ठेठ अंचल में हैं पानी की पाठशालाएं

29 Apr 2011
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सोचने पर विवश हूं कि जिन लोगों ने किताबें नहीं पढ़ीं, पन्ने नहीं पलटाए, अक्षर नहीं समझे, वे पानी को लेकर इतने संस्कारित हैं। विरासत ही इन्हें ऐसा बनाए हुए है। हर पीढ़ी अपनी आने वाली पीढ़ी को पानी का ये संस्कार देती आ रही है।

ठेठ अंचल में पानी की अलग कहानी सुनने और देखने को मिलती है। कहानी यहां आकर हकीकत में तब्दील हो जाती है। इंदौर जिले का आदिवासी अंचल पानी को लेकर एक सबक अपने में समेटे है। ये वो बात है, जो शहर के मुकाबले उस पिछड़े अंचल को कतार में आगे खड़ा करती है। वे भले ही पढ़े-लिखे नहीं हैं, लेकिन गुने अवश्य हैं। पानी को लेकर उनका अपना फलसफा है, जिसे वे सालों से अपने जीवन का हिस्सा बनाए हुए हैं। महू तहसील का आदिवासी तबका पानी को लेकर बेहद संजीदा है। पानी की कमी ने उन्हें हमेशा से सजग और जिम्मेदार बनाए रखा है। शहर में पानी की कोई कद्र नहीं, लेकिन आवश्यकता बहुत है और बावजूद इसके दुरुपयोग रोकने को लेकर कोई गंभीर नहीं है।

शहर से बहुत दूर पहाड़ों की कंदराओं के रास्ते पार कर पानी के प्रति सजग गांव बसते हैं। परंपराओं को मानने वाले आदिवासी पानी को संभलकर खर्च करना भी परंपरा का ही हिस्सा मानते हैं। उनके पास शब्द नहीं हैं, भावनाएं भी सख्त हो गई हैं, चेहरा उनकी बोली का साथ नहीं देता, लेकिन हावभाव से उनके मन की बात समझी जा सकती है। पानी को वे ऊंचा दर्जा देते हैं। गांव में भले ही घर नहीं है, रहने को झोपड़ी ही हैं, लेकिन पानी के बर्तन को जमीन में नहीं रखते। लकड़ी के एक अजीबोगरीब स्टैंड पर मटके जमीन से ऊपर रखे जाते हैं। पूछने पर ये कारण सामने आए। एक तो पानी मिलना ही बहुत मुश्किल है। दूर कुएं से भरकर लाना पड़ता है, इसलिए हर बूंद कीमती है।

जल ही जीवन है, इसलिए उसे ऊंचा स्थान मिलना चाहिए। बच्चे उसे बर्बाद न करें, उनका हाथ उस तक न पहुंचे, इसलिए उसे ऊंचाई पर रखा जाता है। दूसरा, जिसे हम वैज्ञानिक कारण भी मान सकते हैं, ऊंचाई और छांव में रखे हुए घड़े का पानी अधिक शीतल होता है, क्योंकि उसे हवा लगती रहती है। सबसे खास बात जो नजर आई, वो यह कि ऐसे अंचल में अपनेपन की कोई कमी नहीं है। दूर से पानी लाने के बावजूद उसे छोटी-छोटी दुकानों के आसपास भी रखा जाता है ताकि कोई राहगीर गुजरे तो प्यास बुझा सके। सोचने पर विवश हूं कि जिन लोगों ने किताबें नहीं पढ़ी, पन्ने नहीं पलटाए, अक्षर नहीं समझे, कलम के शब्दों को बुनते नहीं देखा, वे पानी को लेकर इतने अधिक संस्कारित हैं। विरासत ही इन्हें ऐसा बनाए हुए हैं। हर पीढ़ी अपनी आने वाली पीढ़ी को पानी का ये संस्कार देती आ रही है।

उन्हें पानी को संभलकर खर्च करने का ये सबक कितना अधिक कंठस्थ है, ये बात हमने उन गांवों में देखी, जिन्होंने सालों जल समस्या को ढोया लेकिन कुछ साल पहले ही वहां पानी सुगम तरीके से मुहैया करवाया गया। आदिवासी और ठेठ ग्रामीणों ने फिर भी अपना धैर्य नहीं खोया, वे बहुत सारे और आसानी से मिलने वाले पानी को देखकर बावले नहीं हो गए। वे पानी का उतना ही उपयोग करते हैं, जितना आवश्यक होता है। ये गांव उदाहरण हैं या यूं भी कहा जा सकता है पानी की पाठशालाएं हैं। ऐसी पाठशालाएं तो शहर में भी लगनी चाहिए। हमारे फ्रिज का पानी शीतलता तो देता है लेकिन प्यास नहीं बुझाता, तृप्ति नहीं देता क्योंकि उसमें मिट्टी की खुशबू और शीतल वायु नहीं होती। आदिवासियों के पानी के ज्ञान को शहर सिरे से नकार देता है, क्योंकि उसका अपना हाईटेक ज्ञान है, जिस पर वो इठलाकर चलता है लेकिन एक पल के लिए सोचना होगा हाइटेक होकर भी पानी की बर्बादी नहीं रुक सकी तो बेहतर कौन हैः शहरी होने की जिद या खेड़े-गांव की बिना लिखी ये इबारत? यहां जगजीत सिंह की एक गजल की ये पंक्तियां याद आ रही हैं-

धूप में निकलो घटाओं में नहाकर देखो,
जिंदगी क्या है किताबों को हटाकर देखो।

E-mail:- sandeep.sharma@bhaskarnet.com


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