तवा परियोजना पर संकट के बादलों का आगाज

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सन् 1997 में लगभग 142 करोड़ रुपए की लागत से पूरी हुई मध्य प्रदेश की तवा परियोजना पर सिल्ट (गाद) के संकट की खबर आई है। विदित हो, यह बाँध नर्मदा की सहायक नदी तवा पर बना है। इस बाँध को सतपुड़ा पर्वतमाला के लगभग 5982 वर्ग किलोमीटर में फैले कैचमेंट में बहने वाली 90 छोटी-बड़ी सहायक नदियों का पानी मिलता है।

उल्लेखनीय है कि तवा जलाशय की लाइव स्टोरेज क्षमता 2050 क्यूबिक हेक्टेयर और सम्भाव्य सकल सिंचाई क्षमता 3.3 लाख हेक्टेयर है। इस बाँध से लाभान्वित रकबा नर्मदा कछार के होशंगाबाद और हरदा जिलों में फैला है।

मध्य प्रदेश सरकार ने सन् 2013-14 में तवा बाँध में जल भराव की कमी का पता लगाने के लिये सेटेलाइट नक्शा बनवाया था। सेटेलाइट नक्शे से सिल्ट जमाव की जानकारी मिली। सिल्ट जमाव की वास्तविक स्थिति ज्ञात करने के लिये प्रदेश सरकार ने पुणे स्थित सेंट्रल वाटर एंड पावर रिसर्च स्टेशन से अध्ययन कराया।

सेंट्रल वाटर एंड पावर रिसर्च स्टेशन की अध्ययन रिपोर्ट में कहा गया है कि तवा बाँध को पानी मुहैया कराने वाली 90 बरसाती नदियों के साथ कैचमेंट से बड़ी मात्रा में गाद आ रही है और वह जलाशय में जमा हो उसकी जल भराव क्षमता घटा रही हैं। पुणे स्थित सेंट्रल वाटर एंड पावर रिसर्च स्टेशन की हालिया रिपोर्ट से पता चलता है कि बहाव के साथ आने वाली मिट्टी, रेत और सारनी ताप विद्युत गृह की राख के कारण बाँध में अब तक लगभग 9 प्रतिशत गाद जमा हो चुकी है। गाद के जमा होने के कारण बाँध की जल भराव क्षमता में कमी आ रही है।

सेंट्रल वाटर एंड पावर रिसर्च स्टेशन की रिपोर्ट से पता चलता है कि बाँध के किनारे मध्यम मात्रा में, बीच में सबसे अधिक और जल निकासी गेटों के पास कुछ कम मात्रा में गाद का जमाव हुआ है। रिपोर्ट के अनुसार बाँध के जल निकास गेटों के पास होने वाला गाद जमाव सबसे अधिक चिन्ताजनक है। तवा परियोजना के अधिकारियों ने सेंट्रल वाटर एंड पावर रिसर्च स्टेशन की रिपोर्ट के सम्भावित परिणामों से प्रदेश सरकार को अवगत करा दिया है।

पिछले कुछ सालों में देश में बने सभी बाँधों में हर साल लाखों टन गाद का जमाव हो रहा है। अधिकांश बाँधों में यह अनुमान से कहीं अधिक है। बाँधों में जमा करोड़ों टन गाद को हटाने या निकालने के मानवीय या यांत्रिक तरीके बेहद बौने और अस्थायी हैं। गाद-जमाव की समस्या के कारण हर साल बाँधों की जल-भराव क्षमता घट रही है। जल-भराव क्षमता घटने के कारण उनमें कम पानी जमा हो रहा है।

कम पानी जमा होने के कारण सिंचित इलाकों के खेतों को कम पानी मिल रहा है। कम पानी मिलने के कारण फसलचक्र सहित उत्पादन प्रभावित हो रहा है तथा सिंचित रकबा कम हो रहा है। समय के साथ यह समस्या और गम्भीर होगी। यह सही है कि सिल्ट से बाँधों को भरने में अलग-अलग बाँधों के लिये अलग-अलग समय लगेगा पर यह निर्विवादित हकीक़त है कि सभी बाँध एक दिन गाद-जमाव के फलस्वरूप अनुपयोगी होंगे।

उस दिन उनका सिंचित रकबा असिंचित रकबे में बदल जाएगा। यह परिस्थिति कृषि उत्पादन घटाएगी और प्रतिकूल सामाजिक तथा आर्थिक बदलावों को जन्म देगी। कहीं-कहीं जल प्रदाय योजनाओं को कम पानी मुहैया कराएगी। ग़ौरतलब है कि भारतीय जलविज्ञान के आधार पर बने परम्परागत तालाबों में गाद जमाव की समस्या नहीं के बराबर थी। उनकी उपयोगिता टिकाऊ थी। वे सैकड़ों सालों तक निर्मल जल के भरोसेमन्द स्रोत रहे हैं।

तवा बाँध या समान समस्याओं से जूझ रहे बाकी बाँधों की समस्याएँ पूरी तरह लाईलाज नहीं हैं। पानी की आपूर्ति को बिना कम किये उन्हें काफी हद तक दूर किया जा सकता है। उन्हें दूर करने के लिये संरचनाओं के पीछे के विज्ञान तथा जलप्रबन्ध की फिलासफी में आमूलचूल बदलाव करना होगा। नदी-तंत्र की सभी नदियों के प्रवाह, अविरलता और निर्मलता के लिये नदियों को उनका प्राकृतिक स्वरूप से तालमेल बिठाते जलविज्ञान की परम्परागत समझ को अपनाना होगा। गाद-जमाव के अतिरिक्त आधुनिक काल में बने बाँधों पर और भी संकट हैं। पहला संकट जलाशय के पानी के लगातार बढ़ते प्रदूषण का है। सभी जानते हैं कि हर साल बरसात के मौसम में कैचमेंट से बड़ी मात्रा में गाद, कार्बनिक पदार्थ तथा रसायन आते हैं जो बाँधों के जलाशय में जमा होते हैं। कार्बनिक पदार्थों के सड़ने से जलाशय की तली में मीथेन गैस बनती है। संचित रसायन पानी को प्रदूषित करते हैं।

यह प्रदूषण भविष्य में जलाशयों के पानी की गुणवत्ता और उसकी उपयोगिता को प्रतिकूल तरीके से प्रभावित करेगा। दूसरा संकट नदी के प्रवाह की अविरलता का है। बाँधों के निर्माण के कारण नदियों के अविरल प्रवाह और बरसाती पानी के साथ आई गाद के प्राकृतिक निपटान में व्यवधान उत्पन्न होता है।

प्रवाह की अविरलता में आए व्यवधान के कारण बाँध के निचले इलाकों में नदी का जलप्रवाह घट जाता है। गौरतलब है कि गर्मी के दिनों में किसी-किसी साल तवा बाँध के डाउनस्ट्रीम में पानी का प्रवाह लगभग समाप्त हो जाता है। यह स्थिति देश के विभिन्न भागों में बने अनेक बाँधों के डाउनस्ट्रीम में भी आम है। इस समस्या के कारण सहायक नदी सहित मुख्य नदी का प्रवाह घट रहा है।

अविरल प्रवाह तथा मात्रा घटने के कारण मुख्य नदी के मार्ग तथा उसके डेल्टा में गाद जमा हो रही है। हाल के सालों में देश के अनेक हिस्सों में जलवायु बदलाव का असर दिखाई देने लगा है। इसके कारण वर्षा की सकल मात्रा में भले ही बड़ा या उल्लेखनीय बदलाव नहीं आया हो पर उसके चरित्र में बेहद बदलाव परिलक्षित हो रहा है।

आमतौर पर वर्षा दिवस कम हो रहे हैं। सूखे अन्तराल बढ़ रहे हैं तथा कम अवधि में बहुत अधिक पानी बरसने की घटनाओं में उल्लेखनीय वृद्धि देखी जा रही है। जलवायु बदलाव के कारण बरसात की पृवत्ति में होने वाला बदलाव बाढ़, अवर्षा या सूखे अन्तरालों तथा जनधन की हानि जैसी अनेक समस्याएँ पैदा कर रहा है।

तवा बाँध या समान समस्याओं से जूझ रहे बाकी बाँधों की समस्याएँ पूरी तरह लाईलाज नहीं हैं। पानी की आपूर्ति को बिना कम किये उन्हें काफी हद तक दूर किया जा सकता है। उन्हें दूर करने के लिये संरचनाओं के पीछे के विज्ञान तथा जलप्रबन्ध की फिलासफी में आमूलचूल बदलाव करना होगा।

नदी-तंत्र की सभी नदियों के प्रवाह, अविरलता और निर्मलता के लिये नदियों को उनका प्राकृतिक स्वरूप से तालमेल बिठाते जलविज्ञान की परम्परागत समझ को अपनाना होगा। जलप्रबन्ध की फिलासफी में आमूलचूल बदलाव के लिये विकेन्द्रीकृत जल प्रबन्ध के मार्ग पर लौटाना होगा। पानी की आवश्यकता पूरी करने के लिये नदी-तंत्र में उपलब्ध सरप्लस पानी के उपयोग के लिये व्यवस्थाएँ कायम करनी होंगी।

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