स्वास्थ्य की देखभाल

स्वतन्त्रता के बाद के युग में स्वास्थ्य की देखभाल से सम्बन्धित ढाँचे में व्यापक विकास देखने में आया है लेकिन जनसंख्या के निरन्तर बढ़ने, परिवर्तित जीवन-पद्धति और नित नए रोगों के उभरने से स्वास्थ्य की देखभाल का काम बढ़ गया है। लेखिका का कहना है कि इन सब समस्याओं के कारण इस क्षेत्र में जितना कार्य सम्भव है और जितना किया जा रहा है, उन दोनों के बीच खाई बढ़ती जा रही है।

प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल के कार्य पर अपना ध्यान केन्द्रित कर स्वास्थ्य सेवा योजना आरम्भ करने की पहल करने वाले अनेक देशों में से भारत भी एक है। स्वतन्त्र भारत में स्वास्थ्य सेवा प्रणाली की आधारशिला ‘भोरे समिति’ ने रखी थी जिससे पूर्व अलमा अता घोषणापत्र तीन दशकों तक इस कार्य का आधार बना हुआ था। स्वतन्त्रता के समय देश की स्वास्थ्य सेवाओं का मूल स्वरूप मुख्य रूप से नगरीय जीवन और चिकित्सा पर आधारित था। जो रोगी इन अस्पतालों तथा स्वास्थ्य केन्द्रों पर आते थे, उनकी चिकित्सा मात्र उनका रोग ठीक करने के लिए की जाती थी। इन स्वास्थ्य सेवाओं की ग्रामीण क्षेत्रों में पहुँच अत्यन्त सीमित थी क्योंकि उस समय रोगों की रोकथाम सम्बन्धी सेवाएँ सीमित मात्रा में थीं।

पहली पंचवर्षीय योजना में प्राथमिक, उच्चतर तथा अन्य प्रकार के चिकित्सा केन्द्रों के निर्माण और उन्हें उचित रैफरल प्रणाली से जोड़ने के प्रयास आरम्भ किए गए। आम जनता की प्रमुख स्वास्थ्य समस्याओं के समाधान के लिए कार्यक्रम बनाए गए और उन्हें लागू किया गया। इन प्रयत्नों के परिणामस्वरूप ज्ञात मृत्युदर, जो 1951 में 27 थी, 1955 में घटकर नौ रह गई। (सैंपल रजिस्ट्रेशन सिस्टम-एस.आर.एस. 1995, अस्थाई)। लेकिन छूत की बीमारियों और पोषण की कमी से होने वाली बीमारियों की दर में कमी नहीं आई। इसके अलावा एच.आई.वी. जैसे संक्रामक तथा अन्य कई तरह के असंक्रामक रोगों के फैलने से अस्वस्थता दर बढ़ी है।

ग्रामीण स्वास्थ्य


पिछली आठ योजनावधियों में पूरे देश में ग्रामीण प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल के मूलभूत ढाँचे का निर्माण किया गया है। पर्याप्त मात्रा में उपकेन्द्र तथा प्राथमिक चिकित्सा केन्द्र बनाए गए हैं जिससे सातवीं योजना के अंत तक राष्ट्रीय स्तर पर जो मानक इस बारे में बनाए गए थे, वे पूरे हो जाएँ। पर्याप्त मात्रा में सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र स्थापित करने के प्रयास किए जा रहे हैं ताकि ग्रामीणों को प्रभावपूर्ण आपात सेवाएँ उपलब्ध हो सकें। लेकिन इन मूलभूत सेवाओं में प्रायः कर्मचारियों की कम संख्या एक बड़ी बाधा रही है और प्रमुख कर्मचारियों की कमी से स्वास्थ्य तथा परिवार कल्याण सेवाओं एवं प्रमुख राष्ट्रीय कार्यक्रमों को प्रभावशाली तरीके से लागू करने में कठिनाई उत्पन्न हुई है। एक समस्या और भी है और वह है- इन तीन स्तरों वाली स्वास्थ्य सेवाओं के बीच कारगर निर्देशात्मक सेवाओं की स्थापना की।

कर्मचारियों की संख्या को निर्धारित करने की आवश्यकता है और इसका निर्धारण केवल जनसंख्या के आधार पर नहीं बल्कि काम के बोझ, तय किये जाने वाले मार्ग, और स्वास्थ्य सेवाओं के उपयोग में होने वाली कठिनाई के आधार पर होना चाहिए। प्रमुख कर्मचारियों की कमी की वजह से कार्यक्रमों पर विपरीत प्रभाव न पड़े, यह सुनिश्चित करने के लिए कर्मचारियों की भर्ती में लचीला रवैया अपनाए जाने की आवश्यकता है और आवश्यक हो तो यह कार्य ठेके की प्रणाली से भी किया जा सकता है।

शहरी स्वास्थ्य


1991 में इस बात का अनुमान लगाया गया था कि भारत की जनसंख्या का लगभग 30 प्रतिशत हिस्सा शहरों में रहता है। पिछले दो दशकों में शहरों में लोगों के स्थानांतरण से शहरी तंग बस्तियों की आबादी में तेजी से वृद्धि हुई है। हालाँकि आरम्भ में स्वास्थ्य देखभाल की सेवाएँ मुख्य रूप से शहरों में थी लेकिन बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण ये सेवाएँ अब अपर्याप्त हो गई हैं। स्वास्थ्य सेवाओं की कमी महसूस होने पर नगरपालिकाओं, राज्य सरकारों, गैर-सरकारी संगठनों सहित अनेक संगठनों और विदेशी सहायता से चलने वाली परियोजनाओं ने आवश्यक मूलभूत सुविधाओं के सृजन तथा आवश्यक कर्मचारियों की व्यवस्था का प्रयास किया। ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाओं की तरह शहरी स्वास्थ्य सेवा क्षेत्रों को प्राथमिक, माध्यमिक तथा तृतीय प्रकार की श्रेणी में विभाजित करने की कोई स्पष्ट तथा संगठित कोशिश नहीं की गई। परिणामस्वरूप कुछ केन्द्रों में सुविधाओं का पर्याप्त उपयोग नहीं हो रहा है और अन्य केन्द्रों में अत्यधिक भीड़भाड़ है। एक ही क्षेत्र में प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा देना वाले केन्द्रों तथा जो केन्द्र सहायक अथवा अन्य प्रकार की सेवाएँ देते हैं उनमें उचित सम्पर्क स्थापित करने के प्रयास किए गए हैं ताकि उपलब्ध स्वास्थ्य सेवा सुविधाओं का अधिकतम उपयोग हो सके।

दवाओं की गुणवत्ता पर नियन्त्रण


रोगों को नियन्त्रित करने के कार्यक्रमों की सफलता के लिए उचित मूल्य पर अच्छी किस्म की दवाइयों का प्रावधान आवश्यक है। अनावश्यक दवाओं तथा निश्चित मिश्रणवाली खुराक की दवाओं को नियन्त्रित करने और अगर सम्भव हो तो उन्हें समाप्त करने की भी उतनी ही आवश्यकता है। इस तथ्य को मान्यता प्रदान करते हुए आठवीं योजना में खाद्य तथा दवा नियन्त्रण संगठनों को सुदृढ़ करने के प्रावधान किए गए। लेकिन फिर भी इस योजना को लागू करने का कार्य अपूर्ण और धीमा रहा है। अगले कुछ वर्षों में इस कार्य को प्राथमिकता के आधार पर किया जाएगा।

स्वास्थ्य के लिए मानव संसाधन


कोई भी स्वास्थ्य कार्यक्रम और उस स्वास्थ्य प्रणाली के साथ संलग्न कर्मचारी कम महत्त्वपूर्ण नहीं होते। राज्यों तथा केन्द्रीय क्षेत्र, दोनों के बजट का 75 प्रतिशत हिस्सा कर्मचारियों के वेतन पर खर्च होता है। स्वास्थ्य सेवा योजनाओं की ही तरह भारत में स्वास्थ्य कर्मचारियों की योजना पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है। देश में अर्द्ध-प्रशिक्षित कर्मचारियों की कमी और डाक्टरों तथा अन्य विशेषज्ञों की अधिकता जैसी विसंगतियाँ अब भी विद्यमान हैं। यह अत्यधिक आवश्यक है कि लोगों को स्वास्थ्य सेवाओं की आवश्यकताओं के अनुकूल प्रशिक्षित कर्मचारी पर्याप्त संख्या में उपलब्ध हों। वर्तमान संस्थागत प्रणाली के अलावा राज्यों में खुला विश्वविद्यालय प्रणाली तथा रोजगार से जुड़े पाठ्यक्रमों की मदद से पर्याप्त संख्या में स्वास्थ्य सेवाओं के अनुकूल अर्द्ध-पेशेवर लोग मिल सकेंगे और सेवा-पूर्व प्रशिक्षण से जिस कुशलता की हम इच्छा करते हैं, उसकी पूर्ति सुनिश्चित हो सकेगी।

तेजी से बदलते स्वास्थ्य सेवा परिदृश्य में यह आवश्यक है कि सभी कुशल तथा अर्द्ध-कुशल कर्मचारी समय-समय पर पुनः प्रशिक्षण प्राप्त करें जिससे उनका ज्ञान तथा निपुणता बढ़े। निरन्तर बहु-व्यावसायिक शिक्षा प्राप्त करने से कुशल तथा अर्द्धकुशल कर्मचारियों के सामर्थ्य में वृद्धि होती है तथा वे अधिक प्रभावपूर्ण एवं कुशल तरीके से सामूहिक रूप से स्वास्थ्य सेवा का कार्य कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त विभिन्न संस्थानों में सेवारत कर्मचारियों के लिए इस समय जो प्रशिक्षण व्यवस्था है, खुला विश्वविद्यालय जैसे संस्थान उसे बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।

जैव-चिकित्सा तथा स्वास्थ्य सेवा अनुसंधान


भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद देश में जैव-चिकित्सा अनुसंधान की प्रमुख संस्था है। जैव-चिकित्सा तथा स्वास्थ्य प्रणाली अनुसंधान का कार्य अनुसंधान संस्थानों, विश्वविद्यालयों, चिकित्सा महाविद्यालयों और अन्य गैर-सरकारी संगठनों द्वारा किया जाता है तथा इस समय अनेक एजेंसियाँ उन्हें धन प्रदान करती हैं जिनमें आई.सी.एम.आर., डी.सी.टी., डी.बी.टी., सी.एस.आई.आर. तथा सम्बद्ध मन्त्रालय शामिल हैं। देश की प्रमुख स्वास्थ्य तथा जनसंख्या से जुड़ी समस्याओं के लिए बुनियादी, चिकित्सा से सम्बद्ध, व्यावहारिक एवं परिचालक अनुसंधान पर इन कार्यक्रमों में विशेष ध्यान दिया जाता है। गौर करने की बात है कि देश के अधिकांश राष्ट्रीय स्वास्थ्य कार्यक्रम उन व्यावहारिक तथा परिचालक अनुसंधान-अध्ययनों पर आधारित होते हैं जिन पर आई.सी.एम.आर. ने काम किया होता है।

अनुसंधान गतिविधियों में रेडियो-टेलीविजन का अधिकतम सहयोग लेने और अगर आवश्यक हुआ तो महत्त्वपूर्ण परियोजनाओं के लिए अन्य अनेक एजेंसियों से आर्थिक मदद लेने के भी प्रयास किए जा रहे हैं। चिकित्सा की आधुनिक प्रणाली और आई.एस.एम. एण्ड एच. में विकास, परीक्षण तथा गुणवत्ता नियन्त्रण, छूत की आम बीमारियों के लिए असंक्रामक निदान प्रक्रिया का विकास जिसे प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा संस्थानों में इस्तेमाल किया जा सके, छूत के तथा अन्य रोगों को नियन्त्रित करने के लिए परीक्षा के वैकल्पिक उपायों की खोज तथा उनका विकास, प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों की योजना के अन्तर्गत जनन तथा बाल-स्वास्थ्य पैकेज के लिए परिचालन अनुसंधान- ये अनुसंधान के कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जिनकी शुरुआत हाल ही के वर्षों में की गई है।

भारतीय दवा प्रणालियाँ और होमियोपैथी


देश में भारतीय चिकित्सा पद्धति से इलाज करने वाले चिकित्सकों की संख्या 6 लाख 50 हजार से भी अधिक है। वे दूरदराज के ग्रामीण क्षेत्रों और शहरों की तंग बस्तियों में मुख्य रूप से अपना चिकित्सा कार्य करते हैं और इस प्रकार स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर बनाने और उनके विस्तार में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। आठवीं योजना में वर्तमान कार्यक्रमों को नया स्वरूप प्रदान करने एवं उन पर अधिक ध्यान केन्द्रित करने के लिए ‘आई.एस.एम.एंड डी.’ विभाग का गठन किया गया है। इसका मुख्य उद्देश्य स्नातक पूर्व प्रशिक्षण का श्रेष्ठ स्तर तथा उसकी इस कार्य के लिए उपयोगिता सुनिश्चित करना, सम्भावित अन्य व्यवसायों के आदान-प्रदान सहित व्यवसाय-प्रशिक्षण तथा समय-समय पर पाठ्यक्रम आयोजित करना है जिससे चिकित्सकों के ज्ञान तथा कौशल को आधुनिकतम बनाया जा सके।

गम्भीर निरीक्षण के अभाव, कम महत्त्वपूर्ण स्तर पर निगरानी तथा समुदायों में जागरुकता की कमी तथा उनमें भागीदारी के अभाव के कारण स्वास्थ्य कार्यक्रमों को लागू करने में अवरोध उत्पन्न हुआ है। संविधान के अनुच्छेद 73 तथा 74 में संशोधन से नगरपालिकाएँ और पंचायती राज संस्थाएँ स्थानीय स्तर पर स्वास्थ्य सेवाओं की योजना बनाने, उन्हें लागू करने तथा उनकी निगरानी करने के कार्य में अब अधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकेंगी। वे सम्बन्धित क्षेत्रों जैसे सफाई, पीने का साफ पानी तथा महिला और बाल विकास के कार्यों में स्थानीय स्तर पर कारगर सहयोग सुनिश्चित करेंगी ताकि समुदाय को इन कार्यक्रमों से अधिकतम लाभ मिल सके और उपेक्षित लोगों को जिस देखभाल की आवश्यकता है, वह उन्हें प्राप्त हो सके।

संक्रामक रोगों पर नियन्त्रण


स्वतन्त्रता के समय संक्रामक रोग देश में रुग्णता तथा मृत्यु का प्रमुख कारण थे। यद्यपि स्वास्थ्य राज्य का विषय है लेकिन पिछले चार दशकों में संक्रामक रोगों को नियन्त्रित करने के लिए केन्द्र सरकार द्वारा प्रायोजित अनेक कार्यक्रम आरम्भ किए गए। इनमें मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम सबसे पुराना है। इसकी शुरुआत 1953 में की थी और मलेरिया से होने वाली रुग्णता तथा मृत्यु दर को कम करने में इससे विशेष सफलता प्राप्त हुई है। स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय मलेरिया के कारण रुग्णता के मामलों में अनुमानित रूप से 7 करोड़ 50 लाख 80 हजार लोगों की मृत्यु होती थी जब कि 1965 में रोग के मामलों की संख्या 10 हजार और मृतकों की संख्या शून्य थी। दुर्भाग्य से उसके बाद देश के अनेक भागों में मलेरिया फिर से उभर आया है। फासोफार्म मलेरिया का निरन्तर बढ़ना और सामान्य रूप से इस्तेमाल की जाने वाली मलेरिया निरोधी दवाओं का मलेरिया जीवाणु समाप्त करने में बेअसर हो जाना चिन्ता की बात है। संशोधित योजना को लागू किया जा रहा है। पूर्वोत्तर राज्यों में प्रायः होने वाली इस बीमारी की रोकथाम के लिए शत-प्रतिशत सहायता प्रदान की जा रही है। अन्य रोगवाहक बीमारियों पर भी उचित ध्यान दिया जा रहा है। काला-अजर जैसे रोगों का फिर उभरना भी चिन्ता का विषय है।

शहरी और ग्रामीण सफाई की निरन्तर बिगड़ती स्थिति, पानी तथा कचरे के प्रबंध की उचित देखभाल का अभाव और निरन्तर बढ़ती भीड़ के कारण संक्रामक रोग फैलते हैं। और उसी के कारण देश में मृत्यु-दर बढ़ती है। एच.आई.वी. जैसे नये संक्रामक रोग के उभरने से छूत से फैलने वाले रोगों का बोझ और बढ़ गया है। अनेक जीवाणुओं की दवा प्रतिरोधी क्षमता बढ़ने से और कीटनाशी दवाओं के रोगवाहक जीवाणुओं पर बेअसर हो जाने से रोग-नियन्त्रण की समस्या और गम्भीर हो गयी है।

आठवीं योजना में जिन अन्य प्रमुख राष्ट्रीय योजनाओं पर ध्यान दिया गया है, उनका उद्देश्य टी.बी., कोढ़ तथा एच.आई.वी. संक्रमण के विरुद्ध संघर्ष करना है। इन राष्ट्रीय कार्यक्रमों में से अनेक का परिणाम प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा के स्तर पर कर्मचारियों की कमी के कारण आशानुकूल नहीं रहा। ढाँचागत तथा कर्मचारियों की कमी की जो खामियाँ रह गई थीं, उनकी पहचान करने की कोशिश की जा रही है और खाली पड़े स्थानों को शीघ्रता से भरने के प्रयास किए जा रहे हैं जिससे इन कार्यक्रमों को पूर्णता से लागू किया जा सके। इसके अलावा इन्हें लागू करने के लिए कार्यकारी कुशलता, सेवाओं की गुणवत्ता, ग्राहक की आवश्यकता के अनुसार अधिक तत्पर सेवाओं, इस बात की निश्चिन्तता की स्वास्थ्य-सेवा प्रदान करने वालों में आवश्यक कौशल है तथा रैफरल सुविधाओं एवं वस्तुओं की आवश्यक आपूर्ति सहित अन्य प्रकार की सहायता प्राप्त करके उसे बेहतर बनाने के प्रयास किए जा रहे हैं। साथ ही स्वास्थ्य शिक्षा के माध्यम से इस बात का प्रयास करना होगा कि ग्राहक और समुदाय वर्तमान सेवाओं के बारे में और उनका अधिक से अधिक इस्तेमाल कैसे किया जाए, इस बारे में जागरुक हों जिससे उपलब्ध सेवाओं का अधिकतम उपयोग हो तथा कार्यक्रम समुदाय की भागीदारी में वृद्धि की जा सके।

जिस समय रोग नियन्त्रण कार्यक्रमों की शुरुआत की गई थी, प्रमुख स्वास्थ्य समस्याओं के प्रबंध के लिए पर्याप्त मूलभूत सुविधाओं तथा कर्मचारियों का अभाव था। अतः प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा के मूलभूत ढाँचे के अभाव में इन कार्यक्रमों को सक्रिय करने के लिए एक सरल-सीधी कार्यक्रम प्रणाली विकसित की गई थी। आठवीं योजना के अंत तक प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा प्रणाली बिल्कुल सुव्यवस्थित हो गई है और अब इस बात के प्रयत्न किए जा रहे हैं कि वर्तमान कार्यक्रमों की विस्तार सेवा संस्था देश की आबादी को जोड़ने वाली व्यापक स्वास्थ्य सेवाओं की एक आदर्श एजेंसी सिद्ध हो।

रोगों पर निगरानी


अगर पर्यावरण की निरन्तर गिरती स्थिति से सफाई और सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली की ये कमियाँ जारी रहीं तो भविष्य में संक्रामक रोगों की पूर्ण रोकथाम असम्भव हो जाएगी। कुछ भी हो, रोग की प्रथम चरण में ही पहचान और तुरंत चिकित्सा से उसे फैलने से रोका जा सकता है तथा रोगों के फैलने और उसके कारण होने वाली मृत्यु-दर में कमी लाई जा सकती है। रोग की निगरानी की व्यवस्था करने और उसके अनुकूल प्रक्रिया विकसित करने के कार्य पर आठवीं योजनावधि में विशेष ध्यान दिया गया। यह अनुभव किया गया कि रोगों की निगरानी और उनके प्रति तुरन्त अनुकूल प्रतिक्रिया जिला स्तर पर आधारित होनी चाहिए जिससे तुरंत कार्रवाई की जा सके। इस व्यवस्था में प्रयोगशालाओं और संक्रामक रोग-विशेषज्ञों के सहयोग की आवश्यकता होती है ताकि रोग नियन्त्रण के उपाय सही आँकड़ों पर आधारित हों तथा तर्क संगत हों। इस उत्साहवर्द्धक प्रणाली को राष्ट्रीय संस्थाओं और मेडिकल कालेजों में उपलब्ध सुविधा और विशेषज्ञता को सुदृढ़ करके और उसका अधिकतम इस्तेमाल करके विकसित किया जाना चाहिए।

अस्पताल में रोगों के संक्रमण और स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने वालों एवं कचरा ढोने वालों से होने वाले संक्रमण की बढ़ती घटनाओं को देखते हुए अब यह आवश्यक हो गया है कि बीमारी को संक्रमित होने से रोकने और उपयुक्त टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल द्वारा कचरे के प्रबंध का स्वास्थ्य-सेवा के प्रत्येक स्तर पर प्रयास किया जाए। योजना आयोग तथा स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण कार्यक्रम ने विशेष योजनाएँ आरम्भ करने के कुछ उपाय किए हैं।

छूत से न फैलने वाले रोग


लम्बी आयु, जनसंख्या के स्वरूप में परिवर्तन के कारण तेजी से बढ़ती वृद्धों की संख्या, शहरीकरण, बढ़ते प्रदूषण, पारम्परिक खुराक में परिवर्तन, स्थानबद्ध जीवन और दैनिक जीवन की चिन्ताओं और दबावों के कारण जीवन-शैली से सम्बद्ध रोगों तथा असंक्रामक बीमारियों में वृद्धि हुई है। असंक्रामक रोग जैसे हृदय तथा मस्तिष्क सम्बन्धी रोग जिनमें दिल का दौरा, पक्षाघात शामिल हैं, डायबिटीज और आमतौर पर होने वाली विषम बीमारियाँ प्रमुख स्वास्थ्य समस्याओं के रूप में उभर रही हैं। आठवीं योजना में उपलब्ध प्राथमिक तथा मध्यम स्तर की सुविधाओं को आधार बनाकर तथा डायबिटीज को लक्ष्य मानकर जिला आधारित असंक्रामक रोग नियन्त्रण कार्यक्रमों से सम्बन्धित प्रमुख योजनाएँ आरम्भ की गई हैं। इनसे जो अनुभव प्राप्त होगा, उसे ऐसे कार्यक्रमों के विस्तार में इस्तेमाल किया जाएगा।

पर्यावरण तथा स्वास्थ्य


निरन्तर बढ़ती जनसंख्या, शहरीकरण, कृषि, औद्योगीकरण तथा जल-संसाधन के प्रबंध का बदलता स्वरूप, उर्वरकों और खाना पकाने के लिए जलाने की लकड़ी के बढ़ते इस्तेमाल आदि के कारण पर्यावरण और स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ा है। आठवीं योजनावधि में इस समस्या के समाधान तथा वास्तविक तरीकों की खोज के लिए प्रमुख परियोजनाएँ आरम्भ की गईं। वातावरण प्रदूषण की समस्या और आबादी के स्वास्थ्य-स्तर पर पड़ने वाले प्रभाव से सम्बन्धित आँकड़े एकत्र करने के उपाय भी आरम्भ किए गए। पर्यावरण की बिगड़ती स्थिति के परिणामस्वरूप स्वास्थ्य पर पड़ने वाले विपरीत प्रभाव को रोकने तथा उसका उचित प्रबंध करने की ओर अधिक ध्यान दिया जा रहा है।

स्वास्थ्य प्रभाव का मूल्यांकन


कृषि, उद्योग, शहरी तथा ग्रामीण विकास जैसे अनेक क्षेत्रों में प्रमुख विकास गतिविधियों को शुरू करने से पर्यावरण में परिवर्तन हुआ है। इनमें से कुछ गतिविधियों के परिणामस्वरूप स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ा है। यह असर कम से कम हो, इसके लिए सुझाव दिया गया है कि सभी बड़ी विकास परियोजनाएँ शुरू करने से पहले उनसे स्वास्थ्य पर पड़ने वाले विपरीत प्रभाव का मूल्यांकन किया जाए और विकास गतिविधियों में शामिल लोगों के स्वास्थ्य की देखभाल का प्रावधान किया जाए तथा परियोजना के आस-पास रहने वाले लोगों के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले विपरीत प्रभाव को परियोजना में शामिल कर उस पर आने वाले खर्च को परियोजना का एक हिस्सा माना जाए। इन सुझावों को लागू करने वाली उपयुक्त एजेंसी इन पर विचार कर रही है।

स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार

क्र.सं.

विषय

1951

1971

1992

1.

मेडिकल कालेज

28

98

146

2.

अस्पताल

2694

3862

13692

3.

डिस्पेंसरियाँ

6515

12180

27403

4.

सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र

-

-

2193

5.

प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र

725

5112

20719

6.

उप-केंद्र

-

28489

131454

7.

अस्पतालों में बिस्तर (सभी श्रेणी के)

117178

348655

810548

 


सारांश


पिछले पचास वर्षों में स्वास्थ्य सेवा की मूलभूत सुविधाओं तथा कर्मचारियों की संख्या में जनता के हित में व्यापक विस्तार हुआ है। प्रमुख सार्वजनिक स्वास्थ्य समस्याओं के समाधान के लिए राष्ट्रीय कार्यक्रम बनाए गए और उन्हें लागू किया गया। योजना-अवधियों में सार्वजनिक स्वास्थ्य पर खर्च की जाने वाली राशि में औसतन काफी वृद्धि हुई है लेकिन स्वास्थ्य क्षेत्र के आवंटन में उस अनुपात में वृद्धि नहीं की गई है। जनसंख्या बढ़ने, नए रोगों के पनपने तथा लोगों की जीवन-शैली बदलने के कारण उत्पन्न होने वाले संक्रामक तथा असंक्रामक रोगों की वृद्धि से इनकी देखभाल का बोझ बढ़ा है। स्वास्थ्य सेवा के लिए उपयुक्त तकनीकों का विकास हुआ है तथा लोग अपने स्वास्थ्य के प्रति जागरुक हुए हैं। इस सबके कारण ‘जो सम्भव है और जो किया जा रहा है’ उनके बीच का अंतर और बढ़ गया है। यह आवश्यक है कि आगामी दशकों में इस अंतर को कम किया जाए और साथ ही स्वास्थ्य सेवाओं में निष्पक्षता तथा श्रेष्ठता सुनिश्चित की जाए।

(लेखक योजना आयोग में स्वास्थ्य परामर्शदाता हैं।)

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