उभरते संकट

भूजल का अत्यधिक दोहन तथा उसमें अधिक मात्रा में फ्लोराइड व्याप्त होने के कारण इस क्षेत्र की स्थिति अत्यंत गंभीर है। पिछले दशक में भूजल स्तर में 6 मीटर से भी अधिक तक की गिरावट दिखाई देती रही है। अनेक व्यक्तियों के पास निजी नलकूप हैं, लेकिन पी.एच.ई.डी. द्वारा लगाए गए कैंप के दौरान की गई जाँच में इन नलकूपों का जल फ्लोराइड से दूषित पाया गया। कुछ सरकारी हैंडपंप भी हैं, जिनमें से अधिकांश के पानी में फ्लोराइड के अंश बहुत अधिक मात्रा में हैं। गाँवों के लोग जल एकत्रित करने की किसी भी पारंपरिक विधि का उपयोग नहीं कर रहे हैं। कहा जाता है कि भविष्य में जल के लिए युद्ध होंगे। कम से कम राजस्थान में तो शहरी क्षेत्रों को पानी हस्तांतरित करने पर ग्रामीण जनता द्वारा हिंसात्मक विरोध आम बात होती जा रही है।

जवाई बाँध से जोधपुर शहर को पानी दिए जाने के कारण किसानों को सिंचाई हेतु आवश्यक मात्रा में जल उपलब्ध नहीं होने से परेशानी हो रही है। निमज व आस-पास के गाँवों में ग्रामीणों ने अपने हाथों से पाइप लाइन हटा कर ब्यावर शहर को जल आपूर्ति करने हेतु गाँवों में नलकूप खोदे जाने का विरोध प्रदर्शित किया है।

वर्ष 2000-2001 में जब राजस्थान को लगातार तीसरे साल अकाल का सामना करना पड़ा, तो 200 वर्षों के इतिहास में पहली बार सबसे बड़ी मानव निर्मित झील राजसमंद पूर्णतया सूख गई। जल व्यवस्था विशेष रेलगाड़ियों द्वारा करनी पड़ी।

1. सन् 2000-2001 के अकाल के दौरान पेयजल की स्थिति एवं आपातकालीन आवश्यकताएं


राज्य के 32 जिलों में से दो में अपर्याप्त वर्षा (60 प्रतिशत या कम) तथा 21 जिलों में वर्षा का अभाव (20 प्रतिशत से 59 प्रतिशत) अवलोकित किया गया।

इस कारण पानी को रोक कर रखने वाले स्थानों जैसे पिछौला, फतेहसागर, राजसमंद, मेजा तथा रामगढ़, जो अनेक कस्बों व गाँवों में पेयजल के मुख्य स्रोत हैं, सूखने लगे और उनमें बह कर आने वाले पानी की मात्रा नगण्य हो गई।

वर्षा के अभाव के कारण भूजल धारकों के पुनर्भरण पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। इन सभी तथ्यों ने अनेक कस्बों, शहरों तथा आवासीय स्थानों के जल आपूर्ति तंत्र को गंभीर रूप से प्रभावित किया है।

राजसमंद, सीकर, अलवर, अजमेर, बाँसवाड़ा, भरतपुर, भीलवाड़ा, बीकानेर, चित्तौड़गढ़, चूरू, धौलपुर, डूँगरपुर, जयपुर, श्री गंगानगर, उदयपुर, हनुमानगढ़, झालावाड़, झुन्झुनू, पाली, सिरोही, टोंक, जैसलमेर, जालौर, जोधपुर, बूँदी व सवाई माधोपुर जिलों में स्थिति विकट है।

राजस्थान के गाँवों की पेयजल आपूर्ति, जल की कमी व न्यून गुणवत्ता जैसी गंभीर समस्याओं से प्रभावित है। मानव विकास रिपोर्ट 1999 के अनुसार भारत के 52 प्रतिशत गांव असुरक्षित जल स्रोत पर निर्भर हैं। कुछ विशेष अध्ययनों के अनुसार राजस्थान में स्थिति अधिक गंभीर है।

यह अध्याय, राजस्थान में पेयजल संकट पर प्रकाश डालता है। सर्वप्रथम वर्तमान स्थिति के प्रत्यक्ष अनुभवयुक्त, विभिन्न क्षेत्रीय अध्ययनों का विवरण दिया गया है।

इनमें उस क्षेत्रीय अध्ययन के परिणाम सम्मिलित हैं, जो हैडकॉन ने 1999-2000 में पेयजल की उपलब्धता ज्ञात करने हेतु राजस्थान के शुष्क एवं अर्द्ध-शुष्क मंडलों में पांच स्थानों पर करवाया था, तथा इसमें बाड़मेर जिले का नीरी अध्ययन भी शामिल है।

इसके बाद ग्राम्य पेयजल आपूर्ति को प्रभावित करने वाली मुख्य समस्याओं को पहचान कर उन पर विचार-विमर्श किया गया है।

2. पेयजल संकट के क्षेत्रीय प्रमाण


क्षेत्रीय अध्ययन के दौरान प्राप्त आँकड़े पूर्व उल्लेखित समस्याओं का व्यापक प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। मनुष्य द्वारा उपयोग हेतु उपलब्ध जल की मात्रा एवं गुणवत्ता की समस्याएं विकट हैं।

3. हैडकॉन के क्षेत्रीय अध्ययन के निष्कर्ष


सन् 1999-2000 में हैडकॉन ने राजस्थान के जयपुर, नागौर, बीकानेर, बाड़मेर, और जोधपुर जिलों के गाँवों में, पेयजल समस्या से सर्वाधिक प्रभावित क्षेत्रों में एक अध्ययन किया था।

ये क्षेत्र कम व अनियमित वर्षा तथा न्यून उर्वरता व उच्च लक्षण स्तर युक्त रेतीली मृदा वाले शुष्क व अर्द्ध-शुष्क क्षेत्र हैं। शुष्क क्षेत्रों में 600 से 1000 फीट तथा अर्द्ध-शुष्क क्षेत्रों में 150 से 200 फीट गहराई पर भूजल उपलब्ध है।

3.1 जयपुर जिले में सांगानेर पंचायत समिति क्षेत्र


जयपुर जिले के सांगानेर खंड का क्षेत्रफल 613.87 वर्ग किलोमीटर है। संपूर्ण भारत एवं विदेशों में सांगानेर ब्लॉक द्वारा छपाई के लिए प्रसिद्ध है। यहां मुख्य जल धारक मृदा कछारी (एलूवियल) है, जिसमें रेत और कहीं-कहीं चिकनी मिट्टी और कंकर हैं।

साँगानेर खंड के गांव प्रहलादपुरा, बीलवा कलाँ, मानपुरा, नागल्य, जयराजपुरा और नानगपुरा, जयपुर शहर से 25 किलोमीटर दूर हैं।

ग्रामवासियों का मुख्य व्यवसाय कृषि है। इन गाँवों में 170 से अधिक निजी खुले कुएं तथा लगभग 70 निजी नलकूप हैं। बीलवां कलां में पी.एच.ई.डी. के दो नलकूप हैं। प्रहलादपुरा में एक सामुदायिक नलकूप है जो काम में नहीं आता।

भूजल का अत्यधिक दोहन तथा उसमें अधिक मात्रा में फ्लोराइड व्याप्त होने के कारण इस क्षेत्र की स्थिति अत्यंत गंभीर है। पिछले दशक में भूजल स्तर में 6 मीटर से भी अधिक तक की गिरावट दिखाई देती रही है।

अनेक व्यक्तियों के पास निजी नलकूप हैं, लेकिन पी.एच.ई.डी. द्वारा लगाए गए कैंप के दौरान की गई जाँच में इन नलकूपों का जल फ्लोराइड से दूषित पाया गया।

कुछ सरकारी हैंडपंप भी हैं, जिनमें से अधिकांश के पानी में फ्लोराइड के अंश बहुत अधिक मात्रा में हैं। गाँवों के लोग जल एकत्रित करने की किसी भी पारंपरिक विधि का उपयोग नहीं कर रहे हैं।

3.2 नागौर जिले का मकराना पंचायत समिति क्षेत्र


नागौर जिले का मकराना क्षेत्र अपनी विपुल संगमरमर (पत्थर) खानों के लिए संपूर्ण विश्व में प्रसिद्ध है। ताजमहल का निर्माण मकराना के पत्थर से ही किया गया था।

मकराना ब्लॉक के धीरसर, झुँझारपुरा, अमरसर, लिलनों, नायकों की ढाणी तथा कजाना गाँव इस क्षेत्र में स्थित हैं, जिसे बाँका पट्टी (जिस क्षेत्र के निवासियों की कमर झुकी हुई होती है) कहते हैं। इन गाँवों के व्यक्ति पेयजल से वंचित होते जा रहे हैं इन्हें उपलब्ध पानी खारा व फ्लोराइड युक्त हैं।

जनसंख्या के एक बड़े भाग पर फ्लोराइड युक्त जल का गहरा प्रभाव है तथा स्थानीय लोग फ्लोराइड के दुष्प्रभाव के कारण फ्लोरोसिस से ग्रस्त हैं। इसके मुख्य लक्षण हैं-दांतों पर धब्बे पड़ जाना, दाँतों का सड़ना, चलने में कष्ट होना, हाथ-पैरों का कांपना, जोड़ों का कड़ा हो जाना, हड्डियों का मुड़ जाना, कमर का झुक जाना आदि।

दैनिक दिनचर्या पर पानी की कमी का गहरा प्रभाव है। अधिकांश व्यक्ति सप्ताह में दो बार नहाते हैं। पेयजल खरीदने में आय का बहुत-सा भाग व्यय हो जाता है। ग्रामीण लगभग 1 से 12 किलोमीटर की दूरी से जल लाते हैं। इन्हें वैवाहिक संबंध बनाने में अत्यंत कठिनाई का सामना करना पड़ता है।

पी.एच.ई.डी. द्वारा धीरसर व अमरसर गाँवों में गाछीपुरा व जसवंतपुरा गाँवों से जल का वितरण किया जा रहा था परंतु जल प्रदान करने वाले गाँवों में ही इसकी कमी हो जाने पर इस आपूर्ति को रोग दिया गया।

अब महीने में दो बार मनानी गांव से जल आपूर्ति की जाती है। यह जल खारा है। दोनों गाँवों में एक-एक सामुदायिक कुआँ है परंतु इनका पानी फ्लोराइड युक्त व खारा है। दोनों गाँवों में ग्रामीणों ने एक आदमी को कुएं से पानी निकालने हेतु नियुक्त किया हुआ है और उसे प्रत्येक परिवार के आकार के अनुरूप शुल्क लेकर वेतन दे दिया जाता है।

ग्रामीण उसी दूषित व खारे पानी को पीने के लिए विवश हैं। मनाना की ढ़ाणियों में जल आपूर्ति हेतु पाइप लाइन नहीं है। झुन्झारपुरा में उच्च जाति के पाँच व्यक्तियों के निजी नलकूप हैं। वे अन्य लोगों को पानी तभी लेने देते हैं जब वे उनके लिए कोई काम करें।

कुछ निजी कुए भी हैं परन्तु जल स्तर 150-170 फीट नीचे है और पानी हाथ से खींचना पड़ता है। वर्षा जल को एकत्रित करने के विषय में जागरूकता बहुत कम है। कुछ ही परिवारों के यहाँ टाँके हैं।

3.3 जोधपुर जिले में बाप पंचायत समिति क्षेत्र


खंड बाप (जोधपुर जिले) क्षेत्र के माटोल, गणेश नगर, नारायणपुरा, पाबूपुरा, सोड़ादड़ा और सूरपुरा गांव शुष्क क्षेत्र में स्थित हैं, जहां पानी का कोई सामुदायिक स्रोत नहीं है।

भूजल 700-1000 फीट गहराई पर है। ग्रामीण पूर्णतया वर्षाजल पर निर्भर रहते हैं, जो 3-4 महीने तक चलता है। शेष समय में 5 से 40 किलोमीटर की दूरी से पानी लाना पड़ता है।

जल संग्रहण निजी टाँकों में किया जाता है। ग्रामीण बहुत गरीब हैं और उनके टाँके बहुत छोटे हैं।

पिछले दो सालों में बहुत कम वर्षा होने के कारण लोगों को पानी बहुत दूर से लाना पड़ा है और वे पूर्णतया इसी पर निर्भर हैं पानी की कीमत बहुत अधिक है। (मीठे पानी के टैंकर का मूल्य 300-500 रुपए)।

सूरपुरा गांव में 2 तथा पाबूपुरा में 1 नाड़ी (ग्रामीण तालाब) है। इन नाड़ियों का पानी 2 महीने तक चलता है। सोड़ादड़ा गांव में पी.एच.ई.डी. का एक नलकूप है, जो खारे पानी का होने के कारण काम में नहीं आता। एक पंचायती टाँका भी है जो टूटे हुए तले के कारण काम का नहीं है और ग्रामीण उसे ठीक करवाने में असमर्थ हैं।

चूँकि अकाल के कारण पिछले दो वर्षों में पैदावार नहीं हुई, अधिकांश व्यक्ति नमक के कुओं/पत्थर खानों में काम करने हेतु बाहर चले गए। परिवार में जल की दैनिक आवश्यकता पूरी करने हेतु एक सदस्य पानी लाने का कार्य में पूर्णतया जुटा रहता है।

इस क्षेत्र में आय के प्रमुख स्रोतों में से एक स्रोत पशुधन है। महंगे जल और चारे के कारण लोग पशुपालन में कठिनाइयों का सामना कर रहे हैं। विशेषतया घरेलू कार्यों हेतु पानी की कमी के कारण यहाँ के ग्रामीणों को वैवाहिक संबंध स्थापित करने में भी कठिनाई का सामना करना पड़ता है।

3.4 बीकानेर जिले में कोलायत पंचायत समिति क्षेत्र


कोलायत (जिला बीकानेर) क्षेत्र के गाँवों भोम नाहर सिंह, भोम हेम सिंह, भोम अखय सिंह, थुम्बली, खारिया बास व खारिया मल्लिनाथ में न तो कोई भूजल स्रोत है और ना ही कोई सामुदायिक जल स्रोत।

ग्रामीण वर्षाजल पर निर्भर रहते हैं। वर्षा जल बेरियों में एकत्रित किया जाता है। जल संचित करने के ये साधन समय की बचत करते हैं एवं अनेक कठिनाइयों से बचाते हैं।

इस क्षेत्र की मृदा, पानी को गहराई तक नहीं रिसने देती। यदि पर्याप्त मात्रा में वर्षा हो जाती है तो बेरियों और टांकों में एकत्रित पानी 6 से 8 महीनों तक चल जाता है। रेत इकट्ठी हो जाने के कारण बेरियां ठीक प्रकार से काम नहीं कर रही हैं।

यदि इनकी मिट्टी को हटा दिया जाए तो इनमें साल भर के लिए पर्याप्त पानी आ सकता है। अधिकांश गाँवों में सरकारी टैंकरों से जल आपूर्ति होती है परंतु यह महीने में 3-5 दिन ही होती है, जो बहुत कम है। इन गाँवों में टाँकों का आकार बहुत छोटा है।

पानी को या तो सिर पर या टैंकरों अथवा ऊंट गाड़ियों में 7-12 किलोमीटर तक ढोकर लाना पड़ता है। छोटे ऊँट गाड़ी टैंकर का मूल्य 60-100 रुपए हैं। जल अभाव एवं महंगे चारे के कारण इन्हें पशुपालन में कठिनाई का सामना करना पड़ता है।

3.5 बाड़मेर जिले में शिव पंचायतत समिति क्षेत्र


बाड़मेर जिले में बाहर से जल लाने की कोई व्यवस्था नही है। राजस्थान नहर का पानी यहाँ तक नहीं पहुंचता और नर्मदा बांध का पानी पहुंचने में अभी बहुत समय लगेगा।

अधिकांश क्षेत्र में पानी खारा है। जहां भी मीठा पानी है वह बहुत गहराई पर है।

शिव (जिला बाड़मेर) क्षेत्र के गांव बचिया, पुंजराजपुरा, पत्ते के पार, लीकड़ी और सरस्वती नगर भी अकाल से गंभीर रूप से प्रभावित हैं। यह क्षेत्र राजस्थान के शुष्क मंडल में स्थित है। यहां पर जल का कोई सामुदायिक स्रोत नहीं है। भूजल स्रोत भी वास्तविक रूप में नगण्य हैं।

ग्रामीण, जल हेतु वर्षा पर निर्भर हैं। बेरियाँ और छोटे टांके पानी के मुख्य स्रोत हैं। अकाल के कारण इनमें जल संग्रहण नहीं हो सका। दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु 3-12 किलोमीटर की दूरी से पानी लाना पड़ता है।

पानी की कमी के कारण आय के साधन भी कम हो गए हैं, क्योंकि पैदावार भी नहीं हुई और पशु पालन में भी असमर्थ हैं। पशु भी इस स्थिति के कारण मर रहे हैं।

4. पारंपरिक जल संग्रहण प्रणालियों की उपेक्षा


प्रमाण इंगित करते हैं कि पारंपरिक जल संग्रहण तकनीकों की उपेक्षा करके जल को और भी जटिल बना दिया गया है। शुष्क व अर्द्ध शुष्क मंडलों में जल संग्रहण एक परंपरा रही है।

इन क्षेत्रों में उपलब्ध जल की मात्रा पीने के लिए भी पर्याप्त नहीं है। इसके अतिरिक्त एक विस्तृत क्षेत्र में उपलब्ध जल की मात्रा पीने के लिए भी पर्याप्त नहीं है। इसके अतिरिक्त एक विस्तृत क्षेत्र में भूजल खारा है।

यह खारापन सामान्य से लेकर अत्यधिक सीमा तक है। सुनिश्चित पेयजल व्यवस्था के अभाव में राजस्थान के निवासी खुदे हुए कुओं तथा पारंपरिक संग्रहण प्रणालियों पर निर्भर हैं। ग्रामीणों के विभिन्न वर्गों की जल तक पहुंच असमान है।

पारंपरिक सतही जल संग्रहण पद्धतियां जैसे नाड़ियाँ, टाँके, बेरी, कुई आदि अब भी जल के महत्वपूर्ण स्रोत हैं और इनके कैचमेंट पशुओं को चराने के काम में लिए जा रहे हैं।

ये जल स्रोत धर्म और पौराणिक कथाओं से संबद्ध हैं। राज्य में जल मिलना इतना दुर्लभ है कि इसके किसी भी प्राकृतिक स्रोत को पूजा जाता है। वास्तव में राज्य में स्थित अधिकांश प्राकृतिक जल स्रोत तीर्थ स्थान बन गए हैं।

जब घर के दरवाजे पर नल से जल आपूर्ति को वरीयता दी जाती है तो इन पारंपरिक साधनों का ध्यान तभी आता है, जब या तो यह आधुनिक तंत्र अनुपलब्ध हो अथवा विफल हो गया हो।

यद्यपि केंदीकृत जल आपूर्ति एवं प्रबंधन की वर्तमान प्रणाली बड़ी संख्या में लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति करने में विफल रही हैं, तथापि पारंपरिक पद्धति का ह्रास समय के साथ-साथ बढ़ता जा रहा है इसका एक कारण बढ़ती हुई जनसंख्या द्वारा मांग में वृद्धि है जो पारंपरिक विधियों द्वारा पूरी नहीं की जा सकती।

सरकार ने भी व्यक्तिगत लाभ की योजनाओं को प्रोत्साहित किया जिससे पारंपरिक प्रणालियों को बनाए रखने में सामुदायिक सहभागिता में कमी आ गई।

आधुनिक प्रणाली सरकार पर निर्भरता बढ़ाती है और समुदाय को तोड़ती है। आधुनिक पद्धतियां बाजार की अर्थव्यवस्था के सिद्धांतों पर चलती हैं और उनका वितरण प्रभाव की आदर्श स्थिति से बहुत दूर है।

अनेक की कीमत पर कुछ को लाभ दिया जाता है। यदि ग्रामीण क्षेत्रों में पेजयल आपूर्ति को निष्पक्षतापूर्व बनाए रखना है तो पारंपरिक पद्धतियों का नवीनीकरण करके उन्हें आधुनिक तंत्र के साथ-साथ विकसित करना होगा।

अधो-सतह जल अवरोधन-पश्चिमी राजस्थान की बेरियाँ


बेरी (पारंपरिक जल संग्रहण पद्धति) के उपयोग का एक विशिष्ट उदाहरण भाने का गांव ग्राम पचांयत में गांव भोम हेम सिंह है। बेरियाँ, कम रिसाव वाले कुएं नुमा संरचनाएं जिनमें सतही आगोर (विस्तृत कैचमेंट क्षेत्र) से जल इकट्ठा होता है।

इस प्रकार का जल वायवीय क्षेत्र में मुख्य भूजल धारक के ऊपर की सतह पर होता है। ऐसी संरचनाएं उन गाँवों में बनाई जाती है। जहां पानी के गहरे रिसाव को रोकने वाली विशेष प्रकार की मृदा (चामी मिट्टी) का एक अधो सतही, अवरोधक पाया जाता है।

यह मिट्टी पानी को रिसने नहीं देती तथा पानी को रोके रखती है यह भूमि के पृष्ठ से 25-35 फीट नीचे होती है।

इस गांव की ढ़ाणियों में लगभग 200 परिवार रहते हैं। लगभग 30 परिवार अनुसूचित जाति व अनुसूचित जन जाति के हैं। ग्रामीण, पेयजल हेतु बेरियों पर निर्भर रहते हैं। एक समय था जब एक बेरी पर एक या दो परिवार ही निर्भर थे परन्तु अब यह संख्या 8-10 हो गई है।

इन बेरियों में रेत भी जम गई है। अब ग्रामीणों को स्वयं तथा पशुओं हेतु जल प्राप्त करने में समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। एक मात्र स्थाई समाधान बेरियों की मिट्टी हटाना तथा नई बेरियाँ बनाना है।

राजस्थान में दूर-दूर से औरतों को पानी लाना पड़ता है

पारंपरिक प्रणालियों की उपेक्षा के परिणाम


गांव प्रहलादपुरा, जयपुर टोंक मार्ग पर जयपुर से लगभग 30 किमी. की दूर पर बसा हुआ है। इसमें 95 परिवार रहते हैं। अधिकांश परिवार उच्च जाति के ब्राह्मणों के हैं।

केवल 5-6 परिवार निम्न जाति के नाई, दर्जी और कुम्हारों के हैं। गाँव में ब्राह्मणों की एक बावड़ी है जो लगभग 200 वर्ष पुरानी है। सभी ग्रामीण पेयजल हेतु इसी पर निर्भर थे।

पानी मीठा व स्वच्छ था। बावड़ी में पानी कैचमेंट के द्वारा एकत्रित किया जाता था। सरकारी हस्तक्षेप तथा जनता की सरलता से जल प्राप्त करने की चाह के कारण संपूर्ण तंत्र अव्यवस्थित हो गया।

पी.एच.ई.डी. ने तीन हैंडपंप खोदे और बावड़ी पर एक पंपसेट लगा लिया गया। पंपसेटों पर ऋण तथा विद्युत की आर्थिक सहायता मिलने के कारण ग्रामीण अधिक से अधिक पंपसेट लगाने को प्रोत्साहित हो गए।

इससे जल स्तर में लगातार कमी आती गई, इस प्रक्रिया में बावड़ी की उपेक्षा होती रही। भूमिगत चट्टानें अत्यधिक खनिज संपन्न हैं। चूंकि लोग अधिकांश भूजल स्रोतों पर निर्भर रहते हैं, भूजल स्तर गिरता जा रहा है, जिसके कारण जल में फ्लोराइड की मात्रा बढ़ रही है।

अब 50 प्रतिशत से अधिक व्यक्ति फ्लोरोसिस के किसी न किसी लक्षण से ग्रस्त हैं। पारंपरिक जल संग्रहण संरचना की उपेक्षा तथा सरकारी हस्तेक्षप के कारण ग्रामीण सुरक्षित पेयजल से वंचित हो गए।

5. बाड़मेर की वस्तुस्थिति का अध्ययन


बाड़मेर, राज्य के शुष्क क्षेत्र, थार मरुस्थल के दक्षिणी भाग में स्थित है। पेयजल आपूर्ति की समस्या के समाधान के उद्देश्य से बनाई गई एक समन्वित योजना के अंतर्गत नेशनल एन्वायरोनमेंटल इंजीनियरिंग रिसर्च इंस्टिट्यूट (नीरी) ने सन् 1988 में बाड़मेर जिले में एक क्षेत्रीय अध्ययन किया।

कुल 853 गाँवों में से 835 समस्याग्रस्त थे, जिनमें 649 में कोई जल स्रोत नहीं था, 69 गाँवों के जल में अत्यधिक रासायनिक अंश था तथा 117 गाँवों में जलस्रोत जीवाणुओं द्वारा दूषित थे। जिले में पी.एच.ई.डी. द्वारा 1988 में वर्गीकृत समस्याग्रस्त 312 गाँवों में 351 जल स्रोतों जैसे नाड़ी, टांकों, खुले कुओं और नलकूपों के पानी की गुणवत्ता का मूल्यांकन किया गया।

जल के नमूनों के भौतिक-रासायनिक विश्लेषण से ज्ञात हुआ कि कई नमूनों में फ्लोराइड व नाइट्रेट की मात्रा सीमा से अधिक है। नाड़ियों व टाँकों का पानी मल द्वारा प्रदूषित पाया गया।

अधिकांश पारंपरिक तंत्रों का जल पीने हेतु आवश्यक गुणात्मक स्तर का नहीं था।

6. ग्रामीण पेयजल आपूर्ति को प्रभावित करने वाली मुख्य समस्याएं


राजस्थान के ग्रामीण क्षेत्रों में पी.एच.ई.डी. के प्रयत्नों के उपरांत भी पेयजल अपर्याप्त आपूर्ति एवं गुणवत्ता की गंभीर समस्याओं से ग्रस्त है। वास्तव में पानी के अधिक उपयोग के साथ-साथ भूजल स्तर नीचा होता जा रहा है, जिससे नई समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं।

6.1 पेयजल उपलब्धता की समस्या


बढ़ती हुई मांग तथा सिंचाई तथा प्राथमिकता वाले अन्य क्षेत्रों में जल का निरंतर उपयोग के कारण जलस्तर तेजी से कम होता जा रहा है। प्रत्येक वर्ष संकटपूर्ण और अत्यधिक शोषित क्षेत्रों की श्रेणियों की सूची में नए-नए क्षेत्र जुड़ते जा रहे हैं।

राज्य के लगभग 67 पंचायत समिति क्षेत्र तथा 72 प्रतिशत क्षेत्र वर्तमान में भूजल स्तर में कमी की समस्या का सामना कर रहे हैं चूंकि राज्य में पेयजल का 90 प्रतिशत, भूजल स्रोत से आता है, अतः पेयजल उपलब्धि जल स्तर के पतन के कारण गंभीर रूप से प्रभावित है।

सारिणी 4.1 : राजस्थान के विभिन्न नदी सिंचित क्षेत्रों में जल स्तर में परिवर्तन (1984-1998)


जल स्तर में परिवर्तन (मीटर)

परिवर्तनीय सिंचित क्षेत्र

बाहरी

माही सिंचाई क्षेत्र

बनास सिंचाई क्षेत्र

शेखावटी साबी क्षेत्र

रूपारेल बानगंगा गंभीर पार्वती

लूणी सिंचाई क्षेत्र

साबरमती सिंचाई क्षेत्र

पूर्वी बनास सुक्ली अन्य

कुल

+5 से +7

.0

8626

0

0

0

0

0

0

0

6626

+3 से +5

1067

14414

0

1515

0

0

790

0

32

17818

0 से +3

21997

17413

8424

8939

376

3697

9888

780

130

71644

0 से -3

7782

99695

6506

20089

5690

10174

15366

3426

2473

171201

-3 से -5

285

11278

1481

7286

6109

2427

5844

0

622

35332

-5 से -7

0

8425

0

3131

3097

1061

2785

0

6462

25861

-7 से -10

0

5338

0

2860

320

762

2284

0

853

12417

>-10

0

0

0

982

0

0

367

0

0

1349

 

31131

163189

16411

44802

15592

19021

37324

4206

10572

342248

 



अकड़ों के अनुसार भूजल व्यवस्था पर अत्यधिक दबाव है। न केवल अधिक मात्रा में भूजल दोहन हो रहा है, वरन् जल की गुणवत्ता में कमी की आशंका भी बनी हुई है।

राजस्थान में लगातार पड़ रहे अकाल को नकारा नहीं जा सकता। राष्ट्रीय कृषि आयोग (1976) के अनुसार यदि किसी क्षेत्र में 40 प्रतिशत से अधिक समय अकाल पड़ता है, तो उसे चिरकालिक अकाल ग्रस्त क्षेत्र के रूप में वर्गीकृत किया जाता है।

इस वर्गीकरण के अनुसार राजस्थान के शुष्क क्षेत्र इसी श्रेणी में आते हैं। यहां पर यह तथ्य इस कथन से साकार होता है कि एक दशक के अंतर्गत एक वर्ष में अत्यधिक पैदावार होगी, पाँच वर्ष तक सामान्य तीन साल में बहुत कम पैदावार होगी और एक साल भयंकर अकाल पड़ेगा।

वर्षा के आंकड़ों के आकलन से पता चलता है कि पिछले 99 वर्षों में (1901-1999) शुष्क क्षेत्रों के किसी न किसी भाग में 33-46 वर्षों तक अकाल पड़ा इसका अर्थ है कि प्रत्येक तीन साल में एक बार अकाल पड़ता है।

शुष्क मंडलों में अकाल की इतनी अधिक आवृत्ति के कारण है- इसकी भौगोलिक स्थिति, जो मानसून में उच्च वृष्टिपात को रोकती है; भूजल की गुणवत्ता में कमी; जलस्तर बहुत नीचा होना, जिससे सीमित सिंचाई होती है; बारहमासी नदियों व जंगलों की कमी; मृदा की जल अवरोधन क्षमता में कमी तथा भूजल स्रोत का अधिक मात्रा में दोहन।

20वीं शताब्दी में मनुष्यों व पशुओं की बढ़ती हुई संख्या (क्रमशः 400 व 127 प्रतिशत) के कारण भूमि, सतह व भूजल संसाधनों पर अत्यधिक दबाव पड़ा है।

विस्तृत होते हुए शहरों की मांग को पूर्ण करने में पारंपरिक स्रोत की अक्षमता तथा भूजल के तेजी से गिरते हुए स्तर के कारण शहरों तक जल बहुत दूर से लाना पड़ता है।

ग्रामीण क्षेत्रों में सिंचाई हेतु प्रयुक्त नदी घाटी परियोजनाओं का जल शहरों की ओर मोड़ा जा रहा है। जिससे वहां प्रस्फुटित होती मांग की पूर्ति हो सके।

जोधपुर की जल आपूर्ति इंदिरा गांधी नहर परियोजना से की जा रहा ही। अजमेर व जयपुर को बीसलपुर बांध से जल वितरित किया जा रहा है। इसके कारण ग्रामीणों व शहरियों में द्वंद्व उत्पन्न हो गया है, जैसा कि इस अध्याय के प्रारंभ में बताया गया है।

एक ओर सिंचाई जल से वंचित किसान इसका विरोध कर रहे हैं, दूसरी ओर शहरों को जल आपूर्ति करने वाले पाइपों के पार्श्व में बसे हुए ग्रामीण, स्वयं इस जल का उपयोग करना चाहते हैं। जैसे-जैसे पी.एच.ई.डी. सतही जल योजनाएं आरंभ करेगा, वैसे-वैसे समस्या और विकट होती जाएगी।

6.2 असमान पहुंच


पश्चिमी राजस्थान के अत्यधिक शुष्क भागों में पेयजल एक दुर्लभ एवं मूल्यवान संसाधन है। इस पर नियंत्रण कर प्रभावशाली वर्ग समाज के निःशक्त वर्ग पर अपना आधिपत्य बनाए रखने हेतु शक्ति का प्रयोग करता है।

नागौर जिले के मकराना क्षेत्र में स्थित साँकलों की ढांणी, मकराना शहर में लगभग 15 किलोमीटर दूर है। इस गांव में 40 घर हैं। यहां पानी का एक मात्र स्रोत एक कुआँ हैं, जो उच्च वर्ग के सांकला समुदाय का है।

यहां निम्न वर्ग के भाट समुदाय के कुछ परिवार भी रहते हैं। इन भाटों का पानी का अन्य कोई स्रोत नहीं होने के कारण इन्हें पानी हेतु इसी कुएँ पर निर्भर रहना पड़ता था। इस बात का फायदा उठा कर अपना पानी भरने से पहले उन्हें सांकला समुदाय के लोगों के पानी लाने हेतु बाध्य किया जाता था, नहीं तो उन्हें गांव से 4 किलोमीटर दूर जा कर पानी लाना पड़ता था। अनेक बार भाटों को सांकला लोगों के खेतों में भी मुफ्त में मजदूरी करनी पड़ती थी।

जिला ग्रामीण विकास संस्थान, मकराना क्षेत्र में कार्यरत एक स्वयं सेवी संस्था है। समस्या के गंभीरता को समझते हुए संस्था ने भाटों से विचार विमर्श करके जन सहयोग द्वारा एक टाँके का निर्माण किया जो कि जल संग्रहण हेतु मानव निर्मित संरचना है।

इसके दो भाग होते हैं, ईंट अथवा पत्थर की बनी हुई अंदर की ओर प्लास्टर की हुई एक बेलनाकार टंकी और उसके चारों ओर कैचमेंट क्षेत्र जो अधिकांशतः कृत्रिम रूप से बनाया जाता है। जब भी कम वर्षा होती है अथवा नहीं भी होती तो इस टाँके को पास के एक जल बिंदु से पानी ला कर भर दिया जाता है। अब निम्न जाति को भाट पानी के लिए सांकला समुदाय पर निर्भर नहीं है।

ग्रामीण समुदाय में जल पर असमान पहुंच के अतिरिक्त शहरी-ग्रामीण तथा अमीर-गरीब का भी विभाजन है। शहरी क्षेत्रों को ग्रामीण क्षेत्रों की अपेक्षा वरीयता दी जाती है। सन् 1985-1986 से 1990-1991 तक शहरी क्षेत्र में औसत प्रति व्यक्ति व्यय, ग्रामीण प्रति व्यक्ति व्यय के तिगुने से भी अधिक था।

शहरों में भी जल वितरण में बहुत असमानता है। अमीरों का एक विशिष्ट वर्ग अधिक मात्रा में जल प्राप्त करता है, जबकि कमजोर वर्ग को सार्वजनिक स्रोत से स्वयं ही जल की व्यवस्था करनी पड़ती है। यह असमानता राज्य की व्यवस्था में ही निहित है, जिसमें अलग-अलग वर्गों हेतु अलग-अलग मानदंड है।


6.3 गुणवत्ता की समस्याएं


राज्य की पेयजल आपूर्ति का 90 प्रतिशत भाग भूजल है। राजस्थान के अनेक भागों में भूजल की गुणवत्ता एक गंभीर समस्या बन गई है। यह अवलोकन किया गया है कि रेगिस्तान क्षेत्र के 60.5 प्रतिशत भाग में स्थित भूजल में लवणों का अंश 3200 पी.पी.एम. से अधिक है।

सत्तर के दशक के प्रारंभ में वैज्ञानिकों ने पाया कि दक्षिणी-पश्चिमी गंगानगर, जोधपुर के उत्तर-पश्चिम व पूर्वी भाग, पूर्वी नागौर तथा सिरोही जिले के उत्तरी भागों के भूजल में अत्यधिक मात्रा में फ्लोराइड व्याप्त है। खारेपन व क्षारियता को समस्याएं सामान्यतः राज्य के शुष्क मंडलों में पाई जाती है। अधिकांश जल की 25 डिग्री सेंटीग्रेड पर विद्युत सुचालकता 3000 माइक्रो ओम/ सेमी. से अधिक है।

राजस्थान में दूर-दूर से औरतों को पानी लाना पड़ता है

6.4 फ्लोरोसिस की विपत्ति


पेयजल की समस्याओं में फ्लोरोसिस अग्रणी स्थान पर आता जा रहा है। जैसे-जैसे जल स्तर नीचा हो रहा है, पेयजल को अधिक गहरी भूमिगत चट्टानों से खींचा जा रहा है जिनमें फ्लोराइड का बहुत अधिक अंश है।

गाँवों में रिहायशी क्षेत्रों का पाँचवां भाग फ्लोरोसिस से प्रभावित हो चुका है (जिलेवार विवरण के परिशिष्ट में सारिणी 3.7 देखें) यह संख्या दिनों-दिन बढ़ती जा रही है।

अब जबकि पी.एच.ई.डी. ने कुछ समाधान बताएं हैं, यह स्पष्ट है कि जल को फ्लोराइड विमुक्त करने की तकनीकें अधिकांश उपभोक्ताओं की पहुंच से बाहर होगी।

समस्या की गंभीरता का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि फ्लोराइड व खारेपन की समस्या से ग्रस्त गाँवों में से अधिकांश गांव राजस्थान में हैं।

जहां संपूर्ण देश में फ्लोराइड प्रभावित गाँवों की संख्या 32, 211 है, वहीं अकेले राजस्थान में यह संख्या 16,560 अर्थात 50 प्रतिशत से अधिक है। हैडकॉन के द्वारा एकत्रित आंकड़ों के अनुसार राजस्थान में लगभग 80 लाख व्यक्ति अपंग बना देने वाली फ्लोराइड युक्त पानी पीने को मजबूर हैं।

24,405 गाँवों में 8446 गाँवों में भूजल में 1.5 पी.पी.एम. से अधिक फ्लोराइड है, 6018 में से 553 में भूजल में फ्लोराइड की मात्रा 0.5 पी.पी.एम. से कम है, यह बताता है कि 34.61 प्रतिशत गाँवों में उच्च फ्लोराइड प्रदूषण है तथा राजस्थान के 9.19 प्रतिशत गांव भूजल में फ्लोराइड की मात्रा होने से परेशान है, इसके समाधान हेतु शीघ्र ही कोई उपाय खोजना होगा।

इसी प्रकार खारेपन से प्रभावित देश के 33,552 गाँवों में से 14,415 गांव अर्थात् 42 प्रतिशत गांव राजस्थान में है।

6.5 क्रियात्मक स्थायित्व


ग्रामीण पेयजल आपूर्ति योजनाएं क्रियात्मक स्थायित्व की गंभीर समस्याओं से ग्रस्त हैं। ग्रामीण पेयजल आपूर्ति योजनाओं के दो मुख्य स्रोत हैंडपंप और पाइप लाइन हैं और दोनों को ही उपरोक्त समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है।

हैंडपंप जो कि मध्य-दक्षिणी और पूर्वी भागों में पेयजल का मुख्य स्रोत है, अनुरक्षण की समस्या से ग्रस्त है। अनेक हैंडपंप निष्क्रिय पड़ हैं। पी.एच.ई.डी. द्वारा 1996 में करवाए गए सर्वेक्षण के दौरान, अभियान के प्रारंभ में ही 40 प्रतिशत हैंडपंप खराब पाए गए।

सन् 1995 की स्थिति बदतर थी। सर्वेक्षण के समय कुल स्थापित हैंडपंपों में से आधे से अधिक, कार्य करने की अवस्था में नहीं थे।

उल्लेखनीय है कि निष्क्रिय हैंडपंपों में से अधिकांश मरम्मत योग्य थे। ऐसे हैंडपंपों का अनुपात बहुत कम था जो सूख गए थे अथवा किसी अन्य समस्या के कारण परित्यक्त थे।

हैंडपंपों के नियमित अनुरक्षण हेतु अनेक प्रयास किए गए। वर्तमान में एक दुहरा प्रयोग किया जा रहा है। पंचायत समितियां इस कार्य हेतु मिस्त्रियों को नियोजित करती हैं।

अत्यधिक गर्मी के मौसम में इसका नियंत्रण पी.एच.ई.डी. को स्थानांतरित कर दिया जाता है। यह प्रयोग बहुत कारगर नहीं है। स्थानीय मिस्त्रियों को न तो सुदूर स्थानों पर जाने हेतु कोई सुविधा उपलब्ध है और न ही मरम्मत के लिए आवश्यक औजार और अतिरिक्त पुर्जे उनके पास हैं। यह प्रवृत्ति बन गई है कि पी.एच.ई.डी. ही अभियान का समय आने पर कार्यभार संभाले।

भू-जल स्तर के घटने के साथ ही अनेक स्थानों पर हैंडपम्पों से फ्लोराइड दूषित जल आने लगा है। पी.एच.ई.डी. के पास जांच सुविधाओं की कमी है और जल की गुणवत्ता को नियमित रूप से जांचने हेतु कोई साधन नहीं है।

पश्चिमी रेगिस्तानी क्षेत्रों में, जहां एक ही स्रोत से अनेक गाँवों में जल आपूर्ति की जाती है, वहां क्षेत्रीय आपूर्ति योजनाएं जल वितरण का सामान्य उपाय है। ये योजनाएं भी अनेक समस्याओं से ग्रस्त हैं, जिनमें से कुछ हैडकॉन द्वारा संचालित अध्ययन में परिलक्षित हुई है।

अधिकतर अंतिम उपभोक्ताओं तक जल पहुँचता ही नहीं है, मरम्मत में बहुत समय लगता है और इस समय पेयजल की समस्या बहुत अधिक बढ़ जाती है।

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