उड़ती नदी, बहता बादल

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मेघ ही वे कहार हैं, जो नदी-नाले, गाड़-गधेरे और कुआँ-बावड़ी, ताल-तलैया- हर जलस्रोत में पानी भरते हैं। मेघ प्रति वर्ष यह काम सचमुच कश्मीर से कन्याकुमारी तक अथक करते हैं। मेघ बड़े बहादुर कहार हैं। ये खूब भारी डोली यानी सारा तरल वाष्प लेकर हजारों मील दूर से भारत की यात्रा केरल से शुरू करते हैं। हमारे यहाँ मानसून हिन्द महासागर, अरब सागर और बंगाल की खाड़ी से आता है। कभी-कभी मानसून जम्मू-कश्मीर की सीमाओं को पार कर पाकिस्तान होते हुए ईरान की ओर यात्रा पर चला जाता है, तो कभी पूर्वी सीमा पार कर जापान की ओर।

दिल्ली तक आते-आते ये मेघ लगभग पच्चीस सौ से चार हजार किलोमीटर की यात्रा कर चुके होते हैं। बूँद, बारिश, मेघ और मानसून के इस मिले-जुले खेल का रूप है वर्षाऋतु। प्रकृति ने धरती की सतह का दो-तिहाई भाग को समुद्र बनाया है। पानी की कोई कमी नहीं छोड़ी है। सूरज की तपस्या से, सूरज के तपने से समुद्र का पानी भाप बनता है। बूँद-बूँद भाप बनकर ऊपर उठती है और नीचे जो खारा समुद्र है, उसका कुछ अंश उठाकर आकाश में निर्मल जल का एक और सागर तैरा देती है।

सूरज का उत्तरायण और दक्षिणायन की दिशा लेना भारतीय मानसून के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है। मकर संक्रान्ति हमारे मानसून का एक क्रान्तिकारी दिन है। इसी दिन सूरज की किरणें दक्षिण से उत्तर की दिशा की ओर बढ़ने लगती हैं और मैदानी इलाकों के मौसम में गर्मी आनी शुरू हो जाती है। धीरे-धीरे मार्च, अप्रैल व मई माह में सूरज की किरणें धरती की कर्क रेखा के नजदीक आती जाती हैं। तब धरती के उत्तरी भू-भागों में तपिश और गर्मी बढ़ती जाती है। ठीक इसके उलट, धरती के दक्षिणी हिस्सों में तापमान कम होता जाता है। धरती के उत्तरी हिस्सों में हवाएँ गर्म होकर वायुमण्डल में बहुत ऊपर की ओर उठने लगती हैं। इससे एक खालीपन बन जाता है। इसे मौसम विभाग के लोग ‘डिप्रेशन’ कहते हैं। यह शून्य ही अरब की खाड़ी और हिन्द महासागर से जलवाष्प भण्डारों को उत्तर की ओर बुलाता है।

तापमान के इस बारीक अंतर से मानूसन के किसी एक आम दिन मेघ रूपी कहार 7500 करोड़ टन जलवाष्प हमारे देश के मैदानों, पहाड़ों की ओर लेकर आते हैं। औसतन प्रतिदिन 2500 करोड़ टन पानी बूँद के रूप में धरती पर बरसता है। हर साल भारतीय मानसून में लगभग 4 लाख करोड़ टन पानी सागर से उठकर आसमान में उड़ते हुए हमारे देश की धरती पर आता है।

सागर की अथाह जलराशि से भाप की इन बूँदों के बनने का क्रम हम देख नहीं सकते, लेकिन जब सागर से विशाल जलवाष्प लेकर ये मेघ कहार चलते हैं, तो जलवाष्पों से बने बादलों के कई-कई रूप हमें दिखाई देने लगते हैं।

गंगा-अवतरण के लिए भगीरथ बनने पर गंगा का आशीर्वाद आज भी मिलता है। जहाँ भी प्यार से, श्रद्धा से आकाश गंगा को किसी ने सहेजा, वहाँ आज भी एक नई गंगा प्रकट हो ही जाती है। जिसे भी देखना है, वह पौड़ी गढ़वाल के ऊफरैंखाल गाँव में जाएँ। वहाँ अभी एक दो दशकों के भीतर ही एक नई गंगा उद्गमित, अवतरित हुई है। पहले यह नदी सूखी थी। आज उस क्षेत्र में अनगिनत छोटी-छोटी चाल और खाल बनाई गई हैं। ताल से छोटी होती हैं खाल और चाल। इन सबमें आकाश गंगा का पानी रुका तो जो नदी वहाँ न जाने कब से सूखी पड़ी थी, वह बह निकली है। कृतज्ञ लोगों ने अब उसे नया नाम दिया है- गाड़गंगा।बादलों के रूप में जल की यह विशाल राशि हर साल बरसती है। ये एक तरह से आकाश गंगा है। यह व्योम-प्रवाही गंगाजल। हम इसे गंगाजल कहेंगे, क्योंकि इस जल से ज्यादा शुद्ध, किसी नदी तालाब की तो बात छोड़िए बड़ी कम्पनियों का बोतलबंद पानी भी नहीं होता। वर्षा जल को कई वर्षों तक के लिए रख दीजिए वह खराब नहीं होगा। शुद्धता और गुणवत्ता के हर मानक पर यह सबसे उत्कृष्ट जल है। श्री अमृतलाल बेगड़ के शब्दों में पानी जब समुद्र से आता है तब बादल और जब वापस समुद्र में जाता है तो नदी कहलाता है। बादल उड़ती नदी है, नदी बहता बादल है!

गंगा की कहानियों में आकाश से उसके आने का संदर्भ है, पर हम शायद इस घटना को एक पुरानी घटना के रूप में ही याद रखने लगे हैं। जरूरत है कि हर साल आकाश से उतरने वाली इस आकाशी गंगा को हम गहरे तक याद रखें, तन-मन से उसका स्वागत करें और भगीरथ की तरह उसको रास्ता दिखाएँ। एकाध वर्ष नहीं हर वर्षा में, हर साल।

ये कहार बारिश की विशाल जलराशि को दक्षिण से उत्तर तक यानी कन्याकुमारी से कश्मीर तक बरसाते घूमते रहते हैं। मेघों को बुलाने के लिए लोग तरह-तरह से श्रद्धावनत जतन करते रहते हैं। कहीं नई बहुएँ हल चलाने का उपक्रम करती हैं। कहीं छोटे बच्चों की नंग-धड़ंग टोलियाँ गाँव में ‘मेघा सारे पानी दे, नाहीं त आपन नानी दे’ गाते घूमती हैं, तो कहीं यज्ञ या अल्लाह की खास इबादत कर मेघों के आने की दुआ माँगी जाती है।

मेघों के पास जहाँ का संदेशा पहुँचा वहाँ ज्यादा बरस जाते हैं, तो बाज वक्त कुछ इलाकों में कम भी बरसते हैं या उन्हें बिसरा भी जाते हैं। यह ज्यादा-कम होने का खेल प्रकृति का अपना ही है। इस पर कोई सवाल करना बेमानी ही होगा। पिछले वर्ष मध्यप्रदेश-उत्तर प्रदेश में दाएँ-बाएँ पसरे हुए बुंदेलखंड में औसत आठ सौ मिलीमीटर से करीब डेढ़ गुनी, यानी लगभग साढ़े ग्यारह सौ मिलीमीटर तक बारिश हुई। कोई-कोई साल बुंदेलखंड का ऐसा भी होता है, जब पाँच सौ मिलीमीटर से कम भी बारिश होती है। जरूरी है कि प्रकृति के इस खेल को समझें। जब ज्यादा पानी आए तो ताल-तलैयों को भर लें और जब भी कमी या अकाल का साल आ पड़े तो उससे काम चला लें।

नए विज्ञान, सिविल इंजीनियरिंग की निगाह से देखें। अब तो बस हम इन्तजार करते हैं कि आकाशगंगा का दिया हुआ पानी पठार-पहाड़, गाँव-गिराँव, खेत-खलिहान से होता हुआ जब नदी में आए तब हम एक बड़े बाँध में उसे रोकें और नहर बनाकर खेतों में पहुँचायें। जब हमारे खेतों में बारिश का पानी आता है, तो उस समय क्या करना है यह अभी भी ठीक से किसी नए विज्ञान का विषय बन नहीं पाया है। खेत का पानी खेत में व खेत की जरूरत पूरी होने के बाद बारिश का पानी प्यार से धरती के पेट में पहुँचाने की जरूरत है।

आज तो पहले वर्षा का पानी बाँधों में जमा होता है, फिर बड़ी नहरों छोटी नहरों, और कुलावों से होता हुआ जब हमारे खेतों में पहुँचता है, तो कुल बारिश का लगभग दसवाँ हिस्सा ही हमारे काम में आता है। लेकिन यदि हम खेत का पानी खेत में और बाकी धरती के पेट में वाला मंत्र अपना लेते हैं, तो बारिश के एक तिहाई या आधे पानी तक का उपयोग कर सकते हैं।

खेत के लिए सिंचाई और शहरों-गाँवों के प्यासे घड़े के लिए जल वितरण की जितनी भी आधुनिक मानी जा रही पद्धतियाँ हैं उन सब में प्रमुख बात नदी जल और भू-जल के उपयोग की है। ‘नदी जोड़ो’ जैसी अव्यावहारिक योजनाएँ ऐसी ही बातों का परिणाम हैं। मध्यप्रदेश में नर्मदा का पानी क्षिप्रा में डालकर क्षिप्रा को तथाकथित जीवनदान दिया गया है। क्षिप्रा का अर्थ होता है ‘तेज बहने वाली नदी।’ नर्मदा का पानी डालकर क्षिप्रा को बहाने की कोशिश कितनी सार्थक होगी? नर्मदा घाटी में बहती है। क्षिप्रा ऊपर पठार पर। नर्मदा का पानी क्षिप्रा में डालने के लिए चार बार पम्प करना पड़ता है। पम्पिंग मशीनों को चलाने के लिए काफी ऊर्जा की जरूरत होती है।

मध्यप्रदेश सरकार के अनुसार लगभग 108 करोड़ रुपए हर वर्ष ऊर्जा पर खर्च हो रहा है। वैसे यह भी सरकार का पुराना अनुमान है। सरकार पनबिजली, परमाणु, डीजल और कोयला जलाकर कब तक यह ऊर्जा लेती रहेगी। जहाँ क्षिप्रा बहती है, उस पूरे इलाके की औसत वार्षिक वर्षा लगभग 800 मिलीमीटर है। दिल्ली की औसत वार्षिक वर्षा 700 मिलीमीटर के आस-पास है। किसी ने यह नहीं सोचा कि इतना पानी गिरता है तो यह नदी सूख क्यों गई?

गंगा-अवतरण के लिए भगीरथ बनने पर गंगा का आशीर्वाद आज भी मिलता है। जहाँ भी प्यार से, श्रद्धा से आकाश गंगा को किसी ने सहेजा, वहाँ आज भी एक नई गंगा प्रकट हो ही जाती है। जिसे भी देखना है, वह पौड़ी गढ़वाल के ऊफरैंखाल गाँव में जाएँ। वहाँ अभी एक दो दशकों के भीतर ही एक नई गंगा उद्गमित, अवतरित हुई है। पहले यह नदी सूखी थी। आज उस क्षेत्र में अनगिनत छोटी-छोटी चाल और खाल बनाई गई हैं। ताल से छोटी होती हैं खाल और चाल। इन सबमें आकाश गंगा का पानी रुका तो जो नदी वहाँ न जाने कब से सूखी पड़ी थी, वह बह निकली है। कृतज्ञ लोगों ने अब उसे नया नाम दिया है- गाड़गंगा। यही मुक्ति का मार्ग है। हर साल पड़ने वाले अकाल और आने वाली बाढ़ से मुक्ति का मार्ग है।

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