स्वच्छ जीवन की पहली सीढ़ी स्वच्छता

6 Feb 2020
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स्वस्थ जीवन की पहली सीढ़ी स्वच्छता
स्वस्थ जीवन की पहली सीढ़ी स्वच्छता

पांच वर्ष पूर्व शुरू हुए स्वच्छ भारत अभियान के अन्तर्गत देश भर में लगभग 12 करोड़ शौचालयों के निर्माण की बात हो या देश के ग्रामीण क्षेत्रों में स्वच्छ जल पहुंचाने की मुहिम हो या फिर नागरिक समाज द्वारा लोगों को स्वच्छता एवं स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता करने की सार्थक पहल हो, सभी के संयुक्त प्रयास से स्वच्छता की दिशा में एक बड़ी मुहिम चलाने में भारत सफल रहा है। जरूरत इस बात की है कि भारत के सभी लोग इस अभियान का और विस्तार देने के लिए आगे आएं और स्वच्छता अभियान को मजबूती प्रदान करें।

विगत पांच वर्षों में स्वच्छता को लेकर देश में जनमानस का मन बहुत ही सकारात्मक हुआ है। कूड़ा कहीं भी फेंकते समय हाथ खुद-ब-खुद रुकने लगे हैं। घर के छोटे-छोटे बच्चों ने भी स्वच्छता के संदेश को अंगीकार किया है। ऐसा कई बार देखने को मिला है कि घर के छोटे बच्चे बड़ों को ‘स्वच्छता’ का पाठ पढ़ा रहे हैं। इधर-उधर कचरा फेंकने पर टोकते हुए दिख जाते हैं। यह एक सकारात्मक बदलाव का प्रतीक है। इस बदलाव को और तेजी से आगे बढ़ाने की जरूरत है। इस दिशा में सरकार के साथ-साथ आम जन की जितनी भागीदारी होगी, यह अभियान उतना ही मजबूत होगा। साथ ही, देश के स्वास्थ्य पर बीमारियों का बोझ भी कम होगा।

किसी भी राष्ट्र के विकास को मापने का उत्तम मानक वहाँ का स्वस्थ समाज होता है। नागरिकों के स्वास्थ्य का सीधा असर उनकी कार्यशक्ति पर पड़ता है। नागरिक कार्यशक्ति का सीधा सम्बन्ध राष्ट्रीय उत्पादन शक्ति से है। जिस देश की उत्पादन शक्ति मजबूत है, वह वैश्विक-स्तर पर विकास के नए-नए मानक गढ़ने में सफल होता रहा है। इस सन्दर्भ में स्पष्ट है कि किसी भी राष्ट्र के विकास में वहाँ के नागरिक स्वास्थ्य का बेहतर होना बहुत ही जरूरी है। शायद यही कारण है कि अमेरिका जैसे वैभवशाली राष्ट्र की राजनीतिक हलचल में भी स्वास्थ्य को अहम स्थान प्राप्त है। दरअसल किसी भी राष्ट्र के लिए अपने नागरिकों की स्वास्थ्य की रक्षा करना पहला धर्म होता है।

स्वास्थ्य एक चुनौती

 जब से मानव की उत्पत्ति हुई है, तभी से खुद को स्वस्थ रखने की जिम्मेदारी उसी पर रही है। बदलते समय के साथ-साथ स्वास्थ्य की चुनौतियां भी बदलती रही हैं। वर्तमान में किसी भी राष्ट्र के लिए सबसे बड़ी चुनौती है राष्ट्र की जनसंख्या के अनुपात में स्वास्थ्य सुविधाओं को मुहैया कराना। इस समस्या से हम भारतीय भी अछूते नहीं है। यदि हम भारत की बात करें तो 2011 की जनगणना के हिसाब से मार्च 2011 तक भारत की जनसंख्या का आंकड़ा एक अरब 21 करोड़ पहुंच चुका था व निरंतर इसमें बढ़ोत्तरी हो रही है। हालांकि जनसंख्या की स्वच्छता और स्वास्थ्य की औसत वार्षिक घातीय वृद्धि दर तेजी से गिर रही है। यह 1981-91 में 2.14 फीसदी, 1991-2001 में 1.97 फीसदी थी वहीं 2001-11 में यह 1.64 फीसदी थी। बावजूद इसके जनसंख्या का यह दबाव भारत सरकार के लिए स्वास्थ्य सुविधाओं की व्यवस्थित व्यवस्था करने में बड़ी मुश्किलों को पैदा कर रहा है।

स्वास्थ्य और स्वच्छता में सम्बन्ध

 ठीक से देखें तो कई ऐसे बीमारियां हैं जिनका प्रत्यक्ष सम्बन्ध साफ-सफाई की आदतों से है। मलेरिया, डेंगू, डायरिया और टीबी जैसी बीमारियां इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। यह सर्वविदित है कि साफ-सफाई मानव स्वास्थ्य पर सीधा असर डालती है। जिन बीमारियों के मामले ज्यादातर सामने आते हैं और जिनसे ज्यादा मौतें होती हैं, अगर उनके आंकड़ों पर गौर करें तो कहा जा सकता है कि शरीर की तथा परिवेश की वह अचूक मांग है जिसके माध्यम से न सिर्फ स्वस्थ जीवन जिया जा सकता है बल्कि बीमारियों से लड़ने पर देश भर में हो रहा अरबों का सालाना खर्च भी बचाया जा सकता है। स्वस्थ शरीर में निवसित स्वस्थ मस्तिष्क की उत्पादकता, बढ़ने से देश की उत्पादकता जो बढ़ेगी, सो अलग। इतना ही नहीं, शरीर के स्वस्थ रहने के लिए हर स्तर पर स्वच्छता आवश्यक है और इस तथ्य को हमारे महापुरुषों ने भी लगातार स्वीकारा है।

 जिस महात्मा गांधी के जन्म दिवस पर स्वच्छ भारत अभियान शुरू किया गया, वहीं महात्मा स्वास्थ्य का नियम बताते हुए कहते है, ‘मनुष्य जाति के लिए साधारणतः स्वास्थ्य का पहला नियम यह है कि मन चंगा तो शरीर भी चंगा है। निरोग शरीर में निर्विकार मन का वास होता है, यह एक स्वयंसिद्ध सत्य है। मन और शरीर के बीच अटूट सम्बन्ध है। अगर हमारा मन निर्विकार यानी निरोग हों, तो वे हर तरफ से हिंसा से मुक्त हो जाए, फिर हमारे हाथों तंदुरुस्ती के नियमों का सहज भाव से पालन होने लगे और किसी तरह की खास कोशिश के बिना ही हमारा शरीर तंदुरुस्त रहने लगे।’ (व्यास, 1963, पृ. 181)

 स्वास्थ्य के लिए स्वच्छता का महत्व

 2 अक्टूबर, 2014 को भारत सरकार ने जब स्वच्छ भारत अभियान की शुरुआत की थी तब तक इसके महत्व के बारे में आम लोगों को उतनी जानकारी नहीं थी, जितनी आज हुई है। वे स्वच्छता एवं स्वास्थ्य के सम्बन्ध को भी ठीक से नहीं समझ पा रहे थे। इस अभियान की आलोचनाएं भी कई लोगों ने की थी। लेकिन आज इस अभियान का सकारात्मक असर भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में देखने को मिलने लगा है। घर से बाहर शौच करने जाने वाली महिलाओं को अब शौचालय उपलब्ध हैं। इससे न सिर्फ उनके स्वास्थ्य की रक्षा हो रही है बल्कि सामाजिक सुरक्षा भी इससे बढ़ी है। स्वस्थ भारत यात्रा-2 के दौरान देश भ्रमण करते समय इस बात को मैं आसानी से समझ पाया कि स्वच्छ भारत अभियान ने स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से कितना बड़ा सामाजिक व मनोवैज्ञानिक बदलाव किया है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन हो या यूएनओ, सभी ने स्वास्थ्य एवं स्वच्छता सम्बन्धी अपने दिशा-निर्देशों में साफ-साफ यह कहा है कि मानसिक विकास एवं सामाजिक कल्याण में सुधार के साथ-साथ संक्रमण को रोकने के लिए स्वच्छता एवं स्वास्थ्य अत्यंत आवश्यक है। सुरक्षित स्वच्छता प्रणालियों की कमी के कारण संक्रमण और बीमारियां होती हैं जिसमें डायरिया, उष्णकटिबंधीय बीमारियां जैसे- मिट्टी से फैलने वाले हेल्मिनथ संक्रमण, सिस्टोसोमियासिस और ट्रेकोमा (कुकरे) तथा वेक्टरजनित रोग जैसे कि वेस्ट नाइल वायरल, लसीका फाइलेरिया और जापानी इंसेफेलाइटिस शामिल हैं। विश्व-स्तर पर पांच वर्ष से कम आयु के लगभग एक-चौथाई बच्चों को बार-बार दस्त और पर्यावरणीय आंत्र रोग प्रभावित करता है जिसे अस्वास्थ्यकर स्थितियों में विकास की कमी (स्टंटिंग) से जोड़ा गया। सुरक्षित प्रणालियों की कमी रोगाणुरोधी प्रतिरोध के उद्भव तथा प्रसार में योगदान करती हैं।

इन एजेंसियों ने मानव विकास के मुद्दे को भी स्वच्छता से जोड़ा है। दुनिया भर में बहुत से क्षेत्रों में लोग खुले में शौच करते हैं तथा उनके पास ऐसी सेवाएं मौजूद नहीं होती हैं जोकि मल अपशिष्ट को पर्यावरण को दूषित करने से रोक सकें। कई निम्न और मध्यम आय वाले देशों में आज भी ग्रामीण क्षेत्र इन सेवाओं से अछूते हैं, जबकि शहरी क्षेत्र तेजी से शहरीकरण के कारण स्वच्छता सम्बन्धी जरूरतों के लिए संघर्ष कर रहे हैं। जलवायु परिवर्तन के कारण उत्पन्न चुनौतियों के चलते सार्वजनिक स्वास्थ्य की सुरक्षा करने वाली स्वच्छता प्रणालियों को बनाए रखने के लिए निरंतर अनुकूलन की आवश्यकता होती है। यही कारण है कि संयुक्त राष्ट्र ने अंतराष्ट्रीय स्वच्छता वर्ष के साथ 2008 में वैश्विक विकास एजेंडा की शुरुआत की जिसमें स्वच्छता को महत्व दिया गया। इस क्रम में 2010 में सुरक्षित जल एवं स्वच्छता के मानवाधिकार को मान्यता देने तथा 2013 में संयुक्त राष्ट्र के उपमहासचिव द्वारा खुले में शौच को समाप्त करने का आह्वान किया गया। स्वच्छता के सुरक्षित प्रबंधन के साथ ही अपशिष्ट जल उपचार एवं पुनः उपयोग आदि को सतत विकास लक्ष्यों के तहत केन्द्रीय स्थान दिया गया।

स्वच्छता के महत्व को रेखांकित करते हुए 2010 में संयुक्त राष्ट्र (यूएन) ने स्वच्छता मानवाधिकार की बात कही। यूएन द्वारा कहा गया कि सभी लोगों की बिना भेदभाव के (सबसे कमजोर तथा वंचित व्यक्तियों एवं समूहों को प्राथमिकता देते हुए) पर्याप्त स्वच्छता सेवाओं तक पहुंच सुनिश्चित की जानी चाहिए। प्रासंगिक भाषाओं और मीडिया द्वारा नियोजित उपयुक्त कार्यक्रमों और परियोजनाओं के माध्यम से उन लोगों तक, जो इससे सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे, स्वच्छता सम्बन्धी जानकारी स्वतंत्र रूप से उपलब्ध कराई जानी चाहिए। साथ ही, यह भी कहा गया कि स्वच्छता सेवाओं तक पहुंच सुनिश्चित करने में किसी भी प्रकार की विफलता के लिए राज्य सरकार जवाबदेह है। राज्य सरकार द्वारा स्वच्छता सेवाओं तक पहुंच (और पहुंच की कमी) की निगरानी की जानी चाहिए। यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि स्वच्छता सेवाओं तक सभी की पहुंच लम्बी अवधि तक बनी रहे। साथ ही, सेवाओं की उपलब्धता में सभी समुदायों की आर्थिक स्थिति (ऐसे वर्गों को शामिल करते हुए जो यह खर्च उठाने में सक्षम नही हैं) और शारीरिक स्थिति (शारीरिक अक्षमता इत्यादि) को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए। वैश्विक चिंताओं को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार स्वच्छता को लेकर गम्भीरता दिखा रही है। आज के समय में दुनिया में भारत एक मार्गदर्शक की भूमिका निभा रहा है। भारत की स्वच्छता अभियान की तारीफ दुनिया भर में ह रही है।

अस्वच्छता जनित बीमारियां

भारत एक बहुसंख्यक आबादी वाला देश है। इसके भूगोल, रहन-सहन एवं खान-पान में भी बहुत विविधता पाई जाती है। यही कारण है कि यहाँ पर अलग-अलग क्षेत्रों में अलग प्रकार की बीमारियां पाई जाती हैं। बीमारियों के वाहक भी अलग-अलग हैं। अस्वच्छता के खिलाफ भारत में सभी जगहों पर एकजुटता के साथ अभियान चलाया जा रहा है। पिछले कुछ दशकों में अस्वच्छता-जनित बीमारियों ने भारत में बीमारियों के भार को बहुत बढ़ाया है। आइए, इनको संक्षेप में जानते हैं।

 मलेरिया

इंडियन कौंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च के अनुसार वेक्टरजनित बीमारियों में मलेरिया अपनी भयावहता की कसौटी पर प्रथम स्थान पर है। वर्ष 1953 में राष्ट्रीय मलेरिया नियंत्रण कार्यक्रम (एनएमसीपी) के शुरू होने से पहले मलेरिया से लगभग 75 लाख लोग प्रभावित थे और यह बीमारी 8 लाख मौतों का कारण थी। राष्ट्रीय मलेरिया नियंत्रण कार्यक्रम 1965 आते-आते सफलता के सोपान छू रहा था, मलेरिया से मरने वालों की संख्या शून्य पर जा पहुंची थी लेकिन 1976 में मलेरिया ने फिर से अपना सिर उठाया और इसकी चपेट में 64 लाख लोग आ गए और बड़ी संख्या में मौतें हुई। इसके बाद राष्ट्रीय मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम (एनएमईपी) की शुरुआत की गई। फिर नेशनल एंटी मलेरिया कार्यक्रम (एनएएमपी) चलाया गया। फिलहाल राष्ट्रीय वेक्टरजनित रोग नियंत्रण कार्यक्रम (एनवीबीडीसीपी) चलाया जा रहा है। वर्तमान में मलेरिया उन्मूलन की दिशा में बहुत कारगर कदम उठाए गए हैं।

डेंगू

विश्व स्वास्थ्य संगठन के 16 जनवरी, 2013 के वक्तव्य में कहा गया है कि वैश्विक-स्तर पर डेंगू पिछले 50 वर्षों में 30 गुना तेजी से बढ़ा है। भारत भी इसकी चपेट में तेजी से आ रहा है। दिल्ली और मुम्बई में हर साल डेंगू के मामले बड़ी संख्या में सामने आते हैं और इन शहरों में तो अस्पताल तथा सरकारी विभाग बकायदा नियमित तौर पर डेंगू के मामलों की बुलेटिन भी जारी करते रहते हैं। स्वच्छता के प्रति बढ़ रही जागरूकता से इस बीमारी को रोकने में बहुत हद तक सफलता मिली है।

टीबी

डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट के अनुसार 2012 में वैश्विक स्तर पर टीबी के 86 लाख नए मामले दर्ज किए गए और 13 लाख लोगों की टीबी से मौतें हुई। टीबी से होने वाली मौतों में से 95 प्रतिशत से अधिक मौतें निम्न और मध्यम आय वाले देशों में होती हैं। कहने की जरूरत नहीं कि निम्न आय वर्ग के लोगों के बीच स्वच्छता की स्थिति दयनीय ही रहती है। यह रिपोर्ट बताती है कि 15-44 आयु वर्ग की महिलाओं की मौत के शीर्ष तीन कारणों में से क टीबी भी है। इंडियन कौंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च की रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत में लगभग 20-23 लाख लोग प्रत्येक साल टीबी से ग्रसित होते हैं जोकि वैश्विक टीबी मरीजों का 26 फीसदी है।

जल स्वच्छता पर सरकार दे रही है ध्यान

अब तक हमने देखा कि स्वास्थ्य के लिए जल व जलस्रोतों की स्वच्छता एक आवश्यक पहलू है। सरकार ने 2020 तक देश के सभी ग्रामीण लोगों को सुरक्षित पेयजल सुविधा उपलब्ध कराने की योजना बनाई है। 17 लाख घरों को 2020 तक पेयजल सुविधाएं दी जाएंगी। ध्यान देने वाली बात यह है कि देश में 78 हजार गांवों में प्रदूषित जल जैसे फ्लोराइड, आर्सेनिक तथा अन्य भारी धातु की गम्भीर समस्या है और सरकार की प्राथमिकता इस समस्या से युद्ध-स्तर पर निपटने की है। जल गुणवत्ता की बहाली के लिए केन्द्रीय और राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों द्वारा जल (प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण) अधिनियम, 1974 का कार्यान्वयन किया जा रहा है। हाल ही में सरकार ने जल शक्ति मंत्रालय का गठन भी इसी बात को ध्यान में रखकर किया है। घर-घर नल-जल योजनाओं के माध्यम से देश को नागरिकों के स्वच्छ जल पहुंचाने की कोशिश की जा रही है।

स्वच्छता हेतु कुछ जरूरी कदम

स्वच्छता एवं स्वास्थ्य का एक-दूसरे से अन्तरसम्बन्ध है। यदि आप अस्वस्थ रहते हैं तो एक बार अपनी जीवनचर्या पर चिंतन कीजिए आपका मन आपके अस्वस्थ होने के कई कारण आपके समक्ष प्रस्तुत करेगा। इन कारणों में स्वच्छता का अभाव भी एक कारण निश्चित रूप से होगा। इसी सन्दर्भ में यहां पर कुछ महत्त्वपूर्ण जानकारी साझा की जा रही है, जिसको अपनाकर आप स्वच्छ व स्वस्थ रह सकते हैं।

आपके घर का बर्तन व जीवाणु

आपके स्वास्थ्य से स्वस्थ भोजन का जितना सम्बन्ध है, उतना ही सम्बन्ध स्वच्छ बर्तन का भी है। आपके बर्तन की स्वच्छता का सम्बन्ध आपके स्वास्थ्य से सीधे-सीधे है। गंदे बर्तनों को साफ करने के बावजूद सिंक में कितने सारे जीवाणु रह जाते हैं। जो जीवाणु आपके सिंक में पैदा होते हैं, वे आपके हाथों, बर्तन साफ करने वाले स्पंज या स्कर्ब और इससे भी बदतर आपके भोजन के सम्पर्क में आ सकते हैं। इसलिए दिन में एक बार अपने सिंक को ब्लीच व पानी से अच्छी तरह से धोएं और उसे सूखने दें। इससे जीवाणु खत्म हो जाएंगे।

आपका टूथब्रश

हर रोज इस्तेमाल के बाद अपने टूथब्रश को न सिर्फ सूखा रखने की जरूरत है, बल्कि वॉशरूम को भी बिल्कुल स्वच्छ रखना चाहिए। यह सामान्य-सी बात लग सकती है लेकिन क्या आप जानते हैं कि जब प टॉयलेट को फ्लश करते हैं, तो इसके दो घंटे बाद तक पूरे वॉशरूम में जीवाणु तैरते रहते हैं? अतः टूथब्रश को वाशरूम से दूर रखें।

सेहत और आपका हाथ

जरा गौर से सोचिए कि आप दिन भर में कितनी सारी चीजों को अपने हाथों से छूते हैं। फिर आप यह सोचिए कि आपके घर के लोग किन-किन चीजों को हाथ लगाते है, यहां हम घरेलू चीजों की बात कर रहे हैं। मसलन, दरवाजे के हैंडल, पॉवर स्विच, कम्प्यूटर की-बोर्ड (घर और दफ्तर, दोनों जगह) और सबसे अधिक रिमोट कंट्रोल। इन चीजों की हमेशा सफाई करते रहना आपका विवेकपूर्ण कदम होगा, क्योंकि ऐसा करके आप घर के सदस्यों और दफ्तर में सहयोगियों की सेहत की रक्षा करेंगे।

20 सेकेंड और हाथ की सफाई

इसमें कोई दो राय नहीं कि अपनी सेहत का खयाल रखते हुए आप अपने हाथ बार-बार धोते रहते हैं। लेकिन जरा ठहरिए, साबुन की कुछ बूंदें अपनी हथेली पर गिराकर उन्हें झट-से टोंटी की नीचे धो डालना काफी नहीं है। साबुन के झाग में अपने हाथ को मलें, कम से कम 20 सेकंड तक तो हाथ जरूर मलना चाहिए। 

पानी को ठहरने न दें

सभी जानते हैं कि बिस्तर के आस-पास मच्छर मारने वाला स्प्रे करना चाहिए और मच्छरदानी लगाकर सोना चाहिए ताकि मच्छरों को शरीर से दूर रखा जा सके। क्योंकि वे डेंगू या मलेरिया की सौगात हमें दे सकते हैं। स्थिर पानी में मच्छर हजारों की संख्या में अंडे देते हैं? ऐसा पानी घर के भीतर अनेक जगहों पर हो सकता है, मसलन फूलदानों, पालतू जानवरों के पानी रखने के बर्तनों या फिर मछलीघर में। इन बर्तनों के पानी को सप्ताह में एक बार जरूर बदलना चाहिए और उन्हें अच्छी तरह से साफ करना चाहिए ताकि रोगों की गिरफ्त में आने से बचा जा सके। इस तरह आप मच्छरों को यह पैगाम देंगे कि उनका आपके घर में कतई स्वागत नहीं होने वाला।

उपसंहार

प्रधानमंत्री ने जिस स्वच्छ भारत की परिकल्पना को देश के सामने रखा था, यह परिकल्पना वैसे नई नहीं है; लेकिन जिस अंदाज व मुस्तैदी के साथ इस बार भारत सरकार ने स्वच्छता के मसले को उठाया है, उसके परिणाम बहुत ही सार्थक दिख रहे हैं। इसके पूर्व भी सरकारों ने स्वच्छता के लिए कार्य किए हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में स्वच्छता कवरेज की गति बढ़ाने के उद्देश्य से भारत सरकार ने वर्ष 1986 में केद्रीय ग्रामीण स्वच्छता कार्यक्रम (सीआरएसपी) शुरू किया था। सीआरएसपी को नया दृष्टिकोण अपनाते हुए वर्ष 1999 में नए सिरे से तैयार सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान (टीएससी) नाम दिया गया। स्वच्छता अभियान शुरू करने के बाद पत्रकारों से मुलाकात में प्रधानमंत्री ने कहा था, ‘मुझे खुशी है कि कलम उठाने वाले हाथों ने कलम को झाडू बना लिया।’ प्रधानमंत्री का यह वक्तव्य महात्मा गांधी के इस कथन की याद दिलाता है, ‘अगर ऐसा उत्साही कार्यकर्ता मिल जाए, जो झाडू और फावड़े को भी उतनी ही आसानी और गर्व के साथ हाथ में ले ले जैसे वे कलम और पेंसिल को लेते हैं, तो इस कार्य में खर्च का कोई सवाल ही नहीं उठेगा। अगर किसी खर्च की जरूरत पड़ेगी भी तो वह केवल झाडू फावड़ा, टोकरी, कुदाली और शायद कुछ कीटाणुनाशक दवाइयां खरीदने तक ही सीमित रहेगा।’ (व्यास, 1963, पृ. 180-81)

 (लेखक स्वस्थ भारत न्यास के अध्यक्ष एवं वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

 ई-मेलःashutoshinmedia@gmail.com

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