तेजाबी वर्षा का पर्यावरण पर प्रभाव


प्राकृतिक पर्यावरण को नष्ट करने में तेजाबी वर्षा की प्रमुख भूमिका है। यह कनाडा, स्वीडन, नार्वे, फिनलैंड, इंग्लैंड, नीदरलैंड, जर्मनी आदि अनेक विकसित देशों में विगत कई वर्षों से एक गम्भीर समस्या बनी हुई है। और वह दिन दूर नहीं जब यह विकासशील देशों के सामने भी भयानक शक्ल में आ खड़ी होगी। प्रस्तुत लेख में लेखक ने तेजाबी वर्षा के कारणों और प्रभावों की चर्चा के साथ-साथ उसकी रोकथाम के उपायों की भी विस्तृत चर्चा की है।

दुनिया अभी ओजोन परत एवं हरित गृह प्रभाव की बात कर ही रही थी कि तेजाबी वर्षा की धमाकेदार खबर ने हमें गहरी चिन्ता में डाल दिया। हालाँकि अभी यह विकसित देशों में ही तबाही मचा रही है लेकिन वह दिन दूर नहीं है जब यह विकासशील देशों के सामने भी भयानक शक्ल में आ खड़ी होगी। विगत कुछ वर्षों में तेजाबी वर्षा विकसित देशों के लिये इतना संगीन एवं पेचीदा मसला बनकर उभरी है कि उसने पर्यावरण के सभी घटकों (भौतिक एवं जैविक) को खतरे में डाल दिया है।

तेजाबी वर्षा क्या है?


मानव जनित स्रोतों से निस्सृत सल्फर-डाईऑक्साइड तथा नाइट्रोजन-ऑक्साइड गैसें वायुमंडल में पहुँचकर वहाँ विद्यमान जल-वाष्प के साथ मिलकर सल्फेट, सल्फ्यूरिक एसिड तथा नाइट्रिक एसिड का निर्माण करती हैं। जब यह एसिड वर्षा के जल के साथ धरातलीय सतह पर पहुँचता है तो उसे तेजाबी वर्षा, अम्ल वर्षा या एसिड रेन कहा जाता है।

प्राकृतिक पर्यावरण को नष्ट करने में तेजाबी वर्षा की प्रमुख भूमिका होती है। यह कनाडा, स्वीडन, नार्वे, फिनलैण्ड, इंग्लैंड, नीदरलैंड, जर्मनी, इटली, फ्रांस, यूनान जैसे विकसित देशों में विगत चार दशकों से एक गम्भीर पर्यावरणीय समस्या बनी हुई है। इसने धरातल पर मौजूद सम्पूर्ण भौतिक एवं जैविक जगत को खतरे में डाल दिया है। तेजाबी वर्षा का प्रभाव एक स्थान विशेष पर ही नहीं होता। यह सल्फर डाईऑक्साइड एवं नाइट्रोजन के ऑक्साइड उगलने वाले औद्योगिक एवं परिवहन स्रोतों के क्षेत्रों तक ही सीमित नहीं होती। यह स्रोत क्षेत्रों से दूर अत्यधिक विस्तृत क्षेत्रों को भी प्रभावित करती है क्योंकि तेजाबी वर्षा के उत्तरदायी कारक प्रदूषक (यथा-सल्फर-डाइऑक्साइड) गैसीय रूप में होते हैं। जिन्हें हवा तथा बादल दूर तक फैला देते हैं। उदाहरण के लिये जर्मनी तथा ब्रिटेन में स्थित मिलों से निस्सृत सल्फर डाइऑक्साइड तथा नाइट्रोजन के ऑक्साइड के कारण नार्वे, स्वीडन तथा फिनलैंड में विस्तृत तेजाबी वर्षा होती है। इस तेजाबी वर्षा के कारण इन देशों की अधिकांश झीलों के जैविक समुदाय समाप्त हो गये हैं। इसलिये ऐसी झीलों को अब जैविकीय दृष्टि से मृत झील कहते हैं।

जुलाई 1982 में संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वावधान में स्टॉकहोम में 33 राष्ट्रों का एक सम्मेलन स्केन्डीनेविया तथा कनाडा में बढ़ते तेजाबी वर्षा के खतरों की ओर विश्व समुदाय का ध्यान आकर्षित करने के लिये आयोजित किया गया था। उस दौरान भी सम्मेलन स्थल पर ही पूरे एक सप्ताह तक तेजाबी वर्षा होती रही और वैज्ञानिक तेजाबी वर्षा पर विचार-विमर्श करते रहे।

भारत में दिल्ली, मुम्बई, आगरा, नागपुर, कानपुर, जमशेदपुर तथा कलकत्ता आदि शहरों के वायुमंडल में तेजाबी वर्षा उत्पन्न करने वाली विषाक्त सल्फर-डाइऑक्साइड तथा नाइट्रोजन-ऑक्साइड गैसों की सान्द्रता काफी बढ़ गई है। रानीगंज, झरिया, बोकारो, गिरिडीह तथा कर्णपुरा आदि कोयला खानों के आस-पास के वातावरण में धुएँ के घने बादल छाये रहते हैं। इस धुएँ में सल्फर-डाइऑक्साइड तथा सल्फर यौगिक सबसे ज्यादा पाये जाते हैं जो कोयले के आंशिक दहन से निकलते हैं। इसी प्रकार देश के विभिन्न थर्मल पावर स्टेशनों से निकली सल्फर-डाइऑक्साइड की सान्द्रता बढ़ती जा रही है। यद्यपि भाभा-एटामिक रिसर्च सेन्टर तथा वर्ल्ड मैट्रोलॉजिकल ऑर्गनाइजेशन द्वारा किये गये अध्ययनों से ज्ञात हुआ है कि अधिकांश भारतीय नगरों में वर्षा के जल में अम्लता का स्तर अभी सुरक्षा सीमा से कम ही है लेकिन यदि वातावरण में सल्फर डाइऑक्साइड एवं नाइट्रोजन-ऑक्साइड गैसों की बढ़ती सान्द्रता की रोकथाम नहीं की गई तो वह दिन दूर नहीं जब विकसित देशों की भाँति यहाँ भी तेजाबी वर्षा तबाही मचाना शुरू कर देगी।

कारण


तेजाबी वर्षा का प्रमुख कारण वातावरण में सल्फर-डाइऑक्साइड तथा नाइट्रोजन ऑक्साइड गैसों की बढ़ती सान्द्रता है। यह जहरीली गैसें प्रायः औद्योगिक प्रतिष्ठानों की चिमनियों, थर्मल पावर स्टेशनों, तेलशोधक कारखानों, कोयला खदानों, कॉपर जिंक, लेड, निकिल तथा लौह अयस्क शोधक कारखानों, कोयला एवं पेट्रोलियम के दहन, मोटर गाड़ियों एवं तेल से चलने वाली भट्ठियों आदि के धुएँ से वायुमंडल में पहुँच जाती हैं जहाँ जल वाष्प के साथ मिलकर यह सल्फ्यूरिक एसिड तथा नाइट्रिक एसिड बनाती है। जब यही एसिड वर्षा के जल के साथ जमीन पर गिरता है तो उसे तेजाबी वर्षा कहते हैं।

प्रभाव


1. तेजाबी वर्षा से जल प्रदूषण बढ़ता है जिससे इनमें रहने वाले जीव-जन्तु नष्ट होने लगते हैं। अमेरिकी एवं पश्चिमी यूरोपीय देशों में तेजाबी वर्षा को कभी-कभी झील कातिल भी कहा जाता है क्योंकि झीलों, तालाबों एवं जल भंडारों में जलीय जीवों की मृत्यु के लिये तेजाबी वर्षा को प्रधान कारक ठहराया गया है। कनाडा के ओन्टोरिया प्रान्त की 2,50,000 झीलों में से 50,000 झीलें तेजाबी वर्षा से बुरी तरह प्रभावित हैं और इनमें से 140 झीलों को मृत घोषित कर दिया गया है। इसी प्रकार तेजाबी वर्षा के कुप्रभाव से स्वीडन की 4000 झीलें पूर्णतया नष्ट हो चुकी हैं। इन झीलों के फ्लोरा एवं फौना नष्ट हो चुके हैं।

2. तेजाबी वर्षा से मिट्टी में अम्लीयता बढ़ जाती है। फलस्वरूप मिट्टी की उत्पादकता घट जाती है क्योंकि अधिक अम्लता के कारण मिट्टियों में स्थित खनिज एवं अन्य पोषक तत्व नष्ट हो जाते हैं। इससे फसलों का उत्पादन प्रभावित होता है।

3. तेजाबी वर्षा से खेतों में खड़ी फसलों को भी भारी नुकसान पहुँचता है। इससे पत्तियाँ झुलस जाती हैं तथा तरह-तरह के रोगों का प्रकोप हो जाता है। फलतः उत्पादन घट जाता है।

4. तेजाबी वर्षा का वनों पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है क्योंकि तेजाबी वर्षा से पेड़-पौधों की सारी जैविक क्रियाएँ यथा-प्रकाश संश्लेषण, वृद्धि, श्वसन, जनन, वाष्पोत्सर्जन आदि मन्द पड़ जाती हैं जिससे पेड़-पौधे सूखने लगते हैं। कनाडा, संयुक्त-राज्य अमेरिका, स्वीडन, नार्वे, फिनलैण्ड, जर्मनी तथा मध्य यूरोप के कई देशों में वन सम्पदा को तेजाबी वर्षा से भारी क्षति हुई है।

5. तेजाबी वर्षा का मानव समुदाय एवं पशु-पक्षियों पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इससे सांस एवं त्वचा की बीमारियाँ हो जाती हैं, आँखों में जलन होने लगती है तथा अम्ल की अधिक सान्द्रता से हृदय एवं फेफड़े के भी रोग हो जाते हैं। अमेरिकी डॉक्टर हेमिल्टन के अनुसार विश्व में जीवाश्म ईंधनों के दहन से उत्सर्जित अम्लीय सल्फेट के कारण प्रतिवर्ष 7500 से 12000 व्यक्तियों की मृत्यु होती है।

6. तेजाबी वर्षा के कारण भवनों में संक्षारण के कारण क्षति होती है। यूनान तथा इटली एवं अन्य कई यूरोपीय देशों में संगमरमर और अन्य बेशकीमती पत्थरों से निर्मित प्राचीन मूर्तियाँ तेजाबी वर्षा से घुलती जा रही हैं और अब यही बदकिस्मती ताजमहल के साथ हो रही है। मथुरा स्थित तेल शोधनशाला से उत्सर्जित सल्फर-डाईऑक्साइड के कारण ताजमहल अपना सौन्दर्य खोता जा रहा है, संगमरमर की दीवारें पीली पड़ती जा रही हैं। इसमें कई जगह पर दरारें भी पड़ गई हैं। दिल्ली में थर्मल पावर स्टेशनों से निकली सल्फर-ऑक्साइड के कारण राजघाट, विजयघाट, शान्तिवन के स्मारकों का रंग भी उड़ने लगा है।

रोकथाम के उपाय


तेजाबी वर्षा की समस्या से तभी छुटकारा पाया जा सकता है जब विभिन्न स्रोतों से तेजाबी वर्षा उत्पन्न करने वाली विषाक्त सल्फर-डाइऑक्साइड तथा नाइट्रोजन-ऑक्साइड गैसों को वायुमंडल में घुलने से रोका जाए। इस सम्बन्ध में निम्नलिखित उपाय किये जाने चाहिये।

1. परम्परागत ईंधन यथा-सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, आदि का अधिकाधिक प्रयोग किया जाए।

2. कल-कारखानों, बिजली-घरों तथा ऑटोमोबाइल्स आदि में ऐसा ईंधन प्रयोग किया जाए जिसमें सल्फर की मात्रा बहुत कम हो।

3. ईंधन के दहन से पहले ही उसके यौगिकों को अलग कर दिया जाए जिससे जलाने पर सल्फर-डाइऑक्साइड गैस न बने।

4. धुएँ के साथ मिश्रित सल्फर-डाइऑक्साइड को फ्लू गैस डीसल्फराइजेशन विधि से अलग किया जा सकता है। इस कार्य के लिये चूना या कैल्शियम कार्बोनेट तथा मैग्नेशियम ऑक्साइड या मैग्नेशियम कार्बोनेट का प्रयोग किया जाता है।

5. नाइट्रोजन ऑक्साइड गैस को धुएँ से अलग करने के लिये सल्फ्यूरिक अम्ल तथा कैल्शियम हाइड्रोक्साइड एवं मैग्नीशियम हाइड्रोक्साइड के क्षारीय विलयनों की धुएँ के साथ रासायनिक अभिक्रिया कराई जाए।

6. सल्फर डाइऑक्साइड तथा नाइट्रोजन ऑक्साइड के उत्सर्जन को रोकने के लिये जीवाश्म ईंधनों (कोयला तथा खनिज तेल) की दहन प्रणाली में परिवर्तन किया जाना चाहिये। उदाहरण के लिये 15000 सेंटीग्रेड तापमान पर कोयले को जलाने से नाइट्रोजन ऑक्साइड का कम मात्रा में उत्सर्जन होता है, जबकि 1650 सेंटीग्रेड या उससे अधिक तापमान पर कोयले के दहन से उत्सर्जन अधिक मात्रा में होता है।

7. कारखानों की ऊँची चिमनियों के मुँह पर विशेष फिल्टर (बैग फिल्टर) लगाये जाएँ।

8. जहाँ धुएँ की चिमनी हो वहाँ कोलाइडेल टैंक बनाया जाए।

9. समय-समय पर वाहनों की जाँच कराते रहना चाहिये। इंजन में कोई तकनीकी खराबी हो तो उसे तुरन्त दूर कर लेना चाहिये।

10. स्वचालित वाहनों खासकर मोटरकार, बस, ट्रक, टेम्पो आदि से प्रदूषक गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिये समुचित यंत्रीय विधियों का प्रयोग किया जाना चाहिये।

11. जिन झीलों एवं जलाशयों के जल में अम्लीयता बढ़ गई है उनमें चूना डालना चाहिये क्योंकि चूना पानी की अम्लीयता को नष्ट कर देता है जिससे जीव-जन्तु नष्ट होने से बच जाते हैं।

12. सरकारी कर्मचारियों एवं अधिकारियों, राजनीतिज्ञों, उद्योगपतियों तथा समाज के दूसरे वर्ग के लोगों में तेजाबी वर्षा से उत्पन्न घातक परिणामों के प्रति जागरुकता पैदा की जानी चाहिये।

(लेखक आजमगढ़, उत्तर प्रदेश के शिबली नेशनल कॉलेज के भूगोल विभाग में प्रवक्ता हैं।)

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