उद्योग, विकास और पर्यावरण

14 Jul 2011
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हमें यह सोचना होगा कि पर्यावरण को क्षति पहुंचाए बिना औद्योगीकरण कैसे हो सकता है ताकि रोज़गार के अवसर बढ़ें और देश में समृद्धि आए। हम इक्कीसवीं सदी में प्रवेश कर चुके हैं और सत्रहवीं सदी की मानसिकता से हम देश का विकास नहीं कर सकते। नई स्थितियों में नई समस्याएं हैं और उनके समाधान भी पुरातनपंथी नहीं हो सकते।

राज्य की आर्थिक प्रगति और विकास के विश्लेषण में यदि इन मानकों को भी शामिल कर लिया जाए तो राज्य के वास्तविक विकास को बेहतर समझा जा सकता है। पर्यावरण स्थिरता सूचकांक तय करना इस दिशा में एक महत्त्वपूर्ण प्रयास है। यह एक लंबी बहस है कि उद्योगों से पर्यावरण पर क्या असर पड़ता है। अभी तक इस पर कोई समग्र और आधिकारिक अध्ययन उपलब्ध नहीं था, क्योंकि इसके लिए आवश्यक कोई दीर्घकालीन आंकड़े ही उपलब्ध नहीं थे। हालांकि अब इस क्षेत्र में कुछ प्रगति हुई है कुछ नए और उपयोगी अध्ययन सामने आए हैं। इन अध्ययनों से किसी अंतिम निष्कर्ष पर चाहे न पहुंचा जा सके, पर ये एक निश्चित दिशा की ओर इंगित अवश्य करते हैं। चेन्नई में स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ फाइनांशियल मैनेजमेंट एंड रिसर्च का ताजा अध्ययन ‘एन्वायरन्मेंटल सस्टेनेबिलिटी इंडेक्स फार इंडियन स्टेट्स’ (भारतीय राज्यों का पर्यावरण स्थिरता सूचकांक) 28 राज्यों की स्थितियों की जांच पड़ताल का नतीजा है। इस अध्ययन में पांच प्रमुख मानक थे।

ये हैं, जनसंख्या का दबाव, पर्यावरण पर दबाव, पर्यावरण प्रणालियां, पर्यावरण और स्वास्थ्य पर प्रभाव तथा पर्यावरण प्रबंधन। इन राज्यों में अध्ययन के समय वायु प्रदूषण, वायु की गुणवत्ता, जल प्रदूषण, कूड़े की उत्पत्ति आदि का भी ध्यान रखा गया। यह सच है कि आर्थिक प्रगति से किसी राज्य के असली विकास का पूरा चित्रण नहीं हो पाता क्योंकि इसमें पारिस्थितिक और प्राकृतिक संसाधनों पर उसके प्रभाव की चर्चा नहीं होती। राज्य की आर्थिक प्रगति और विकास के विश्लेषण में यदि इन मानकों को भी शामिल कर लिया जाए तो राज्य के वास्तविक विकास को बेहतर समझा जा सकता है। पर्यावरण स्थिरता सूचकांक तय करना इस दिशा में एक महत्त्वपूर्ण प्रयास है। इस तरह से राज्य के विकास और पर्यावरण की आवश्यकताओं का विश्लेषण करके प्राथमिकताओं को तय करना आसान हो जाता है। इंस्टीट्यूट ऑफ फाइनांशियल मैनेजमेंट एंड रिसर्च के ‘भारतीय राज्यों के पर्यावरण स्थिरता सूचकांक’ नामक अध्ययन से प्राथमिकताएं तय करने में मदद मिलेगी।

इंस्टीट्यूट ऑफ फाइनांशियल मैनेजमेंट एंड रिसर्च ने जब भिन्न-भिन्न राज्यों के पर्यावरण स्थिरता सूचकांक का अध्ययन किया तो यह पाया गया कि पर्यावरण स्थिरता सूचकांक के मानकों में मणिपुर सबसे आगे है। मणिपुर के बाद क्रमशः सिक्किम, त्रिपुरा, नागालैंड और मिजोरम प्रथम पांच राज्यों में शामिल हैं। उल्लेखनीय है कि छत्तीसगढ़ जहां औद्योगीकरण बहुत अधिक है, सातवें स्थान पर है, जबकि पंजाब, गुजरात, उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान सबसे नीचे की पायदानों पर हैं। सतही तौर पर देखने पर ऐसा लगता है कि चूंकि सिक्किम में बड़े उद्योग नहीं हैं, अतः उसका सबसे ऊपर की पायदान पर होना तथा गुजरात जैसे औद्योगिक प्रदेश का सबसे निचली पायदानों में से एक पर होना स्वाभाविक है, पर यदि जरा बारीक विश्लेषण करें तो एक अलग ही तस्वीर उभरती है। पर्यावरण पर दबाव के मानकों में प्राकृतिक संसाधनों का क्षरण, प्रदूषण, कूड़ा बनना आदि कारक शामिल हैं। इनको ध्यान में रखते हुए यह तय किया जाता है कि किसी राज्य में पर्यावरण की हानि का पैमाना कैसा है।

इंस्टीट्यूट ऑफ फाइनांशियल मैनेजमेंट एंड रिसर्च ने 0-100 के पैमाने पर सभी राज्यों के पर्यावरण दृश्य को परखा, इसमें 100 के निकटतम रहने वाले राज्यों में पर्यावरण का सबसे कम नुकसान हुआ है, जबकि 0 के निकट आने वाले राज्यों में पर्यावरण का नुकसान सर्वाधिक है। विश्लेषण में मणिपुर को 98, हिमाचल प्रदेश को 82, छत्तीसगढ़ को 77, महाराष्ट्र को 51, गुजरात को 30 और गोवा को 27 अंक मिले हैं। उपरोक्त अंक तालिका से स्पष्ट है कि गोवा को गुजरात से भी कम अंक मिले, जबकि महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ को गोवा के मुकाबले में बहुत अधिक अंक मिले। सब जानते हैं कि गोवा की प्रसिद्धि उद्योगों के कारण नहीं है और महाराष्ट्र तथा छत्तीसगढ़ जहां औद्योगीकरण बहुत अधिक है, वहां वातावरण का नुकसान गोवा जैसा नहीं है। इस तालिका से यह सिद्ध होता है कि यह आवश्यक नहीं है कि किसी राज्य में पर्यावरण का नुकसान उद्योगों के ही कारण होगा, यानी यह भी आवश्यक नहीं है कि उद्योग पर्यावरण के लिए नुकसानदेह होंगे ही। इसी प्रकार जब प्राकृतिक संसाधनों के क्षरण का विश्लेषण किया गया तो यह पाया गया कि गुजरात में यह नुकसान सबसे ज्यादा है, जबकि महाराष्ट्र में वैसा नहीं है।

छत्तीसगढ़ को यहां भी अच्छे नंबर मिले हैं और हिमाचल प्रदेश ने, जहां पिछले कुछ वर्षों में औद्योगीकरण हुआ है, काफी अच्छे नंबर लिए हैं। अतः यह कहना गलत नहीं होगा कि औद्योगीकरण से प्राकृतिक संसाधनों का नुकसान सीधे जुड़ा हुआ नहीं है, वरना हिमाचल प्रदेश और छत्तीसगढ़ जहां सीमेंट प्लांट भी हैं, प्राकृतिक संसाधनों के क्षरण में सबसे आगे होता, जबकि वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है। पहाड़ी राज्य होने के कारण उत्तरांचल व हिमाचल प्रदेश जैसे राज्यों में अक्सर औद्योगीकरण को लेकर पर्यावरण संतुलन तथा प्राकृतिक संसाधनों के क्षरण की बहस चलती है। लोगों में और कई बार मीडिया में भी इस बहस को लेकर भ्रम की स्थिति बनी रहती है क्योंकि लोगों के पास असल विकास या पर्यावरण के नुकसान को मापने का कोई मान्य, वैज्ञानिक अथवा तर्कसंगत तरीका नहीं होता। कई लोग भिन्न-भिन्न कारणों से औद्योगीकरण के खिलाफ हैं।

उनमें से कई कारण वैध हैं लेकिन बहुत बार या तो किसी निहित स्वार्थ के कारण अथवा अज्ञान और गरीबी की मानसिकता के कारण भी लोग बड़े उद्योगों का विरोध करते हैं। वे यह भूल जाते हैं कि सरकारी नौकरियों का जमाना खत्म हो गया है, कृषि लाभदायक व्यवसाय नहीं रह गया है और विकास के लिए और रोज़गार के नए अवसर पैदा करने के लिए आपको बड़े उद्योगों का सहारा लेना ही पड़ेगा। देश में गरीबी की समस्या को हल करने का एकमात्र तरीका रोज़गार के नए अवसरों को पैदा करना है। इसके लिए उद्यमों की जरूरत है। कृषि क्षेत्र में पहले से ही बहुत कम पगार पर बहुत से लोग लगे हुए हैं, इसलिए आपको मैन्युफेक्चरिंग और सेवा क्षेत्रों में रोज़गार पैदा करना होगा। अतः हमें यह सोचना होगा कि पर्यावरण को क्षति पहुंचाए बिना औद्योगीकरण कैसे हो सकता है ताकि रोज़गार के अवसर बढ़ें और देश में समृद्धि आए। हम इक्कीसवीं सदी में प्रवेश कर चुके हैं और सत्रहवीं सदी की मानसिकता से हम देश का विकास नहीं कर सकते। नई स्थितियों में नई समस्याएं हैं और उनके समाधान भी पुरातनपंथी नहीं हो सकते। यदि हमें गरीबी, अशिक्षा से पार पाना है और देश का विकास करना है तो हमें इस मानसिक यात्रा में भागीदार होना पड़ेगा जहां हम नए विचारों को आत्मसात कर सकें और ज़माने के साथ कदम से कदम मिलाकर चल सकें।

(लेखक, वरिष्ठ जनसंपर्क सलाहकार और विचारक हैं)
 

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