थाली पोषण से कितनी खाली


राष्ट्रीय पोषण संस्थान की रिपोर्ट बताती है कि पिछले तीन दशकों में खाद्य पदार्थों से पौष्टिक तत्व तेजी से कम हुए हैं।

2004 में जर्नल ऑफ द अमेरिकन कॉलेज ऑफ न्यूट्रीशन में प्रकाशित शोध में शोधकर्ताओं ने 1950 से 1999 के बीच उगाई जाने 43 फसलों का अध्ययन किया। सभी फसलों में छह पोषक तत्व प्रोटीन, कैल्शियम, आयरन, फास्फोरस, राइवोफ्लेविन और एस्कोर्बिक एसिड में पहले की तुलना में गिरावट पाई गई। 1997 में ब्रिटिश फूड जर्नल में एक अध्ययन प्रकाशित हुआ। इसमें 1930 से 1980 के बीच उगाए गए 20 फलों और सब्जियों में पौष्टिक तत्वों की पड़ताल की गई। अध्ययन के मुताबिक, सब्जियों में कैल्शियम, मैग्नीशियम, कॉपर और सोडियम जबकि फलों में मैग्नीशियम, आयरन, कॉपर और पोटैशियम कम मात्रा में पाया गया। दिल्ली के नवीन कुमार खुद को स्वस्थ रखने के लिये सन्तुलित आहार लेते हैं लेकिन जब उन्होंने खून की जाँच कराई तो उनके शरीर में आयरन और जिंक की कमी पाई गई। अब उन्हें इन तत्वों की कमी को पूरा करने के लिये चिकित्सक की सलाह पर पूरक दवाएँ लेनी पड़ रही हैं। यह समस्या अकेले नवीन की नहीं है बल्कि शहरी और देहात क्षेत्र में रहने वाले कई लोगों की हो सकती है। दरअसल, इन लोगों को पता ही नहीं है कि जिस आहार का वे सेवन कर रहे हैं, वह पहले जितना स्वास्थ्यवर्द्धक नहीं रहा। और इसी वजह से शरीर को पूरा पोषण नहीं मिल रहा है।

क्या कहती है रिपोर्ट


हैदराबाद स्थित राष्ट्रीय पोषण संस्थान (एनआईएन) की ओर से इसी साल 18 जनवरी को जारी किये गए आँकड़ों के मुताबिक, इस वक्त हम जो भोजन खा रहे हैं, वह पिछले तीन दशकों के मुकाबले कम पौष्टिक है।

एनआईएन ने 28 साल बाद इस सम्बन्ध में आँकड़े जारी किये हैं। इण्डियन फूड कम्पोजिशन टेबल 2017 रिपोर्ट के शोधकर्ताओं ने 6 अलग-अलग स्थानों से लिये गए 528 भोज्य पदार्थों में 151 पोषक तत्वों को मापा है। डाउन टू अर्थ ने एनआईएन द्वारा इससे पहले 1989 में खाने में मापे गए पोषक तत्वों से इसकी तुलना की है। डाउन टू अर्थ का विश्लेषण बताता है कि पोषक तत्वों की मात्रा में चिन्ताजनक गिरावट दर्ज की गई है।

चिन्ता की वजह


बाजरा पूरे ग्रामीण भारत में खाया जाता है। इसे गरीब तबके का भोजन कहा जाता है। कार्बोहाइड्रेट के लिये इसे खाया जाता है ताकि ऊर्जा मिलती रहे। विश्लेषण के अनुसार, बाजरे में कार्बोहाइड्रेट पिछले तीन दशकों में 8.5 प्रतिशत कम हुआ है। गेहूँ में 9 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट घटा है।

इसी तरह दालों में भी प्रोटीन की मात्रा कम हुई है। दलहन में मौजूद प्रोटीन ऊतकों के निर्माण और मरम्मत में सहायक होता है। साबुत मसूर में 10.4 प्रतिशत प्रोटीन में गिरावट हुई है जबकि साबुत मूँग में 6.12 प्रतिशत प्रोटीन कम हुआ है।

दूसरी तरफ कुछ खाद्य पदार्थों में प्रोटीन बढ़ा भी है। मसलन चिचिंडा और चावल में क्रमशः 78 प्रतिशत और 16.76 प्रतिशत इजाफा हुआ है। राष्ट्रीय पोषण संस्थान के पूर्व निदेशक वीना शत्रुग्ना के मुताबिक, “चावल जैसे खाद्य पदार्थों का सेवन प्रोटीन के लिये नहीं किया जाता, इसलिये इनमें प्रोटीन बढ़ने से शरीर की जरूरतें पूरी नहीं होंगी।”

शरीर के विकास के लिये जरूरी लघु पोषक तत्व मसूर, मूँग और पालक जैसे कुछ भोज्य पदार्थों में बढ़े हैं। लेकिन अधिकांश खाद्य पदार्थों में लघु पोषक तत्व कम हुए हैं, खासकर फलों और सब्जियों में। आलू में आयरन बढ़ा है जबकि थाइमीन (विटामिन बी 1), मैग्नीशियम और जिंक में गिरावट दर्ज की गई है। बन्द गोभी में इन चार पोषक तत्वों में 41-56 प्रतिशत तक कमी आई है। पके टमाटरों में थाइमीन, आयरन और जिंक 66-73 प्रतिशत कम हुआ है। हरे टमाटरों में आयरन 76.6 प्रतिशत जबकि सेब में 60 प्रतिशत पहले से कम पाया गया है।

मोटा अनाज लघु पोषक तत्वों से भरपूर होता है। डाउन टू अर्थ का विश्लेषण बताता है कि बाजरा, जौ, ज्वार और मक्के में थाइमीन, आयरन और राइवोफ्लेविन का स्तर कम हुआ है।

अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में ह्यूमन न्यूट्रीशन यूनिट के प्रोफेसर उमेश कपिल का कहना है कि मोटे तौर से यह प्रवृत्ति बताती है कि खाद्य पदार्थों में पोषक तत्व कम हैं, पर उन्होंने सावधान भी किया कि सीधी तुलना उचित नहीं है क्योंकि अब इस्तेमाल किये गए विश्लेषण के तरीके पहले से अलग हैं।

खुद एनआईएन ने 2017 की अपनी रिपोर्ट में 1989 के आँकड़ों की तुलना 1937 यानी ब्रिटिश काल में खाद्य पदार्थों में मौजूद पोषक तत्वों से की है। इस तुलना से भी पता चलता है कि पिछले 50 साल में बहुत से खाद्य पदार्थों में पोषक तत्व कम हुआ है। एनआईएन के इस साल के आँकड़े की तुलना 1937 के आँकड़ों से करने पर पता चलता है कि अब हमारे खाने की थाली में कितने कम तत्व मौजूद हैं।

वैश्विक समस्या


ऐसा नहीं है कि सिर्फ भारत में ही खाद्य पदार्थों में पोषण का स्तर गिरा है। दुनिया भर में ऐसा हो रहा है। 2004 में जर्नल ऑफ द अमेरिकन कॉलेज ऑफ न्यूट्रीशन में प्रकाशित शोध में शोधकर्ताओं ने 1950 से 1999 के बीच उगाई जाने 43 फसलों का अध्ययन किया। सभी फसलों में छह पोषक तत्व प्रोटीन, कैल्शियम, आयरन, फास्फोरस, राइवोफ्लेविन और एस्कोर्बिक एसिड में पहले की तुलना में गिरावट पाई गई।

1997 में ब्रिटिश फूड जर्नल में एक अध्ययन प्रकाशित हुआ। इसमें 1930 से 1980 के बीच उगाए गए 20 फलों और सब्जियों में पौष्टिक तत्वों की पड़ताल की गई। अध्ययन के मुताबिक, सब्जियों में कैल्शियम, मैग्नीशियम, कॉपर और सोडियम जबकि फलों में मैग्नीशियम, आयरन, कॉपर और पोटैशियम कम मात्रा में पाया गया।

घटते पोषण के कारण


दुनिया भर के वैज्ञानिकों ने पोष्टिक तत्वों के कम होने के दो कारण बताए हैं। पहला कारण अत्यधिक खेती है जिसने जमीन में मौजूद लघु पोषक तत्व कम कर दिये हैं। भारत में इस समस्या का यह बड़ा कारण हो सकता है। भोपाल स्थित इण्डियन इंस्टीट्यूट ऑफ सॉइल साइंस का आकलन बताता है कि देश की मिट्टी में जिंक की कमी है। साथ ही मिट्टी में 18.3 प्रतिशत बोरॉन, 12.1 प्रतिशत आयरन, 5.6 प्रतिशत मैग्नीशियम और 5.4 प्रतिशत कॉपर कम है।

उमेश कपिल का कहना है कि एनआईएन के आँकड़े अत्यधिक खेती से खाने के पोषक तत्वों पर पड़ने वाले प्रभाव को पुष्ट करते हैं। उनका यह भी कहना है कि इस बदलाव का एक कारण यह भी हो सकता है कि पहले और अब उगाई जाने वाली फसलों की किस्में अलग हैं। व्यावसायिक खेती के अब के दौर में सारा जोर अत्यधिक उत्पादन पर है न कि आहार के पोषण के स्तर पर।

वैज्ञानिकों का कहना है कि पर्यावरण में कार्बन डाइऑक्साइड का बढ़ता स्तर भी पौधों में पौष्टिक तत्वों पर असर डाल रहा है। 2014 में नेचर में प्रकाशित अध्ययन में शोधकर्ताओं ने वर्तमान परिस्थितियों और 2050 में अधिक कार्बन डाइऑक्साइड की सम्भावना की स्थिति में उगाए जाने वाले गेहूँ के पौष्टिक तत्वों का तुलनात्मक आकलन किया है। उन्होंने पाया है कि बढ़े कार्बन डाइऑक्साइड में उगने वाले गेहूँ 9.3 प्रतिशत जिंक, 5.1 प्रतिशत आयरन, 6.3 प्रतिशत प्रोटीन कम होगा। इन परिस्थितियों में उगने वाले चावल में 5.2 प्रतिशत आयरन, 3.3 प्रतिशत जिंक और 7.8 प्रतिशत प्रोटीन में कमी होगी।

पूरी सम्भावना है कि खाद्य पदार्थों में पोषण का निम्न स्तर आगे भी बना रहेगा। इसलिये सरकार को वर्तमान पोषण के मूल्य को ध्यान में रखकर खाद्य नियमन और पोषण व जन स्वास्थ्य और कृषि नीतियाँ फिर से निर्धारित करनी चाहिए।

एनआईएन के निदेशक टी लोंगवा का कहना है, “हमने अलग-अलग भौगोलिक क्षेत्रों से लिये गए खाद्य नमूनों के लघु पोषक तत्वों में बड़ा अन्तर पाया है। यह अध्ययन बीमारियों और भोजन के बीच सम्बन्ध स्थापित करने में मदद करेगा।” उनका यह भी कहना है कि खाने में पोषण का स्तर बढ़ाने के लिये जैवविविधता की खोज, पोषण की विशेषताएँ, कम उपयोग किये जाने वाले भोजन को मुख्यधारा में लाने और पौधों के प्रजनन जैसे दीर्घकालिक दृष्टिकोण को अपनाने की जरूरत है।

अब आगे क्या


वैश्विक स्तर पर इस समस्या का समाधान जैविक खेती में देखा जा रहा है। 2007 में जर्नल ऑफ एग्रीकल्चर एंड फूड केमिस्ट्री में इस सम्बन्ध में अध्ययन प्रकाशित किया गया। शोधकर्ताओं ने कैलिफोर्निया-डेविस विश्वविद्यालय में रखे गए सूखे टमाटर के नमूनों का अध्ययन किया। नमूनों में 1994 व 2004 में परम्परागत और जैविक तरीके से उगाए गए टमाटर शामिल थे। अध्ययन में पता चला कि जैविक टमाटरों में क्वरसेटिन और कैंफेरोल जैसे फ्लेवोनॉइड्स अधिक थे।

जानकारों का मानना है कि भारत में पोषण की समस्या को देखते हुए लक्ष्य आधारित दृष्टिकोण की जरूरत है। बंगलुरू स्थित सेंट जॉन मेडिकल कॉलेज के फिजियोलॉजी एवं न्यूट्रीशन विभाग के प्रमुख अनूरा कुरपद का कहना है कि अगर सच में पोषण तत्वों में गिरावट हुई है तो सरकारी नीतियों को संवर्धन की जरूरत है। शोधकर्ताओं को बिना देरी किये पोषण पर आए आँकड़ों का विश्लेषण करना चाहिए।

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