तालाबों को सहेजने में जुटीं औरतें

21 May 2016
0 mins read

साढ़े पाँच सौ की आबादी वाले कोरकू बाहुल्य गाँव बूटी में पीने तक के पानी का संकट था। यहाँ के सभी जलस्रोत सूख चुके थे। ऐसे में गाँव की औरतों ने आगे बढ़कर आने वाले सालों में पानी की व्यवस्था करने और बारिश के पानी को सहेजने के लिये बीड़ा उठाया है। जिस काम को करने के लिये पुरुष भी दस बार सोचते हैं, वह काम यानी यहाँ के सरकारी तालाब और कुओं की साफ–सफाई और उन्हें गहरा करने का काम आसान नहीं होता, पर पानी की किल्लत झेलते हुए यह बात उन्हें साफ समझ आने लगी थी कि अब सरकार या पंचायत के भरोसे ज्यादा दिन बैठा नहीं जा सकता। सरकार से बार-बार गुहार लगाकर हार चुकी औरतों ने अब अपने इलाके के तालाबों और कुओं को सहेजने का खुद ही जतन शुरू कर दिया है। सरकार और सरकारी अधिकारियों से तो उन्हें हमेशा ही आश्वासन ही मिलता था, लेकिन जब उन्होंने पहल की तो बीते दो महीने में ही उन्होंने करीब आधा दर्जन तालाबों और कुओं का कायाकल्प कर दिया।

आश्चर्य होता है कि 46–47 डिग्री की भीषण और जानलेवा गर्मी तथा चिलचिलाती धूप भी उनके इरादे डिगा नहीं पा रही। सुबह–सवेरे अपने घरों का कामकाज जल्दी से निपटाकर ये औरतें निकल पड़ती है अपने मिशन की ओर। इन छोटे–छोटे गाँवों में इन दिनों तालाब और कुएँ सहेजने की एक अघोषित मुहिम सी चल रही है। कुछ महीनों पहले तक इनके जज्बे की मजाक उड़ाने वाले इनके परिवारों के पुरुष भी अब इनकी पहल सार्थक होते देखकर इनके साथ हो चले हैं।

यह नजारा है मध्य प्रदेश के खंडवा जिले के आदिवासी इलाके खालवा ब्लाक का। बीते दस सालों में पर्याप्त पानी वाले कोरकू जनजाति के इस इलाके में भी धीरे–धीरे पानी की किल्लत आने लगी थी। तालाबों और कुएँ जल्दी ही सूख जाते। सरकार ने इससे निजात दिलाने के लिये कुछ ट्यूबवेल करवाए लेकिन वे भी गर्मी बढ़ने के साथ ही सूखने लगते।

ऐसे में आदिवासी परिवारों में पानी का संकट गहराने लगा। जिन सम्पन्न घरों में ट्रैक्टर या बैलगाड़ियाँ हैं, वे तो दूर खेतों से भी अपने लिये पानी उनसे ढोकर ले आते पर इन औरतों को तो पानी अपने सिर पर दूर–दूर खेतों से लाना पड़ता। उसमें भी कई–कई बार भटकना पड़ता था।

कोई किसान अपने कुएँ या ट्यूबवेल से पानी लेने देता और कोई नहीं। हर दिन सुबह उठते ही पानी की चिन्ता और मशक्कत शुरू हो जाती। आधा दिन पानी में ही निकल जाता तो मजदूरी कब करें और मजदूरी नहीं करें तो खाएँ क्या और बच्चों को क्या खिलाएँ। चिन्ता बड़ी थी और विकल्प किसी के पास नहीं था, हाँ सरकार के पास बहुत सारे विकल्प भी थे और बहुत सी योजनाएँ और पैसा भी, पर वहाँ तक इन आदिवासी औरतों की पहुँच नहीं थी।

ग्रामीण महिलाओं के श्रम से आकार लेता तालाबपंचायत में भी कई बार बात की पर कोई हल नहीं निकला। अधिकारियों ने बजट नहीं होने का बहाना लिया तो पंचायत ने स्वीकृति नहीं मिलने का। इस तरह बहुत दिन बीत गए। पानी की किल्लत दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही थी।

करीब साढ़े पाँच सौ की आबादी वाले कोरकू बाहुल्य गाँव बूटी में पीने तक के पानी का संकट था। यहाँ के सभी जलस्रोत सूख चुके थे। ऐसे में गाँव की औरतों ने आगे बढ़कर आने वाले सालों में पानी की व्यवस्था करने और बारिश के पानी को सहेजने के लिये बीड़ा उठाया है।

जिस काम को करने के लिये पुरुष भी दस बार सोचते हैं, वह काम यानी यहाँ के सरकारी तालाब और कुओं की साफ–सफाई और उन्हें गहरा करने का काम आसान नहीं होता, पर पानी की किल्लत झेलते हुए यह बात उन्हें साफ समझ आने लगी थी कि अब सरकार या पंचायत के भरोसे ज्यादा दिन बैठा नहीं जा सकता। अब हमें ही खुद करना होगा। बूटी गाँव धामा पंचायत का एक दूरस्थ गाँव है। यहाँ सबसे ज्यादा करीब 70 फीसदी (113 परिवार) कोरकू जनजाति के हैं।

तालाब में श्रमदान करने वाली बुधिया पति चिरोंजीलाल बताती हैं कि गाँव में जब तक तालाब जिन्दा रहता था, तब तक किसी को कोई दिक्कत नहीं थी। कपड़े धोने से लेकर मवेशियों को पानी पिलाने, सिंचाई और घर के अन्य कामकाज के लिये इससे पर्याप्त पानी मिल जाया करता था। पर किसी ने कभी इसकी ओर ध्यान ही नहीं दिया। धीरे–धीरे इसमें पानी खत्म होने लगा, ठंड के दिन आते–आते यह सूखने लगा तो पानी की हाहाकार होने लगी। हालत यह हो गए कि हमें 3 किमी दूर ताप्ती नदी से सिर पर उठाकर पानी लाना पड़ता है। तालाब में पानी रहता तो आसपास के कुएँ–कुण्डी और हैण्डपम्प भी चलते रहते। ऐसे में इस तलब को बचाने के अलावा हमारे पास कोई चारा नहीं बचा था।

इस पंचायत की उप सरपंच सामू बाई बूटी की ही है। वह बताती हैं कि पंचायत से पानी सहेजने का काम कराने में कई महीने गुजर जाते, फिर सरकार का काम कैसा होता है, यह सब जानते हैं। हमने पहले ही बरसों तक इन तालाबों और कुओं की सुध नहीं ली। अब हम किसी और के भरोसे इन्हें नहीं छोड़ सकते थे। इसलिये हमने ही काम शुरू किया। कोरकू आदिवासी महिलाओं के स्व सहायता समूह की करीब 30-35 औरतों ने इसकी शुरुआत की और देखिए आज कितना काम आगे बढ़ गया है। औरतों ने खुद ठानी तो पुरुषों को लगा कि यह इनके बस की बात नहीं है। लेकिन जैसे–जैसे इनका काम बढ़ता गया और जमीन पर कम दिखने और आकार लेने लगा तो इन्हें भी उनके साथ आना ही पड़ा।

श्रमदान के बाद बदली तस्वीरकरीब दो एकड़ के इस तालाब में भरी गर्मी और चिलचिलाती धूप में भी गाँव के लोग जुटे हैं। औरतें इस काम से फूली नहीं समा रही। पार्वती बाई पसीना पौंछते हुए गर्व से बताती है कि उन्होंने इस तालाब का नाम भी बदलकर अपने पूर्वज मठुआ बाबा के नाम पर कर दिया है। ये लोग उन्हें बहुत मानते हैं। सोचा गया कि अब हम किसी को भी हमारे तालाब को गन्दा नहीं करने देंगे और हर साल इसकी गाद हटाएँगे। बरसात में इसमें मछलियाँ पालेंगे। गाँव के इस निर्णय से उन्होंने पंचायत को भी बता दिया है।

इलाके में जनजागरण का काम कर रही संस्था स्पंदन ने भी इसमें हाथ बँटाया। स्पंदन की सीमा प्रकाश बताती हैं कि हम यहाँ पानी सहेजने के लिये श्रमदान करने वाले साथियों को हर दिन काम की एवज में कुछ सहायता करते हैं, ताकि इनके चूल्हे जलते रहे। हम इन्हें हर दिन दो किलो चावल और पाव भर दाल देते हैं। इसके अलावा लगातार काम करने पर उन्हें कपड़े भी देते हैं। यह कोई मजदूरी नहीं है। बस उनके परिवार के लिये स्वेच्छिक फौरी मदद है। इसमें भी सामग्री सहयोग दिल्ली की संस्था गूँज का है। फिलहाल यहाँ 35 महिलाएँ और 18 पुरुष हर दिन 4 घंटे या इससे ज्यादा श्रमदान कर रहे हैं। इसकी निकली हुई मिट्टी से वे अब बारिश में पौधरोपण करेंगे।

अब यहाँ पानी सहेजने और जल स्रोतों के संरक्षण का काम गाँव–गाँव खड़ा हो रहा है। अकेले बूटी में ही नहीं, बल्कि पास के ही अम्बाड़ा में भी करीब डेढ़ एकड़ के तालाब को इसी तरह श्रमदान के जरिए सहेजा जा रहा है तो साढ़े तीन सौ की आबादी वाले गाँव सुहागी में भी कुएँ की गाद निकाली जा रही है। यहाँ भी महिलाओं ने ही पहल की है।

इसी तरह आँवलिया नागोतर में भी कुएँ को साफ करने का काम शुरू हो चुका है। इससे फायदा यह भी हुआ है कि इन गाँवों से पलायन करने वाले परिवारों की संख्या भी घटी है। यहाँ मनरेगा में भी समय पर भुगतान नहीं मिलने से अधिकांश मजदूर परिवार इन्दौर या अन्य शहरों की ओर रुख करते हैं।

इस काम की प्रेरणा कैसे मिली, इस सवाल के जवाब में कविता साबूलाल ने बताया कि जल संकट के दौर में समूह की बैठक में एक दिन हमने ऐसी बात सुनी कि कानों को एक बार तो विश्वास ही नहीं हुआ कि भला ऐसा भी कभी हो सकता है क्या। बात ज्यादा दूर की नहीं थी, कुछ ही कोस पर स्थित उनके पास के गाँव लंगोटी की ही थी। कोई आया तो देख भी गया, अब तो कान सुनी ही नहीं रह गई, आँखो देखी हो गई।

दरअसल खालवा ब्लाक के ही इस छोटे से गाँव लंगोटी में कुछ आदिवासी औरतों ने खुद अपने लिये कुआँ खोदकर पानी का इन्तजाम कर लिया था। इन्होंने सिर्फ कुआँ ही नहीं खोदा, चट्टान तोड़कर इसे और पानीदार बनाने के लिये भी जब सरकार की चौखट पर जा–जाकर हार गई तो उन्होंने चट्टान तोड़ने के लिये ब्लास्टिंग का पैसा भी खुद के घरों में छोटी – छोटी बचत और थोडा अपना पेट काटकर जमा कर लिये। दो बार इन औरतों ने अपने समूह में इकट्ठे किये गए पैसे से चार–चार हजार खर्च कर ब्लास्टिंग भी करवा लिया। और फिर खुद ने कुएँ की सफाई कर उसे पानी देने लायक बना दिया।

तालाब को सहेजने में जुटी महिलाएँसफलता और जज्बे की यह कहानी इन दिनों खालवा ब्लाक में ही नहीं, पूरे खंडवा जिले और निमाड़ अंचल में गाँव–गाँव कही–सुनी जाती है, बस इन आसपास के गाँवों के लिये भी यही काम प्रेरणा बन गया।

स्पंदन संस्था की सीमा प्रकाश इससे खासी उत्साहित हैं। वे बताती हैं कि यह देखना बहुत सुखद है कि अपढ़ और पिछड़ी हुई समझी जाने वाली ये औरतें आज अपने जलस्रोतों को सहेजने में जुटी है। पानी की किल्लत के असली कारणों को इन औरतों ने समझ लिया है और अब वे अपने पसीने की बूँदों से बारिश की मनुहार में जुट गई है। पर यहाँ तक पहुँचने का उनका यह सफर आसान नहीं है। बहुत संघर्ष भरा रहा है पर अब तो गाँव वाले भी उनकी बात मान रहे हैं। ऐसी औरतें हर गाँव में हों तो किस्मत पलट सकती हैं।

सच भी है, गाँव में पानी सहेजने के लिये ऐसे काम हो तो किस गाँव की किस्मत पलटते देर लगेगी। हमने जलस्रोतों की बहुत उपेक्षा कर ली, अब तो इनकी सुध लें। यह बात दूर–सुदूर की अपढ़ औरतें समझ चुकी है। वह बात अब हमें भी समझनी होगी।

पहले ऐसा था तालाब

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading