स्वच्छ पर्यावरण के लिए स्वच्छ जीवनशैली

28 Sep 2012
0 mins read

स्वच्छता एवं पर्यावरण पर राष्ट्रीय सम्मेलन


आधुनिक सभ्यता ने हमारे पर्यावरण को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाने का काम किया है। आज थर्मोकोल, प्लास्टिक आदि हमारे जीवन का अहम हिस्सा बन गए हैं। इन कचरों की औसत आयु एक मिलियन ईयर होता है। दूसरी तरफ इलेक्ट्रॉनिक कचरा भी बढ़ता जा रहा है। जिसके उचित प्रबंधन पर इस सम्मेलन में विचार किया गया। देश में कुल कचरे में चालीस प्रतिशत सिर्फ कागज का कचरा होता है। एक किलो कागज बनाने में 24 पेड़ों की आवश्यकता होती है और अत्यधिक मात्रा में पानी की खपत भी की जाती है। स्वच्छता का अभाव एवं पर्यावरण पर मंडराते खतरे आज विश्व की सबसे बड़ी समस्याओं में हैं। लगातार बढ़ती जा रही जनसंख्या से पर्यावरण को बचाना एक बड़ी चुनौती है। क्योंकि हमारे प्राकृतिक संसाधन सिमटते जा रहे हैं और हमारी उपभोग की इच्छाएं बढ़ती जा रही हैं। इस उपभोगवादी संस्कृति के चलन ने हमें आस-पास के पर्यावरण और स्वच्छता संबंधी बातों से दूर कर दिया है। हम आज सिर्फ इस्तेमाल की संस्कृति का निर्माण कर रहे हैं। इस विषम परिस्थिति से कैसे बचा जाए? इसके लिए क्या ठोस उपाय किए जाएं ताकि स्वच्छता हमारी जीवन शैली बन सके और पर्यावरण पर मंडराते खतरे को टाला जा सके? इन सवालों का समाधान खोजने के प्रयास के बाबत गांधी दर्शन में 27 से 28 मार्च तक राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन किया गया। जिसमें देश भर के चौदह राज्यों से आये वैसे लोगों ने शिरकत की जो इस विषय पर लंबे समय से अपने-अपने क्षेत्रों में काम कर रहे हैं इस सम्मेलन का सहयोगी संगठन अण्णा साहब सहस्त्रबुद्धे ट्रस्ट, सेवाग्राम महाराष्ट्र था।

गांधीजी और उनके अनुयायी अप्पा साबह, अण्णा साहब पटवर्धन ने सफाई विषय पर कई आंदोलन चलाए। गांधी ने न सिर्फ हमें आजादी दिलाने के लिए सत्य, अहिंसा और सत्याग्रह जैसे हथियार दिए बल्कि जातीय गैरबराबरी मिटाने के लिए झाड़ू जैसे प्रमुख औजार भी दिया। आज भी हमारा समाज जातीय गैरबराबरी को मिटा नहीं पाया है। यही कारण है कि साफ-सफाई का काम आज भी एक खास समुदाय के हिस्से छोड़ दिया गया है। गांधी स्मृति एवं दर्शन समिति की निदेशक मणिमाला ने अपने सम्बोधन में कहा कि हमारे देश में सफाई सबसे बड़ी समस्या रही है। ‘जाति और लिंग’ इन दोनों सिरों पर ही भारत की पूरी सफाई व्यवस्था टिकी हुई है। घर में सफाई का 98 प्रतिशत काम महिलाओं के हिस्से आता है। इसमें पुरुष की भागीदारी बहुत कम होती है। समता पर आधारित समाज निर्माण के लिए दोनों को बराबर का हिस्सेदार बनना पड़ेगा। इस सम्मेलन के मुख्य अतिथि पूर्व जस्टिस चन्द्रशेखर धर्माधिकारी ने बताया कि गांवों में शौचालय की समुचित व्यवस्था न होने का सबसे ज्यादा खामियाजा महिलाओं को भुगतान पड़ता है। 75 फीसदी महिलाओं को पेट की बीमारी होती है। कारण महिलाएं सूर्योदय के पहले और सूर्यास्त के बाद ही शौच के लिए जा सकती हैं।

लगातार बढ़ रहे शहरीकरण ने कई तरह की समस्याओं को जन्म दिया है। ज्यादातर शहरों का विकास नदियों और समुद्रों के किनारे हुआ। साथ-साथ कल कारखानों के दूषित अवसादों के निकासी का सबसे बड़ा जरिया नदियों को बना दिया गया है। जिससे पीने का पानी दुषित हुआ है। जिसने कई तरह की बीमारियों को जन्म देने का काम किया है।

स्वच्छता अभियान का मुख्य उद्देश्य है-कोई भी व्यक्ति खुले में शौच के लिए ना बैठे। देश में पूर्ण स्वच्छता का लक्ष्य निर्धारित किया गया। 2007 तक इसे पूरा करने का संकल्प लिया गया था। इस संकल्पित लक्ष्य को नहीं पाया जा सका। अब इसकी अवधि बढ़ाकर 2022 कर दी गई है। सरकार द्वारा लगातार कोशिश की जा रही है। लोगों में यह धारणा है कि ‘शौच हम करें और सफाई सरकार करे, कचरा हम फैलायें और सफाई का काम सरकार करे।’ इस स्थिति को बदलने की आवश्यकता है। खुले में शौच करना हमारी आदत में शुमार है। आधार के डिप्टी डायरेक्टर कुमार आलोक ने बताया कि हाल की जनगणना के अनुसार भारत में ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों को मिलाकर पचास फीसदी लोग खुले में शौच करते हैं। खुले में शौच के कारण कई तरह की बीमारियां फैलती हैं। डब्ल्यू. एच. ओ. के एक अध्ययन के अनुसार एक रुपया अगर हम अपनी स्वच्छता संबंधी जरूरतों पर खर्च करते हैं तो इसका फायदा इस रूप में मिलता है कि विभिन्न क्षेत्रों में हमारी 34 रुपए की बचत होती है। दूसरी तरफ हम ‘कार्बन क्रेडिट’ के जरिए कमाई भी कर सकते हैं। क्योंकि शौच के मल विघटन से मिथेन गैस बनता है। जिसका उपयोग हम खाना बनाने वाले गैस के रूप में करते हैं। हम जितना कार्बन बचाएंगे उसका आर्थिक लाभ प्राप्त होगा।

हमारे देश में गंदगी करने वालों की प्रतिष्ठा सफाई करने वालों से ज्यादा है। आज आदमी-आदमी से जितना दूर रहता है उतना ही उसको पवित्र भावना समझा जाता है। धर्माधिकारी जी ने बताया कि “आज अगर मैं आपके सामने कहूं कि सिवाए हिंदुओं के, दूसरे के हाथ का खाना नहीं खाता, तब मैं पवित्रता की एक सीढ़ी ऊपर उठता हूं। फिर कहूं कि सिर्फ ब्राह्मणों के हाथ का बना खाना खाता हूं। तो फिर प्रतिष्ठा की दूसरी सीढ़ी चढ़ जाता हूं। अगर धर्माधिकारी परिवार के हाथ का खाता हूं तो तीसरी सीढ़ी पर जाता हूं। सिर्फ मैं अपनी पत्नी और मां के हाथ का खाता हूं तो चौथी सीढ़ी पर जाता हूं। खुद पकाता और खूद खाता हूं तो पांचवी सीढ़ी पर जाता हूं। इंसान को इंसान से दूर रखना! यह पुरातन सनातन संस्कृति थी। जिसकी पवित्र भावना जातीयता से जुड़ी। इस अमानवीयता को समाप्त करने के लिए गांधी जी ने झाड़ू उठाया।”

आधुनिक सभ्यता ने हमारे पर्यावरण को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाने का काम किया है। आज थर्मोकोल, प्लास्टिक आदि हमारे जीवन का अहम हिस्सा बन गए हैं। इन कचरों की औसत आयु एक मिलियन ईयर होता है। दूसरी तरफ इलेक्ट्रॉनिक कचरा भी बढ़ता जा रहा है। जिसके उचित प्रबंधन पर इस सम्मेलन में विचार किया गया। निर्मल ग्राम केंद्र नासिक की कार्यकर्ता मुक्ता ने बताया कि अजैविक कचरा, जिसमें कागज की तादाद बढ़ती जा रही है, हमारे देश में 14.6 मिलियन टन का हो गया है। देश में कुल कचरे में चालीस प्रतिशत सिर्फ कागज का कचरा होता है। एक किलो कागज बनाने में 24 पेड़ों की आवश्यकता होती है और अत्यधिक मात्रा में पानी की खपत भी की जाती है। इससे पर्यावरण को बड़े पैमाने पर नुकसान पहुंचता है। आज कागज के सही इस्तेमाल की जानकारी लोगों तक पहुंचाये जाने की आवश्यकता है।

इस राष्ट्रीय सम्मेलन में मदुरई के बाल सुब्रमण्यम को ‘अण्णा साहब सहस्त्रबुद्धे’ पुरस्कार प्रदान किया गया। यह पुरस्कार दो वर्षों के अंतराल पर सफाई और पर्यावरण के क्षेत्र में विशिष्ट उपलब्धि के लिए दिया जाता है। पुरस्कार के तौर पर प्रशस्तिपत्र और पचीस हजार रुपए की राशि प्रदान की गई बाल सुब्रमण्यम ने अपने गांव तिरूमंगलम में ऑर्गेनिक खेती के प्रति लोगों में जन जागरूकता फैलाई है। इसके तहते सुब्रमण्यम ने तीन हजार किसानों को सजीव (ऑर्गेनिक) खेती के लिए प्रोत्साहित किया है।

दो दिनों के इस सम्मेलन में गहन विचार-विमर्श के बाद कुछ बातें सामने आईं। जैसे स्वच्छता को जीवन शैली बनाने के लिए लोगों के बीच जनजागरूकता अभियान चलाया जाए। उन्हें यह समझाने का प्रयास किया जाए कि स्वच्छता हर नागरिक की निजी जिम्मेदारी है। सफाई विषय को बच्चों के पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए, ताकि बच्चे स्वच्छता को जीवन शैली बना सकें। कार्यक्रम के समापन के बाद लोगों में आत्मविश्वास बढ़ा उन्होंने कुछ नई तकनीक जैसे कचरा से खाद बनाना, गंदे पानी का प्रबंधन करना आदि सीखा तथा अपनी-अपनी संस्था के माध्यम से इसे आगे ले जाने का संकल्प लिया।

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading