उत्तराखण्ड आपदा की तीसरी बरसी पर सरकार का तोहफा


केन्द्रीय पर्यावरण वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय और केन्द्रीय नदी एवं जल संसाधन मंत्रालय के बीच डिजाइन बदलने पर सहमति बनने के बाद उत्तराखण्ड सरकार ने भी इस मुद्दे पर अपनी सहमति देेने का निर्णय लिया है। अब बाँध के पक्ष में उत्तराखण्ड सरकार और केन्द्र की सरकार दोनों खुलकर सामने आ गए हैं और वे अक्टूबर में होने वाली सुनवाई में सर्वोच्च न्यायालय से बाँधों को इजाजत दिलाने के लिये एक खास एक्शन प्लान के साथ न्यायालय में हाजिर होंगे। उत्तराखण्ड की आपदा को अभी तीन साल हुए हैं। उत्तराखण्ड आपदा की इस तीसरी बरसी पर केन्द्र सरकार और उत्तराखण्ड सरकार मिलकर जनता को एक ‘तोहफा’ देने की योजना बना रही है। यह तोहफा नायाब इसलिये है क्योंकि उत्तराखण्ड को सुरक्षा से अधिक यह तोहफा ‘असुरक्षित’ करने वाला है।

आइए बताते हैं कि यह तोहफा वास्तव में है क्या? तीन साल पहले सर्वोच्च न्यायालय ने उत्तराखण्ड में 24 बाँधों के निर्माण पर पर्यावरण सुरक्षा की दृष्टि से रोक लगाई थी। पर अब लगता है अलकनंदा और भागीरथी नदी पर प्रस्तावित 18 जलविद्युत परियोजनाओं पर रोक हटाई जा सकती है।

अब अविरल नदी की धारा के सवाल पर केन्द्र सरकार और राज्य सरकार के बीच किसी तरह का टकराव भी नहीं दिख रहा है। इसलिये रोक हटने की सम्भावना बढ़ गई है। बताया जा रहा है कि अविरल धारा की समर्थक रही मंत्री उमा भारती इस समय ‘बाधा’ के सवाल पर मौन सहमति की मुद्रा में हैं।

इसी का परिणाम है कि केन्द्रीय जल संसाधन मंत्रालय और पर्यावरण मंत्रालय ने कुछ शर्तों के साथ बाँध निर्माण को इजाजत देने का मन बना लिया है। वहीं बाँध निर्माण की इजाजत लेने के लिये प्रदेश सरकार भी भागीरथी व अलकनंदा नदियों में प्रस्तावित बाँधों के डिजाइन में फेरबदल करने की तैयारी में हैं।

हाल में केन्द्रीय पर्यावरण वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय और केन्द्रीय नदी एवं जल संसाधन मंत्रालय के बीच डिजाइन बदलने पर सहमति बनने के बाद उत्तराखण्ड सरकार ने भी इस मुद्दे पर अपनी सहमति देेने का निर्णय लिया है। अब बाँध के पक्ष में उत्तराखण्ड सरकार और केन्द्र की सरकार दोनों खुलकर सामने आ गए हैं और वे अक्टूबर में होने वाली सुनवाई में सर्वोच्च न्यायालय से बाँधों को इजाजत दिलाने के लिये एक खास एक्शन प्लान के साथ न्यायालय में हाजिर होंगे।

परियोजना से जुड़े नए बदलाव और नई तैयारी के सम्बन्ध में सरकार का पक्ष नदी की अविरल धारा को बनाए रखने के दावे से ही शुरू होता है। मतलब सरकार कह रही है कि बाँध भी बनेगा और नदी की धारा बाधित भी नहीं होगी।

नदी में इतना पानी रहने का दावा है कि गर्मी के मौसम में भी नदी में मौजूद पानी जलीय जीवन और जैव विविधता को बचाए रखने में सक्षम होगा। नदी की धारा की अविरलता को बनाए रखने के लिये बाँध के ऊपर के हिस्से की नदी की धारा नीचे की धारा के साथ मिली रहे, इस बात की चिन्ता नए प्रस्ताव में किये जाने की बात की जा रही है।

यह भी दावा किया जा रहा है कि इससे नदी का न्यूनतम निर्धारित जल प्रवाह बना रहेगा। किसी प्रकार के बाँध के नए डिजाइन से जैव विविधता पर असर नहीं पड़ेगा, इस बात पर यकीन करना पर्यावरणविदों के लिये भी कठिन हो रहा है। लेकिन इन दावों के साथ सबसे महत्त्वपूर्ण बात जिम्मेवारी तय करने की है।

यदि जिस तरह के दावे बाँध बनाते हुए किये जा रहे हैं, यदि वे दावे पूरे नहीं हुए तो इसके लिये बाँध बनाने वाली कम्पनी समेत, उत्तराखण्ड और केन्द्र की सरकार दावा पूरा ना करने की जिम्मेवारी लेने को तैयार है? क्या वे दावा पूरा ना होने पर खुद को सजा का हकदार मानने को तैयार है? चूँकि यह मामला बेहद संवेदनशील है, हजारों लोगों के जीवन से जुड़ा है, इसलिये कोई भी निर्णय लेते हुए न्यायालय को काफी सोच विचार करना चाहिए और जब तक जिम्मेवारी तय नहीं होती, तब तक सारे दावे खोखले ही माने जाएँगे।

इस वक्त बाँध कम्पनियों के फँसे हजारों करोड़ों रुपयों का दबाव केन्द्र और उत्तराखण्ड सरकार पर कितना है, इस बात का अनुमान आप लोगों के लिये भी लगा पाना कठिन नहीं होगा क्योंकि पहले जल संसाधन मंत्रालय ही लगातार अविरल गंगा का तर्क देकर बाँध निर्माण का विरोध करता था।

यहाँ उल्लेखनीय है कि जिन 18 बाँध परियोजनाओं के लिये केन्द्र सरकार और उत्तराखण्ड सरकार मिलकर नियम कायदों पर सहमति बना रहे हैं, उसकी अनुमानित लागत 21 हजार 800 करोड़ रुपए मात्र है।

इन परियोजनाओं से जुड़े खतरों से सम्बन्धित कोई बात सरकार के प्रतिनिधि इस समय सुनने को भी तैयार नहीं हैं। इसका मतलब है कि सरकार फैसला कर चुकी है कि बाँध के सम्बन्ध में उसे क्या स्टैंड लेना है। उसे इस बात कि चिन्ता नहीं है कि इस तरह की परियोजनाएँ ना सिर्फ नदी के जल जीवन को प्रभावित करती हैं बल्कि नदी के किनारे रहने वाले जीवों के जीवन को भी वह बूरी तरह प्रभावित करती हैं।

मंत्रालय द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में पहले जो हलफनामा दिया गया था, उसके अनुसार - ‘‘बाँधों के कारण ही उत्तराखण्ड आपदा भयानक तबाही की वजह बनी।’’ जैसाकि हलफनामा से जाहिर है कि एक तरफ बाँध किसी भी कीमत पर मंजूर नहीं थे लेकिन अब 1916 के एक समझौते का कीमिया सरकार के हाथ लग गया है, जिसे वह अपने नए डिजाइन में आधार बना सकती है। सन 1916 के समझौते के अनुसार- गंगा में कम-से-कम 1000 क्यूसेक पानी का प्रवाह सुनिश्चित करने की बात है।

बहरहाल केन्द्र और उत्तराखण्ड की सरकार की जुगलबन्दी बाँध के मुद्दे पर देखने लायक है और सबकुछ समझने के बावजूद जनता बेबस है। वह क्या करे?

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