टिहरी बांध : अनदेखी कब तक, भाग-1

25 Feb 2014
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सर्वोच्च न्यायालय में टिहरी बांध का 22 वर्ष से एन. डी. जुयाल और शेखर सिंह बनाम भारत सरकार वाला केस सुना जा रहा था। सरकारी वकील दलील देते हैं कि टिहरी बांध से बिजली पैदा हो रही है, कोटेश्वर बांध भी बन गया है। पर विस्थापितों की समस्याएं समझी नहीं गई। इन सबके चलते भागीरथीगंगा समाप्ति की कगार पर पंहुच गई। टिहरी बांध की समस्याएं नासूर की भांति लगातार बहती ही रहती है। विस्थापित लोग और पर्यावरण इस दर्द को झेलते हैं। माटू जनसंगठन ने फिर उत्तराखंड सरकार को टिहरी बांध विस्थापितों के भूमिधर अधिकार और साथ ही बरसों पुराने विस्थापित स्थलों पथरी भाग 1,2,3 व 4 में शिक्षा, स्वाथ्यय, यातायात, सिंचाई व पेयजल और अन्य मूलभूत सुविधायें तुरंत पूरी करने की बाबत याद दिलाया है।

याद रहे कि टिहरी बांध की गौरव गाथा गा-गाकर बांध कंपनी टिहरी जलविद्युत निगम जो टीएचडीसी के नाम से प्रचारित है उसे और भी कई नए बांधों के ठेके मिल गए हैं। किंतु पथरी भाग 1, 2, 3 व 4 हरिद्वार के ग्रामीण क्षेत्र में रहने वाले टिहरी बांध विस्थापितों के मामले 30 वर्षाें से लंबित है। यहां लगभग 40 गाँवों के लोगों को पुनर्वासित किया गया है। यहां 70 प्रतिशत विस्थापितों को भूमिधर अधिकार भी नहीं मिल पाया है।

बिजली, पानी, सिंचाई, यातायात, स्वास्थ्य, बैंक, डाकघर, राशन की दुकान, पचांयत घर, मंदिर, पितृकुट्टी, सड़क, गुल, नालियां आदि और जंगली जानवरों से सुरक्षा हेतु दिवार व तार बाढ़ तक भी व्यवस्थित नहीं है। बीसियों वर्षों से यह सुविधाएं लोगों को उपलब्ध नहीं हो पाई है। यदि कहीं पर किसी तरह से कुछ व्यवस्था बनी भी है तो स्थिति खराब है। स्कूल भी कुछ ही वर्षों पहले बना है वो भी मात्र 10वीं तक है।

प्राथमिक स्कूलों की इमारतें बनी हैं पर अध्यापक नहीं है। स्वास्थ्य सेवाएं तो हैं ही नहीं। रास्ते सही नहीं हैं तो निकासी नालियां भी नहीं है। यातायात की सुविधाएं भी नहीं हैं। लोगों को मात्र जंगल में छोड़ दिया गया है। अपने बूते पर विस्थापितों ने मकान बनाए हैं।

अभी उत्तराखंड में नए मुख्यमंत्री आए हैं। उनके पूर्व मुख्यमंत्री श्री विजय बहुगुणा ने हर चुनाव के समय टिहरी का मुद्दा उठाया था उन्होनें कहा था कि वे विस्थापितों के लिए सर्वोच्च अदालत में जाएंगे। यह भी कहा की राज्य के पास मुफ्त मिलने वाली बिजली के करोड़ो रुपए हैं उसे क्यों नहीं विस्थापितों के लिए खर्च किया जाता? यह भी तथ्य है की वे कभी अदालत नहीं आए।

किंतु जब वे मुख्यमंत्री थे तो भी उन्होंने विस्थापितों के लिए नहीं किया। अब नए मुख्यमंत्री हरीश रावत जी हैं उनसे ये आशा चूंकि वे जहां से चुनकर आए हैं वहीं टिहरी बांध के विस्थापितों को तथाकथित तरीके से बसाया गया है। यह पत्र दिया गया। चूंकि केन्द्र व राज्य में उन्हीं की पार्टी की सरकार है। वैसे इन कार्यों के लिए टिहरी बांध परियोजना से, जिसमें कोटेश्वर बांध भी आता है, मिलने वाली 12 प्रतिशत मुफ्त बिजली के पैसे का उपयोग किया जा सकता है।

सर्वोच्च न्यायालय में टिहरी बांध का 22 वर्ष से एन. डी. जुयाल और शेखर सिंह बनाम भारत सरकार वाला केस सुना जा रहा था। सरकारी वकील दलील देते हैं कि टिहरी बांध से बिजली पैदा हो रही है, कोटेश्वर बांध भी बन गया है। पर विस्थापितों की समस्याएं समझी नहीं गई अदालत में भी उलटे-सीधे शपथ पत्र दाखिल किए जाते हैं। इन सबके चलते भागीरथीगंगा समाप्ति की कगार पर पंहुच गई।

टिहरी बांध की समस्याएं नासूर की भांति लगातार बहती ही रहती है। विस्थापित लोग और पर्यावरण इस दर्द को झेलते हैं। जितना दर्द मवाद निकलेगा उतना ही राजनैतिक दलों को मुद्दा मिलेगा, कंपनी के वकीलों की आमदनी बढ़ती है, पुर्नवास कार्यालय को काम मिल जाता है। समस्या होगी तो हल्ला मचेगा फिर पैसा आएगा।

टिहरी बांध केस के कारण अरबों रुपए बांध कंपनी को पुनर्वास के लिए देने पड़े। 29 अक्तूबर 2005 में बांध की झील में पानी भरना चालू हो गया था। जुलाई 2006 में बांध के उद्घाटन के समय तत्कालीन उर्जामंत्री शिंदे जी ने घोषणा की थी कि पुर्नवास पूरा करेंगे, विस्थापितों को मुफ्त बिजली देंगे ऐसे वादे किए गए।

बीजेपी की राज्य सरकार ने ही 2010 में रिर्पोट बनाई की छूट गए पुनर्वास कार्यों के लिए पैसा चाहिए। 3 नवंबर 2011 को उच्चतम न्यायालय ने एक अरब रुपए अपूर्ण पुनर्वास व स्थलों की सुविधाएं पूरी करने के लिए दिए गए। सब खुश अदालत ने न्याय किया और बांध कंपनी ने कर्तव्य निभाया। पुर्नवास के रुके काम पूरे होंगे। कुछ राजनेता खुश की चलो पैसा मिला है। काम पूरा होगा। यक्षप्रश्न यह भी है कि राज्य सरकार बांध से मिली मुफ्त बिजली के पैसे को कहां खर्च कर रही है? विस्थापितों की वास्तविक स्थिति खराब है।

उदाहरण के लिए सुमन नगर शुरूआती यानि 1978 के टिहरी बांध विस्थापितों का पुनर्वास स्थल है हरिद्वार जिले में यही से गंगनहर निकलती है आधा किलोमीटर पर बिना पानी के खेत हैं लोग कहते हैं हमें पानी नहीं है तो हमें मजबूरन जमीन बेचनी ही पड़ेगी। बिजली आती नहीं है हमारे तार में से साथ में फैक्टरी वाला बिजली ले लेता है हमें बिजली भी नहीं, पीने का पानी गंदला है सूखने पर थोड़ा पीला हो जाता है।

गंगनहर से दिल्ली व पश्चिमी उत्तर प्रदेश को 200 क्यूसेक पीने का और सिंचाई को 300 क्यूसेक पीने के लिए अतिरिक्त पानी जाता है राज्य को 12 प्रतिशत मुफ्त बिजली के 1000 करोड़ के लगभग मिल चुके हैं।

इसी सुमन नगर में प्लाट नं0 366, 421 और 422 20 वर्ष पहले आवंटित हुए थे इन्हें भूमिधर अधिकार नहीं मिला। कारण की वो जमीन कागजों में नदी की जमीन है। विस्थापितों को भूमि आबंटन में कितने घोटाले हुए हैं इसकी जांच भी ज़रूरी है पर कौन करेगा? कोयले की कोठरी में काला ही काला है।

सरकार को मालूम है कि एक पीढ़ी बदलने के बाद लोग इसी तरह रहने के आदि हो जाएंगे और फिर कोई आवाज़ नहीं उठेगी। आखिर अब तक के बांधों से उन्होंने भी सीखा है ।

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