तो क्या सच में सिमट रहे हैं ग्लेशियर

Glacier
Glacier

हिमालय दिवस 9 सितम्बर 2015 पर विशेष


ग्लोबल वार्मिंग या धरती का गरम होना, कार्बन उत्सर्जन, जलवायु परिवर्तन और इसके दुष्परिणाम स्वयं धरती के शीतलीकरण का काम कर रहे ग्लेशियरों पर आ रहे भयंकर संकट व उसके कारण समूची धरती के अस्तित्त्व के खतरे की बातें अब महज कुछ पर्यावरण-विशेषज्ञों तक सीमित नहीं रह गई हैं।

इसका विमर्श बच्चे की पाठ्यपुस्तकों तक में है और इसी आसन्न खतरे की चेतावनी के बदौलत भारत की झोली में विज्ञान का एक नोबेल पुरस्कार आ गया।

‘नोबेल’ वैज्ञानिक एक महिला के यौन उत्पीड़न को लेकर बदनाम हो गए और धीरे से उनके उस दावे के दूसरे पहलू भी सामने आने लगे कि जल्द ही हिमालय के ग्लेशियर पिघल जाएँगे, जिसके चलते नदियों में पानी बढ़ेगा और उसके परिणामस्वरूप जहाँ एक तरफ कई नगर-गाँव जलमग्न हो जाएँगे, वहीं धरती के बढ़ते तापमान को थामने वाली छतरी के नष्ट होने से भयानक सूखा, बाढ़ व गर्मी पड़ेगी और जाहिर है कि ऐसे हालात में मानव-जीवन पर भी संकट होगा।

हिमालय की हिमाच्छादित चोटियों पर बर्फ के वे विशाल पिंड जो कि कम-से-कम तीन फुट मोटे व दो किलोमीटर तक लम्बे हों, हिमनद, हिमानी या ग्लेशियर कहलाते हैं। ये अपने ही भार के कारण नीचे की ओर सरकते रहते हैं। जिस तरह नदी में पानी ढलान की ओर बहता है, वैसे ही हिमनद भी नीचे की ओर खिसकते हैं।

इनकी गति बेहद धीमी होती है, चौबीस घंटे में बमुश्किल चार या पाँच इंच। धरती पर जहाँ बर्फ पिघलने की तुलना में हिमप्रपात ज्यादा होता है, वहीं ग्लेशियर निर्मित होते हैं।

सनद रहे कि हिमालय क्षेत्र में कोई 18065 ग्लेशियर हैं और इनमें से कोई भी तीन किलोमीटर से कम का नहीं है। हिमालय क्षेत्र के ग्लेशियर के बारे में यह भी गौर करने वाली बात है कि यहाँ साल में तीन सौ दिन, हर दिन कम-से-कम आठ घंटे तेज धूप रहती है। जाहिर है कि थोड़ी-बहुत गर्मी में यह हिमनद पिघलने से रहे।

कोई एक दशक पहले जलवायु परिवर्तन पर अन्तरराष्ट्रीय पैनल (आईपीसीसी) ने दावा किया कि धरती के बढ़ते तापमान के चलते सम्भव है कि सन् 2035 तक हिमालय के ग्लेशियरों का नामोंनिशान मिट जाये। उदाहरण के तौर पर कश्मीर के कौलहाई हिमनद के आँकड़े देकर बताया गया कि वह एक साल में 20 मीटर सिकुड़ गया, जबकि एक अन्य छोटा ग्लेशियर लुप्त हो गया।

ठीक इसके विपरीत फ्रांस की एक संस्था ने उपग्रह चित्रों के माध्यम से यह सिद्ध कर दिया है कि हिमालय के ग्लेशियरों पर ग्लोबल वार्मिंग का कोई खास असर नहीं पड़ा है। जहाँ दुनिया के दूसरे इलाकों में कुछ हिमनद पिघले हैं तो कराकोरम क्षेत्र मेें बर्फ की परत की मोटाई 0.11 मिलीमीटर प्रतिवर्ष की दर से बढ़ी ही है।

कोई चार साल पहले तत्कालीन पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश को भी दाल में कुछ काला लगा था और उन्होंने विदेशी धन पर चल रहे शोध के बजाय वीके रैना के नेतृत्व में वैज्ञानिकों के एक दल को हिमनदों की हकीक़त की पड़ताल का काम सौंपा था। इस दल ने 25 बड़े ग्लेशियरों को लेकर गत 150 साल के आँकड़ों को खंगाला और पाया कि हिमालय में ग्लेशियरों के पीछे खिसकने का सिलसिला काफी पुराना है और बीते कुछ सालों के दौरान इसमें कोई बड़ा बदलाव नहीं देखने को मिला है।

पश्चिमी हिमालय की हिन्दुकुश और कराकोरम पर्वत शृंखलाओं के 230 ग्लेशियरों के समूह समस विकसित हो रहे है। पाकिस्तान के के-2 और नंदा पर्वत के हिमनद 1980 से लगातार आगे बढ़ रहे हैं। जम्मू-कश्मीर के केंग्रिज व डुरंग ग्लेशियर बीते 100 सालों के दौरान अपने स्थान से एक ईंच भी नहीं हिले हैं।

ग्लेशियर हमारे लिये उतने ही जरूरी है जितना साफ हवा या पानी, लेकिन यह भी सच है कि अभी तक हम ग्लेशियर की दुनिया के अनन्त सत्यों को पहचान ही नहीं पाये हैं। कुछ वैज्ञानिकों का तो यह भी कहना है कि गंगा-यमुना जैसी नदी के जनक ग्लेशियरों की गहराई में स्फटिक जैसी ऐसी संरचनाएँ हैं जो सामान्य तापमान में भी लम्बे समय तक स्वच्छ पानी का स्रोत हैं। ग्लेशियर हमारे देश के अस्तित्व की पहचान हैं और कुछ देश इस अभेद संरचना के रहस्यों को जाननेे में रुचि केवल इस लिये रखते हैं ताकि भारत की किसी कमजोर कड़ी को तैयार किया जा सके।सन् 2000 के बाद गंगोत्री के सिकुड़ने की गति भी कम हो गई है। इस दल ने इस आशंका को भी निर्मूल माना था कि जल्द ही ग्लेशियर लुप्त हो जाएँगे व भारत में कयामत आ जाएगी। यही नहीं ग्लेशियरों के पिघलने के कारण सनसनी व वाहवाही लूटने वाले आईपीसीसी के दल ने इन निष्कर्षों पर ना तो कोई सफाई दी और ना ही इस का विरोध किया।

जम्मू कश्मीर विश्वविद्यालय के प्रो. आरके गंजू ने भी अपने शोध में कहा है कि ग्लेशियरों के पिघलने का कारण धरती का गरम होना नहीं हैं। यदि ऐसा होता तो पश्चिमोत्तर पहाड़ों पर कम और पूर्वोत्तर में ज्यादा ग्लेशियर पिघलते, लेकिन हो इसका उलटा रहा है।

यह भी कहना जायज नहीं होगा कि पूरी धरती के परिवेश में हो रहे बदलाव का असल हमारी हिम-मालाओं पर नहीं पड़ रहा है। बकौल डॉ. अशोक शर्मा, ग्लेशियर असल में एक छोटे बच्चे की तरह होते हैं, उनके साथ थोड़ी भी छेड़छाड़ की जाये तो वे खुद को समेट लेते हैं।

असल में अभी तक ग्लेशियर के विस्तार, गलन, गति आदि पर नए तरीके से विचार ही नहीं किया गया है और हम उत्तरी ध्रुव पर पश्चिम देशों के सिद्धान्त को ही हिमालय पर लागू कर अध्ययन कर रहे हैं। जरा गम्भीरता से विचार करें तो पाएँगे कि हिमालय पर्वतमाला के उन इलाकों में ही ग्लेशियर ज्यादा प्रभावित हुए हैं जहाँ मानव-दखल ज्यादा हुआ है।

सनद रहे कि 1953 के बाद अभी तक एवरेस्ट की चोटी पर 3000 से अधिक पर्वतारोही झंडे गाड़ चुके हैं। अन्य उच्च पर्वतमालाओं पर पहुँचने वालों की संख्या भी हजारों में है। यह पर्वतारोही अपने पीछे कचरे का अकूत भण्डार छोड़ कर आते हैं। इंसान की बेजा चहलकदमी से ही ग्लेशियर सहम-सिमट रहे हैं कहा जा सकता है कि यह ग्लोबल नहीं लोकल वार्मिंग का नतीजा है।

इसमें कोई शक नहीं कि ग्लेशियर हमारे लिये उतने ही जरूरी है जितना साफ हवा या पानी, लेकिन यह भी सच है कि अभी तक हम ग्लेशियर की दुनिया के अनन्त सत्यों को पहचान ही नहीं पाये हैं। कुछ वैज्ञानिकों का तो यह भी कहना है कि गंगा-यमुना जैसी नदी के जनक ग्लेशियरों की गहराई में स्फटिक जैसी ऐसी संरचनाएँ हैं जो सामान्य तापमान में भी लम्बे समय तक स्वच्छ पानी का स्रोत हैं।

ग्लेशियर हमारे देश के अस्तित्व की पहचान हैं और कुछ देश इस अभेद संरचना के रहस्यों को जाननेे में रुचि केवल इस लिये रखते हैं ताकि भारत की किसी कमजोर कड़ी को तैयार किया जा सके। इसी फिराक में ग्लोबल वार्मिंग व ग्लेशियर पिघलने के शोर होते हैं और ऐसे में शोध के नाम पर अन्य हित साधने का भी अन्देशा बना हुआ है।

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading