टॉयलेट, एक प्रेम कथा - Toilet, Ek Prem Katha

शौच और सोच के बीच एक व्यंग्यकथा


डायरेक्टर :श्री नारायण सिंह
लेखक: सिद्धार्थ-गरिमा
कलाकार : अक्षय कुमार, भूमि पेडणेकर, सुधीर पांडेय और अनुपम खेर
मूवी टाइप : ड्रामा
अवधि : 2 घंटा 35 मिनट

.आज भी खुले में शौच बड़ा मुद्दा है, अभी भी देश में साठ फीसदी से ज्यादा लोग खुले में शौच के आदी हैं। ‘खुले में शौच’ एक आदत है, साथ ही एक सोच है, जिसने भारत को गंदगी का नाबदान बना रखा है। फिल्म खेतों और खुले में शौच करने की आदत पर करारा व्यंग्य है।

कहानी की शुरुआत


मथुरा का नंदगाँव अभी पूरी तरह नींद की आगोश में है। रात का अंतिम पहर खत्म होने में कुछेक घंटे बाकी हैं। महिलाएँ हाथों में लोटा और लालटेन लेकर निकल पड़ी हैं। रास्ते में वे एक-दूसरे से खूब हँसी-मजाक करती हैं। यह वक्त उनके लिये आजादी का वक्त है। महिलाएँ वे सारी बातें इस वक्त कर लेती हैं, जो अपनी ससुराल में पति और सास के सामने नहीं कर पातीं। दिनचर्या में शामिल इस मौके को वे ‘लोटा पार्टी’ कहती हैं। असल में वे मुँह छिपाये अंधेरे में शौच करने के लिये खेतों की ओर निकली हैं, क्योंकि उनके घरों में शौचालय नहीं है।

फिल्म ‘टॉयलेटः एक प्रेम कथा’ इसी सीन के साथ शुरू होती है। ऐसा सीन भारत के किसी भी गाँव में दिख सकता है। इस दृश्य से शुरू होकर परत-दर-परत कहानी खुलती है और वहाँ तक पहुँच जाती है जहाँ फिल्म के नायक अक्षय कुमार यानी केशव और नायिका भूमि पेडनेकर यानी जया के बीच तलाक की नौबत आ जाती है।

फिल्म की नायिका पढ़ी-लिखी है और कभी भी खुले में शौच करने नहीं गयी है। उसकी शादी केशव के साथ होती है तो पहली सुबह ही उसे पड़ोस की महिलाएँ लोटा पार्टी में शामिल होने के लिये बुलाने आती हैं। उस वक्त उसे पता चलता है कि उसकी ससुराल में शौचालय नहीं है, तो वह विद्रोह कर देती है।

शुरुआत में नायक अपनी पत्नी को समझौता करने की सलाह देता है, लेकिन जब वह किसी भी तरह समझौता करने से इनकार कर देती है, तो फिल्म का नायक मध्ययुगीन सभ्यता और संस्कृति की चादर ओढ़े समाज से लड़ने निकल पड़ता है।

अंधविश्वास और कुरीतियों को संस्कृति मानने वाले इस समाज में उसका पिता भी है जिनके लिये खाते वक्त शौच की बात करना भी पाप है। वह किसी भी सूरत में अपने घर में शौचालय नहीं बनने देना चाहते हैं। उनका तर्क है कि जिस आंगन में तुलसी के पौधे हों, उस आंगन में शौचालय कैसे हो सकता है। समाज में गाँव के बुजुर्ग हैं, जो मनुस्मृति का हवाला देते हुए यह कहते हैं कि घर से बहुत दूर शौच करना चाहिए, फिर घर में शौचालय बनाकर वे अपनी संस्कृति और सभ्यता कैसे खत्म कर सकते हैं। वे महिलाएँ हैं, जो रोज किसी पुरुष द्वारा शौच करते वक्त देख लिये जाने का खौफ लेकर खेतों में जाती हैं, लेकिन घरों में शौचालय बनाने की मांग को बेवकूफी समझती हैं।

फिल्म का निर्देशन श्री नारायण सिंह ने किया है। यह उनकी पहली फिल्म है। उन्होंने शौचालय के इर्द गिर्द घूमती कहानी को एक इंटरटेनर की शक्ल देकर उम्मीदें जगा दी हैं।

इंटरवल से पहले फिल्म में रोमांस है और शौचालय के लिये तरह-तरह के जुगाड़ हैं। इन्हीं जुगाड़ों में एक जुगाड़ नायक नंदगाँव स्टेशन पर सात मिनट के लिये रुकनेवाली ट्रेन को बनाता है। वह अपनी पत्नी को रोज सुबह बाइक पर बिठाकर नंदगाँव स्टेशन ले जाता है और ट्रेन आते ही उसकी पत्नी ट्रेन के टॉयलेट में जाकर निपट लेती है और घर लौट आती है। ऐसा कई बार करती है और सबकुछ नॉर्मल तरीके से चल रहा होता है कि एक दिन ट्रेन के टॉयलेट में जब होती है तो हॉकर भारी-भरकम सामान टॉयलेट के गेट के पास रख देता है जिस कारण वह ट्रेन से उतर नहीं पाती और अपने मायके चली जाती है। यह सीन फिल्म का एक बड़ा टर्निंग प्वाइंट है जब नायिका यह तय कर लेती है कि जब तक घर में शौचालय नहीं बन जाता है, तब तक वह अपनी ससुराल नहीं लौटेगी। इसी सीन के साथ फिल्म इंटरवल पर पहुँच जाती है। इंटरवल के बाद है नायक और नायिका का शौचालय के लिये संघर्ष।

टॉयलेट एक प्रेम कथाकेशव पहले पंचायत में शौचालय की बात रखता है लेकिन वहाँ भारी विरोध का सामना करना पड़ता है। इसके बाद वह सरकारी महकमे का चक्कर लगाता है, तो उसे पता चलता है कि सरकार तो कोशिश कर रही है लेकिन लोग खुद शौचालय के लिये तैयार नहीं हैं जिस कारण शौचालय योजना में भारी घोटाला हो गया है।

बहरहाल, फिल्म में घोटाले पर कोई खास फोकस नहीं है। पूरा फोकस शौचालय पर ही है। कुछ घटनाक्रम के बाद नंदगाँव में सार्वजनिक शौचालय बनाने पर सरकारी मुहर लग जाती है। उधर, केशव और जया दोबारा मिल जाते हैं। केशव के पिता को भी अपनी गलती का एहसास हो जाता है। शौचालय के साथ सामूहिक सेल्फी के शॉट के साथ फिल्म खत्म होती है।

फिल्म में लोटे को बिंब के तौर पर इस्तेमाल किया गया है। खुले में शौच की गंभीरता को बताने के लिये बदायूं और झारखंड में खुले में शौच करने गईं लड़कियों के साथ हुई जघन्य घटनाओं का भी जिक्र किया गया है।

पूरी फिल्म वर्ष 2013 में हुई एक सत्य घटना पर आधारित है। कहानी को नाटकीयता देने के लिये कई चरित्र गढ़े गये हैं और हल्के-फुल्के ढंग से बड़ा संदेश देने की कोशिश की गयी है। फिल्म देखकर साफ लगता है कि इसका निर्माण केंद्र सरकार के स्वच्छ भारत अभियान को प्रमोट करने के लिये किया गया है क्योंकि कई डायलॉग केंद्र सरकार के नारों से जुड़े हुए हैं।

क्यों देखें: 'टॉयलेट: एक प्रेम कथा' टॉयलेट या संडास जैसे मुद्दे पर एक बहस छेड़ती है। इस मुद्दे पर फ़िल्म बनाने के साहस की प्रशंसा की जानी चाहिए। एक्टिंग की बात करें, तो सभी ने अपने किरदारों के साथ न्याय किया है, मगर पंडितजी यानी केशव के पिता के किरदार में सुधीर पांडेय ने गजब ढा दिया है।

क्यों न देखें: फ़िल्म काफी लंबी हो गई है। बोझिलपन से निजात पाई जानी थी। हाँ, खुले में शौच के सामाजिक नुकसान को तो फिल्म में दिखाया गया है लेकिन स्वास्थ्य पर पड़ने वाले नकारात्मक असर को फिल्म में जगह नहीं मिली है, जो खलती है। सेकेंड हाफ के कुछ दृश्यों में ज्ञान का ओवरडोज दिया गया है, जो कुछ ज्यादा ही नाटकीय लगता है और अच्छे भोजन में कंकड़ का एहसास करा देता है।

शौचालय की समस्या शहरों से ज्यादा गाँवों में है। करीब 60 प्रतिशत ग्रामीण घरों में ही निजी शौचालय उपलब्ध हैं, इसलिये जरूरी है कि यह (फिल्म) गाँवों तक पहुँचे, न कि केवल शहरी आबादी के लिये एक मनोरंजक फिल्म बनकर रह जाये।

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