सुविधा के साथ संकट बना प्लास्टिक

प्लास्टिक कचरा
प्लास्टिक कचरा

रसायनों से पहले प्लास्टिक का निर्माण प्रथम विश्वयुद्ध से पहले एल.एच. बैक लैंड नामक रसायनशास्त्री ने किया था। इस प्लास्टिक का नाम इन्हीं के नाम पर बेकेलाइट रखा गया। बेकेलाइट फेनॉल और फार्मोल्डिहाइड के संयोग से बनता है। बेकेलाइट से बनने वाली वस्तुओं का रंग गाढ़ा लाल, भूरा एवं काला होता है। इसका उपयोग तमाम वस्तुओं के निर्माण में किया जा रहा है। इस पर नित नए प्रयोग और अनुसन्धान हो रहे हैं, इसलिये नए-नए रूपों में प्लास्टिक मनुष्य जीवन का अभिन्न अंग बनता जा रहा है। मानव जीवनशैली का अनिवार्य हिस्सा बन गया प्लास्टिक जल, थल और नभ के लिये जबरदस्त पर्यावरणीय संकट बनकर पेश आ रहा है। हिमालय से लेकर धरती का हर एक जलस्रोत इसके प्रभाव से प्रदूषित है। वैज्ञानिकों का तो यहाँ तक दावा है कि अन्तरिक्ष में कबाड़ के रूप में जो 17 करोड़ टुकड़े इधर-उधर भटक रहे हैं, उनमें बड़ी संख्या प्लास्टिक के कल-पुर्जों की है। ये टुकड़े सक्रिय उपग्रहों से टकराकर उन्हें नष्ट कर सकते हैं। नए शोधों से पता चला है कि अकेले आर्कटिक सागर में 100 से 1200 टन के बीच प्लास्टिक हो सकता है। एक और नए ताजा शोध से ज्ञात हुआ है कि दुनिया भर के समुद्रों में 50 प्रतिशत कचरा केवल उन कॉटन बड्स का है, जिनका उपयोग कान की सफाई के लिये किया जाता है।

इन अध्ययनों से पता चला है कि 2050 आते-आते समुद्रों में मछलियों की तुलना में प्लास्टिक कहीं ज्यादा होगा। भारत के समुद्रीय क्षेत्रों में तो प्लास्टिक का इतना अधिक मलबा एकत्रित हो गया है कि समुद्री जीव-जन्तुओं को जीवनयापन करना संकट साबित होने लगा है। लेकिन प्लास्टिक इतना लाभदायी है कि इसके अपशिष्ट का समुचित प्रबन्धन हो जाये तो इससे सड़कें और ईंधन तक बनाया जा सकता है। बावजूद यदि प्लास्टिक के अवशेष बचते हैं तो इन्हें जीवाणुओं से नष्ट किया जा सकता है।

ऐसे बनता है प्लास्टिक


विश्व में प्लास्टिक के बढ़ते उपयोग से प्रत्येक देश चिन्तित और पीड़ित है। बावजूद प्लास्टिक है कि आम से खास लोगों की दिनचर्या में शुमार हो गया है। दैनिक उपयोग की वस्तुओं से लेकर संचार, वाहन, भवन निर्माण और अन्तरिक्ष यानों तक में इसका भरपूर इस्तेमाल हो रहा है। अन्तरिक्ष यानों में फ्लूरोप्लास्टिक का प्रयोग किया जाता है, क्योंकि यह 275 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान पर भी पिघलता नहीं है।

पैकेजिंग के लिये जिस प्लास्टिक का प्रयोग होता है, उसे पॉलिस्टरीन कहते हैं। थैलियाँ, पैकेट और डब्बे इसी पॉलिस्टरीन से बनते हैं। विनाइल प्लास्टिक का प्रयोग हैंड बैग, शॉवर, पर्दे और शीट कवर में किया जाता है। फार्मिका प्लास्टिक टेबल पर लगाई जाती है, जिससे टेबल ताप अवरोधक बन जाती है। दीवारों पर जो प्लास्टिक पेंट होता है, वह अल्काइड और एक्रिलिक प्लास्टिक होता है। इसी के प्रयोग से दीवारें चमकदार और वाटरप्रूफ बनती हैं। पारदर्शी प्लास्टिक को पर्सपेक्स प्लास्टिक कहते हैं। यह काँच की जगह प्रयोग में लाया जाता है। सिनेमा की फिल्म और कैसेट की रील जिस प्लास्टिक से बनती है, उसे सेल्युलॉयड प्लास्टिक कहते हैं। साफ है, प्लास्टिक का उपयोग हर जगह बढ़ गया है, इसलिये जरूरी है कि हम इसके निर्माण की प्रक्रिया को जान लें।

प्लास्टिक ऐसा पदार्थ है, जिसे गर्म करने पर उसमें मुलामियत आ जाती है। इस स्थिति में उस पर दबाव डालकर उसे मनचाहे आकार-प्रकार में ढाल लिया जाता है। ठंडा होने पर इसका आकार स्थिर रहता है। प्लास्टिक का मुख्य तत्व कॉर्बन है। कॉर्बन एक ऐसा तत्व है, जो लम्बी शृंखला वाले विभिन्न तरह के अनेक कॉर्बनिक का निर्माण करता है। मनुष्य ने पहला प्लास्टिक आज से लगभग 125 वर्ष पहले बनाया था, जिसे सेल्युलॉयड नाम दिया गया। इसका निर्माण पेपर-पल्प और कॉटन (रूई) फाइबर से प्राप्त हुए सेल्युलोज से किया गया था।

सेल्युलोज एक जटिल सरंचना वाला कॉर्बनिक यौगिक है। इसे गर्म करने पर साधारण कॉर्बनिक सरंचना वाले पदार्थ प्राप्त होते हैं। जब इनकी रासायनिक क्रिया नाइट्रिक अम्ल से कराई जाती है तो नाइट्रो-सेल्युलोज नामक पदार्थ प्राप्त होता है। इसे अम्ल से अलग कर धो व सुखाकर इसमें कपूर मिलाते हैं। इस प्रक्रिया से एक नया पदार्थ बनता है, जो गर्म करने पर मुलायम और चिकना हो जाता है। इसका धन बनाया जाता है, जिससे चादरें काटी जाती हैं। फिर इसकी छड़ें बनाई जाती हैं। सेल्युलाइड प्लास्टिक का यही आरम्भिक स्वरूप है। इसे प्रकृति प्रदत्त प्लास्टिक भी कहते हैं। प्लास्टिक का ठीक से उपयोग 1940 से शुरू हुआ।

प्रयोगशाला में रसायनों से पहले प्लास्टिक का निर्माण प्रथम विश्वयुद्ध से पहले एल.एच. बैक लैंड नामक रसायनशास्त्री ने किया था। इस प्लास्टिक का नाम इन्हीं के नाम पर बेकेलाइट रखा गया। बेकेलाइट फेनॉल और फार्मोल्डिहाइड के संयोग से बनता है। बेकेलाइट से बनने वाली वस्तुओं का रंग गाढ़ा लाल, भूरा एवं काला होता है। इसका उपयोग तमाम वस्तुओं के निर्माण में किया जा रहा है। इस पर नित नए प्रयोग और अनुसन्धान हो रहे हैं, इसलिये नए-नए रूपों में प्लास्टिक मनुष्य जीवन का अभिन्न अंग बनता जा रहा है।

अन्तरिक्ष में प्लास्टिक का कचरा


एक अनुमान के मुताबिक प्रति वर्ष 31.1 करोड़ टन प्लास्टिक का उत्पादन किया जाता है। यही वजह है कि समूचा ब्रह्माण्ड प्लास्टिक कचरे की चपेट में है। मानव विकास और उन्नत विज्ञान की चाहत में हर देश अन्तरिक्ष में उपग्रह भेजने में लगा है। भारत ने तो एक साथ अन्तरिक्ष में 104 उपग्रह स्थापित कर विश्व कीर्तिमान स्थापित किया है। यही लालसा और होड़ मनुष्य को भारी पड़ रही है। पुराने अन्तरिक्ष यान और उपग्रह कबाड़ के रूप में आकाश में भटक रहे हैं। वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि अन्तरिक्ष का यह कबाड़ खतरा साबित हो सकता है।

एक अनुमान के अनुसार अन्तरिक्ष में कबाड़ के रूप में 17 करोड़ टुकड़े तैर रहे हैं, जो किसी भी समय सक्रिय उपग्रहों से टकराकर उन्हें नष्ट कर सकते हैं। इन टुकड़ों से अन्तरराष्ट्रीय अन्तरिक्ष स्टेशन के नष्ट होने का भी खतरा है। ऐसा होने पर यह विश्व अर्थव्यवस्था कोे विनाशकारी साबित हो सकता है। दरअसल अन्तरिक्षयानों में फ्लूरोप्लास्टिक का प्रयोग किया जाता है। इसकी यह विशिष्टता होती है कि यह 275 डिग्री सेंटीग्रेड उच्च तापमान पर भी पिघलता नहीं है। इसलिये इनका अस्तित्व रॉकेट के नष्ट हो चुकने के बाद भी बना रहता है।

जब भी हम प्लास्टिक के खतरनाक पहलुओं के बारे में सोचते हैं, तो एक बार अपनी उन गायों की ओर जरूर देखते हैं, जो कचरे में मुँह मारकर पेट भरती दिखाई देती हैं। पेट में पॉलिथीन जमा हो जाने के कारण मरने वाले पशुधन की मौत की खबरें भी आये दिन आती रहती हैं। यह समस्या भारत की ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया की है। यह बात भिन्न है कि यह हमारे यहाँ ज्यादा और खुलेआम दिखाई देती है। एक तो इसलिये कि स्वच्छता अभियान कई रूपों में चलाए जाने के बावजूद प्लास्टिक की थैलियों में भरा कचरा शहर, कस्बा और गाँव की बस्तियों के नुक्कड़ों पर जमा मिल जाता है।पुराने रॉकेटों और व्यर्थ हो चुके उपग्रहों का मलबा बहुत तेज गति से पृथ्वी की कक्षा में घूमता है। इसमें वातावरण की ऊपरी सतह को बेकार करने की क्षमता होती है। वर्तमान समय में अन्तरिक्ष की कक्षा में 3000 से अधिक उपग्रह सक्रिय हैं। ये मानव समाज के लिये आवश्यक हैं, क्योंकि इनके माध्यम से जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को देखने से लेकर रक्षा प्रयोजनों की निगरानी भी की जाती है। कक्षा में सक्रिय इन उपग्रहों की कीमत लगभग 33 लाख करोड़ रुपए है।

ऑस्ट्रेलियाई ‘स्पेस एनवायरनमेंट रिसर्च सेंटर’ के सीईओ बेन ग्रीन का कहा है, ‘वहाँ इतना मलबा है कि वह आपस में ही टकरा रहा है। साथ ही इकट्ठा होकर कबाड़ की संख्या बढ़ा रहा है। अब यह आशंका बढ़ रही है कि कचरा आपस में टकराकर अन्तरिक्ष की कक्षा में परिक्रमा कर रहे उपग्रहों को कहीं नष्ट न कर दें?’ अन्तरिक्ष कबाड़ के रूप में 17 करोड़ टुकड़ों में से अब तक महज 22000 टुकड़ों की ही पहचान हुई है।

समुद्र में प्लास्टिक कचरा


जब भी हम प्लास्टिक के खतरनाक पहलुओं के बारे में सोचते हैं, तो एक बार अपनी उन गायों की ओर जरूर देखते हैं, जो कचरे में मुँह मारकर पेट भरती दिखाई देती हैं। पेट में पॉलिथीन जमा हो जाने के कारण मरने वाले पशुधन की मौत की खबरें भी आये दिन आती रहती हैं। यह समस्या भारत की ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया की है। यह बात भिन्न है कि यह हमारे यहाँ ज्यादा और खुलेआम दिखाई देती है। एक तो इसलिये कि स्वच्छता अभियान कई रूपों में चलाए जाने के बावजूद प्लास्टिक की थैलियों में भरा कचरा शहर, कस्बा और गाँव की बस्तियों के नुक्कड़ों पर जमा मिल जाता है। यही बचा-खुचा कचरा नालियों से होता हुआ नदी, नालों, तालाबों से बहकर समुद्र में पहुँच जाता है। इसीलिये आर्कटिक सागर के बारे में आया ताजा अध्ययन चौंकाता है। इस अध्ययन से ज्ञात हुआ है कि 2050 तक इस सागर में मछलियों की तुलना में प्लास्टिक के टुकड़े कहीं ज्यादा संख्या में तैरते दिखाई देंगे।

साइंस एडवांसेज नामक शोध


पत्रिका में छपे इस अध्ययन में बताया है कि आर्कटिक समुद्र के बढ़ते जल में इस समय 100 से 1200 टन के बीच प्लास्टिक हो सकता है। वैसे जेआर जाम बैक का दावा है कि समुद्र की तलहटी में 5 खरब प्लास्टिक के टुकड़े जमा हैं। यही वजह है कि समुद्री जल में ही नहीं मछलियों के उदर में भी ये टुकड़े पाये जाने लगे हैं। सबसे ज्यादा प्लास्टिक ग्रीनलैंड के पास स्थित समुद्र में मौजूद हैं।

इस सब के बावजूद आर्कटिक सागर की गिनती फिलहाल सबसे ज्यादा प्रदूषित समुद्रों में नहीं होती है। ऐसा इसलिये है, क्योंकि इस समुद्र में विशाल बर्फीले हिमखण्डों की परत बिछी हुई है। इस कारण प्लास्टिक कचरा इन हिमखण्डों के नीचे लम्बे समय तक दबा रहकर तलहटी में समा जाता है। हालांकि बढ़ते वैश्विक तापमान का असर इन हिमखण्डों पर लगातार पड़ रहा है। इस कारण ये हिमखण्ड पिघलकर संकुचित भी हो रहे हैं। वैज्ञानिकों ने ये अनुमान भी लगाए हैं कि यदि ये हिमखण्ड पिघले तो कई द्वीप और देश पूरी तरह डूब जाएँगे।

प्लास्टिक की समुद्र में भयावह उपलब्धि की चौंकाने वाली रिपोर्ट ‘यूके नेशनल रिसोर्स डिफेंस काउंसिल’ ने भी जारी की है। इस रिपोर्ट के मुताबिक प्रत्येक वर्ष दुनिया भर के सागरों में 14 लाख टन प्लास्टिक विलय हो रहा है। सिर्फ इंग्लैंड के ही समुद्रों में 50 लाख करोड़ प्लास्टिक के टुकड़े मिले हैं। प्लास्टिक के ये बारीक कण (पार्टीकल) कपास-सलाई (कॉटन-बड्स) जैसे निजी सुरक्षा उत्पादों की देन हैं। ये समुद्री सतह को वजनी बनाकर इसका तापमान बढ़ा रहे हैं। समुद्र में मौजूद इस प्रदूषण के समाधान की दिशा में पहल करते हुए इंग्लैंड की संसद ने पूरे देश में पर्सनल केयर प्रोडक्ट के प्रयोग पर प्रतिबन्ध का प्रस्ताव पारित किया है। इसमें खासतौर से उस कपास-सलाई का जिक्र है, जो कान की सफाई में इस्तेमाल होती है।

प्लास्टिक की इस सलाई में दोनों और रुई के फोहे लगे होते हैं। इस्तेमाल के बाद फेंक दी गई यह सलाई सीवेज के जरिए समुद्र में पहुँच जाती हैं। गोया, ताजा अध्ययनों से जो जानकारी सामने आई है, उसमें दावा किया गया है कि दुनिया के समुद्रों में कुल कचरे का 50 फीसदी इन्हीं कपास-सलाईयों का है। इंग्लैंड के अलावा न्यूजीलैंड और इटली में भी कपास-सलाई को प्रतिबन्धित करने की तैयारी शुरू हो गई है।

दुनिया के 38 देशों के 93 स्वयंसेवी संगठन समुद्र और अन्य जलस्रोतों में घुल रही प्लास्टिक से छुटकारे के लिये प्रयत्नशील हैं। इनके द्वारा लाई गई जागरुकता का ही प्रतिफल है कि दुनिया की 119 कम्पनियों ने 448 प्रकार के व्यक्तिगत सुरक्षा उत्पादों में प्लास्टिक का प्रयोग पूरी तरह बन्द कर दिया है। अपनी नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए आठ यूरोपीय देशों में जॉनसन एंड जॉनसन भी कपास-सलाई की बिक्री बन्द करने जा रही है।

भारतीय राष्ट्रीय समुद्र विज्ञान संस्थान (एनआईओ) के एक अध्ययन के अनुसार मानसून के दौरान समुद्री तटों से बहकर समुद्र में समा जाने वाला प्लास्टिक कबाड़ समुद्री जीवों के लिये खतरा बन रहा है। गोवा स्थित एनआईओ के वैज्ञानिकों और शोधार्थियों की ओर से एक शोध-पत्र प्रस्तुत किया गया है। इसके अनुसार जहाजरानी मार्गों से गुजरने के दौरान जहाजों से गिरने वाला प्लास्टिक और भूल से समुद्र में गिर जाने वाला सामान, तटीय पर्यावरण को बड़ा नुकसान पहुँचा रहा है। मानसून के दौरान बरसात के पानी के साथ बहकर चला आने वाला प्लास्टिक कचरा समुद्री जीवों के लिये बड़ा हानिकारक है। इस प्लास्टिक की वजह से दुनिया में 1200 से ज्यादा समुद्री जीवों की प्रजातियाँ खतरें में हैं। भारत के मुम्बई, अण्डमान-निकोबार और केरल के समुद्री तट सबसे ज्यादा प्रदूषित हैं।

प्रदूषण से जुड़े अध्ययन यह तो अगाह कर रहे हैं कि प्लास्टिक कबाड़ समुद्र द्वारा पैदा किया हुआ नहीं है। यह हमने पैदा किया है, जो विभिन्न जल-धाराओं में बहता हुआ समुद्र में पहुँचा है। इसलिये अगर समुद्र में प्लास्टिक कम करना है तो हमें धरती पर इसका इस्तेमाल कम करना होगा। समुद्र का प्रदूषण दरअसल हमारी धरती के ही प्रदूषण का विस्तार है, किन्तु यह हमारे जीवन के लिये धरती के प्रदूषण से कहीं ज्यादा खतरनाक साबित हो सकता है। आर्कटिक सागर के बाबत जो अध्ययन हुआ है, वैसे ही अध्ययन हिन्द, प्रशान्त और अरब सागर के साथ बंगाल की खाड़ी का भी होना चाहिए। इससे समुद्र में बढ़ते प्रदूषण की और वास्तविकता सामने आएगी।

प्लास्टिक कबाड़ से छुटकारे के उपाय


विश्व आर्थिक संगठन के अनुसार दुनिया भर में हर साल 311 टन प्लास्टिक बनाया जा रहा है। इसमें से केवल 14 प्रतिशत प्लास्टिक को पुनर्चक्रित करना सम्भव हुआ है। भारत के केन्द्रीय रसायन एवं उर्वरक मंत्रालय महानगरों में प्लास्टिक कचरे का पुनर्चक्रण कर बिजली और ईंधन बनाने में लगा है। साथ ही प्लास्टिक के चूर्ण से शहरों और ग्रामों में सड़कें बनाने में सफलता मिल रही है।

आधुनिक युग में मानव की तरक्की में प्लास्टिक ने अमुल्य योगदान दिया है। इसलिए कबाड़ के रूप में जो प्लास्टिक अपशिष्ट बचता है, उसका पुनर्चक्रण करना जरूरी है। क्योंकि प्लास्टिक के यौगिकों की यह खासियत है कि ये करीब 400 साल तक नष्ट नहीं होते हैं। इनमें भी प्लास्टिक की ‘पोली एथलीन टेराप्थलेट’ ऐसी किस्म है, जो इससे भी ज्यादा लम्बे समय तक जैविक प्रक्रिया शुरू होने के बावजूद नष्ट नहीं होती है। इसलिये प्लास्टिक का पुनर्चक्रण कर इससे नए उत्पाद बनाने और इसके बाद भी बचे रह जाने वाले अवशेषों को जीवाणुओं के जरिए नष्ट करने की जरूरत है।

मदुरै के अभियांत्रिकी महाविद्यालय में रसायनशास्त्र के प्राध्यापक राजगोपाल वासुदेवन ने प्लास्टिक अपशिष्ट से सड़क निर्माण के लिये चूर्ण का आविष्कार किया है। 2002 में उन्होंने इस प्रौद्योगिकी का पेंटेट भी करा लिया है। राष्ट्रीय ग्राम सड़क विकास अभिकरण ने इसी चूर्ण से सड़कें बनाने का निर्णय लिया है। अब तक मध्य प्रदेष, महाराष्ट्र और झारखण्ड में 16 हजार किमी से ज्यादा लम्बी सड़कें बन भी चुकी हैं। भारतीय ग्रामों में कुल 24.5 लाख किमी सड़कें हैं। यदि प्लास्टिक के अपशिष्ट से ये सड़कें बनें तो 24.5 लाख टन डामर बचेगा।यदि भारत में कचरा प्रबन्धन सुनियोजित और कचरे का पुनर्चक्रण उद्योगों की शृंखला खड़ी करके शुरू हो जाये तो इस समस्या का निदान तो सम्भव होगा ही रोजगार के नए रास्ते भी खुलेंगे। भारत में जो प्लास्टिक कचरा पैदा होता है, उसमें से 40 प्रतिशत का आज भी पुनर्चक्रण नहीं हो पा रहा है। यही नालियों सीवरों और नदी-नालों से होता हुआ समुद्र में पहुँच जाता है। प्लास्टिक की विलक्षणता यह भी है कि इसे तकनीक के मार्फत पाँच बार से भी अधिक मर्तबा पुनर्चक्रित किया जा सकता है। इस प्रक्रिया के दौरान इससे वैक्टो ऑयल भी सह उत्पाद के रूप में निकलता है, इसे डीजल वाहनों में ईंधन के रूप में प्रयोग किया जा सकता है। अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया और जापान समेत अनेक देश इस कचरे से ईंधन प्राप्त कर रहे हैं।

ऑस्ट्रेलियाई पायलेट रॉसेल ने तोे 16 हजार 898 किमी का सफर इसी ईंधन को विमान में डालकर सफर करके विश्व-कीर्तिमान स्थापित किया है। इस यात्रा के लिये पाँच टन बेकार प्लास्टिक को विशेष तकनीक द्वारा गलाकर एक हजार गैलन में तब्दील किया गया। फिर एकल इंजन वाले 172 विमान द्वारा सिडनी से आरम्भ हुआ सफर एशिया, मध्य एशिया और यूरोप को नापते हुए छह दिन में लंदन पहुँचकर समाप्त हुआ। प्रतिदिन लगभग 2500 किमी का सफर 185 किमी प्रति घंटा की रफ्तार से तय किया गया। भारत में भी प्लास्टिक से ईंधन बनाने का सिलसिला शुरू हो गया है। किन्तु अभी प्रारम्भिक अवस्था में है।

ग्वालियर के जीवाजी विश्वविद्यालय के अभियांत्रिकी विभाग ने प्लास्टिक कचरे से पेट्रोल निर्माण में सफलता प्राप्त की है। प्रयोगशाला में किये प्रयोग से प्राप्त निष्कर्ष की मानें तो 10 किलोग्राम उपयोग में लाई जा चुकी पॉलिथीन से एक से डेढ़ लीटर पेट्रोल बनाए जा सकता है। यह आज के पेट्रोल मूल्य से करीब चार गुना सस्ता होगा। ‘इंटरनेशनल जनरल ऑफ केमिकल रिसर्च‘ में प्रकाशित हुए इस शोध के प्रमुख डॉ. डीसी तिवारी ने तो यहाँ तक दावा किया है कि यह पेट्रोल करीब-करीब सौ फीसदी प्रदूषण मुक्त है।

पेट्रोल बनाने की इस प्रक्रिया में प्लास्टिक को उत्प्रेरक के साथ 280 डिग्री से 800 डिग्री सेल्सियस तक गर्म किया जाता है। इस क्रिया को ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में किया गया। नतीजतन प्लास्टिक गर्म होकर वाष्प में बदल गई। वाष्प को कंडेसर की मदद से ठंडा किया तो यह संघनित होकर कच्चे तेल जैसे पदार्थ में बदल जाता है। इस क्रिया से सम्मिश्रण से पेट्रोल, डीजल और केरोसिन आवसन (डिस्टीलेशन) द्वारा प्राप्त किये गए। साफ है, पॉलिथीन को लेकर प्रदूषण सम्बन्धी दुष्प्रचार चाहे जितना किया जाये, उसके अपने महत्त्व भी हैं।

प्लास्टिक से सड़क का निर्माण


मदुरै के अभियांत्रिकी महाविद्यालय में रसायनशास्त्र के प्राध्यापक राजगोपाल वासुदेवन ने प्लास्टिक अपशिष्ट से सड़क निर्माण के लिये चूर्ण का आविष्कार किया है। 2002 में उन्होंने इस प्रौद्योगिकी का पेंटेट भी करा लिया है। राष्ट्रीय ग्राम सड़क विकास अभिकरण ने इसी चूर्ण से सड़कें बनाने का निर्णय लिया है। अब तक मध्य प्रदेष, महाराष्ट्र और झारखण्ड में 16 हजार किमी से ज्यादा लम्बी सड़कें बन भी चुकी हैं।

भारतीय ग्रामों में कुल 24.5 लाख किमी सड़कें हैं। यदि प्लास्टिक के अपशिष्ट से ये सड़कें बनें तो 24.5 लाख टन डामर बचेगा। इससे 12,250 करोेड़ रुपए की बचत होगी। हर साल ग्रामीण सड़कों पर 22,500 करोड़ रुपए खर्च होते हैं, लेकिन 20,000 करोड़ की सड़कें ध्वस्त हो जाती हैं। प्लास्टिक से बनी सड़कों से यह नुकसान भी कम हो जाएगा। भारत में प्लास्टिक के पुनर्चक्रण की प्रक्रिया शुरू होने के बाद उम्मीद जताई जा रही है कि 2018 में प्लास्टिक का बाजार, प्रसंस्करण सामग्री के रूप में 18 लाख मीट्रिक टन तक पहुँच जाएगा।

जीवाणु दिलाएगा प्लास्टिक के अपशिष्ट से मुक्ति


हम सब यह भली-भाँति जानते हैं कि अन्ततः हम किसी नई वस्तु का निर्माण प्रकृति में उपलब्ध तत्वों का कायान्तरण करके ही करते हैं। इसलिये इन तत्वों से निर्मित वस्तु के बाद जो भी अपशिष्ट बचते हैं, प्रकृति भी उसे प्राकृतिक रूप से नष्ट करने की व्यवस्था करती है, जिससे प्रकृति का सन्तुलन बना रहे। कुछ साल पहले वैज्ञानिकों ने ऐसे फंगस पाये थे, जो प्लास्टिक को नष्ट करने की क्षमता रखते थे। अब जापानी वैज्ञानिकों ने ऐसे जीवाणु (बैक्टीरिया) खोजे हैं, जो प्लास्टिक अपशिष्ट को और तीव्रता से नष्ट करते हैं।

जापान के क्योटो इंस्टीट्यूट ऑफ प्रौद्योगिकी के कोडियो-ओडा के समूह ने इस जीवाणु की खोज की है। ‘साइंस’ जनरल के मुताबिक इसका नाम इडियोनेला सेकेन्सिस है। ये जीवाणु पतली फिल्म वाली प्लास्टिक को 30 डिग्री सेल्सियस के तापमान पर छह सप्ताह में खत्म कर देते हैं। इनके शरीर से निकलने वाले एंजाइम इसे टेरेप्थौलिक अम्ल और एथलीन ग्यालकोल में बदल देते हैं। इस रूप में ये पर्यावरण के लिये हानिकारक नहीं रह जाते हैं। जीवाणु इन्हें पचाने में भी सक्षम होते हैं। बहरहाल प्लास्टिक अपशिष्ट का सुनियोजित व वैज्ञानिक ढंग से व्यापाक स्तर पर निष्पादन शुरू हो जाता है, तो इससे होने वाले प्रदूषण से तो निजात मिलेगी ही, नए रोजगार का सृजन भी होगा।

सन्दर्भ


धर्मयुग 21 अगस्त 1992, जनसत्ता 20.10.15, नई दुनिया 10.01.15, दैनिक भास्कर 2.6.15 एवं 28.12.17, पात्रिका 30.10.11 एवं 28.12.17, दैनिक जागरण 1.6.17, हिंदुस्तान 24.4.17।

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