स्वच्छ भारत स्वस्थ भारत

16 Sep 2018
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स्वच्छता सेवा
स्वच्छता सेवा
स्वच्छता सेवा (फोटो साभार - दैनिक जागरण)बधाई हो। चार साल पहले दो अक्टूबर, 2014 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देश में जिस स्वच्छता और साफ-सफाई की मुहिम चलाई थी, वह आज एक बड़े आन्दोलन में तब्दील हो चुकी है। जिसका सकारात्मक रूप दिखने भी लगा है।

अब देश में स्वच्छता कवरेज 2014 के करीब 40 फीसद से बढ़कर 90 फीसद से अधिक हो चुका है। करीब नौ करोड़ शौचालय बनाए जा चुके हैं। साढ़े चार सौ से अधिक जिले, 4.48 लाख गाँव और 21 राज्य और केन्द्र शासित प्रदेश खुले में शौच से मुक्त हो चुके हैं। इस बदलाव के वाहक आप सब हैं। जिन्होंने न केवल स्वच्छता के प्रति अपनी मानसिकता बदलते हुए इसकी संस्कृति अपनाई बल्कि राष्ट्र और समाज को स्वस्थ-सशक्त करने की अपनी भूमिका का भी निर्वाह किया। फायदे दिखने लगे हैं।

देश में डायरिया के मामलों में 30 फीसद की कमी आने का अनुमान है। गन्दगी और प्रदूषण से होने वाली मौतों में तीन लाख की कमी आने के संकेत भी हैं। फायदों की फेहरिस्त लम्बी है। हमें रुकना नहीं है, क्योंकि चुनौतियाँ भी कम नहीं है। संसाधनों से लेकर आचार-विचार और व्यवहार बदलने की जरूरत है।

संसाधनों का स्रोत बनकर सरकार कमर कसे हुए है। हमें स्वच्छता का सूत्रधार बनना है। स्वच्छता पखवाड़े का आगाज हो चुका है। हमें ऐसा संकल्प लेना होगा कि ये सिर्फ 15 दिनी अभियान बनकर न रह जाये। पूरे साल स्वच्छता के दूत बनकर देश का कोना-कोना स्वच्छ रखकर उसे स्वस्थ बनाना है।

पहले पश्चिम था पीछे

खुद को स्वस्थ रखने की विधा पर लिखी गई दो पुस्तकों में स्वच्छता और साफ-सफाई को लेकर देशों की मानसिकता का पता चलता है। वर्जीनिया स्मिथ द्वारा लिखी किताब ‘क्लीन ए हिस्ट्री अॉफ पर्सनल हाइजीन एंड प्योरिटी’ (clean a history of personal hygiene and purity) और कैथरीन एशेनबर्ग की किताब ‘द डर्ट अॉन क्लीनःएन अनसैनिटाइन्ड हिस्ट्री’ (the dirt on clean an unsanitized history) में बताया है कि 16वीं और 19वीं सदी के बीच पश्चिम में स्नान को अभिशाप माना जाता था। डॉक्टर स्नान करने को बीमार होने और रोगों की वजह बताते थे।

यूरोपीय सोच

यूरोप में सफाई के मायने ही अलग हैं। फ्रांस में तो आज भी रोजाना स्नान को लेकर लोग अन्यमनस्क रहते हैं। माना जाता है कि इसीलिये यूरोप के देशों में इत्र उद्योग तेजी से विकसित हुआ। लोग स्नान करने की जगह इत्र जैसी सुगंधित चीजें छिड़कना ज्यादा आसान समझते थे।

जापान का जुनून

साफ-सफाई को लेकर जापान की दीवानगी जगजाहिर है। यहाँ पर किसी रेस्रां में अगर आप जाते हैं तो अन्दर पहनने के लिये आपको खास पोशाक और चप्पलें दी जाती हैं।

बहुत ही वैज्ञानिक रही हैं स्वच्छता से जुड़ी भारतीय पौराणिक मान्यताएँ

स्नान

हमारे पौराणिक ग्रन्थों में स्नान का विशेष उल्लेख है। किसी भी कार्य से पहले हाथ धोना, स्नान करना आदि के पीछे केवल धार्मिक मान्यता ही नहीं बल्कि इनके पीछे एक वैधानिक वैज्ञानिक सोच समझ भी होती है। भोजन करने से पहले हाथ धोने की कला हमसे बेहतर कौन जनता है।

जूठे होने की अवधारणा

मुँह लगाकर किसी चीज के इस्तेमाल के बाद दूसरों को उसे इस्तेमाल करने से रोका जाता है। अंग्रेजों ने शायद इस अवधारणा को गम्भीरता से कभी लिया ही नहीं, तभी तो उन्होंने इसके लिये कोई अंग्रेजी शब्द ही नहीं ईजाद किया।

जूते-चप्पल बाहर निकालना

हम घर के प्रवेश द्वार पर ही अपने जूते-चप्पल निकाल देते हैं। इसके पीछे धारणा है कि हम लोग गलियों की धूल, गन्दगी को अपने घर के सुरक्षित हिस्से तक नहीं पहुँचाना चाहते।

गन्दगी का आलम

निजी सफाई के बावजूद हमारी गलियाँ कूड़े से भरी रहती हैं। सार्वजनिक स्थल गन्दगी के ढेर में तब्दील हुए पड़े हैं। ‘एन एरिया अॉफ डार्कनेस’ (an area of darkness) में वीएस नायपॉल लिखते हैं कि भारतीय हर जगह गन्दगी बिखरते रहते हैं। इस प्रवृत्ति में आज भी बहुत बदलाव नहीं दिखता।

बड़ा बाजार

शोध के अनुसार भारत में स्वच्छता के एक बड़े बाजार की पर्याप्त सम्भावनाएँ हैं। 2020 तक यह बाजार 152 अरब डॉलर का हो सकता है। इनमें से 67 अरब डॉलर (64 फीसद) इंफ्रास्ट्रक्टर, 54 अरब डॉलर (36 फीसद) प्रचालन और रख-रखाव सेवाओं को लिये होगा। साफ-सफाई से जुड़े बाजार की सालाना वृद्धि 2020 में 15.1 अरब डॉलर हो सकती है।

गम्भीर नतीजे

अपर्याप्त साफ-सफाई और स्वच्छता के चलते लोग मारे जाते हैं। बीमारियाँ होती हैं। पर्यावरण प्रदूषित होता है। लोगों का कल्याण क्षीण होता है। इन सब परिणामों से सब कोई वाकिफ होता है लेकिन खराब स्वच्छता के आर्थिक असर का आकलन अब तक ढंग से नहीं किया गया है।

सफाई से कमाई

विश्व बैंक के शोध के अनुसार अगर शौचालय के इस्तेमाल में वृद्धि की जाये, स्वच्छता और साफ-सफाई के तरीके अपनाए जाएँ तो स्वास्थ्य पर पड़ने वाले समग्र असर को 45 प्रतिशत तक कम किया जा सकता है जबकि जल, लोगों के कल्याण और पर्यटन नुकसान पूरे टाले जा सकते हैं।

रु. 1321 प्रतिव्यक्ति लाभ

स्वच्छता के सही तरीके अपनाकर भारत 32.6 अरब डॉलर हर साल बचा सकता है। यह रकम 2006 में देश की जीडीपी के 3.9 हिस्से के बराबर है। इससे प्रतिव्यक्ति 1321 रुपए का लाभ सुनिश्चित किया जा सकता है।

जिन्दगी पर भारी गन्दगी

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार जैसे माचिस की एक तीली सम्पूर्ण दुनिया को स्वाहा करने की ताकत रखती है, उसी तरह बहुत सूक्ष्म मात्रा की गन्दगी भी महामारी फैला सकती है। उदाहरण के लिये एक ग्राम मल में एक करोड़ विषाणु हो सकते हैं, दस लाख जीवाणु हो सकते हैं, एक हजार परजीवी हो सकते हैं और सौ परजीवियों के अंडे हो सकते हैं।

कमतर नहीं है कचरा बीनने वाले

देश में सालाना उत्पादित होने वाले लाखों टन कचरे में से 20 फीसद कचरे का प्रबन्धन रैग पिकर्स (rag pickers) यानी कचरा बीनने वाले करते हैं। भारत जैसे विकासशील देशों में कुल शहरी आबादी में से एक फीसद लोग अनौपचारिक रूप से कचरा बीनकर और उसे छाँटकर अपनी आजीविका कमाते हैं।

कचरा बीनने वाले लोग प्लास्टिक, धातु, गत्ते आदि एकत्र कर इसे कबाड़ीवालों को बेचते हैं, जो इस कचरे को छाँटकर कचरा व्यापारियों और रिसाइकिल करने वालों को बेचते हैं। कचरा बीनने वाले, कचरे को रिसाइकिल करने वाले और कचरा व्यापारी मिलकर असंगठित कचरा रिसाइक्लिंग क्षेत्र बनाते हैं क्योंकि उन्हें देश के संगठित क्षेत्र में शामिल नहीं किया गया है।

बड़े काम का यह काम

1. देश भर में मौजूद 15 लाख कचरा बीनने वाले लोग सालाना नगरपालिका के 54.75 करोड़ रुपए की बचत करते हैं।

2. असंगठित रिसाइक्लिंग क्षेत्र शहरी गरीबों को बड़ी संख्या में रोजगार मुहैया कराता है।

3. सबसे बड़ा फायदा पहुँचता है पर्यावरण को। बड़ी मात्रा में कचरा रिसाइकिल होने से लैंडफिल में सारा कचरा डम्प नहीं होता। इससे मीथेन गैस का उत्पादन कम होता है।

प्रशासन की जिम्मेदारियाँ

1. कचरा बीनने वालों का एक तंत्र बने और उन्हें डोर-टू-डोर कचरा एकत्र करने का बढ़ावा दिया जाये।

2. लोगों को बताया जाये कि कचरे को उनके प्रकार के हिसाब से अलग करके घरों में ही रखें और कचरा बीनने वालों को दे दें।

3. कचरे को जमा करने के लिये भण्डारगृह बने जहाँ वे अपना कचरा छाँट सकें।

4. ठोस कचरा प्रबन्धन के बारे में कचरा बीनने वालों को प्रशिक्षण दिया जाये।

चुनौतियाँ कम नहीं

सरकारी नीतियों के लाभ से दूर

हालांकि देश में शहरी गरीबों के लिये बीमा और पेंशन योजना, स्वास्थ्य सेवा, राशन कार्ड समेत कई सरकारी परियोजनाएँ और सेवाएँ लागू हैं, इसके बावजूद कचरा बीनने वालों को इसका बहुत अधिक लाभ नहीं मिला है। यह इसलिये क्योंकि अधिकतर लोगों को सरकार ने मान्यता नहीं दी है और कई को यह नहीं पता कि इस तरह की योजनाएँ मौजूद हैं। कई कानूनों में दिये गए दिशा-निर्देशों के बावजूद इन लोगों को वेस्ट मैनेजमेंट प्रोग्राम (waste management programme) में शामिल नहीं किया गया है। इसके अलावा इन्हें हेय दृष्टि से देखा जाता है और अक्सर अपमानित भी किया जाता है।

स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव

कचरा बीनने वाले लोग हर प्रकार के कचरे के सम्पर्क में आते हैं। इसमें डायपर से लेकर नुकीले औजार और जहरीले पदार्थ शामिल हैं। इससे उनकी सेहत पर बुरा असर पड़ता है। अधिकतर के पास इस कचरे को छाँटने के लिये जगह भी नहीं होती है इसके चलते उन्हें लैंडफिल में ही बैठकर उसे अलग करना पड़ता है, जहाँ वे विषैली गैसों में साँस लेते हैं और कई बार उन्हें कुत्ते काट लेते हैं।


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