टिहरी, भाग -2

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प्राकृतिक सौंदर्य को देखता
विभोर हो रहा हूँ
नव विहान के साथ
जल सतह पर
तैरता कोहरा ढॅंक लेता है
अपने आँचल में
मध्धम होती
निःशेष छवि काल की
कोहरा छंटने पर
दिखती हैं स्पष्ट रेखाएं
आधुनिक अभियांत्रिकी
कौशल की
मानव की अदम्य इच्छाशक्ति
आशा-विश्वास
अद्भुत-अकम्प संकल्प का
जीवंत उदाहरण 'टिहरी बाँध'
टिहरी जलाशय की छाती
चीरती चल रही 'स्पीड बोट'
में बैठा सोच रहा हूँ
इस अनंत जलनिधि के तल में
न जाने कितने संसार
विलुप्त हुए
कितनी अश्रु धाराएं
इसमें समाहित जल का
अभिन्न भाग बन
जन जन की
क्षुधा मिटाती हैं आज
प्रकाशमान करती हैं
असंख्य जीवन
नई टिहरी की ऊंचाई में
विस्थापित हुई
असंख्य डबडबाई आँखें
देखती होंगी
अपने डूबे हुए सपनों का संसार
वे सपने जो इतिहास बन चुके हैं
क्योंकि ऊंचाई से नीचे
देखना आसान होता है ना
उन डबडबाई आँखों में
झाँक कर देखें जरा
विस्थापन के प्राण तो
आज भी यहीँ बसते होंगे
कुछ तो ऐसा है
जो बुलाता है उन्हें और
उन अमिट यादों को अपनी ओर
इस जीवन में
जिन्हें बिसार भी तो नहीं सकते
विस्थापितों को तसल्ली हैं
आज वो खूबसूरत
'बुरांस' पुष्प के
बहुत ही निकट हैं
जल सतह पर झिलमिलाती
सूर्य रश्मियों की चमक
चमकाती रहेंगी अनंत तक
बनकर प्रभामंडल
पुरानी टिहरी का बलिदान
राष्ट्र निर्माण में
उसके योगदान को अमरत्व देंगी
कोई भी मुआवज़ा
किसी बलिदान को तो
कम नहीं ही कर सकता !!

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