स्वयंसेवी संगठनों की भूमिका

स्वयंसेवा की अवधारणा से जुड़े हुए शब्द स्वयंसेवक एवं स्वयंसेवी संगठन वक्त के साथ-साथ विकसित हुए हैं। लेकिन इन शब्दों के विकास के पूर्व भी यह अवधारणा एक एहसास के रूप में जनमानस में विद्यमान थी। स्वयंसेवी भावना हमारे देश की काफी पुरानी एवं समृद्ध परंपरा रही है, जिसमें व्यक्तिगत एवं सामाजिक क्रियाकलाप सामूहिक हित में होते थे। यदि हम कल्पना करें उस समय की, जब लोगों को पढ़ाना-लिखना नहीं आता था और इस विचारधारा हेतु शब्द नहीं थे तो भी स्वयंसेवा की विचारधारा विद्यमान थी। पूर्व ही क्यों, वर्तमान में काफी लोग ऐसे हैं जो पढ़े – लिखे नहीं होने के कारण इस विचारधारा को शब्दों में व्यक्त नहीं करते लेकिन अपने कार्यों में इसका समावेश करते हैं। स्वयंसेवा के पीछे की मूल भावना यह है कि निहित स्वार्थों की जगह सामूहिक हित को प्राथमिकता देना। भारत के बारे में कहा जाता है कि भारत देश गांवों में बसता है और यह भावना हमारे ग्रामीण परिवेश में पूर्ण रूप से समाहित थी। यदि हम 15 से 20 साल पूर्व के ग्रामीण परिवेश की बात करें, खासकर उत्तराखंड के ग्रामीण परिवेश की तो स्वयंसेवा की अवधारणा एक एहसास के रूप में ग्रामीण जीवन में विद्यमान थी। जब लोग बिना किसी अपेक्षा के अपनी क्षमतानुसार एवं आवश्यकतानुसार एक दूसरे की सहायता करते थे तथा सामूहिक हित में कार्य करते थे। यह वह दौर था जब प्राकृतिक संसाधनों का दोहन सामुहिक रूप से सामुहिक हित में होता था, लोग अपनी कला संस्कृति एवं परंपरा के प्रति सजग थे, एवं इसके संरक्षण को बढ़ावा देते थे। विभिन्न व्यक्ति भिन्न-भिन्न तरह के कौशल में निपुण होते थे। सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि जो व्यक्ति जिस तरह के कौशल में निपुण होता था वह बिना किसी अपेक्षा के अपने कौशल एवं क्षमतानुसार सेवा प्रदान करता था। उस समय लोगों की आवश्यकताएं भी सीमित थीं वे आपस में एक दूसरे की सहायता करके इन आवश्यकताओं की पूर्ति कर लेते थे।

वक्त के साथ-साथ आवश्यकताएं बदलीं तो ग्रामीण परिवेश भी बदला और साथ ही बदला इन आवश्यकताओं की पूर्ति करने का माध्यम भी। देश की स्वतंत्रता के बाद सरकार ने अपनी जो भूमिका गढ़ी उससे धीरे-धीरे ये परिवेश पनपने लगा कि लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति, सामाजिक एवं आर्थिक विकास का कार्य मुख्य रूप से सरकार का है। विकास योजनाओं के निर्माण एवं क्रियान्वयन में जनता की सहभागिता को उतनी महत्ता नहीं मिली जो कि पूर्व में स्वयंस्फूर्त रूप में ग्रामीण जीवन में विद्यमान थी। इस प्रवृति के कुछ दुष्परिणाम सामने आयें हैं। प्रथम एक तरफ लोगों के मन में यह भावना घर कर गई कि उनकी समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति एवं समस्याओं के समाधान हेतु सरकार उत्तरदायी है।

दूसरी सरकारें आवश्यकताओं को पहचानने एवं कार्यक्रमों के क्रियान्वयन हेतु समुदाय की उपयोगिता को पहचानने में असफल रहीं।

योजनाएं ऊपर से बनकर नीचे को आती रहीं। इस प्रवृत्ति से सामाजिक सहभागिता का पूर्व में विद्यमान ताना-बाना बिखर गया। विडंबना सामने आई कि हमारे देश की विविध भौगोलिक एवं सामाजिक परिस्थिति के कारण सरकारी स्तर की योजनाएं लोगों की आवश्यकताओं को पूर्ण नहीं कर पाईं, वहीं दूसरी ओर जितनी आवश्यकताओं की पूर्ति आपस में एक दूसरे की मदद करके कर लेते थे, वह भी नहीं कर पाये। आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु गांवों से शहर की ओर पलायन आरंभ हुआ परिणाम यह हुआ कि शहरों में जनसंख्या का दबाब बढ़ा, वहीं दूसरी ओर गांवों में खासकर पहाड़ी क्षेत्र के गांव वीरान हो गये। कुछ गांव तो पूर्ण जनसंख्याविहीन हो गये।

इसकी सबसे बड़ी वजह रही कि लोगों के सामाजिक एवं आर्थिक विकास हेतु सरकार ने अपने स्तर पर योजनाएं तो बनाईं लेकिन हमारे देश की भौगौलिक एवं सामाजिक परिस्थितियां इतनी भिन्न हैं कि एक क्षेत्र को ध्यान में रखकर बनाई गई योजनाएं सभी क्षेत्रों में लागू एवं सफल नहीं हो सकतीं। इनकी सफलता हेतु समुदाय की सहभागिता से कार्यक्रमों का निर्माण एवं क्रियान्वयन अपरिहार्य आवश्यकता है। इस प्रक्रिया का अनुसरण नहीं करने से उत्तराखंड राज्य के गांवों में जो विडंबनाएं सामने आ रही हैं उसके चंद उदाहरण इस प्रकार हैं।

• पहाड़ों में सदियों से रास्ते के निर्माण हेतु पत्थर एवं मिट्टी का प्रयोग होता था जो सदियों तक चलते थे तथा ग्रामीण जनता इसका रख-रखाव स्वयं कर लेती थी लेकिन वर्तमान में इस हेतु कंकरीट एवं सीमेंट का प्रयोग होता है जिसकी टूट फूट होने पर मरम्मत हेतु पुनः सरकार की ओर देखना पड़ता है। दूसरी ओर सर्दियों में पाला पड़ने से इतनी फिसलन हो जाती है कि इनमें चलना दूभर हो जाता है।

• दूसरा उदाहरण सिंचाई हेतु बनायी जा रही नहरों का है। इस हेतु भी पूर्व में मिट्टी एवं पत्थर का प्रयोग होता था जो कि ग्रामीण सहभागिता से बनाये जाते थे। वर्तमान में ये भी सीमेंट एवं कंकरीट से बनाये जाते हैं जिसमें लीकेज होने पर इनकी मरम्मत करना इतना मुश्किल हो रहा है कि जिन खेतों में पहले कच्ची नहरों से सतत रूप से पानी पहुंचता था अब उन तक पानी पहुंचाना मुश्किल हो रहा है।

• जिन जंगलों को आग से बचाने हेतु पहले समुदाय पूर्ण रूप से सक्षम था आज कई नियमित कर्मचारियों एवं सुविधाओं के बाद भी जंगलों को आग से बचाना संभव नहीं हो पा रहा है।

ये तो चंद बानगी भर हैं ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जिसमें आवश्यकता की पहचान एवं कार्यक्रमों के क्रियान्वयन हेतु सामुदायिक सहभागिता को दरकिनार किया गया। परिणामस्वरूप समुदाय को उन सुविधाओं से भी वंचित होना पड़ा है जो पूर्व में समुदाय के पास विद्यमान थीं। निर्विवाद रूप से इस बात में कोई दो राय नहीं है कि आज के आधुनिक युग में प्रगति के लिये नई तकनीक एवं डिजाइन का समावेश जरूरी है लेकिन वह तकनीक एवं डिजाइन उस क्षेत्र के लिए उपयुक्त हो यह ज्यादा महत्वपूर्ण है।

इस बात को ध्यान में रखते हुए इस बात की आवश्यकता महसूस की गई कि स्वयंसेवा के एहसास एवं सामूहिक सहभागिता के पूर्व में विद्यमान परिवेश के साथ-साथ नई तकनीक का समावेश भी अत्यावश्यक है। इस हेतु स्वयंसेवी संगठनों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि स्वयंसेवी संगठन सामुदायिक स्तर पर अपनी पैठ एवं तकनीकी दक्षता के जरिये आवश्यकताओं की पहचान एवं कार्यक्रमों के क्रियान्वयन से सामाजिक एवं आर्थिक विकास के माध्यम से लोगों के जीवन स्तर में सुधार लाने हेतु महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।

स्वयंसेवी संगठनों की महत्वपूर्ण एवं प्रभावशाली भूमिका का सबसे बड़ा आधार यह है कि स्वयंसेवी संगठन नये प्रयोगों एवं आवश्यकतानुसार लचीले स्वरूप को आसानी से अपने कार्य में समाहित कर लेते हैं। स्वयंसेवी संगठनों द्वारा विकसित की गई कार्यविधि, मॉडल एवं सामग्री कई बार इतनी महत्वपूर्ण साबित हुई है कि सरकार द्वारा राष्ट्रीय स्तर के कार्यक्रमों में इसे समाहित किया गया है। इनमें से प्रमुख हैं जल संरक्षण हेतु वर्षा जल का संरक्षण, पीने के पानी हेतु हैंड पंप का प्रयोग, साक्षरता एवं सामुदायिक स्वास्थ्य। स्वयंसेवी संगठनों की भूमिका को और अधिक कारगर बनाने हेतु आवश्यकता इस बात की है कि स्थानीय युवाओं को इस कार्य में जोड़ा जाए। आमतौर पर देखा गया है कि स्थानीय युवा रोजगार की तलाश में गांव से बाहर शहरों की ओर पलायन कर जाते हैं। यदि ग्रामीण स्तर पर उन्हें संसाधन उपलब्ध कराये जाएं तो इस प्रवृत्ति को रोका जा सकता है। इस हेतु आवश्यकता इस बात की है कि उन्हें आवश्यकतानुसार संसाधन उपलब्ध कराये जाएं जिसके लिये अत्याधिक लालफीताशाही के नियमों में संशोधन अत्यावश्यक है।

हालांकि, गैर सरकारी संगठनों की सक्रिय एवं प्रभावशाली भूमिका के कारण राष्ट्रीय विकास में इसकी भूमिका को स्वीकार किया गया है लेकिन संसाधनों एवं वित्त की उपलब्धता के बारे में लालफीताशाही के कारण गैर सरकारी संगठनों एवं सरकार के बीच का संबंध याचक एवं दाता के रूप में स्थापित हो जाता है। आवश्यकता इस बात की है कि यह संबंध साझेदारी एवं सहभागिता का हो। साथ ही इस बात की भी आवश्यकता है कि स्वयंसेवी संस्थाओं को भी जिम्मेदारी के मानक तय करके उनके अनुसार कार्य करने एवं अपने कार्यो में पारदर्शिता बनाये रखनी होगी। यदि हमें ग्रामीण स्तर पर गरीब लोगों को लाभान्वित करना है तो सरकारी विभागों को भी स्वयंसेवी संगठनों के साथ कार्य करने में पारदर्शिता बनाये रखनी होगी। किसी भी कार्य के लिये सरकार पर अतिनिर्भरता एवं सामुदायिक सहभागिता के अभाव के अनेक दुष्परिणाम सामने आये हैं। इसका सबसे बड़ा दुष्परिणाम यह है कि सरकार जितना खर्च करती है उसके अनुपात में समुदाय को लाभ प्राप्त नहीं होता। इसके कारण काफी हद तक राजनैतिक भी हैं क्योंकि उनका ज्यादा समय अपने संगठन को बनाए व बचाए रखने एवं दूसरे गलों के संगठनों के साथ संघर्ष में व्यतीत होता है जिसके कारण वे संरचना यानि रचनात्मक कार्य में पर्याप्त ध्यान नहीं दे पाते। स्वयंसेवी संगठनों की भूमिका इस संदर्भ में महत्वपूर्ण हो सकती है। सरकार द्वारा प्रदत्त सेवाओं के स्थायित्व एवं कम लागत पर लोगों तक पहुंचाने का कार्य स्वयंसेवी संगठन कर सकते हैं। लेकिन इस बात पर भी ध्यान देना होगा कि अनैतिक आचरण एवं भ्रष्टाचार में लिप्त स्वयंसेवी संगठनों पर भी लगाम कसनी आवश्यक है।

ग्रामीण स्तर पर विकास एवं गरीब से गरीब व्यक्ति तक उसका फायदा बिना जनसेवा की भावना एवं स्वयंसेवी संगठनों की सक्रिय भागीदारी के नहीं हो सकता। उत्तराखंड राज्य में अगर हम स्वयंसेवी संगठनों की भूमिका की बात करें तो इस क्षेत्र की विशिष्ट भौगौलिक परिस्थिति के कारण इस क्षेत्र में स्वयंसेवी संस्थाओं की भी विशिष्ट भूमिका हो सकती है। पर्वतीय क्षेत्र में प्रचुर प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धता एवं समृद्ध सांस्कृतिक विरासत के बावजूद उनके समुचित प्रबंधन एवं नियोजन के अभाव में यहां की जनता इसका लाभ प्राप्त नहीं कर पा रही है।

ग्रामीण समुदाय के पास परंपरागत कौशल एवं ज्ञान का खजाना है और स्वयंसेवी संगठनों के पास आवश्यकतानुसार उपयुक्त तकनीक है। इन दोनों के समावेश से इस क्षेत्र के निवासियों के जीवन में गुणात्मक सुधार लाये जा सकते हैं बशर्ते सामुदायिक सहभागिता से कार्यक्रमों का निर्माण एवं क्रियान्वयन किया जाए। वर्तमान में जिला विकास अभिकरण के माध्यम से केवल निर्माण कार्य (खड़ंजा, गूल एवं पुल) आदि को विकास का पर्याय् मान लिया गया है जिनका क्रियान्वयन ग्राम प्रधानों द्वारा किया जाता है, जिसमें उनकी भूमिका ठेकेदार की तरह निर्धारित कर दी गयी है। विकास से संबंधित अन्य मुद्दे जैसे, ऊर्जा, जल संरक्षण, स्थानीय संसाधनों के नियोजन, महिला स्वास्थ्य एवं शिक्षा जैसे कार्यों पर काफी कम ध्यान दिया जा रहा है।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि स्वयंसेवी संगठन अपने क्षेत्र के सामाजिक, पर्यावरणीय एवं आर्थिक चुनौतियों के प्रति स्थानीय समुदाय, विकासोन्मुख संस्थाओं एवं सरकारी निकायों में जागरुकता तथा सामुदायिक सोच को उजागर करके लोगों के जीवन स्तर में सुधार लाकर राष्ट्रीय विकास में योगदान दे सकते हैं।

लेखक एवीएनआई से संबंद्ध कुमाऊं (उत्तराखंड) गांव में सामाजिक-आर्थिक परियोजनाओं पर कार्यरत हैं। ई-मेल : raju@avani-kumaon.org

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading