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तंत्रिकाविकृति विज्ञान

तंत्रिकाविकृति विज्ञान (Neuropathology) वह विज्ञान है, जो तंत्रिकातंत्र के रोगों से संबंध रखता है (देखें तंत्रिका तथा तंत्रिका तंत्र)।

तंत्रिकातंत्र को प्रभावित करनेवाली प्रक्रियाओं को सामान्यत: दो बड़े समूहों में विभक्त किया गया है:

1. कायिक रोग (Organic Diseases)
2. क्रियागत रोग (Functional Diseases)

इनमें से कायिक रोगों का अध्ययन अधिक विस्तार से हुआ है।

तंत्रिकातंत्र के दो प्रमुख अवयव होते हैं: एक औतिकी तत्व, जिसे तंत्रिका कोशिकाएँ (Neurones) कहते हैं, और दूसरा उसका आलंबक, संरक्षक और पोषक, ऊतक तत्व। इनमें तंत्रिका कोशिकाएँ ही सब प्रकार की संवेदनाओं और संवेगों का मूल हैं। इनकी संख्या प्राणियों के विकास स्तर के अनुसार बढ़ती जाती है। आजकल के सुशिक्षित एवं उच्च कोटि के दायित्ववाले मनुष्यों में इनकी संख्या 15 अरब तक बतलाई जाती है (देखें तंत्रिका)।

कायिक रोग -


ये तंत्रिका कोशिकाओं में आरंभ होकर, इन्हीं का अपकर्षण (degeneration) करते हैं, जिससे तंत्रिकातंत्र के वास्तविक रोग उत्पन्न होते हैं। आलंबक, संरक्षक और पोषक ऊतकों में रोग उत्पन्न होकर तंत्रिका कोशिकाओं में फैल सकते हैं। ऐसी दशा में रूधिर वाहिनियों लसिकावाहिनियों, झिल्लियों और बिशिष्ट तंत्रिका-संयाजक-ऊतकों में परिवर्तन, तथा अर्बुद (turnour) और इसी प्रकार की अन्य वृद्धियाँ उत्पन्न हो सकती हैं।

तंत्रिका कोशिका में विकृति की क्रियाओं के कारणों को (1) आंतर कारणों तथा (2) ब्ह्रा कारणों में विभक्त किया गया है।

आंतर कारण - समस्त तंत्रिका विकृति के आंतर कारणों में वंशानुगत पूर्ववृत्ति (predisposition) बड़े महत्व की बात है। अनेक स्थलां पर मानसि रोगियों के परीक्षण से स्पष्ट रूप से पता लगता है कि अधिकांश रोगियों में उनके काई न कोई पूर्वज, माता या पिता, मातामह या पितामह, या अन्य दूर के पूर्वज, मानसिक रोग से आक्रांत थे। ऐसा अपस्मार (epilepsy), हिस्टीरिया, मन:श्रांति (neurasthenia), अर्धकपाली (migraine), उन्माद, मनोविक्षिप्ति (psychosis), सविषाद इत्यादि रोगों में विशेष रूप में देखा गया है।

बाह्य कारण (1) इनमें रूधिर और लसीका की असामान्य दशा है, जिससे तंत्रिका कोशिकाएँ विषाक्त होती हैं; (2) सामान्य उद्दीपन (stimulation) की अधिकता या न्यूनता, या असामान्य (abnormal) उद्दीपन की उपस्थिति तथा(3) आलंबक या वाहिका (vascular) ऊतकों का क्षतिग्रस्त या रोगग्रस्त होना।

रूधिर और लसीका की असामान्य दशा में तंत्रिकातंत्र की रूधिर प्राप्ति में कमी, रुधिर की सामान्य दशा में परिवर्तन, रुधिर के सामान्य अवयवों की कमी या अनुपस्थिति, कुछ सामान्य अवयवों की अधिकता, शरीर में कुछ असामान्य पदार्थो की उपस्थिति इत्यादि कारण हैं।

यदि रुधिर में ऑक्सीजन की कमी हो, जैसा मूर्छा (syncope) में होता है, तो उससे कार्यात्मक अवसाद (functional depression), शिथिलता (lassitude) और मानसिक थकान हो सकती है। बार बार गर्भाधान और शिशु को अधिक दूध पिलाने से स्त्रियों में तंत्रिबंध (neuralgia), तांत्रिक परिश्रांति (nervous exhaustion) एवं हिस्टीरिया आद लक्षण प्रकट हो सकते हैं। रुधिर में यद कार्बोनिक अम्ल (carbonic Acid) का आधिक्य रहे तो उससे निद्रालुता (drowsiness) या ऐंठन (Convulsions) हो सकती है। रुधिर में यदि नाइट्रोजन उत्पादों का बाहुल्य हो तो रक्तमूत्र विषाक्तता (uraemia) हो सकती है। इसके लक्षणों में सिर दर्द, निद्रालुता, अचेतनता, अपस्मार, ऐंठन और कभी कभी बहुतंत्रिक शोथ (polyneuritis) प्रधान हैं। शरीर में उत्पन्न विषसूक्ष्माणुओं तथा बार से प्रविष्ट विषों से भी तंत्रिका रोग होते हैं। दुष्ट रक्तक्षीणता (pernicious anaemia) में तंत्रिका रोग होते हैं। दुष्ट रक्तक्षीणता (pernicious anaemia) में तंत्रिका जीवविष (neurotoxin) के कारण मेरुरज्जु का अपकर्षण होता है। यह ह्रास पाचननाल में अपूर्ण उपापचय या दूषित अवशोषण के कारण होता है। इससे अम्लोपचय (acidosis) उत्पन्न होता है, जिसके परिणामस्वरूप तंत्रिका रोगों की उत्पत्ति होती है।

सक्रामी सूक्ष्माणुओं (infective micro-organisms) द्वारा विष उत्पन्न होता है, जो रक्त को दूषित करके ज्वर की उत्पत्ति करता है। उग्र रूप में संज्ञाहीनता (delirium), जड़िमा (stupor) और समूर्च्छा (coma) भी हो सकती है। शरीर में प्रजीवाणुओं (protozoon) के प्रवेश से भी तंत्रिकारोग उत्पन्न हो सकते हैं। उपदंश, मलेरिया, तथा अफ्रीकी निद्रालुरोग विशेष प्रजीवाणुओं के कारण होते हैं।

तंत्रिकारोगों के निदान में प्रमस्तिष्क-मेरू-द्रव (cerebrospinal fluid) का बड़ा महत्व है और इससे निदान में बड़ी सहायता मिलती है। सामान्य मेरूद्रव जल सा स्वच्छ होता है। इसका विशिष्ट गुरुत्व 1.006 होता है। इसमें प्रोटीन 0.3से 0.5 प्रतिशत और ग्लूकोज 0.5 प्रति शत रहता है। इसमें रुधिर का होना मस्तिष्कगत रक्तस्राव का सूचक है। अनेक तांत्रिक रागों में इसके परीक्षण से पर्याप्त सहायता मिलती है। इनमें मेरुद्रव को निकालकर उसका अपकेद्रण करते हैं। इससे ठोस पदार्थ बैठ जाते हैं। इसके उपरांत उसका अभिरंजन (द्मद्यaत्दत्दढ़) कर सूक्ष्मदर्शी से उसका परीक्षण करे हैं। इसकी कोशिकाआं में कोशिकातत्वों (cellular elements) की अनुपस्थिति तंत्रिकातंत्र के रागों की द्योतक है। तंत्रिकातंत्र के रोगों तथा मानसिक रोगों का सबसे प्रमुख सहायक कारण मादक वस्तुओं का अत्यधिक सेवन है। मानसिक रोगों के अतिरिक्त, मदिरा के अत्यधिक सेवन से पक्षाघात तक हो जाता है। तंत्रिकातंत्र पर कुप्रभाव डालने-वाली अन्य मादक वस्तुओं में ईथर,कोकेन, अफीम, मॉर्फिया तथा तंबाकू भी है। आलंबक रचनाओं के क्षतिग्रस्त होने से भी तंत्रिकातंत्र में पक्षाघात या क्षोभ होता है। इस प्रकार की क्षति या तो सीधे चोट लगने से, अथवा आलंबक रचनाओं में औपसर्गिक शोथ के प्रसार के कारण, होती है। इसमें तंत्रिका ऊतक में स्थायी विकृति आ जाती है। इसमें मध्यकर्ण के रोग प्रधान हैं, क्योंकि इसी से मस्तिष्क शोथ (encephalitis) एवं मस्तिष्क आवरण शोथ (meningitis) तथा मस्तिष्क का फोड़ा (brain abscess) इत्यादि रोग होते हैं।

कायिक मस्तिष्क व्याधियों की उत्पत्ति में रक्तवाहिनियों का प्रमुख हाथ है। इसमें धमनी और शिराएँ विविध कारणों से अवरूद्ध एवं विदीर्ण हो जाती हैं, जिससे तत्काल रोगी संज्ञाहीन हो जाता है। यह आगे चलकर पक्षाघात और विशेषरूप से अर्धांग पक्षाघात (hemiplegia) का स्वरूप धारण कर लेती है।

मस्तिष्कीय रक्तवाहिनियाँ रक्तस्रोतरोधन (embolism) तथा थ्रॉम्बोसिस (thrombosis) के उस भाग में रक्त का अभाव हो जाता है और वहाँ के ऊतक अत्यंत मृदु हो जाते हैं। केंद्रीय एवं प्रांतीय तंत्रिका तंत्र में एक या प्रने अर्बुदों के दबाव से भी स्थाई तंत्रिका विकार हो जाते हैं, जैसे दृष्टि तंत्रिका शोथ (optic neuritis), तीव्र सिरशल, वमन इत्यादि। इनमें अंत:करोटि दबाव (intracranial pressure) अत्यधिक बढ़ जाता है।

कुछ अर्बुद अत्यधिक संवहनीय (vascular) हुआ करे हैं। इनी दीवार बहुत पतली होती है। इसके विदीर्ण हो जाने के फलस्वरूप ऐपोप्लेक्टिक दौरा (apoplectic fit) होता है, जो आगे चलकर आक्रांत स्थान के अनुसार विभिन्न प्रकार के पक्षाघात का रूप ले लेता है।  प्रियकुमार चौवे)

तंत्रिका (Nerve)


इनके द्वारा मस्तिष्क से शरीर के भिन्न भिन्न भागों में संवेग या सूचनाएँ पहुँचती हैं तथा त्वचा, अंग और आभ्यंतरोगों से मस्तिष्क में जाती रहती हैं। ये उन तारों के समान है, जिनमें होकर एक तारधर से दूसरे तारधर में समाचार पहुँता है। तंत्रिकाओं का काम तारों की भाँति सूचना को मस्तिष्क से अंगों में और अंगों से मस्तिष्क में पहुँचाना है।

तंत्रिका की रचना -


मस्तिष्क के प्रांतस्था (cortex) भाग रंग का पदार्थ है, तंत्रिका कोशिकाएँ सिथत हैं। धूसर पदार्थ के भीतर श्वेत पदार्थ में भी कोशिकाओं के समूह धूसर रंग की द्वीपिकाओं में स्थित हैं, जो केंद्रक कहे जाते हैं इन कोशिकाओं से बहुत से सूक्ष्म तंतु निकले हुए हैं। अन्य तंतु तो पास की कोशिका तंतु के पास ही समाप्त हो जाते हैं, किंतु एक तंतु बहुत ही लंबा होता है और कोशका से निकलकर अन्य कोशिकाओं के समान तंतुओं के साथ मिलकर दूसरे केंद्रकों में पहँचकर समाप्त होता है, या आगे मेरूरज्जु में चला जाता है। यह तंतु कोशिका का अक्षतंतु (Axon) और शेष छोटे तंतु अभिवाही प्रवर्ध (Dendron) कहलाते हैं। अक्षतंतु अभिवाही प्रवर्ध और कोशिका मिलकर न्यूरॉन (Neuron) कहे जाते हैं। यह तंत्रिकातंत्र की इकाई है। कोशिका में संवेग उत्पन्न होता है और अक्षतंतु द्वारा दूसरे केंद्रक में, या और भी आगे जाकर, अंगों में पहुँचता है। अक्षतंतु ही संवेग का संवहन करते हैं। बभिवाही प्रवर्ध द्वारा संवेग कोशिका में आता है। तंत्रिका इन अक्षतंतुओं का पुंज होती है। प्रत्येक तंत्रिका में अनेक अक्षतंतु होते हैं, जो बारीक सूत्र के सद्यस चमकीले श्वेत रंग के दिखाई देते हैं। जब अक्षतंतु कोशिका से लिकलता है तो उसपर कोई आवरणा नहीं होता, किंतु आगे चलकर उसपर माइलिन पिधान (Myelin sheath) चढ़ जाता है। इसके बाहर भी तंत्रिका आवरण, न्यूरिलेमा (Neurilemma), वन जाता है। इस समय अक्षतंतु अक्ष सिलिंडर कहलाता है। इस प्रकार प्रत्येक तंत्रिकातंतु में तंत्रिका आवरण, माइलिन पिधान और अक्ष सिलिंडर होते है। अक्ष सिलिंडर में होकर ही संवेग कोशिका से अपने निर्दिष्ट स्थान में पहुँचता है। ऐसे तंतुओं के पुंज को, जिसमें अनेक तंतु सौत्रिक आवरण द्वारा ऐसे बॅधे रहते है जैसे बहुत से धागों का गुच्छा बना दिया गया है, तंत्रिका कहते है।

तंत्रिका के प्रकार-


तंत्रिका मुख्यतया दो प्रकार की होती है:

1. प्रेरक (motor), जो संवेग या उत्तेजना को मस्तिष्क या तंत्रिकाकोशिका से अंगों और पेशियों में पहुँचती है, जिससे अंगों की क्रिया होती है और पेशियों के संकोच से गति होती है; 2. सांवेदनिक (sensory),जो अंगो तथा त्वचा से उत्त्जोऩा को में विभक्त किया गया है। एक मस्तिष्क से निकलने वाली तंत्रिकाएँ, जो कपाली तंत्रिका (spinal nerves), कपालीय तंत्रिकाओं के 12 जोड़े हैं। ये सब मस्तिष्क के तल से निकलती है।

1. ध्राणकंद (Olfactory bulb); 2. ध्राणपथ ; 3. ब्रोका का (Broca¢ s) क्षेत्र ; 4. ध्राण अमेधिका tubercle); 5. दृष्टि (optic) तंत्रिका ; 6. दृष्टि स्वस्तिक (Chiasma); 7. नेत्रचालनी (Oculomotor) तीसरी तंत्रिका ; 8. चक्रक (Trochlear) चौथी तंत्रिका; 9.त्रिमूलिका (Trigeminal)पॉचवी तंत्रिका; 10.उद्विवर्तनी (Abducent) छठी तंत्रिका; 11आनन (Facial)सातवी तंत्रिका; 12.मध्यक भाग (pars Media); 13.श्रवण (Auditory)आठवीं तंत्रिका; 14.अधोजिह्यिकी (sublingual) बारहवीं तंत्रिका; 15.जिह्यिका ग्रसनी(Glosso Pharyngeal) नवीं तंत्रिका; 16.अधोजिह्यिकी (sublingual) बारहवीं तंत्रिका; 17.वेगस (vagus) दसवीं तंत्रिका; 18. मेरूसहायिका ग्यारहवीं तंत्रिका,सहायिका भाग (Spinal Accessory Part); 19. मेरूसहायिका ग्यारहवीं तंत्रिका, मेरूभाग (Spinal Acc. Nerve, Spinal part); 20. मेरूरज्जु (Spinal cord); 21. पश्च कपाल खंड÷(Occipital lobe), कटा हुआ; 22.अनुमस्तिष्क का वर्मिस (Vermis of cerebellum), कटा हुआ; 23. ्घ्रााणतंत्रिका का अभिमध्यमूल (medial root); 24. दृष्टिस्वस्तिक; 25. पार्श्वमूल (Lateral root); 26. पूर्व सुषिरविदु (Anterior spongy point); 27. शंखखंड (Temporal lobe), कटा हुआ; 28. दृष्टिपथ (Optic tract); 29. चक्रक (Trochlear)तंत्रिका; 30. वृत्ताकार वेणी, टीनिया (Tinea circularis); 31. त्रिमूलिका (Trigeminal); 32. उद्विवर्तनी (Abducent) तंत्रिका 33. बहि:वक्रपिंड (Exterior geniculate body); 34 अंत:वक्रपिंड,जेनिकुलेट; (35) पुल्विनार (Pulvinar); 36. आननी (Facial) तंत्रिका; 37. अभिमध्य भाग (Pons medjalis); 38. श्रवण (Auditory) तंत्रिका; 39. मध्य अनुमस्तिष्क स्तंभ (Medial Cerebellar Peduncle); 40. पार्श्व निलय (Lateral Ventricle); 41. ज्ह्रि ग्रसनी (Glosso-pharyngeal) तंत्रिका; 42. वेगस (Vagus) तंत्रिका; 43. मेरूसहायक (Spinal accessory) तंत्रिका तथा44. मेरूसहायक तंत्रिका (लघु)।

मस्तिष्क में ले जाती है त्वचा पर किसी कीड़े के काटने का ज्ञान मस्तिष्क को करानेवाली ये ही तंत्रिकाएँ होती हैं। इनके अतिरिक्त तंत्रिकातंतु होते हैं, जो एक कोशिका से दूसरी कोशिका तक संवेग को पहुँचाते हैं। ये संयोजक तंतु (Communicating fibres) कहलाते हैं।

शरीर में स्थिति का उद्भव के अनुसार तंत्रिकाओं को दो श्रेणियों में विभक्त किया गया है। एक मस्तिष्क से निकलनेवाली तंत्रिकाएँ, जो कपाली तंत्रिका (Cranial nerves) कहलाती हैं, और दूसरी मेरूरज्जु से निकलनेवाली मेरूतंत्रिका (Spinal nerves) कपालीय तंत्रिकाओं के (12) जोड़े हैं। ये सब मस्तिष्क के तल से निकलती हैं और करोटि की अस्थियों में जो छिद्र बन जो हैं उनके द्वारा बाहर आती हैं।

प्रथम तंत्रिका घ्राणतंत्रिका है। कपाल के भीतर स्थित घ्राणकंद (Olfactory bulb) और घ्राणपथ (Olfactory tract) इसी के भाग हैं। मस्तिष्क के ललाटखंड के नीचे स्थित प्राणकंद से 20 या 25. माइलिन-पिघानरहित तंत्रिकातंतु झर्झरास्थि के सुषिरफलक में से निकलकर, नासिका के फलक पर आच्छादित श्लैष्मल कला में फैल जाते हैं। इनके द्वारा गंध का ज्ञान नासिका में होता हुआ घ्राणकंद में पहुँचकर घ्राणपथ द्वारा मस्त्तिष्क के घ्राणकेंद्र में पहुँच जाता है।

द्वितीय, दृष्टितंत्रिका है, जिसके द्वारा नेत्र के सामने आनेवाली वस्तुओं का ज्ञान मस्तिष्क के कपालखंड में स्थित दृष्टिकेंद्र में पहुँचता है। नेत्र के सबसे भीतर के कृष्णपटल, या रेटिना, के पीछे से इस तंत्रिका के सूत्र प्रारंभ होकर, दृष्टितंत्रिका के रूप में नेत्रगुहा से दृष्टिरध्रं (Optic Foramen) द्वारा निकलते हैं। तंत्रिका आगे चलकर अक्षिस्वस्तिक (Optic Chiasma) में चली जाती है, जिसमें नेत्र से आनेवाली कुछ सूत्र एक ओर से दूसरी ओर को चले जाते हैं। कुछ सीधे उसी ओर आगे को अग्रसर हो जाते हैं। यहाँ अक्षिपथ (Optic Tract) प्रारंभ होता है, जिसमें होते हुए सूत्र मध्यमस्तिष्क (Mesencephalon) के ऊर्ध्व-चतुष्टय-पिंड (Superior quadrigeminal body), अंत: और बहिर्जेनिक्युलेट पिंड तथा पुलविनार (Pulvinar) में स्थित अधोदृष्टिकेंद्र में चे जाते हैं। जो सूत्र स्वस्तिका में दूसरी ओर को गए थे वे भी यहीं पर पहूँचते हैं। यह निम्न या अधोदृष्टिकेंद्र, पश्चकपाल खंड के उच्च दृष्टिकेंद्र से अक्षिविकिरण (Optic radiation) द्वारा संबंधित है। इस प्रकार जिस वस्तु का नेत्र के रेटिना पर बिंब बनता है उसके चिन्ह (impression) रेटिना के पीछे दृष्टितंत्रिका के सूत्रों में होते हुए दृष्टि, अक्षिस्वस्तिक और अक्षिपथ द्वारा मध्यमस्तिष्क में होकर पश्चकपाल खंड के दृष्टिकेंद्र में पहुँच जाते हैं। इस मार्ग का कोई भी स्थान रोग या अर्बुद द्वारा आक्रांत हो जाने से हम सामने की वस्तु नहीं देख पाते।

तृतीय, नेत्रप्रेरक तंत्रिका (Occulomotor nerve) नेत्र की उन पेशियों की प्रेरक है जिनके संकोच से नेत्रगोलक ऊपर, नीचे या बाहर और भीतर की ओर घूमता है।

चतुर्थ, चक्रक (Trochlear) तंत्रिका भी नेत्रगुहा में आकर ऊर्ध्व तिर्यक्‌ (Superior oblique) पेशी में जाती है और उसका संचालन करती है।

पाँचवीं, त्रिधारा (Trigeminal ) तंत्रिका है, जो प्रेरक और सांवेदनिक मूलों से निकलती है। सांवेदनिक मूल पर एक बड़ी त्रिधारा मुच्छिका (ganglion) है, जिससे तीन बड़ी बड़ी शाखाएँ निकलती हैं जो नेत्र संबंधी (Ophthalmic), उर्ध्वहनु (Maxillary) और अधोहनु (Mandibular) विभाग कहलती हैं। प्रेरक तंतु केवल अधोहनु विभाग में आते हैं और चर्वण की पेशियों का संचालन करते हैं। शेष दोनों विभागों की शाखाएँ ललाट, मुख तथा गले के ऊर्ध्व भाग में फैल जाती है।

छठी, उद्विवर्तनी (Abducens) तंत्रिका केवल नेत्र की पश्चऋजु (Exterior rectus) पेशी में जाती है।

सातवीं, आनन (Facial) तंत्रिका मुख की समस्त पेशियों (चर्वणक पेशियों के अतिरिक्त) का संचालन करती है।

आठवीं, श्रवण (Auditory) तंत्रिका के दो विभाग हैं, जो कर्ण में श्रवण संबंधी कर्णावर्त (Cochlea) भाग तथा प्रघाण (vestibular) क्षेत्र में जाते हैं। इसके प्रथम विभाग द्वारा हमको शब्द का ज्ञान होता है तथा दूसरा भाग शरीर का संतुलन करता है।

नवीं, ज्ह्नि कंठिका तंत्रिका ज्ह्नि के पिछले भाग में आकर ज्ह्नि की पेशियों का संचालन करती है। इसके सांवेदनिक सूत्र कंठ में फैले हुए हैं।

दसवीं, वेगस (Vagus) तंत्रिका अत्यंत महत्वशाली और विस्तृत है। इसकी एक सांवेदनिक शाखा कंठ (larynx) में जाती है तथा प्रेरक शाखाएँ कंठग्रसनिका (pharynx), फुफ्फुसजालिका बनाती है। तब ग्रासनली (Oesophagus) पर, फिर ग्रासनली जालिका में विभक्त हो जाती है। मध्यच्छया पेशी के पास पहुँचकर, फिर दोनों स्पष्ट होकर, बाई ओर की तंत्रिका आमाशय के सामने आ जाती है और इसकी शाखाएँ आमाशय के अग्रपृष्ठ में जाती तथा यकृतजालिका से मिल जाती हैं। दाहिनी तंत्रिका आमाशय के पीछे से जाकर कुक्षि (coeliac) तथा प्लीहा (splenic) और वृक्क (renal) जालिकाओं से मिल जाती है।

ग्यारहवीं, मेरू सहायिका तंत्रिका (Spinal Accessory) में केवल प्रेरक सूत्र होते हैं। इसका सहायक भाग वेगस तंत्रिका में चला जाता है। दूसरा मेरूभाग उर:कर्णमूलिका (Sternocleido mastoidus) और पूष्ठच्छदा (Trapezius) पेशियों को शाखा देता है।

बारहवीं, अधोज्ह्रि (Hypoglossal) तंत्रिका ज्ह्नि की पेशियों को, कंठिकास्थि को नमित करनेवाली पेशियों को तथा स्वरयंत्र (larynx) संबंधि पेशियों की शाखाएँ भेजती है।

मेरतंत्रिका -


मेरूरज्जु के, जो मस्तिष्क के तल से निकलकर तथा कपाल के महाविवर द्वारा बाहर आकर कशेरूक नलिका में प्रथाम ग्रैवेयक कशेरूक से लेकर त्रिक प्रांत तक फैली हुई है, दोनों ओर से मेरूतंत्रिकाओं के 31 जोड़े निकलते हैं। प्रत्येक तंत्रिका मेरूरज्जु से दो मूलों (roots) से निकलती है। अग्रमूल (anterior root) में केवल प्रेरक तंतु रहते हैं। पश्चमूल (posterior root) में केवल सांवेदनिक सूत्र होते हैं। इस मूल पर एक सूक्ष्म गाँठ सी होती है, जिसको गुच्छिका (ganglion) कहते हैं। यह कशेरूक नलिका के पार्श्व के छिद्र में रहती है, जहाँ से तंत्रिका निकलती है। आगे चलकर दोनों मूल मिल जाते हैं और एक मिश्रित तंत्रिका तैयार हो जाती है। जिसमें प्रेरक और सांवेदनिक दोनों प्रकार के तंतु रहते हैं। आत्मगतंत्र की संगम प्रशाखाएँ (ramii communicants of autonomous nervous system) यहीं पर आकर तंत्रिका में मिल जाती हैं। वक्ष प्रांत में तंत्रिका वितरण निश्चित प्रकार का है। इस कारण उसको आदर्श स्वरूप मानकर यहाँ उसका विवरण दिया जाता है। अन्य प्रांतों की विशेषताओं का आगे चलकर वर्णन किया जायगा।

दोनों मूलों के मिलने से तंत्रिका बनने पर संगम प्रशाखाओं के संयोग के पश्चात्‌ तंत्रिका बनने पर संगम प्रशाखाओं के संयोग के पश्चात्‌ तंत्रिका दो मुख्य विभागों में विभक्त हा जाती है। अग्र विभाग धड़ के सामने की ओर जाता है। पार्श्व में पहुँचने पर इससे एक पार्श्वकांड (lateral trunk) निकलता है, जिसकी अग्र और पश्च शाखाएँ त्वचा में सामने और पीछे की ओर फैल जाती हैं। स्वयं अग्रविभाग पर्शुकांतरिका पेशियों के बीच में, पर्शुकांतरिका तंत्रिका के रूप में, वहाँ की पेशियों में तुतुओं को वितरित करता हुआ, सामने उरोस्थि तक पहुँच जाता है। पश्चविभाग पीछे की ओर जाकर, अग्र और पश्च शाखाओं में विभक्त हाकर, पीठ की पेशियों में और त्वचा में वितरित हा जाता हैं। वक्ष की 12 तंत्रिकाओं के जोड़ों का इसी प्रकार वितरण है, अर्थात्‌ एक तंत्रिका वक्ष के एक खंड में वितरित है। अन्य प्रांतों में ऐसा निश्चित प्रकार का और विशेष भाग में परिमित वितरण नहीं है।

जालिकाएँ -


ग्रीवा प्रांत की प्रथम तंत्रिका में बहुघा पश्चविभाग नहीं होता। इस कारण वह त्वचा में शाखाएँ नहीं भेज सकती। उसका अग्र विभाग दूसरी, तीसरी और चौथी ग्रीवातंत्रिकाओं के अग्र विभागों के साथ मिलकर, ग्रैवेयक जालिका (cervical plexus) बना देत है, जो ग्रीवा की उन पेशिओं अाैर त्वचा आदि में जिनमें कपाली तंत्रिकाओं के तंतु नहीं पहुँचते तंतुओं का वितरण करती है। मध्यच्छदा तंत्रिका (Phrenic nerve) विशेषकर चौथी ग्रीवा तंत्रिका से निकलती है किंतु वह सारे वक्ष को पार करके नीचे जाकर मघ्यच्छदा पेशी (Diaphragm) के अधिक भाग का तंत्रिकासंभरण (nerve supply) करती है। इसका कारण भ्रूण की ग्रीवा में मध्यच्छदा की उत्पत्ति है। चौथी ग्रैवेयक के शेष भाग और पाँचवीं, छठी, सातवीं और आठवीं, ग्रैवेयक तथा प्रथम वक्षीय तंत्रिका के अग्रविभाग मिलकर प्रगंड जालिका (Brachial plexus) बनाते हैं। जालिका में तंत्रिकाआं के तंतुओं का पुनर्विन्यास होता है, जिससे तीन विशिष्ट विभाग बनते हैं। इनको पार्श्विक, प्रांत और माध्यमिक विभाग कहते हैं। इन विभागों से, जिनको रज्जु (cord) भी कहते हैं, ऊर्ध्व शाखा वक्ष, ग्रीवा तथा पीठ की कितनी ही पेशियों को तथा त्वचा को शाखाएँ जाती हैं।

बक्ष प्रांत में इस प्रकार की कोई जालिका नहीं बनती। यहाँ के तंत्रिकावितरण का जो वर्णन किया गया है, उससे स्पष्ट है कि प्रत्येक तंत्रिका वितरण का जो वर्णन किया गया है, उससे स्पष्ट है कि प्रत्येक तंत्रिका यहाँ स्वतंत्रतया वितरित है। उदर की भित्ति में भी पर्शुकांतरिका तंत्रिका फैली हुई है। इसके निचले भाग में प्रथम कटितंत्रिका (Lumbar nerve) भी इसी प्रकार उदरभित्ति तथा वहाँ की पेशियों में फैली हुई है, यद्यपि उसका कुछ अंश कटिजालिका (Lumbar plexus) बनाने में भाग लेता है।

कटिजालिका -


दूसरी, तीसरी, चौथी कटितंत्रिकाएँ और प्रथम त्रिक्तंत्रिका के कुछ भाग के संमेलन से यह जालिका बनती है। चौथी तंत्रिका की एक शाखा प्रथम त्रिक्तंत्रिका (sacral nerve) के साथ मिलकर त्रिग्जालिका (Sacral plexus) बनाने में भाग लेती है। कटिजालिका से कई बड़ी बड़ी तंत्रिकाएँ बनती हैं, जिनकी शाखाएँ नितंब, उपस्थ, पेडू तथा ऊरू में सामने तथा भीतर और पीछे की ओर की पशियों एवं त्वचा तथा संधियों में उपशाखाएँ भेजती है।

त्रिग्जालिका -


पाँचवीं कटि तथा पहली, दूसरी, तीसरी और चौथी त्रिक्तंत्रिकाओं से यह बनती है। इसकी शाखाएँ नितंब की कुछ पेशियां तथा जानु से नीचे जंघा, गुल्फ तथा पॉव की पेशियां, संधियों तथा त्वचा का तंत्रिकाभरण करती हैं। ग्धृसी (Sciatic) तंत्रिका इसी जालिका से बनती है। यह अधोशाखा की सबसे बड़ी तंत्रिका है।

शरीर में और भी कितनी ही जालिकाएँ हैं। आभ्यंतरांगों- हृदय, फुफ्फुस, आमाशय, आंत्र आदि - आत्मज तंत्रिकातंत्र के सूत्रों की जालिकाएँ फैली हुई हैं, जिनके द्वारा उन अंगों की क्रिया घटती बढ़ती हैं। उनमें भी अपवाही और अभिवाही सूत्र हैं, जो सूचनाआं को केंद्र से अंग में और अंग से केंद्र में ले जाते हैं।

कपाली और मेरूतंत्रिकाओं का काम नासिका, नेत्र, श्रवण, रसना तथा शरीर की समस्त पेशियों का संचालन और प्रत्येक स्थान की त्वचा से संवेग या सूचनाआं को मस्तिष्क में पहुँचाना है। भीतर के अंगों पर आत्मज तंत्र का अधिकार है। वही उनका नियंत्रण करता है।

 मुकुंदस्वरूप वर्मा]

तंत्रिकातंत्र में मस्तिष्क, मेरूरज्जु और इनसे निकलनेवाली तंत्रिकाओं की गणना की जाती है। इसमें भी दो भाग किए गए हैं। मस्तिष्क और मेरूरज्जु केंद्रीय तंत्रिकातंत्र (Central Nervous System) कहलाते हैं। ये दोनों शरीर के मध्य भाग में स्थित हैं। इनमें वे केंद्र भी स्थित हैं, जहाँ से शरीर के भिन्न भिन्न भागों के संचालन तथा गति करने के लिये आवेग (impulse) जाते हैं तथा वे आवेगी केंद्र भी हैं, जिनमें शरीर के आभ्यंतरंगों तथा अन्य भागों से भी आवेग पहुँचते रहते हैं। दूसरा भाग परिधि तंत्रिकातंत्र (peripheral Nervous System) कहा जाता है। इसमें केवल तंत्रिकाओं का समूह है, जो मेरूरज्जु से निकलकर शरीर के दोनों ओर के अंगों में विस्तृत है। तीसरा आत्मग तंत्रिकातंत्र (Autonomic Nervous System) है, जो मेरूरज्जु के दोनों ओर गंडिकाआं की लंबी श्रंखलाओं के रूप में स्थित है। यहाँ से सूत्र निकलकर शरीर के सब आभ्यंतरांगों में चे जाते हैं और उनके समीप जालिकाएँ (plexus) बनाकर बंगों में फैल जो हैं। यह तंत्र ऐच्छिक नहीं प्रत्युत स्वतंत्र है और शरीर के समस्त मुख्य कार्यो, जैसे रक्तसंचालन, श्वसन, पाचन, मूत्र की उत्पत्ति तथा उत्सर्जन, निस्रावी ग्रंथियों में स्रावों (हॉरमोनों की उत्पत्ति) के निर्माण आदि क संचालन करता है। इसके भी दो विभाग हैं, एक अनुकंपी (sympathetic) और दूसरा परानुकंपी (parasympathetic) ।

केंद्रीय तंत्रिकातंत्र


मस्तिष्क (Brain) -


मस्तिष्क खोपड़ी (Skull) में स्थित है। यह चेतना (consciousness ) और स्मृति (memory) का स्थान है। सब ज्ञानेंद्रियों - नेत्र, कर्ण, नासा, ज्ह्नि तथा त्वचा - से आवेग यहीं पर और हैं, जिनको समझना अर्थात्‌ ज्ञान प्राप्त करना मस्तिष्क का कम्र है। पेशियों के संकोच से गति करवाने के लिये आवेगों को तंत्रिकासूत्रों द्वारा भेजने तथा उन क्रियाओं का नियमन करने के मुख्य केंद्र मस्तिष्क में हैं, यद्यपि ये क्रियाएँ मेरूरज्जु में स्थित निम्न केंद्रों से होती रहती हैं। अनुभव से प्राप्त हुए ज्ञान को सग्रह करने, विचारने तथा विचार करके निष्कर्ष निकालने का काम भी इसी अंग का है।

मस्तिष्क की रचना -


मस्तिष्क में ऊपर का बड़ा भाग प्रमस्तिष्क (hemispheres) कपाल में स्थित हैं। इनके पीछे के भाग के नचे की ओर अनुमस्तिष्क (cerebellum) के दो छोटे छोटे गोलार्घ जुड़े हुए दिखाई देते हैं। इसके आगे की ओर वह भाग है, जिसको मध्यमस्तिष्क या मध्यमस्तुर्लुग (midbrain or mesencephalon) कहते हैं। इससे नीचे को जाता हुआ मेरूशीर्ष, या मेडुआ औब्लांगेटा (medulla oblongata), है।

प्रमस्तिष्क और अनुमस्तिष्क झिल्लियों से ढके हुए हैं, जिनको तानिकाएँ कहते हैं। ये तीन हैं: दृढ़ तानिका, जालि तानिका और मृदु तानिका (देखें तानिका)। सबसे बाहरवाली दृढ़ तानिका है। इसमें वे बड़ी बड़ी शिराएँ रहती हैं, जिनके द्वारा रक्त लौटता है। कलापास्थि के भग्न होने के कारण, या चोट से क्षत हो जाने पर, उसमें स्थित शिराओं से रक्त निकलकर मस्तिष्क पर जमा हो जाता है, जिसके दबाव से मस्ष्तिष्क की कोशिकाएँ बेकाम हो जाती हैं तथा अंगों का पक्षाघात (paralysis) हो जाता है। इस तानिका से एक फलक निकलकर दोनों गोलार्धो के बीच में भी जाता है। ये फलक जहाँ तहाँ दो स्तरों में विभक्त होकर उन चौड़ी नलिकाओं का निर्माण करते हैं, जिनमें से हाकर लौटनेवाला रक्त तथा कुछ प्रमस्तिष्क मेरूद्रव भी लौटते है (देखें तानिका और प्रमस्तिष्क मेरूद्रव)।

मस्तिष्क के भाग


प्रमस्तिष्क -


इसके दोनों गोलार्घो का अन्य भागों की अपेक्षा बहुत बड़ा होना मनुष्य के मस्तिष्क की विशेषता है। दोनों गोलार्ध कपाल में दाहिनी और बाईं ओर सामने ललाट से लेकर पीछे कपाल के अंत तक फैले हुए हैं। अन्य भाग इनसे छिपे हुए हैं। गोलार्धो के बीच में ए गहरी खाई है, जिसके तल में एक चौड़ी फीते के समान महासंयोजक (Corpus Callosum) नामक रचना से दोनों गोलार्ध चुड़े हुए हैं। गोलार्धो का रंग ऊपर से घूसर दिखाई देता है।

गोलार्धो के बाह्यय पृष्ठ में कितने ही गहरे विदर बने हुए हैं, जहाँ मस्तिष्क के बाह्य पृष्ठ की वस्तु उसके भीतर घुस जाती है। ऐसा प्रतीत होता है, मानो पृष्ठ पर किसी वस्तु की तह को फैलाकर समेट दिया गा है, जिससे उसमें सिलवटें पड़ ई हैं। इस कारण मस्तिष्क के पृष्ठ पर अनेक बड़ी छोटी खाइयाँ बन जाती हैं, जो परिखा (Sulcus) कहलाती हैं । परिखाओं के बीच धूसर मस्तिष्क पृष्ठ के मुड़े हुए चक्रांशवतद् भाग कर्णक (Gyrus) कहलाते हैं,क्योंकि वे कर्णशुष्कली के समान मुडे हुए से हैं। बडी और गहरी खाइयॉ विदर (Fissure) कहलाती है और मस्तिष्क के विशिष्ट क्षेत्रों को पृथक करती है। मस्तिष्क के सामने, पार्श्व तथा पीछे के बड़े-बड़े भाग को उनकी स्थिति के अनुसार ख्डां (Lobes) तथा ख्ांडिका (Lobules) कहा गया है। गोलार्ध के सामने का खंड ललाटखंड (frontal lobe) है, जो ललाटास्थि से ढँका रहता है। इसी प्रकार पार्श्विका (Parietal) खंड तथा पश्चकपाल (Occipital) खंड तथा शंख खंड (temporal) हैं। इन सब पर परिशखाएँ और कर्णक बने हुए हैं। कई विशेष विदर भी हैं। चित्र 2. और 3 में इनके नाम और स्थान दिखाए गए हैं। कुछ विशिष्ट विदरों तथा परिखाओं की विवेचना यहाँ की जाती है। पार्श्विक खंड पर मध्यपरिखा (central sulcus), जो रोलैडो का विदर (Fissure of Rolando) भी कहलाती है, ऊपर से नीचे और आगे को जाती है। इसके आगे की ओर प्रमस्तिष्क का संचालन भाग है, जिसकी क्रिया से पेशियाँ संकुचित होती है। यदि वहाँ किसी स्थान पर विद्युतदुतेजना दी जाती है तो जिन पेशियों को वहाँ की कोशिकाओं से सूत्र जाते हैं उनका संकोच होने लगता है। यदि किसी अर्बुद, शोथ दाब आदि से कोशिकाएँ नष्ट या अकर्मणय हो जाती हैं, तो पेशियाँ संकोच नहीं, करतीं। उनमें पक्षघात हो जाता है। दस विदर के पीछे का भाग आवेग क्षेत्र है, जहाँ भिन्न भिन्न स्थानों की त्वचा से आवेग पहुँचा करते हैं। पीछे की ओर पश्चकपाल खंड में दृष्टिक्षेत्र, शूक विदर (calcarine fissure) दृष्टि का संबंध इसी क्षेत्र से है। दृष्टितंत्रिका तथा पथ द्वारा गए हुए आवेग यहाँ पहुँचकर दृष्ट वस्तुओं के (impressions) प्रभाव उत्पन्न करते हैं।

नीचे की ओर शंखखंड में विल्वियव के विदर के नीचे का भाग तथा प्रथम शंखकर्णक श्रवण के आवेगों को ग्रहण करते हैं। यहाँ श्रवण के च्ह्रोिं की उत्पत्ति होती है। यहाँ की कोशिकाएँ शब्द के रूप को समझती हैं। शंखखंड के भीतरी पृष्ठ पर हिप्पोकैंपी कर्णक (Hippocampal gyrus) है, जहाँ गंध का ज्ञान होता है। स्वाद का क्षेत्र भी इससे संबंधित है। गंध और स्वाद के भाग और शक्तियाँ कुछ जंतुओं में मनुष्य की अपेक्षा बहुत विकसित हैं। यहीं पर रोलैंडो के विदर के पीछे स्पर्शज्ञान प्राप्त करनेवाला बहुत सा भाग है।

ललाटखंड अन्य सब जंतुओं की अपेक्षा मनुष्य में बढ़ा हुआ है, जिसके अग्रिम भाग का विशेष विकास हुआ है। यह भाग समस्त प्रेरक और आवेगकेंद्रों से संयोजकसूत्रों (association fibres) द्वारा संबद्ध है, विशेषकर संचालक क्षेत्र के समीप स्थित उन केंद्रों से, जिनका नेत्र की गति से संबंध है। इसलिये यह माना जाता है कि यह भाग सूक्ष्म कौशलयुक्त क्रियाओं का नियमन करता है, जो नेत्र में पहुँचे हुए आवेगों पर निर्भर करती हैं और जिनमें स्मृति तथा अनुभाव की आवश्यकता होती है। मनुष्य के बोलने, लिखने, हाथ की अँगुलियों से कला की वस्तुएँ तैयार करने आदि में जो सूक्ष्म क्रियाएँ होती हैं, उनका नियंत्रण यहीं से होता है।

प्रमस्तिष्क उच्च भावनाओं का स्थान माना जाता है। मनुष्य के जो गुण उसे पशु से पृथक्‌ कते हैं, उन सबका स्थान प्रमस्तिष्क है।

पार्श्व निलय (Lateral Ventricles) -


यदि गोलार्धो को अनुप्रस्थ दिशा में काटा जाय तो उसके भीतर खाली स्थान या गुहा मिलेगी। दोनों गोलार्धो में यह गुहा है, जिसको निलय कहा जाता है। ये गोलार्धो के अग्रिम भाग ललाटखंड से पीछे पश्चखंड तक विस्तृत हैं। इनके भीतर मस्तिष्क पर एक अति सूक्ष्म कला आच्छादित है, जो अंतरीय कहलाती है। मृदुतानिका की जालिका दोनों निलयों में स्थित है। इन गुहाओं में प्रमस्तिष्क मेरूद्रव भरा रहता है, जो एक सूक्ष्म छिद्र क्षरा, जिसे मुनरो का छिद्र (Foramen of Munro) कहते हैं, दृष्टिचेतकां (optic thalamii) के बीच में स्थित तृतीय निलय में जाता रहता है।

प्रमस्तिष्क प्रांतस्था (Cerebral Cortex)-


प्रमस्तिष्क के पृष्ठ पर जो धूसर रंग के पदार्थ का मोटा स्तर चढ़ा हुआ है, वह प्रांतस्था कहलाता है। इसके नीचे श्वेत रंग का अंतस्थ (medulla) भाग है। उसमें भी जहाँ तहाँ धूसर रंग के द्वीप और कई छोटी छोटी द्वीपिकाएँ हैं। इनको केंद्रक (nucleus) कहा जाता है।प्रांतस्था स्तर विशेषकर तंत्रिका कोशिकाओं का बना हुआ है, यद्यपि उसमें कोशिकाओं से निकले हुए सूत्र और न्यूरोम्लिया नामक संयोजक ऊतक भी रहते हैं, किंतु इस स्तर में कोशिकाओं की ही प्रधानता होती है।

स्वयं प्रांतस्था में कई स्तर हाते हैं। सूत्रों के स्तर में दो प्रकार के सूत्र हैं: एक वे जो भिन्न भिन्न केंद्रों को आपस में जोड़े हुए हैं (इनमें से बहुत से सूत्र नीचे मेरूशीर्ष या मेरू के केंद्रों तथा अनुमस्तिष्क से आते हैं, कुछ मस्तिष्क ही में स्थित केंद्रों से संबंध स्थापित करते हैं); दूरे वे सत्र हैं जे वहाँ की कोशिकाओं से निकलकर नीचे अंत:- संपुट में चे जाते हैं और वहाँ पिरामिडीय पथ (pyramidial tract) में एकत्र हाकर मेरू में पहुँचते हैं।

मनुष्य तथा उच्च श्रेणी के पशुओं, जैसे एप, गारिल्ला आदि में, प्रांतस्था में विशिष्ट स्तरों का बनना विकास की उन्नत सीमा का द्योतक है। निम्न श्रेणी के जंतुओं में न प्रांतस्था का स्तरीभवन ही मिलता है और न प्रमस्तिष्क का इतना विकास होता है।

अंततस्था -


यह विशषतया प्रांतस्था की काशिकाओं से निकले हुए अपवाही तथा उनमें जनेवाले अभिवाही सूत्रों का बना हुआ है। इन सूत्रपुंजों के बीच काशिकाओं के समूह जहाँ तहाँ स्थित हैं और उनका रंग धूसर है। अंंतस्था श्वेत रंग का है।

अनुमस्तिष्क -


मस्तिष्क के पिछले भाग के नीचे अनुमस्तिष्क स्थित है। उसके सामने की ओर मघ्यमस्तिष्क है, जिसके तीन स्तंभों द्वारा वह मस्तिष्क से जुड़ा हुआ है। बाह्य पृष्ठ धूसर पदार्थ से आच्छादित होने के कारण इसका रंग भी धूसर है और प्रमस्तिष्क की ही भाँति उसके भीतर श्वेत पदार्थ है। इसमें भी दो गोलार्ध हैं, जिनका काटने से बीच में श्वेत रंग की, वृक्ष की शाखाओं की सी रचना दिखाई देती है। अनुमस्तिष्क में विदरों के गहरे होने से वह पत्रकों (lamina) में विभक्त हे गया है। ऐसी रचना प्रशाखारूपिता (Arber vitae) कहलाती है।

अनुमस्तिष्क का संबंध विशेषकर अंत:कर्ण से और पेशियों तथा संधियों से है। अन्य अंगों से संवेदनाएँ यहाँ आती रहती हैं। उन सबका सामंजस्य करना इस अंग का काम है, जिससे अंगों की क्रियाएँ सम रूप से होती रहें। शरीर को ठीक बनाए रखना इस अंग का विशेष कर्म है। जिन सूत्रों द्वारा ये संवेग अनुमतिष्क की अंतस्था में पहुँचते हैं, वे प्रांतस्था से गोलार्ध के भीतर स्थित दंतुर केंद्रक (dentate nucleus) में पहुँचते हैं, जो घूसर पदार्थ, अर्थात्‌ कोशिकाओं, का एक बड़ा पुंज है। वहाँ से नए सूत्र मध्यमस्तिष्क में दूसरी ओर स्थित लाल केंद्रक (red nucleus) में पहुँचते हैं। वहाँ से संवेग प्रमस्तिष्क में पहुँच जाते हैं।

मध्यमस्तिष्क (Mid-brain) -


अनुमस्तिष्क के सामने जो रचना चित्र 3. में दिखाई दे रही है उसका ऊपर का भाग मध्यमस्तिक और नीचे का भाग मेरूशीर्ष (Medulla oblongata) है अनुमस्तिष्क और प्रमस्तिष्क का संबंध मध्यमस्तिष्क द्वारा स्थापित होता है। मघ्यमस्तिष्क में होते हुए सूत्र प्रमस्तिष्क में उसी ओर, या मध्यरेखा को पार करके दूसरी ओर को, चले जाते हैं।

मध्यमस्तिष्क के बीच में सिल्वियस की अणुनलिका है, जो तृतिय निलय से चतुर्थ निलय में प्रमस्तिष्क मेरूद्रव को पहुँचाती है। इसके ऊपर का भाग दो समकोण परिखाओं द्वारा चार उत्सेधों में विभक्त है, जो चतुष्टय काय या पिंड (Corpora quadrigemina) कहा जाता है। ऊपरी दो उत्सेधों में दृष्टितंत्रिका द्वारा नेत्र के रेटिना पटल से सूत्र पहुँचते हैं। इन उत्सेधों से नेत्र के तारे में होनेवाली उन प्रतिवर्त क्रियाओं का नियमन होता है, जिनसे तारा संकुचित या विस्तृत होता है। नीचे के उत्सेधों में अंत:कर्ण के काल्कीय भाग से सूत्र आते हैं और उनके द्वारा आए हुए संवेगों को यहाँ से नए सूत्र प्रमस्तिष्क के शंखखंड के प्रतिस्था में पहुँचाते हैं।

मेरूरज्जु से अन्य सूत्र भी मध्यमस्तिष्क में आते हैं। पीड़ा, शीत, उष्णता आदि के यहाँ आकर, कई पुंजो में एकत्र होकर, मेरूशीर्ष द्वारा उसी ओर को, या दूसरी ओर पार होकर, पौंस और मध्यमस्तिष्क द्वारा थैलेमस में पहुँचते हैं और मस्तिष्क में अपने निर्दिष्ट केंद्र को, या प्रांतस्या में, चले जाते हैं।

अणुनलिका के सामने यह नीचे के भाग द्वारा भी प्रेरक तथा संवेदनसूत्र अनेक भागों को जाते हैं। संयोजनसूत्र भी यहाँ पाए जाते हैं।

पौंस वारोलिआइ (Pons varolii)-


यह भाग मेरूशीर्ष और मध्यमस्तिष्क के बीच में स्थित है और दोनों अनुमस्तिष्क के गोलार्धों को मिलाए रहता है। चित्र में यह गोल उरूत्सेध के रूप में सामने की ओर निकला हुआ दिखाई देता है। मस्तिष्क की पीरक्षा करने पर उसपर अनुप्रस्थ दिशा में जाते हुए सूत्र छाए हुए दिखाई देते हैं। ये सूत्र अंत:संपुट और मध्यमस्तिष्क से पौंस में होते हुए मेरूशीर्ष में चले जाते हैं। सब सूत्र इतने उत्तल नहीं हैं। कुछ गहरे सूत्र ऊपर से आनेवाले पिरामिड पथ के सूत्रों के नीचे रहते हैं। पिरामिड पथों के सूत्र विशेष महत्व के हैं, जो पौंस में होकर जाते हैं। अन्य कई सूत्रपुंज भी पौंस में होकर जाते हैं, जो अनुदैर्ध्य, मध्यम और पार्श्व पंज कहलाते हैं। इस भाग में पाँचवीं, छठी, सातवीं और आठवीं तंत्रिकाओं के केंद्रक स्थित हैं।

मेरूशीर्ष (Medulla oblongata) -


देखने से यह मेरू का भाग ही दिखाई देता है, जो ऊपर जाकर मध्यमस्तिष्क और पौंस में मिल जाता है; किंतु इसकी रचना मेरूरज्जु से भिन्न है। इसके पीछे की ओर अनुमस्तिष्क है। यहाँ इसका आकार मेरुरज्जु से दुगना हो जाता है। इसके चौड़े और चपटे पृष्ठभाग पर एक चौकोर आकार का खात बन गया है, जिसपर एक झिल्ली छाई रहती है। यह चतुर्थ निलय (Fourth ventricle) कहलाता है, जिसमें सिलवियस की नलिका द्वारा प्रमस्तिष्क मेरूद्रव आता रहता है। इसके पीछे की ओर अनुमस्तिष्क है।

मेरूशीर्षक अत्यंत महत्व का अंग है। हृत्संचालक केंद्र, श्वासकेंद्र तथा रक्तसंचालक केंद्र चतुर्थ निलय में निचले भाग में स्थित हैं, जो इन क्रियाओं का नियंत्रण करते हैं। इसी भाग में आठवीं, नवीं, दसवीं, ग्यारहवीं और बारहवीं मस्तिष्कीय तंत्रिकाओं के केंद्र भी स्थित हैं। यह भाग प्रमस्तिष्क, अनुमस्तिष्क तथा मध्यमस्तिष्क से अनेक सूत्रों द्वारा जुड़ा हुआ है, और अनेक सूत्र मेरूरज्जु में जाते और वहाँ से आते हैं। ये सूत्र पुंजों में समूहित हैं। ये विशेष सूत्रपुंज हैं:

1. पिरामिड पथ (Pyramidal tract), 2. मध्यम अनुदैर्ध्यपुंज (Median Longitudinal bundles), तथा 3. मध्यम पुंजिका (Median filler)

पिरामिड पथ में केवल प्रेरक सूत्र हैं, जो प्रमस्तिष्क के प्रांतस्था की प्रेरक कोशिकाओं से निकलकर अंत:संपुट में होते हुए, मध्यमस्तिष्क और पौंस से निकलकर, मेरूशीर्षक में आ जाते हैं और दो पुंजों में एकत्रित होकर रज्जु की मध्य परिखा के सामने और पीछे स्थित होकर नीचे को चले जाते हैं। नीचे पहुँचकर कुछ सूत्र दूसरी ओर पार हो जाते हैं और कुछ उसी ओर नीचे जाकर तब दूसरी ओर पार होते हैं, किंतु अंत में सस्त सूत्र दूसरी ओर चले जाते हैं। जहाँ वे पेशियों आदि में वितरित होते हैं। इसी कारण मस्तिष्क पर एक ओर चोट लगने से, या वहाँ रक्तस्राव होने से, उस ओर की कोशिकाआं के अकर्मणय हो जाने पर शरीर के दूसरी ओर की पेशियों का संस्तंभ होता है।

1. मध्यम अनुदैर्ध्य पुंजों के सूत्र मघ्यमस्तिष्क और पौंस में होते हुए मेरूशीर्ष में आते हैं और कई तंत्रिकाआं के केंद्र को उस ओर तथा दूसरी ओर भी जोड़ते हैं, जिससे दोनों ओर की तंत्रिकाओं की क्रियाओं का नियमन सभव होता है।

मध्यम पुंजिका में केवल संवेदन सूत्र हैं। चह पुंजिका उपर्युक्त दोनों पुंजों के बीच में स्थित है। ये सूत्र मेरुरज्जु से आकर, पिरामिड सूत्रों के आरपार होने से ऊपर जाकर, दूसरी ओर के दाहिने सूत्र बाईं ओर और वाम दिशा के सूत्र दाहिनी ओर को प्रमस्तिष्क में स्थित केंद्रो में चले जाते हैं।

(मुकुंदस्वरूप वर्मा)

अन्य स्रोतों से:




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बाहरी कड़ियाँ:
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संदर्भ:
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