तालाबों ने घटाया अपराधों का ग्राफ

3 Feb 2019
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तालाब
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शीर्षक आपको चौंका सकता है, लेकिन यह सौ फीसदी सच है। दरअसल पानी में समाज को बदलने की बड़ी अकूत क्षमता है। जो समाज पानी का मान रखता है, पानी उस समाज का मान बढ़ाता है। यह बात कागजों पर नहीं मध्य प्रदेश में जमीन पर दिखाई देती है। चन्द तालाबों और कुओं की वजह से यहाँ सदियों से समाज की मुख्य धारा से अलग-थलग रहकर (गाँव बाहर अपनी बस्तियों में जिन्दगी बसर करने को मजबूर) कंजर समाज के दिन अब बदल गए हैं।

अभी पन्द्रह सालों पहले तक कंजर डेरों के युवाओं का नाम बिना अपराध किये भी पुलिस डायरियों में दर्ज हुआ करते थे और हर रात इनकी हाजरी लगती थी। उस समाज के बच्चे अब खुद पुलिस, वकील, इंजिनीयर, शिक्षक सहित जिला पंचायत अध्यक्ष जैसे पदों पर पहुँच रहे हैं। पुलिस रिकार्ड भी तस्दीक करता है कि अब इलाके में कंजरों के किये जाने वाले अपराधों में तेजी से कमी आई है। पहले यहाँ के 85 फीसदी युवाओं के नाम पुलिस में दर्ज थे लेकिन अब 15-20 फीसदी ही रह गए हैं।

मध्य प्रदेश में इंदौर से एबी रोड पर करीब सवा सौ किमी दूर शाजापुर जिले के टिगरिया गाँव की कंजर बस्ती में हम पहुँचते हैं तो सुबह का उजियारा फैल चुका है। आदमी और औरतें खेतों की ओर जाने के लिये तैयार हो रहे हैं। कहीं लहसुन की निंदाई हो रही है तो कहीं आलू-चने की फसल में पानी देना है। हर तरफ खेती-किसानी की बात। इसी बस्ती के एक टूटे-फूटे घर के दरवाजे पर बैठी पाँच साल की बच्ची दोहराती है- 'अ' अनार का... 'आ' आम का। पास जाकर पूछने पर वह अपना नाम खुशी बताती है। वह इसी बस्ती के स्कूल की पहली कक्षा में पढ़ती है। उधर बड़ के पेड़ के पास बच्चे स्कूल खुलने के इन्तजार में आने लगे हैं।

करीब एक हजार की आबादी वाले इस डेरे (बस्ती) में 2001 में पुलिस और समाज की कंजर सुधार समिति ने कुछ जतन किये, इसका परिणाम है कि अब सात सौ से ज्यादा लोगों की आजीविका का साधन खेती है। पुलिस रिकार्ड के मुताबिक बीते सालों में कंजर समाज के लोगों द्वारा किये जाने वाले अपराधों का ग्राफ तेजी से गिरा है।

तत्कालीन पुलिस अधीक्षक एके सोनी ने टिगरिया में कंजर सुधार समिति बनाकर इन्हें मुख्यधारा में जोड़ने की कोशिश शुरू की। इनके पास कुछ खेती लायक जमीनें थीं लेकिन पानी नहीं होने से आमदनी कम होती थी। सोनी के प्रयासों से सरकारी राहत निधि से एक लाख रुपए यहाँ तालाब बनाने के लिये दिया गया, सरकारी रकम के साथ इन लोगों ने श्रमदान कर एक बड़े तालाब को आकार दिया।

अगली बारिश में तालाब के लबालब होते ही इनकी उम्मीदें भी साकार होने लगी। दो सालों में ही डेरे में सिंचित खेती का रकबा 20 फीसदी तक बढ़ गया। कंजरों ने खूब मेहनत की और किसानों की तरह इनके भी दिन बदलने लगे। अच्छी खेती होने लगी तो वे सम्पन्न भी हुए। आज गाँव में अमूमन घर पक्के कंक्रीट के हैं और घरों के सामने ट्रैक्टर और बाइक खड़े हैं। उनके बच्चे अच्छे स्कूलों में पढ़ रहे हैं।

कंजर सुधार समिति और सोनी ने जिले की कंजर बस्तियों में कम्युनिटी पुलिसिंग अपनाकर शासकीय योजनाओं के जरिए जिला पंचायत से इजीएस (शिक्षा गारंटी) के स्कूल, आँगनवाड़ी केन्द्र खोले ताकि छोटे बच्चे शिक्षा का ककहरा सीख सकें। इनका समूह बनाकर बैंक से पहली बार 17 कंजर परिवारों को तीन लाख 40 हजार रुपए का ऋण मिला। प्रत्येक परिवार ने अपने खाते में आये 20 हजार की राशि से गाय, भैंस या बकरी खरीदकर मावा बनाने का काम शुरू किया। सिंचाई के लिये जगह-जगह तालाब बनाने का काम जोर पकड़ने लगा। देखते-ही-देखते जिले भर में कंजर समाज में बदलाव साफ नजर आने लगा।

यह वही टिगरिया कंजर डेरा है, जहाँ कुछ सालों पहले तक ज्यादातर लोगों को पुलिस अपराधी समझ कर आये दिन इनके घरों की तलाशी लेती थी। कभी रोटी की जरूरत ने इन्हें अपराधों की काली दुनिया और वहाँ से जेल की अंधी कोठरियों में पहुँचा दिया था।

पुलिस रिकार्ड में इनके नाम हिस्ट्रीशीटर के रूप में दर्ज होते रहे हैं। पीढ़ियों तक जरायमपेशा समझी जाने वाले इस समाज में अब बदलाव की बयार बह रही है। पुलिस की आमदरफ्त से खौफ में रहने वाली इन बदनाम बस्तियों में अब खुशी के गीत हैं और इनके बच्चे 'अ' अपराध की जगह 'अ' अनार पढ़ रहे हैं। अपराधी की बदनाम छवि से मेहनतकश किसान हो जाने की इनकी कहानी भी कम रोचक नहीं है। किसी रील लाइफ की तरह होते हुए भी यह सब रियल लाइफ स्टोरी है।

शाजापुर जिले के निपनिया और माधोपुर डेरों में भी तालाबों का प्रयोग सफल रहा। अब यहाँ के 75 फीसदी लोग खेती कर रहे हैं। निपनिया में तो एक कंजर परिवार ने तालाब से थोड़ी दूरी पर संतरे का बगीचा भी लगाया है। मेहनतकश किसानों की तरह परम्परागत गेहूँ-चने की फसल के साथ अब ये लोग प्याज, लहसुन, आलू, टमाटर और सब्जियों जैसी नगदी फसलें भी उगा रहे हैं। अकेले निपनिया में एक हजार लोगों में से 700 खेती में जुटे हैं और करीब साढ़े तीन सौ हेक्टेयर में फसलें लहलहा रही हैं। इसी तरह माधोपुर में भी कंजर परिवार अपराध की काली दुनिया से बाहर खेतों में पसीना बहा रहे हैं।

देवास जिले के चिड़ावद डेरे के कंजरों ने तो अपने खेतों पर ही दर्जन भर खेत तालाब बनाकर बारिश के पानी को रोक लिया है। पीपलरावां डेरे के किसानों ने बीते दस सालों में पच्चीस कुएँ खुदवाए हैं, इनमें अच्छा जलस्तर होने से वे भरपूर सिंचाई कर पा रहे हैं। धानी घाटी के डेरे पर भी कमोबेश यही स्थिति है। यहाँ कुछ कंजर समाज के किसानों ने ट्यूबवेल करवाए थे लेकिन जमीनी जलस्तर कम होने से बाद में उन्होंने कुओं पर ही जोर दिया। राधास्वामी सत्संग से जुड़ने के कारण ये लोग मांस-मदिरा से भी धीरे-धीरे दूर होते हुए अब पूरी तरह साधारण जीवन बसर कर रहे हैं।

मध्य प्रदेश के सात जिलों में करीब एक लाख कंजर आबादी है। शाजापुर जिले में 11 डेरों में करीब दस हजार, देवास जिले में 16 बस्तियों में करीब पन्द्रह हजार की आबादी है। इसी दौरान यह काम मिसाल बना और शाजापुर जिले से बाहर अन्य जिलों में भी इस तरह के तालाब या कुएँ बनाने का काम होने लगा। इसके साथ ही जगह-जगह सामाजिक सम्मेलनों और चौपालों में समाज के लोगों को समझाया गया कि अपराध को छोड़ने से ही वे अपनी अगली पीढ़ी को सुधार सकते हैं।

अभी तक तो समाज के लोग अपराध में ही पनपते और दफन होते रहे हैं। इनामी अपराधियों को पकड़वाने में समिति ने समान्तर पुलिस की तरह काम किया। वैकल्पिक रोजगार के लिये इन्हें सिंचाई और अन्य कृषि उपकरणों की मदद की गई। कुएँ बनाने के लिये ऋण दिया, सामूहिक श्रमदान से तालाब बनाए गए। पानी की स्थिति सुधरी तो कंजर समाज के लोगों ने अपराधों से मुँह मोड़कर खेती पर ध्यान दिया। जिनके पास खेती लायक जमीनें नहीं थीं, उन्होंने दूसरों के खेतों में मजदूरी को पेशा बनाया।

करीब चार सौ साल पहले राजस्थान में महाराणा प्रताप के अकबर से हारने के बाद कंजर सहित कई वीर जातियाँ उनके साथ मेवाड़ छोड़ने को मजबूर हो गई। रातोंरात जान बचाकर अपने परिवार के साथ वहाँ से भागे लोगों ने मालवा और उसके आसपास के गाँवों से बाहर अपने डेरे बनाकर रहना शुरू कर दिया। इन्हें उम्मीद थी कि थोड़ा वक्त गुजरते ही वे राणा के साथ फिर से मेवाड़ लौट जाएँगे लेकिन वह दिन आज तक नहीं आया। ये वीर जाति थी और युद्ध में लड़ने के सिवा कोई हूनर इनके हाथ में नहीं था। इसलिये जैसे-तैसे अपने बच्चों की भूख मिटाने के लिये ये जंगलों पर निर्भर थे। धीरे-धीरे बेरोजगारी और भूख ने इनमें से कुछ लोगों को चोरी-चकारी और मारपीट जैसे अपराध की दलदल में धँसा दिया। तब से लेकर कुछ सालों पहले तक यह समाज अपराध का पर्याय बन गया था। बाद के सालों में अंग्रेजों और आजादी के बाद की सरकारों ने कुछ कंजर अपराधियों के कारण पूरे समाज को ही अपराधी मान लिया।

हालांकि इनमें से कुछ तब भी मेहनत मजदूरी करते थे लेकिन पूरी जाति के बदनाम होने से इन्हें भी पुलिस की प्रताड़ना का शिकार होना पड़ता था। हर रात सिपाही डेरे में इनकी हाजरी भरते थे। इलाके में कोई भी घटना होने पर सबसे पहले इनकी ही तलाशी ली जाती। पुलिस दल के आने पर सारे पुरुष जंगल में भाग जाते थे लेकिन महिलाओं, बच्चों और बुजुर्गों को उनका कोप भाजन बनना पड़ता था।

कई बार पुलिस दल मनमानी पर उतर जाया करते थे। जिनमें इनकी झोपड़ियों के कवेलू, पानी के मटके फोड़ने, एल्युमिनियम के बर्तन बूटों से दबा देने और मुर्गा-मुर्गियों को उडा देने जैसे या जो मिल गया, उससे ही मारपीट और पेड़ पर उल्टा लटकाकर डंडों से पीटने के खौफनाक दृश्य आज भी इन लोगों की आँखों में तैरते हैं।

सन 2001 के आसपास तक कंजरों द्वारा किये जाने वाले चोरी, लूट और राह चलते ट्रक से माल उड़ा देने वाले फिल्मी अन्दाज के अपराधों से प्रदेश के देवास, शाजापुर, राजगढ़ आदि सात जिलों की पुलिस बेहद परेशान रहती थी। कुछ कंजर युवक तो बड़े अपराधियों की शह पर हाईप्रोफाइल क्राइम की दुनिया में भी बड़ी वारदातें करने लगे थे। उन्हीं दिनों कुछ अच्छे पुलिस अधिकारियों, कंजर समाज के पढ़े-लिखे युवाओं तथा कुछ धार्मिक संगठनों ने इन्हें समाज की मुख्य धारा में लाने की कोशिशें तेज की। हर डेरे में कंजर सुधार समितियाँ बनाई गईं, जिला स्तर और प्रदेश स्तर पर भी। डेढ़ सौ से ज्यादा इनामी बदमाशों को पकड़वाया। इसका बड़ा असर हुआ और देखते-ही-देखते 2005-06 तक इसका बड़ा परिणाम सामने आया कि कंजर समाज के लोगों के अपराधों का ग्राफ घटकर 50 फीसदी से भी कम हो गया। इस बात से उत्साहित समितियों के पदाधिकारियों ने अपने काम को और बढ़ाया तो 2010 के बाद ग्राफ घटकर 10-20 फीसदी ही रह गया। आज इस समाज के 95 फीसदी लोग खेती या मजदूरी कर अपने परिवार का पेट पालते हैं।

कंजर समाज के प्रदेश अध्यक्ष शिवनारायण हाडा बताते हैं- "पानी की कमी से हमारा समाज अपराध की दलदल में धँस गया था। कुओं-तालाबों से पानी मिलने लगा तो समाज भी पानीदार बन गया। सदियों से हमारा समाज दबा-कुचला और उपेक्षित था। मेरे माँ-पिता ने 40 साल पूर्व सबसे पहले मुझे पढ़ाया-लिखाया। मैंने एमए, एलएलबी की पढ़ाई की। मैं जनपद सदस्य और मेरी पत्नी जिला पंचायत अध्यक्ष रही। अब समाज ने भी शिक्षा का मोल पहचान लिया है। कभी पूरे समाज को अपराधी मानकर पुलिस मारपीट करती थी पर अब ज्यादातर लोग अपराध की काली दुनिया से बाहर आकर मेहनत मशक्कत से अपनी रोटी कमा रहे हैं।"

पीपलरावां कंजर डेरा प्राथमिक विद्यालय के शिक्षक सुनील कुमरावत बताते हैं- "मैं यहाँ 17 साल से हूँ। पहले हमें बच्चों को स्कूल लाना पड़ता था, अब पालक खुद चिन्ता रखते हैं। हमारे यहाँ की छात्रा अंतिका रवीन्द्र सिंह पाँचवीं में पूरे संकुल में अव्वल आई है। यहाँ 9 लड़कियाँ और 25 लड़के पढ़ रहे हैं। वैसे बस्ती में दो सौ बच्चे हैं। इनमें कोई ऐसा नहीं, जो पढ़ने नहीं जा रहा हो। बाकी बच्चे आसपास निजी विद्यालयों में पढ़ते हैं। 1999 में यहाँ शिक्षा गारंटी स्कूल शुरू हुआ था, तब 36 बच्चे दर्ज थे। तब से अब तक सैकड़ों बच्चे पढ़ चुके हैं। शुरुआत में चबूतरे पर बच्चे पढ़ते थे पर अब नए स्कूल भवन में कक्षाएँ लगती हैं। कुछ सालों पहले ही दो लाख की लागत से अतिरिक्त कक्ष भी बनाया गया है। कुम्हारिया बनवीर, सीखेडी, धानी घाटी, चिड़ावद और टोंककला कंजर डेरों पर भी ऐसे ही स्कूल हैं। सीखेडी में तो इसी समाज की सुखमणी हाडा बच्चों को पढ़ाती है। उनमें से कुछ अब इंदौर के इंजीनीयरिंग कालेज में भी पढ़ रहे हैं। हम बच्चों को शिक्षा के साथ स्वच्छता, शिष्टाचार और भाषा ज्ञान पर ज़्यादा जोर देते हैं। मुझे गर्व है कि मेरे पढ़ाए बच्चे अब अच्छी ज़िन्दगी की राह पर हैं। यहीं का विद्यार्थी बिट्टू अमरसिंह जब पुलिस की वर्दी में यहाँ आता है तो बड़े-बूढ़ों की आँखों में बीती जिन्दगी के दुःख झिलमिला उठते हैं।"

कहा जाता है कि पानी की अपनी तासीर होती है। पानी मेहनत करना सीखाता है और पानी ही समृद्धि का कारण बनता है। मध्य प्रदेश के इन कंजर बस्तियों में पानी ने यह साबित भी कर दिया है। पूरे मध्य प्रदेश में अब कंजर समाज के लोग अपराधों से दूर हो चले हैं। अब वे खेती करते हैं और अपने बच्चों को खूब पढ़ा-लिखा रहे हैं। पानी ने आज इनकी जिन्दगी बदलने के साथ ही सदियों पुरानी बदनाम जाति का कलंक भी मिटा दिया है।

 

 

 

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