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उच्च न्यायालय

उच्च न्यायालय इस देश में उच्च न्यायालयों की स्थापना का श्रेय अंग्रेजी सरकार को है। सन्‌ 1861 में इनकी स्थापना से पूर्व इस देश में दो प्रकार के न्यायालय कार्य कर रहे थे। प्रथम प्रकार के न्यायालयों की स्थापना विभिन्न वर्षों में प्रेसीडेंसी नगरों, अर्थात्‌ कलकत्ता, मद्रास और बंबई में सीधे इंग्लैंड के सम्राट् द्वारा हुई थी। ये न्यायालय उच्चतम न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट) के नाम से विख्यात थे। दूसरे प्रकार के न्यायालय ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा बंगाल, मद्रास, बंबई तथा अन्य प्रांतों में स्थापित किए गए थे। सदर दीवानी अदालत और सदर निजामत अदालत कंपनी के उच्चतम न्यायालय थे। इन न्यायालयों के अंतर्गत व्यवहार विषयक (सिविल) एवं दांडिक (क्रिमिनल) अधीन न्ययालय (सबार्डिनेट कोर्ट) कार्य करते थे। उच्चतम न्यायालयों का प्रारंभिक क्षेत्राधिकार (ओरिजिनल जुरिस्डिक्शन) था, जिसका विस्तार प्रेसीडेंसी नगरों तक ही सीमित था, यद्यपि इन न्यायालयों ने विभिन्न समयों पर प्रांतों में भी अपने क्षेत्राधिकार का प्रयोग किया था। इनकी कार्यप्रणाली अंग्रेजी न्यायालयों की कार्यप्रणाली के समान थी और ये विवादों में अधिकतर अंग्रेजी कानूनों का प्रयोग करते थे।

कंपनी की सदर अदालतों का अपीलीय क्षेत्राधिकार (अपेलेट जुरिस्डिक्शन) था। सरकार द्वारा बनाए विभिन्न विनियमों तथा हिंदू एवं मुस्लिम कानूनों के अनुसार ये न्यायालय अपने निर्णय देते थे। अधिकतर इनकी कार्यप्रणाली भी सरकारी विनियमों द्वारा निश्चित की जाती थी।

इस प्रकार भारत में दो प्रकार के समवर्ती तथा स्वतंत्र न्यायालय कार्य कर रहे थे। कभी-कभी इनके निर्णय प्रतिकूल भी होते थे और प्रजा को दो अधिकार क्षेत्रों का भाजन बनना पड़ता था। इन दो प्रकार के न्यायाधीशों के संबंध भी परस्पर अच्छे नहीं थे। उच्चतम न्यायालय कपंनी के कामों में बहुधा हस्तक्षेप भी करते थे। असमान कानूनों एवं प्रणालियों के प्रयोग से न्यायव्यवस्था में एक प्रकार का उलझाव पैदा हो गया था। इसलिए न्यायव्यवस्था को सुदृढ़, संगठित एवं सुचारु रूप से चलाने के लिए इन समकक्ष न्यायालयों का विलयन करके एक ही प्रकार के उच्च न्यायालय स्थापित करने का निश्चय किया गया।

उच्च न्यायालयों की स्थापना- 6 अगस्त, 1861 को ब्रिटिश संसद् (पार्ल्यामेंट) ने भारतीय डच्च न्यायालय अधिनियम (इंडियन हाईकोर्ट ऐक्ट) के द्वारा उच्चतम एवं सदर न्यायालयों का विलयन करके उच्च न्यायालयों की स्थापना की। भारतीय न्यायव्यवस्था के इतिहास में यह एक महान्‌ एवं उत्कृष्ट प्रयास था जिसकी सफलता वर्तमान उच्च न्यायालयों की असाधारण कार्यक्षमता के द्वारा प्रकट होती है। इस अधिनियम के इंग्लैंड की महारानी को अधिकार दानपत्रों (लेटर्स पेटेंट) द्वारा कलकत्ता, मद्रास, बंबई तथा अन्य भागों में उच्च न्यायालय स्थापित करने का अधिकार दिया। प्रत्येक न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधिपति (चीफ जस्टिस) एवं अधिकतम 15 अवर न्यायाधीश (प्युनी जज) कार्य कर सकते थे। इन न्यायाधीशों की नियुक्ति बैरिस्टरों, प्राधिकारियों, जिला न्यायाधीशों, सदर अमीन अथवा लघुवाद न्यायालयों (स्माल काज़ कोर्ट्‌स) के न्यायाधीशों एवं वकीलों में से होती थी। सभी न्यायाधीशों की सेवाएँ अंग्रेजी सम्राज्ञी की इच्छा पर निर्भर करती थी।

अधिनियम ने उच्च न्यायालयों को व्यवहार विषयक (सिविल), दांडिक (क्रिमिनल), नौकाधिकरण (ऐडमिराल्टी) एवं उपनौकाधिकरण, वसीयत संबंधी, वसीयत रहित एवं वैवाहिक, प्रारंभिक एवं अपीली दोनों प्रकार के, क्षेत्राधिकार दिए। व्यवहार विषयक एवं दांडिक प्रारंभिक क्षेत्राधिकार साधारण प्रारंभिक क्षेत्राधिकार एवं असाधारण प्रारंभिक क्षेत्राधिकर में विभाजित था। यह उल्लेखनीय है कि प्रारंभिक क्षेत्राधिकार पूर्ववर्ती उच्चतम न्यायालयों की तथा अपीली क्षेत्राधिकर पूर्ववर्ती उच्चतम न्यायालयों की अपीली क्षेत्राधिकार पूर्ववर्ती सदर अदालतों की देन है।

इन क्षेत्राधिकारों के अतिरिक्त उच्च न्यायालयों को प्रेसीडेंसियों में न्यायव्यवस्था संबंधी वे सभी अधिकार प्राप्त थे जो अधिकार दानपत्रों द्वारा स्वीकृत हुए हों। पूर्व न्यायालयों के अन्य अधिकार भी उच्च न्यायालयों को दिए गए। ये न्यायालय अधीन न्यायालयों पर अधीक्षण (सुपरिंटेंडेंस) का अधिकार रखते थे।

उच्च न्यायालयों को पूर्ववर्ती दोनों प्रकारों के न्यायालयों के न्यायाधीशों की सेवाएँ प्राप्त थी। उच्चतम न्यायालयों के न्यायाधीशों अंग्रेजी कानूनों से पिरचित थे तथा सदर अदालतों के न्यायाधीश भारत की प्रथाओं, स्वभाव एवं कानूनों से परिचित थे। इस प्रकार असमान कानूनों एवं प्रणालियों के समावेश से पूर्व असमानता द्वारा प्रदत्त दोष लगभग समाप्त हो गए थे।

1861 के अधिनियम के अंतर्गत जारी किए गए 14 मई, 1861 के अधिकार दानपत्र के द्वारा कलकत्ते में उच्च न्यायालय की स्थापना हुई। इस अधिकार दानपत्र के अशुद्ध होने के कारण 28 दिसंबर, 4865 को एक नया अधिकार दानपत्र जारी किया गया। 26 जून, 1862 को जारी किए गए अधिकार दानपत्रों के द्वारा बंबई एवं मद्रास में उच्च न्यायालयों की स्थापना की गई। इन अधिकार दानपत्रों के स्थान पर 1865 में नए दानपत्र जारी किए गए। इन तीनों उच्च न्यायालयों को अधिनियम द्वारा वर्णित समस्त अधिकार प्राप्त थे।

17 मार्च, 1866 को जारी किए गए अधिकार दानपत्र द्वारा उत्तर-पश्चिमी प्रांतों के लिए आगरा में उच्च न्यायालय की स्थापना हुई। 1875 में यह न्यायालय आगरा से इलाहाबाद लाया गया। प्रेसीडेंसी उच्चन्यायालयों की भाँति इस न्यायालय को साधारण प्रारंभिक व्यवहार विषयक क्षेत्राधिकार एवं नौकाधिकरण अथवा उपनौकाधिकरण क्षेत्राधिकार प्राप्त नहीं थे। 26 जुलाई, 1948 को अवध मुख्य न्यायालय (अवध चीफ़ कोर्ट) को इस न्यायालय में मिला दिया गया।

9 फरवरी, 1916 अधिकार दानपत्र द्वारा पटना में उच्च न्यायालय की स्थापना हुई। यद्यपि इसका क्षेत्राधिकार इलाहाबाद उच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकार के समान था, तथापि इस न्यायालय को नौकाधिकरण क्षेत्राधिकार भी प्राप्त हुआ। 21 मार्च, 1919 के अधिकार दानपत्र द्वारा नागपुर में उच्च न्यायालयों की स्थापना हुई। इनके अधिकार इलाहाबाद उच्च न्यायालय के अधिकारों के समान थे। भारत में विभाजन के पश्चात्‌ लाहौर न्यायालय के पाकिस्तान में चले जाने के कारण पूर्वी पंजाब के लिए 1947 में उच्च न्यायालय की स्थापना हुई। 1948 में उड़ीसा एवं असम में उच्च न्यायालय स्थापित किए गए। इनका क्षेत्राधिकार क्रमश: कलकत्ता एवं पटना उच्च न्यायालयों के क्षेत्राधिकार के समान रखा गया। आज भारत में विभिन्न प्रांतों के पुनर्गठन के पश्चात्‌ सभी प्रांतों में उच्च न्यायालय सफलतापूर्वक कार्य कर रहे हैं।

भारत सरकार अधिनियम, 1935 (गवर्नमेंट आव इंडिया ऐक्ट 1935) के द्वारा परिवर्तन- इस अधिनियम द्वारा उच्च न्यायालयों के गठन एवं रचना में कुछ परिवर्तन किए गए। प्रत्येक न्यायाधीश को 60 वर्ष की आयु तक कार्य करने का अधिकार दिया गया। 1861 के अधिनियम द्वारा निर्मित विभिन्न श्रेणियों के न्यायाधीशों के चुनाव का नियम समाप्त कर दिया गया। इन परिवर्तनों के अतिरिक्त उच्च न्यायालयों के व्यय संबंधी मामलों में कार्यकारिणी अथवा विधान सभा को हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं दिया गया, केवल राज्यपाल को ही यह अधिकार मिला।

भारतीय संविधान में उच्च न्यायालय- भारत की वर्तमान न्यायव्यवस्था में उच्च न्यायालयों का एक विशेष स्थान है। संविधान में प्रदत्त मूल अधिकारों (फ़ंडामेंटल राइट्स) की सुरक्षा की दृष्टि से इन न्यायालयों का मान और भी बढ़ गया है। प्रत्येक उच्च न्यायालय पहले की भाँति एक अभिलेख न्यायालय (कोर्ट आँव रेकर्ड) है तथा उसे अपने अवमान (केंटेंप्ट) के लिए दंड देने की शक्ति दी गई है।

उच्च न्यायालयों का गठन समय-समय पर राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त मुख्य न्यायाधिपति तथा अन्य न्यायाधीशों पर निर्भर करता है। राष्ट्रपति भारत के मुख्य न्यायाधिपति से, राज्य के राज्यपाल से तथा राज्य के मुख्य न्यायाधिपति की नियुक्ति को छोड़कर अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति की दशा में उस राज्य के मुख्य न्यायाधिपति से परामर्श करके उच्च न्यायालय के प्रत्येक न्यायाधीश को नियुक्त करता है। उच्च न्यायालय का न्यायाधीश होने के लिए संबंधित व्यक्ति का भारतीय राज्यक्षेत्र में कम से कम 10 वर्ष तक न्यायिक पद पर कार्य करना आवश्यक है, अथवा उच्च न्यायालय का अथवा ऐसे दो या अधिक न्यायालयों का निरंतर कम से कम 10 वर्ष तक अधिवक्ता रहना आवश्यक है। प्रत्येक न्यायाधीश 60 वर्ष की आयु तक कार्य कर सकता है।

उच्च न्यायालय का कोई न्यायाधीश राष्ट्रपति को संबोधित अपने हस्ताक्षर सहित लेख द्वारा स्वयं ही पदत्याग कर सकता है। इसके अतिरिक्त कोई न्यायाधीश अपने पद से तब तक नहीं हटाया जा सकता जब तक सिद्ध कदाचार, अथवा असमर्थता के लिए ऐसे हटाए जाने के हेतु प्रत्येक सदन की समस्त सदस्यसंख्या के बहुमत द्वारा तथा उपस्थित और मतदान करनेवाले सदस्यों में से कम से कम दो तिहाई के बहुमत द्वारा उसी सत्र में रखे जाने पर राष्ट्रपति ने आदेश न दिया हो।

कोई व्यक्ति जो इस संविधान के प्रारंभ के पश्चात्‌ उच्च न्यायालय के स्थायी न्यायाधीश का पद धारण कर चुका है, उच्चतम न्यायालय या अन्य उच्च न्यायालयों के अतिरिक्त भारत के किसी न्यायालय अथवा प्राधिकारी के समक्ष वकालत का कार्य नहीं कर सकता।

राष्ट्रपति भारत के मुख्य न्यायाधिपति के परामर्श से एक उच्च न्यायालय से किसी दूसरे उच्च न्यायालय को किसी न्यायाधीश का स्थानांतरण कर सकता है। राष्ट्रपति को कार्यकारी मुख्य न्यायाधिपति तथा अपर एवं कार्यकारी न्यायाधीशों की नियुक्ति करने का अधिकार है।

वर्तमान उच्च न्यायालयों का क्षेत्राधिकार तथा उसमें प्रशासित विधि तथा उस न्यायालय में न्यायप्रशासन के संबंध में उसके न्यायाधीशों की अपनी-अपनी शक्तियाँ, जिनके अंतर्गत न्यायालय के नियम बनाने तथा उस न्यायालय की बैठकों और उसके सदस्यों के अकेले अथवा खंड न्यायालयों (डिवीज़न कार्ट्‌स) में बैठने का विनियमन करने की कोई शक्ति भी है, वैसी ही रखी गई है, जैसा संविधान के प्रारंभ से ठीक पहले थी। परंतु राजस्व (रेवन्यू) संबंधी अथवा उसका संगृहीत करने में आदिष्ट अथवा किए हुए किसी कार्य संबंधीविषय में उच्च न्यायालयों में से किसी के प्रारंभिक क्षेत्राधिकार का प्रयोग, जिस किसी निर्बंधन के अधीन संविधान के प्रारंभ से ठीक पहले था, वह निबंधन ऐसे क्षेत्राधिकार के प्रयोग पर आगे लागू नहीं किया गया।

प्रत्येक उच्च न्यायालय अपने क्षेत्राधिकार में संविधान के भाग 3 द्वारा प्रदत्त मूल अधिकारों में से किसी का प्रवर्तित कराने के लिए, तथा किसी अन्य प्रयोजन के लिए किसी व्यक्ति या प्राधिकारी के प्रति, या समुचित मामलों में किसी सरकार का ऐसे निर्देश (डाइरेक्शन) या आदेश (आर्डर्स) या लेख (रिट), जिनके अंतर्गत बंदाप्रत्यक्षाकरण (हैबियस कार्पस), परमादर्श (मडमस्‌), प्रतिषेध (प्राहाबिशन), अधिकारपृच्छा (कावारंट्स) तथा उत्प्रेषण (सराशयारराइ) के प्रकार के लेख भी हैं, अथवा उनमें से किसी को जारी करने की शक्ति रखता है। यह शक्ति उच्चतम न्यायालय का इस संबंध में प्रदत्त शक्ति के समकक्ष है।

प्रत्येक उच्च न्यायालय को अधीन न्यायालयों और न्यायाधिकरणों के अधीक्षणों की शक्ति दी गई है। विशेष मामलों को उच्च न्यायालय को हस्तांतरण करने का अधिकार है।

संसद् को विधि द्वारा किसी उच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकार का विस्तार अथवा अपविजन किसी संघ राज्यक्षेत्र में या राज्यक्षेत्र से कर सकने का अधिकार है। इसके अतिरिक्त संसद् को विधि द्वारा दो या अधिक राज्यों के लिए अथवा दो या अधिक राज्यों और एक संघ राज्यक्षेत्र के लिए एक उच्च न्यायालय स्थापित करने का अधिकार है।

यह उल्लेखनीय है कि उच्च न्यायालयों के समस्त क्षेत्राधिकारों में अपोलो क्षेत्राधिकार बहुत विस्तृत एवं महत्वपूर्ण हैं। (जि.कु.मि.)

भारतीय संसद् ने 10 अक्टूबर, 1949 को प्रिवी कौसिंल अधिकार क्षेत्र उन्मूलन अधिनियम के द्वारा प्रिवी कौंसिल के समक्ष अनिर्णीत वादों को सर्वोच्च न्यायालय को समर्पित कर दिया। सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय संविधान के अंतर्गत 26 नवंबर, 1949 को कलकत्ता उच्च न्यायालय का पुनर्गठन होने के बाद इसका अधिकारक्षेत्र चंदरनगर एवं अंडमन-निकोबार-द्वीपसमूह तक बढ़ा दिया गया। 1 जुलाई, 1954 से हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय स्वतंत्र रूप से कार्य करने लगा।

राज्य पुनर्गठन आयोग अधिनियम 1956,1 नवंबर, 1956 से लागू हुआ तथा सभी राज्यों एवं केंद्रशासित प्रदेशों के वर्गीकरण के बाद सभी राज्यों एवं केंद्रशासित प्रदेशों के लिए अलग-अलग एवं स्वतंत्र उच्च न्यायालयों की स्थापना एवं पुनर्गठन की व्यवस्था दी गई है। ट्रावनकोर एवं कोचीन के स्थान पर केरल राज्य एवं केरल उच्च न्यायालय की स्थापना हुई। हैदराबाद राज्य को भारतीय संघ में शामिल करने के बाद इसको आंध्रप्रदेश में मिला दिया गया। आंध्र उच्च न्यायालय 1 अक्टूबर, 1953 से आंध्र राज्य अधिनियम 1953 के अंतर्गत कार्य कर रहा था परंतु पुनर्गठन आयोग ने मद्रास उच्च न्यायालय, जिसे अब तमिलनाडु उच्च न्यायालय कहा जाता है, तथा आंध्र उच्च न्यायालय के अधिकारक्षेत्रों की पुनर्व्यवस्था कर दी। इसके साथ ही पुरानी रियासतों के प्रदेश राजस्थान एवं राजस्थान उच्च न्यायालय का भी पुनर्गठन किया गया। जम्मू एवं कश्मीर उच्च न्यायालय सदरे रियासत महाराज कश्मीर के साथ ही साथ 1 नवंबर, 1956 से भारतीय संविधान के अंतर्गत विशेष स्थिति के साथ मान्य हो गया।

बंबई पुनर्गठन अधिनियम 1960 के द्वारा 1 मई, 1960 को गुजरात एवं महाराष्ट्र दो अलग-अलग राज्य बन गए। अत: गुजरात तथा महाराष्ट्र उच्च न्यायालयों की स्थापना तथा पुनर्गठन किया गया। महाराष्ट्र उच्च न्यायालयों की एक स्थायी बेंच नागपुर में पुन:स्थापित हो गई। मैसूर उच्च न्यायालय, जिसे अब कर्नाटक् उच्च न्यायालय कहते हैं, 25 दिसंबर, 1961 से पुनर्गठित किया गया।

गोआ, दमण तथा दीव 20 दिसंबर, 1961 को भारतीय संघ में सम्मिलित हुए तथा 5 मार्च, 1962 को गोआ, दमण तथा दीव अधिनियम 1962 द्वारा उनका एक केंद्रशासित प्रदेश बना और इसे महाराष्ट्र उच्च न्यायालय के अधीन करके इसके लिए पृथक्‌ एकन्यायिक आयुक्त की व्यवस्था कर दी गई। परंतु 16 दिसंबर, 1963 से गोआ-दमण-दीव न्यायिक आयुक्त (उच्च-न्यायालय-घोषणा) अधिनियम, 1964 द्वारा गोआ उच्च न्यायालय के नाम से स्वतंत्र रूप से कार्य करने लगा।

1 दिसंबर, 1963 से आसाम उच्च न्यायालय का अधिकारक्षेत्र नागालैंड केंद्रशासित प्रदेश तक कर दिया गया अब अरुणाचल, मिजोराम, एवं नागालैंड प्रदेशों तक व्याप्त है।

पंजाब पुनर्गठन अधिनियम 1966 के द्वारा पंजाब एवं हरियाणा राज्यों की पुन: स्थापना हुई एवं पंजाब उच्च न्यायालय का अधिकारक्षेत्र दोनों राज्यों तक बढ़ा दिया गया। इसी प्रकार 1966 ई. से दिल्ली उच्च न्यायालय भी पंजाब उच्च न्यायालय की शाखा न होकर एक स्वतंत्र एवं अलग उच्च न्यायालय के रूप में कार्य करने लगा।

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