स्वच्छ पेयजल से वंचित आधी आबादी

6 Jul 2014
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पानी की जरूरत मोटे तौर पर तीन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए होता है- खेती, उद्योग और इंसानों के उपयोग हेतु। इन तीनों ही जगह पानी का अपव्यय होता है जिसके गंभीर दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं। पानी के अत्यधिक दोहन के कारण कुछ स्थानों पर जलस्तर हर वर्ष 25 से 30 फुट कम होता जा रहा है। बढ़ते शहरीकरण के कारण प्रति व्यक्ति के लिए 2200 घनमीटर पानी उपलब्ध था, लेकिन 2050 तक प्रति व्यक्ति को मात्र 1100 घनमीटर ही पानी मिल सकेगा। जनसंख्या के बढ़ते दबाव और जीवनस्तर में सुधार के कारण पानी की मांग बढ़ती जा रही है, लेकिन सीमित जल संसाधनों की वजह से 2025 तक दुनिया की दो तिहाई आबादी के समक्ष पानी का गंभीर संकट उत्पन्न होने की आशंका है। सिंचाई के पानी की किल्लत के कारण कृषि उपज कम होने से गरीबों को दो जून की रोटी मिलनी मुश्किल हो जाएगी। पीने तथा सफाई आदि कामों के लिए साफ पानी न मिलने से वंचित तबके का स्वास्थ्य भी खराब होगा तथा पानी के बंटवारे को लेकर टकराव और संघर्ष भी बढ़ेगा।

पृथ्वी के तीन चौथाई भूक्षेत्र पर पानी है, लेकिन इसमें से 97.3 प्रतिशत में समुद्र है। केवल 2.7 प्रतिशत ही इस्तेमाल योग्य पानी है। इसमें से भी 1.74 प्रतिशत हिमनद और बर्फ के रूप में है।

पेयजल संकट इतना भयावह होगा कि इसको लेकर मार-काट मचेगी, राज्यों के बीच विवाद बढ़ेंगे और शताब्दी अंत तक देशों के बीच युद्ध का कारण भी पानी बनेगा। पानी को लेकर 60 सालों में 200 अंतरराष्ट्रीय समझौते हुए और हिंसा के 37 बड़े मामले रिपोर्ट हुए हैं।

संयुक्त राष्ट्र संघ की द्वितीय वर्ल्ड वाटर डेवलपमेंट रिपोर्ट के अध्ययन से पता चलता है कि आज जिस रफ्तार से पानी खर्च हो रहा है, यदि यहि रफ्तार जारी रही तो सन् 2025 तक दुनिया की दो तिहाई जनसंख्या को पानी के लिए जूझना पड़ेगा।

ग्रामीण विकास मंत्रालय के अनुसार देश में प्रति वर्ष करीब 1869 वर्ग घनमीटर भूजल उपलब्ध होता है जिसमें से मात्र 690 सीसीएम का ही इस्तेमाल हो पाता है। शेष 80 प्रतिशत पानी बिना किसी इस्तेमाल के समुद्र में बहकर बेकार हो जाता है। दुनिया के 9 प्रतिशत बड़े बांध भारत में हैं, लेकिन इनमें कुल उपलब्ध पानी का मात्रा 20 प्रतिशत ही संग्रहीत हो पाता है। आजादी के पहले देश में मात्र 300 बांध थे जबकि इस समय इनकी संख्या करीब 4 हजार 300 है।

देश में कुल उपलब्ध पानी का 81 प्रतिशत सिंचाई के काम में, 3.8 प्रतिशत घरेलू तथा इतना ही औद्योगिक कामों में, 0.9 प्रतिशत ताप बिजली उत्पादन में और 10.5 प्रतिशत अन्य कामों में इस्तेमाल होता है।

पानी की जरूरत मोटे तौर पर तीन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए होता है- खेती, उद्योग और इंसानों के उपयोग हेतु। इन तीनों ही जगह पानी का अपव्यय होता है जिसके गंभीर दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं।

पानी के अत्यधिक दोहन के कारण कुछ स्थानों पर जलस्तर हर वर्ष 25 से 30 फुट कम होता जा रहा है। बढ़ते शहरीकरण के कारण प्रति व्यक्ति के लिए 2200 घनमीटर पानी उपलब्ध था, लेकिन 2050 तक प्रति व्यक्ति को मात्र 1100 घनमीटर ही पानी मिल सकेगा।

लगातार अवर्षा या कम वर्षा की वजह से कृषि एवं औद्योगिक क्षेत्रों में सरकारी और निजी क्षेत्रों में भूजल दोहन की गति ने भूकार्य में पानी को अंतिम सीमा पर ला दिया है। जमीन से पानी इतनी तेजी से निकाला जा रहा है कि पानी का स्तर निरंतर कम होता जा रहा है।

संयुक्त राष्ट्र संघ ने 1981-90 के दशक को विश्व जल शताब्दी के तौर पर सभी देशों को मनाने का अनुरोध किया था। यह शताब्दी भी खत्म हो गई, लेकिन आज भी करोड़ों लोग ऐसे हैं जिन्हें पीने के लिए स्वच्छ जल उपलब्ध नहीं है।

विकास के पथ पर तेजी से डग भरने के दावों के बावजूद हमारे देश की 80 प्रतिशत आबादी को स्वच्छ पेयजल उपलब्ध नहीं हो पा रहा है। दूर-दराज में बसे हमारे गांवों के बाशिंदे अपना कंठ गीला करने के लिए अनेक किलोमीटर की दूरी तय कर पीने का पानी लाते हैं।

अधिकृत आंकड़ों के अनुसार पिछले चालीस वर्षों में देहात के 20 करोड़ लोगों को पेयजल उपलब्ध जरूर कराया गया लेकिन देश की आधी आबादी के लिए सुरक्षित पेयजल अभी सपने की ही वस्तु है। आंकड़े बताते हैं कि देश के लगभग 2 लाख गांवों में पेयजल लाने के लिए अभी भी दो किलोमीटर का फासला तय करना पड़ता है। देश के पचास प्रतिशत से अधिक गांवों में जल की उपलब्धि काफी सीमित है। अर्थात् वहां केवल एक ही स्रोत है। इस कारण भारत में पेयजल समस्या काफी विकट है।

भारत की विशाल आबादी तथा इसकी वृद्धि दर के मद्देनजर 2025 तक करीब 90 प्रतिशत क्षेत्र में कृषि, घरेलू, औद्योगिक और पर्यावरण से संबंधित कामों के लिए पर्याप्त पानी नहीं मिल सकेगा।

पानी की बूंद-बूंद को मोहताज होती देश की इस हालत का जिम्मेदार सिर्फ कमजोर मानसून ही नहीं, लाचार जल प्रबंधन भी है। सरकारी मशीनरी ने भविष्य की आवश्यकताओं के मद्देनजर दूर-दृष्टि कमजोर रखी। नतीजा, कमजोर बुनियाद वर्तमान की उचित जल प्रदाय व्यवस्था के लिए नाकाफी है। गर्मी आने से पूर्व ही देश के अधिकांश शहरों के नलों में पानी आना बंद हो जाता है या एक दो दिन छोड़कर जल प्रदाय किया जाता है। कहीं-कहीं तो सप्ताह में एक दिन ही जल की आपूर्ति की जाती है। ग्रामीण क्षेत्र के हालात तो और भी बुरे हैं।

बात चाहे स्थानीय निकायों द्वारा किए जाने वाले जल प्रदाय की हो या भूमिगत जल स्रोतों की, चूंकि उसके लिए हमें विशेष धनराशि खर्च नहीं करनी पड़ती है, इसलिए हर स्तर पर इसका दुरुपयोग हो रहा है। जबकि दूसरी ओर लोग पानी की एक-एक बूंद के लिए तरस रहे हैं। यदि प्रत्येक व्यक्ति यह संकल्प ले कि वह पानी का अपव्यय नहीं होने देगा तो देश से जल समस्या दूर होते देर नहीं लगेगी।

गांवों में पानी का सामान्य स्रोत कुएं ही हैं। छिछले कुओं का पानी बड़ी आसानी से प्रदूषित हो जाता है। इस पानी को कुएं में प्रवेश करने से रोकने के लिए कुएं के पास की जमीन की ढलान, कुएं के मुंह की विपरीत दिशा में कर देनी चाहिए। कुएं के आसपास के भाग को साफ रखना चाहिए और उस पर पत्थर-ईंट का चबूतरा बना देना चाहिए। कुएं को पर्याप्त गहराई तक खोदना चाहिए, ताकि ऊपरी जमीन से रिसता मैला पानी उसमें न आ सके। इस रिसाव को रोकने के लिए कुएं के भीतरी भाग को इंट की सतह दे देनी चाहिए। संपूर्ण विश्व में 22 मार्च का दिन ‘वर्ल्ड वाटर डे’ के रूप में मनाया जाता है। इसका उद्देश्य लोगों को ताजे पानी की कीमत बताने और उस पानी के रिसोर्स मैनेजमेंट के लिए काम करने से है।

इसके बावजूद सच्चाई यह है कि साफ पानी के संरक्षण हेतु अभी भी जागरूकता का अभाव है और पानी के बीच प्यासे रहने की मजबूरी बढ़ती जा रही है।

‘जल ही जीवन है’ यह इसकी महत्ता को प्रदर्शित करता है। लेकिन सच तो यह है कि हम इसके महत्व की उपेक्षा करते हैं तथा उसे बर्बाद करते हैं, नतीजतन एक समय ऐसा आ जाता है जबकि पानी के लिए त्राहि-त्राहि मच जाती है।

दुनिया भर में दूषित जल व स्वच्छ जल के अनुपात के अनुसार एक गैलन पानी की तुलना में स्वच्छ पेयजल की मात्रा केवल दो छोटे चम्मच भर ही है। यह स्थिति लगभग सभी देशों में है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार विकासशील देशों में अब भी हर वर्ष दो करोड़ पचास लाख लोग गंदे पानी के कारण होने वाली बीमारियों से मरते हैं तथा विकासशील देशों में लगभग अस्सी प्रतिशत बीमारियां गंदे पानी की वजह से होती हैं।

एक अनुमान के अनुसार देश में कुल संक्रामक बीमारियों में से 21 प्रतिशत दूषित पानी से होती हैं। जलजनित बीमारियों से होने वाले रोगों एवं मौतों के कारण देश को हर वर्ष करीब 36.6 अरब रुपए का नुकसान हो जाता है। राष्ट्रीय पर्यावरण अभियांत्रिकी अनुसंधान संस्थान के अनुसार देश के अंदर 70 प्रतिशत पानी ऐसा है जो मनुष्यों के इस्तेमाल करने योग्य नहीं है। दूषित जल के उपयोग की वजह से उत्पन्न बीमारियों के कारण देश को हर वर्ष सात करोड़ 30 लाख कार्य दिवसों की हानि होती है।

भारत में, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में होने वाली बीमारियों का एक बड़ा हिस्सा पानी से फैलने वाली बीमारियां हैं। इन बीमारियों में अतिसार, पेचिस, हैजा, टाइफाइड, पीलिया आदि शामिल हैं। दूषित जल से उपजी ये बीमारियां मौत का कारण बन सकती हैं।

औद्योगिक प्रक्रियाओं से उत्पन्न रासायनिक अपद्रव्य अक्सर क्लोरीन, अमोनिया, हाइड्रोजन, सल्फाइड विभिन्न प्रकार के अम्ल और तांबा, जस्ता, निकल, पारा आदि जैसे विषैले पदार्थों से युक्त होते हैं। यदि ये पीने के पानी के जरिए या प्रदूषित पानी में पलने वाली मछलियों को खाने से शरीर में पहुंच गए तो गंभीर बीमारियों का कारण बन सकते हैं। परिणामस्वरूप अंधापन, लकवा मार जाना, रक्त संचार तथा श्वसन प्रक्रिया में भी रुकावट आ सकती है। यदि इस प्रकार का प्रदूषित पानी कपड़े धोने या नहाने में नियमित रूप से प्रयोग में लाया जाए तो त्वचा रोग हो जाते हैं। यदि इस पानी से खेतों की सिंचाई की जाए तो दूषित तत्व खेतों में उग रहे पौधों में प्रवेश कर जाते हैं जिनसे भयंकर बीमारियां उत्पन्न हो सकती हैं। इस प्रकार का प्रदूषण भारत के औद्योगिक केंद्रों में सामान्य है जहां सैकड़ों उद्योग अपने जहरीले निकासों को जल स्रोतों में छोड़ते हैं।

गंदले पानी को जलाशय में छोड़ने से पूर्व उसका उचित उपचार आवश्यक है ताकि उसमें मौजूद मलिन पदार्थ अलग किए जा सकें। सामान्यतः बड़े जलाशयों में छोड़े गंदले पानी को सीमित रूप से ही साफ किया जाता है। जबकि छोटे या ऐसे जल स्रोतों, जिन्हें पुनः उपयोग में लाया जाने वाला हो, में छोड़े जाने गंदले पानी को अधिक साफ करने की आवश्यकता होती है। उद्योगों से निकलता पानी कई हानिकारक रासायनिक पदार्थ से युक्त होता है जिनको आसानी से पानी से अलग नहीं किया जा सकता है। उदयोगों के ऐसे जहरीले पानी को नदी-नालों में छोड़ने से रोकने के लिए कड़े नियमों के निर्धारण की आवश्यकता है।

घरेलू आवश्यकताओं के लिए जो पानी हम इस्तेमाल करते हैं वह रोग पैदा करने वाले कीटाणुओं से मुक्त होना चाहिए। ग्रामीण क्षेत्रों में कुएं से निकाले जाने वाले पानी को शुद्ध करने के लिए फिटकरी या पोटैशियम फरमैंगनेट के गाढ़े घोल का प्रयोग लाभकारी हो सकता है। घरों में उपयोग किए जाने वाले पानी को उबालकर छान लेना चाहिए। बीमारी के वक्त तो ऐसा करना आवश्यक हो जाता है।

गांवों में पानी का सामान्य स्रोत कुएं ही हैं। छिछले कुओं का पानी बड़ी आसानी से प्रदूषित हो जाता है। इस पानी को कुएं में प्रवेश करने से रोकने के लिए कुएं के पास की जमीन की ढलान, कुएं के मुंह की विपरीत दिशा में कर देनी चाहिए। कुएं के आसपास के भाग को साफ रखना चाहिए और उस पर पत्थर-ईंट का चबूतरा बना देना चाहिए। कुएं को पर्याप्त गहराई तक खोदना चाहिए, ताकि ऊपरी जमीन से रिसता मैला पानी उसमें न आ सके। इस रिसाव को रोकने के लिए कुएं के भीतरी भाग को इंट की सतह दे देनी चाहिए। कुएं के चारों ओर ईंट की दीवार बना देनी चाहिए ताकि कुएं के आसपास से धुलाई का पानी कुएं में न गिर सके। यदि कुएं के मुंह को ढका जा सके, तो उत्तम रहेगा। उससे धूल और कचरा कुएं में नहीं गिर सकेगा।

जहां तक संभव हो, कुएं से पानी रस्सी और बाल्टी के बजाय पंप द्वारा ही निकाला जाना चाहिए। जहां यह न हो सके, इस कार्य के लिए एक बाल्टी निश्चित कर देनी चाहिए। समय-समय पर कुएं की सफाई करते रहना चाहिए। कुएं के आसपास नहाना, कपड़े धोना आदि कार्यों को नहीं होने देना चाहिए। कुएं में समय-समय पर रोगाणुनाशक दवाइयां डालनी चाहिए ताकि पानी में रोगाणु न पनप सकें। ग्रामीण स्तर पर काम करने वाले अधिकारियों से इस संबंध में अधिक जानकारी प्राप्त की जा सकती है।

जिन घरों में मटकों में पानी भरा जाता है, उनकी सफाई नियमित तौर पर होनी चाहिए तथा सदैव पानी छानकर भरना चाहिए। यदि कुछ दिनों के लिए घर बंद कर बाहर जाया जाए तो आने पर रखे हुए पानी का उपयोग न करें।

संपर्क
किरण वाला, 43/2 सुदामा नगर, राम टेकरी, पोस्ट+जिला- मंदसौर458001 म.प्र.
फोन. 07422-224335
मो. 089826290120
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