशल बागलकोट के लोगों के लिये नया नहीं है। गाँव वालों से सम्पर्क किये जाने पर पता चला कि वर्षों पुराने इस तरीके को समय के साथ लोगों ने पाला है और इसका प्रचार किया है और इस प्रणाली का प्रयोग और प्रभाव वास्तव में चमत्कारी रहा है। स्थानीय समुदाय ड्राउट-प्रूफिंग से सिद्धान्त के सार को बहुत साधारण और सुन्दर ढंग से व्यक्त करता हैः-

1. अर्ध-सूखे की स्थिति में भी 3/8 हिस्सा फसल पैदा कीजिए- मल्लाना नागराल।
2. हम बहुत कुछ नहीं करते। हम सिर्फ यह सुनिश्चित करते हैं कि पानी बह कर चला न जाएः उसे बहने के लिये हमारी अनुमति लेनी चाहिए।- हनुमप्पा मुक्कनवार।
3. बंधा नहीं तो फसल नहीं -थमन्ना बेन्नुर।

हुनागुंडा तालुका की ज़मीन का बड़ा हिस्सा कपास के लिये मुफीद काली मिट्टी का है। ढलान वाली ज़मीन होने के नाते बारिश के पानी के कारण ज़मीन की ऊपरी मिट्टी का बह जाना आम बात है। इसलिये यहाँ मृदा संरक्षण बेहद महत्त्व का है। ढलान पर बहने वाले बारिश के पानी को रोकने के लिये अलग-अलग स्तरों पर बंधे बनाए जाते हैं।

इसका मकसद सारे पानी को रोक लेना नहीं है। जब खेत में अच्छी तरह तरी हो जाती है तो बाकी पानी को अगले खेत में छोड़ दिया जाता है। अतिरिक्त पानी के इस प्रवाह को होलागट्टी कहा जाता है। चूँकि इस दौरान मिट्टी की ऊपरी सतह की कटान नहीं होती इसलिये ढलान पर बहने वाली पानी का आकलन कर लिया जाता है। होलागट्टी के मुहाने का आकार और ऊँचाई की गणना बारिश और ढलान के लिहाज से की जाती है। इसका निर्माण खेत के थोड़े ऊँचे हिस्से में किया जाता है।

इस मुहाने के आधार और किनारों पर पत्थर लगाए जाते हैं। इन उपायों के साथ खेत की ऊपरी सतह के संरक्षण के उपाय किये जाते हैं। कुछ जगहों पर तटबन्ध और खेत के बीच की ऊँचाई ज्यादा होती है। ऐसी जगहों पर गुंडावर्ती नाम से छोटे कुएँ जैसी संरचना का निर्माण किया जाता है। चूँकि गुंडावर्ती का मुँह छोटा होता है इसलिये पानी रोकने के लिये नाली के मुँह पर हर स्तर पर एक पत्थर रखा जाता है।

एक बार जब मिट्टी जरूरत के मुताबिक पानी सोख लेती है तब पत्थर हटा दिया जाता है और पानी को खेत में अगले हिस्से में फिर गुंडावर्ती में बहने दिया जाता है। इस तरह एक छोटे से पत्थर की मदद से पूरे खेत में नमी लाई जाती है। यह प्रक्रिया सबसे निचले स्तर के खेत तक जारी रखी जाती है। इस दौरान जहाँ गुंडावर्ती पानी को जमा करता है वहीं होलागट्टी बंधों के बीच से अतिरिक्त पानी निकालकर दूसरे खेतों को ले जाता है।

सूखे रोधी अन्य उपाय के तहत खेतों को समतल किया जाता है और उन्हें छोटे-छोटे हिस्सों में बाँटा जाता है। ऊँचाई वाले खेतों से निकाली गई मिट्टी का इस्तेमाल निचले स्तर वाले खेतों को ऊँचा करने के लिये किया जाता है। ऊपरी मिट्टी के घूरे बनाए जाते हैं ताकि बारिश के दौरान यह पूरे खेत में बराबरी से बिखर जाए और नमी सुनिश्चित हो जाए। इस प्रकार एक बारिश से अधिकतम लाभ लिया जा सकता है।

एहतियाती उपाय


चूँकि काली मिट्टी में फटने के गुण होते हैं इसलिये बाँध या होलागट्टी खड़ा करने से पहले विशेष ध्यान रखा जाता है क्योंकि दरारों में पानी घुसने से इसके जल्दी ही टूट जाने के खतरे होते हैं। इस काम के लिये बंधे के ऊपरी हिस्से पर बजरी या लाल मिट्टी लगाई जाती है। मिट्टी में गहरी खुदाई करने से भूरे रंग की बजरी मिल जाती है। नए बंधों के लिये यह काम आवश्यक होता है। लाल मिट्टी पास के पहाड़ियों पर मिल जाती है।

बागलकोट के एक किसान मल्लाना चेतावनी देते हैं कि अगर यह एहतियाती उपाय नहीं किया गया तो बंधे बह जाते हैं और बाढ़ आने से तबाही मच जाती है। सावधानी की कमी से बंधों का नुकसान होता है। यह संरचना तब लम्बे समय तक चलती है जब किसान बजरी या लाल मिट्टी का इस्तेमाल कर बंधे को मजबूती प्रदान कर देते हैं। इससे जब तक लाल मिट्टी बहती है तब तक पानी आवश्यक तत्वों के जमा कर लेता है और उसी के साथ खाद भी नहीं बहती और जमीन बेहद उपजाऊ हो जाती है।

इस तरह अगर पानी के बहाव को नियन्त्रित कर लिया जाए और उसे खेत के चारो कोनों में ठीक से पसरने दिया जाए तो वह अपने को एकल विस्तार में व्यवस्थित कर लेता है। इससे खेत एक ही बारिश में सुधर जाता है और अच्छी फसल की गारंटी हो जाती है। अगर ऊँचाई वाली ज़मीन का किसान अपने बंधे की हिफाज़त नहीं कर पाता तो निचले स्तर वाले खेत के किसान को बहुत बढ़िया फसल मिलने की सम्भावना रहती है क्योंकि उसके खेत में सारे पानी के साथ पोषक तत्व और खाद बहकर आ जाती है।

खेत का सामना कर रहे बंधे के ढालू हिस्से पर काली मिट्टी की परत लगाई जाती है। इससे बंधे के किनारों पर अतिरिक्त पानी जमा नहीं हो पाता। समय समय पर ढलान को सँवारा भी जाता है।

बंधे की दीवार की ताकत भी अनुभव का विषय है। कुछ नाले जो 100 से 200 एकड़ जलागम क्षेत्र से पानी ग्रहण करते हैं उनके लिये मजबूत तटबन्धों की जरूरत होती है। कुछ बड़े खेतों को एक से ज्यादा बंधों की जरूरत होती है।एक किसान 30 से 40 एकड़ तक के तटबन्ध बना सकता है। हालांकि जब बड़े जलागम क्षेत्र के कारण पानी की मात्रा बहुत ज्यादा होती है तो आरम्भिक खर्च और रखरखाव का खर्च बहुत ज्यादा होता है।कुछ स्थितियों में जब ज़मीन को बराबर कर दिया जाता है तो नीचे की मिट्टी ऊपर की मिट्टी से मिल जाती है। लेकिन अगर मिट्टी क्षारीय नहीं है तो यह समस्या को तीन से चार साल में दूर कर ली जाती है। पोषक तत्व और खाद डालने से ज़मीन का पुनरुद्धार हो जाता है और उसे उपजाऊ बना लिया जाता है। जरूरत पानी के प्रवाह को नियन्त्रित करने और उसके बराबरी से फैलाने की है।

आजकल जेसीबी मशीन से ज़मीन को समतल करने काम किया जाता है। इस प्रकार तीन महीने का काम तीन दिन में हो जाता है। पर इससे ऊपरी मिट्टी अपनी जगह पर नहीं रह पाती और वह भीतर वाली मिट्टी से मिल जाती है।

परिणाम देने वाला एक अभियान


अगर ड्राउट प्रूफिंग (सूखा रोधन) की अवधारणा देश में नई है तो इन गाँव वालों के पास यह ज्ञान कहाँ से आया? इस ज्ञान की जड़ें नागभूषण शिवायोगी स्वामीजी द्वारा 175 साल पहले लिखे गए ग्रंथ में हैं। तीन पीढ़ियों के अनुभव के आधार पर हुनागुंडा का एक स्थानीय परिवार मिट्टी और पानी के संरक्षण के लिये गाँव-गाँव अभियान चला रहा है। उन्होंने वाकना भी तैयार किये हैं।

मल्लाना के पिता शंकरन्ना ने अपने बनाए हुए सैकड़ों वाकना को गाकर उसके माध्यम से इसका सन्देश फैलाया है। ढलान पर खेती करने और भूक्षरण रोकने के बारे में बनाए गए उनके वाकना लोगों की चेतना को जागृत किया है। महज एक बारिश से अच्छी फसल पैदा करने की स्वामीजी की विशेषज्ञता को शंकरन्ना ने लोकप्रिय बना दिया है। लोगों ने स्वामी जी की इस दलील को आसानी से स्वीकार कर लिया है कि अच्छी बारिश=अच्छी फसल, आधी बारिश=आधी फसल और सूखे के समय यह फसल एक चौथाई भी हो सकती है।

भूक्षरण रोकने की तीन पीढ़ियों की यह मेहनत बेकार नहीं गई है। इन्होंने बंजर ज़मीन को न सिर्फ हरा-भरा किया है बल्कि तालुका के सैकड़ों हजारों परिवारों के लिये आजीविका भी प्रदान की है। शंकरन्ना और मल्लाना के अभियान के प्रयासों का फल है कि मृदा संरक्षण का उपाय जोरों पर है।

लागत और मुनाफे का विश्लेषण


शंकरन्ना के साथ तमाम ऐसे लोग जुड़े हैं जिनके लिये सूखा रोधन एक कौशल वाला व्यवसाय बन गया है। उन्होंने दशकों तक बंधा बनाने का काम किया और आज भी किसान उन्हें अपने काम के लिये बुलाते हैं। इस काम से तालुका के 200-300 परिवारों की नियमित आजीविका चलती है।

इन अनुभवी हाथों की तरफ से किये जाने वाले काम का सालाना वित्तीय मूल्य कितना आँका जा सकता है? तकरीबन 30 लाख।

और इसका मुनाफ़ा कितना आता है? मरियप्पा हांडी का मामला देखिए जिसके पास 10 एकड़ ज़मीन है। पहले वह इस ज़मीन से 2-3 बोरा मक्का ले पाता था। लेकिन शंकरन्ना ने ज़मीन को कुछ दशक पहले सुधार लिया और तब से अब तक बड़ा परिवर्तन हुआ। पिछले साल जब आखिरी बार सूखा पड़ा था तब हांडी के कोठार में 10-12 बोरा अनाज आया।

पूरे तालुका में इस तरह की तमाम कहानियाँ बिखरी हुई हैं। अच्छी वित्तीय स्थिति के लोग बुनियाद वाले बंधे बनाते हैं और बिना बंध वाली ज़मीन बहुत कम होती है। ``यह प्रणाली इस बात की गारंटी करता है कि थोड़ी वर्षा के बावजूद चपटे बंधे पर कुछ नमी रह जाती है। ऐसे में कोई किसान चार-पाँच बोरा फसल के लिये आश्वस्त हो सकता है।’’ एक दूसरा किसान कहता है।

तालुका में ऐसे बहुत कम किसान हैं जिन्होंने अपनी ज़मीन समतल न की हो। ऐसा ज्यादातर खर्च की कमी के कारण होता है न कि प्रणाली में प्रतिबद्धता की कमी के कारण।

बेनाकट्टी का पत्थर का बंधा


बागलकोट से 20 किलोमीटर की दूरी पर स्थित बेनाकट्टी 900 परिवारों की 4000 की आबादी वाला छोटा सा गाँव है। यह तीन वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है और हरा-भरा दृश्य उपस्थित करता है जिससे लगता है कि यह अच्छी तरह से सिंचित है।

यह अपने में आश्चर्यजनक है क्योंकि कुछ ऐसे नालों के सिवा जो सिर्फ बारिश में पहचाने जाते हैं इस गाँव के पास में न तो कोई नदी है न कोई धारा। ऐसा इसलिये क्योंकि किसी ढलान या पहाड़ी से जो पानी रिसकर आता है उसे नाला कहते हैं। पत्थर के बंधे वहाँ बनाए जाते हैं जहाँ पर पानी बड़ी मात्रा में बहता है। इन बंधों की ऊँचाई और चौड़ाई पानी का बहाव देखकर तय की जाती है।

बंधे की दीवार की ताकत भी अनुभव का विषय है। कुछ नाले जो 100 से 200 एकड़ जलागम क्षेत्र से पानी ग्रहण करते हैं उनके लिये मजबूत तटबन्धों की जरूरत होती है। कुछ बड़े खेतों को एक से ज्यादा बंधों की जरूरत होती है।एक किसान 30 से 40 एकड़ तक के तटबन्ध बना सकता है। हालांकि जब बड़े जलागम क्षेत्र के कारण पानी की मात्रा बहुत ज्यादा होती है तो आरम्भिक खर्च और रखरखाव का खर्च बहुत ज्यादा होता है। इसलिये दस एकड़ के करीब ज़मीन वाले किसान को पानी की ज्यादा मात्रा के लिये दूसरा बंधा बनाना अधिक मुनाफ़े का काम होता है।

तमन्ना बेन्नूर एक पोस्ट ग्रेजुएट और गाँव के प्रतिष्ठित किसान हैं। प्यार से ओडिना अन्ना कहे जाने वाले बेन्नूर ने 15 साल पहले इलाके में एक तटबन्ध बनवाया था। आज भी वे अपनी निगरानी में वही काम करते हैं और उन्होंने अब तक 20 तटबन्ध बनवाए हैं। बेनाकट्टी में तटबन्धों की कुल संख्या 300 से ज्यादा हैं और एक पर आने वाले 30,000 से 35,000 खर्च की लागत से यह संख्या एक करोड़ तक जाती है।

अगर किसान इसे एक साल में नहीं बनवा सका तो इसके समय को बढ़ाकर दो साल तक ले जाता है। तमन्ना कहता है, “हालांकि इसे बनाना महंगा पड़ता है लेकिन एक बार बन जाने के बाद तटबन्ध से कई सालों के लिये जीवन बेहतर हो जाता है।’’ वे कहते हैं “बंधे हमारे जीवन के अविभाज्य अंग हैं। यहाँ तक कि हमारे गाँव के बच्चे भी सहमत हैं कि यह हमारे जीवन का आधार हैं। इसीलिये हर कोई इसे बनाए रखने में गहरी रुचि रखता है।’’

पारम्परिक जल और मृदा संरक्षण उपाय हमारे गाँवों से तेजी से गायब हो रहे हैं और आजकल वे दुर्लभ हो गए हैं। लेकिन बेनाकट्टी अभी भी अपने तटबन्धों के लिये गहरी श्रद्धा रखता है।

पुराने और नए


मुट्टनगोडारा यंकनगौडा द्वारा बनाया गया तटबन्ध बारिश के पानी का सामना करने को तैयार है। हालांकि उसके पास 16 एकड़ जमीन (ज्यादातर लाल मिट्टी वाली) है लेकिन उसकी ज़मीन में तकरीबन सौ एकड़ से पानी प्राप्त होता है। यहाँ पत्थर के दो तटबन्ध हैं और एक छोटा सा बंध है जो काफी पुराना है। नए बंधे तकरीबन 300 फुट लम्बे और सात फुट ऊँचे हैं।

बागलकोट की ड्राउट-प्रूफिंग बारिश पर निर्भर सभी किसानों के लिये आजीविका की गारंटी देता है। यहाँ के किसान सम्भवतः सूखे का मुकाबला करने के लिये किसी सरकारी मदद के बिना देश के किसी अन्य गाँव के मुकाबले ज्यादा खर्च करते हैं। वास्तव में सरकार को इस बात की जानकारी ही नहीं रहती कि किसान कितना व्यापक काम करते हैं और उसके नतीजतन कितनी समृद्धि हासिल करती हैं।होलागट्टी की चौड़ाई 30 फुट और पास के पत्थर के दीवार की मोटाई आठ फुट है। दीवार ऊपर की ओर पतली होती जाती है और शिखर पर इसकी मोटी दो फुट तक हो जाती है। पुराने बांध की लागत 10,000 रुपए आई थी लेकिन अब वह इस्तेमाल में नहीं है। जबकि नए बाँध की लागत 80,000 रुपए है। मुत्तनगोडावारा कहते हैं कि अगर अच्छी फसल हो जाए तो वे बाँध में लगी लागत को चार साल में वापस पा सकते हैं।

हालांकि यह सही है लेकिन सवाल है कि क्यों हुनागुंडा के मिट्टी के तटबन्ध काली मिट्टी वाले दूसरे इलाके के तटबन्धों से अलग हैं? क्या वास्तव में उन्हें महंगे पत्थर के तटबन्धों की जरूरत है? तमन्ना बताते हैं कि यहाँ भी कुछ जगहों पर मिट्टी के तटबन्ध हैं लेकिन वे वहाँ उपयुक्त हैं जहाँ पर पानी की दबाव कम होता है।

अगर पानी का दबाव बढ़ता है तो उन तटबन्धों में लगातार मरम्मत की जरूरत होती है जो कि लगातार खर्च माँगता है। पत्थर का तटबन्ध एक ऐसे समतल खेत की गारंटी करता है जहाँ फसल कम बारिश से भी पैदा हो जाती है और सामान्य दिनों में अच्छी फसलें पाई जा सकती हैं।

सीखने लायक पाठ


बागलकोट की ड्राउट-प्रूफिंग (सूखा रोधन) बारिश पर निर्भर सभी किसानों के लिये आजीविका की गारंटी देता है। यहाँ के किसान सम्भवतः सूखे का मुकाबला करने के लिये किसी सरकारी मदद के बिना देश के किसी अन्य गाँव के मुकाबले ज्यादा खर्च करते हैं। वास्तव में सरकार को इस बात की जानकारी ही नहीं रहती कि किसान कितना व्यापक काम करते हैं और उसके नतीजतन कितनी समृद्धि हासिल करती हैं।

हालांकि तटबन्ध खड़े करते समय क्या किया जाए और क्या न किया जाए इस बारे में एक व्यापक दस्तावेजीकरण जरूरी है। इसके बारे में एक ऐसी पुस्तिका प्रकाशित करनी चाहिए जिसे हर कोई खरीद सके और एक वृत्तचित्र भी उपयोगी हो सकती है। ज्ञान जो कि एक मौखिक परम्परा के तहत एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित होता है, उसे गायब नहीं होने देना चाहिए। केरल जैसे राज्यों में जहाँ मीडिया ज्यादा सक्रिय है इस तरह का जन उपयोगी ज्ञान कभी पृष्ठभूमि में नहीं जाने पाता।

राज्य प्रशासन, सरकार और विकास के विशेषज्ञों को इस सच्चाई का अहसास होना चाहिए कि इस तरह की सूखा रोधी प्रणाली मिट्टी से निकली है और इसने सदियों के अभाव और चुनौतियों को देखा है और उसके साथ जरूरत के मुताबिक तालमेल बनाया है। इसलिये बंगलुरु और दिल्ली के वातानुकूलित दफ्तरों में बैठकर समाधान के बारे में सोचना उचित नहीं है।

इन योजनाकारों को समस्या का सामना करने वाली जनता से घुल-मिलकर समाधान के लिये शोध और विकास के माध्यम से उन्हें विश्वास में लेना चाहिए। जब आम आदमी ने अपनी तकनीक से यह साबित किया कि सिर्फ एक अच्छी बारिश में भी अच्छी फसल पैदा की जा सकती है तो उसे न तो प्रचारित किया जाता है न ही पुरस्कृत। बल्कि सेमीनार करने और शोध करने पर भारी धन व्यय किया जाता है।

लेकिन इस स्थिति को बदला जा सकता है। मल्लाना ने अपने वाकना के माध्यम से तटबन्ध के महत्त्व को साबित किया है, “तटबन्ध के बिना खेत वैसे ही है जैसे बाँझ भैंस।’’ कुछ किसान सौभाग्यशाली होते हैं कि उन्हें पहाड़ियों से बारिश और सतह की मिट्टी मिल जाती है और दूसरे के खेतों से पानी भी, जबकि कई किसान ऐसे होते हैं जिन्हें उसी पानी से सन्तोष करना पड़ता है जो उनके खेतों में इकट्ठा होता है। मल्लाना विश्वास के साथ कहते हैं, “मामला चाहे जैसा हो, कोई भी किसान फसल उगा सकता है, अगर वह बारिश के पानी और सतह की मिट्टी को बचाकर रख लेता है। इसके लिये तटबन्ध सर्वाधिक आवश्यक है।’’

मल्लाना और तमन्ना जैसे अनुभवी लोग हर जगह पाए जा सकते हैं और उसी सिद्धान्त के आधार पर सूखे इलाके में जल और मृदा संरक्षण की पद्धतियाँ बनाई जा सकती हैं। इनमें कई परिवर्तन किये जा सकते हैं और कुछ जगहों पर पायलट अध्ययन के माध्यम से धरती को समृद्ध करने और सिंचित करने के उपयुक्त प्रयास जारी रखे जा सकते हैं।

शैलजा डीआर एक लेखक हैं जिनकी विकास सम्बन्धी मामलों में गहरी रुचि है। हालांकि वर्षा से समृद्ध मलनाड इलाके से सम्बन्धित हैं, लेकिन उन्होंने सूखा प्रभावित क्षेत्र में तमाम कृषि व्यवहारों का अध्ययन करने के लिये अपने को समर्पित किया है।

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