तीन दशकों का जहर

4 Aug 2014
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दिसम्बर 1984 को भोपाल के यूनियन कार्बाइड में हुई गैस त्रासदी के बाद के तीस वर्षों के दौरान कई तरह के अध्ययन हुए हैं। अभी हाल ही में सेन्टर फॉर साइंस एंड एनवायरमेन्ट (सीएसई) दिल्ली द्वारा एक अध्ययन किया गया और देश भर के विशेषज्ञों के साथ बैठकर इस घातक प्रदूषण से मुक्ति पाने की कार्ययोजना बनाई गई ताकि वर्तमान और आने वाली पीढ़ी को इसका खामियाजा न भुगतना पड़े। हादसे के बाद किसी संस्था ने पहली बार इस तरह के काम की सामूहिक पहल की है।

तीन किलोमीटर के क्षेत्र में किए गए अध्ययन से साफ हो गया है कि यहां घातक और जहरीले रसायन मिट्टी और पानी में मौजूद हैं। यहां तरह-तरह के विषैले पदार्थों से मिट्टी और पानी में संक्रमण बढ़ता जा रहा है।दूसरी ओर तीस वर्षों से सतत संघर्षरत संगठनों ने भी कई बार सरकार का ध्यान इस ओर दिलाया है कि इस घातक कचरे के कारण गैस पीड़ितों की जिदंगी से खिलवाड़ हो रहा है, इसलिए इसके निपटान को गंभीरता से लिया जाए।

अध्ययन को लेकर एकजुट हुए विशेषज्ञों ने साफ तौर पर कहा है कि अगले पांच वर्षों में अगर कचरे का निपटारा नहीं होता है तो इसके घातक परिणाम सामने आएंगे क्योंकि जमीन के अन्दर इन रसायनों के असर से खतरनाक संक्रमण हुआ है।

सीएसई के उप-निदेशक चन्द्रभूषण ने बताया कि संयंत्र के बंद होने के बाद सालों से पड़े इस कचरे से वहां की मिट्टी और भूजल संक्रमित होने लगा है, जिससे आसपास रहने वाले लोगों की सेहत पर इसका प्रतिकूल असर पड़ रहा है। सीएसई ने अपनी रिपोर्ट में पिछले 20 सालों में यूनियन कार्बाइड के जहरीले कचरे पर हुए 15 अध्ययनों की रिपोर्टों को शामिल किया है, जिन्हें सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं ने तैयार किया है। मौजूद जहरीले कचरे के रिसाव के चलते भूजल प्रदूषण का दायरा लगातार बढ़ रहा है। भविष्य में यह 10 किलोमीटर तक भी फैल सकता है।

सरकार द्वारा कोई कार्रवाही न करने पर, हालात सुधारने के लिए सीएसई ने एक कार्ययोजना का प्रारूप तैयार कर उसे भोपाल में जारी किया जिसे बाद में राज्य सरकार को सौंपा जाएगा। चन्द्रभूषण का कहना है कि इन उपायों से भूजल व मिट्टी के प्रदूषण को काफी हद तक दूर किया जा सकता है।

1. पूरे क्षेत्र और सोलर पॉण्ड को अधिग्रहण करके उसके चारों ओर तार की बागड़ लगाई जाए ताकि रहवासी खासकर बच्चे इस क्षेत्र में नही आ सकें। सोलर पॉण्ड क्षेत्र में विनिर्माण गतिविधियों पर रोक लगाई जाए। इसके साथ ही ऐसे उपाय हों जिससे कि बरसात के दौरान बरसने वाला पानी यहां जमीन के भीतर नहीं जा पाए।
2. क्षेत्र में जमा सारे कचरे को बाहर निकाला जाए। इस कचरे में मौजूद रसायनों को उनकी प्रकृति के अनुसार उपचारित और नष्ट किया जाए।
3. संयंत्र में एक छोटी जगह पर पड़े 350 टन कचरे की पहचान करके लोगों को बताया जाए कि उनमें कौन-कौन से जहरीले रसायन मिले हुए हैं। पीथमपुर में कचरे को नष्ट करने के काम के नतीजों के आधार पर इस कचरे को भी नष्ट किया जाए। यह काम केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड या फिर किसी अन्य सम्बंधित एजेंसी के निर्देशन में होना चाहिए।
4. सोलर क्षेत्र में पड़े जहरीले रसायनों की पहचान करके क्षेत्र को प्रदूषण मुक्त बनाने के उपाय तलाशे जाएं।
5. पूरे एमआइसी संयंत्र को संरक्षित करके जहरीले रसायनों से मुक्त करने के प्रयास होने चाहिए।

अभी केवल 350 टन कचरे के निपटान को लेकर प्रक्रिया चल रही है, किन्तु उससे कहीं अधिक न दिखने वाला कचरा कारखाने के आसपास पानी और मिट्टी में पाया गया है, उसका निपटान भी उतना ही जरूरी है। तीन किलोमीटर के क्षेत्र में किए गए अध्ययन से साफ हो गया है कि यहां घातक और जहरीले रसायन अन्दर मिट्टी और पानी में मौजूद हैं। यहां तरह-तरह के विषैले पदार्थों से मिट्टी और पानी में संक्रमण बढ़ता जा रहा है।

दरअसल पीथमपुर स्थित रामकी कंपनी के कर्मचारियों ने कारखाने से जहरीला कचरा उठाने की मात्र औपचारिकता की है। परिसर में ही कई स्थानों पर जहरीले कचरे को निपटान के नाम पर जमीन में दबाया जाता था, जो अभी भी वहीं दबा हुआ है। कारखाने के कोकयार्ड में सिर्फ 350 टन जहरीला कचरा रखा हुआ है। जो कारखाने के एक दर्जन से ज्यादा जगहों से उठाया गया है, इस कचरे में 164 टन मिट्टी है।

चन्द्रभूषण का कहना है कि अभी तक जो अध्ययन हुए हैं वो तीन किलोमीटर के दायरे में हुए हैं। एक ही दिशा में बहने से पिछले 29 सालों मे भूजल कहां से कहां तक पहुंच गया होगा, यह किसी को नहीं मालूम। इसका दायरा दस किलोमीटर तक फैलने की आशंका है। अब तक कचरे के निपटान की सिर्फ बातें ही हुई हैं। यदि अब भी इस पर काम नहीं हुआ तो इसके दूरगामी परिणाम अत्यंत घातक होंगे।

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