उत्तराखण्ड लिखेगा पानी की नई कहानी

5 Jan 2018
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मुख्यमंत्री ने शुरू कराई अनूठी पहल, शौचालयों के फ्लश में डाली रेत से भरी बोतलें

एक समय में सूख चुकी गाड़गंगा ने सदानीरा रूप ले लिया, उससे उम्मीद जगी है कि यदि चाल-खाल की परिकल्पना पर काम किया जाये तो उत्तराखण्ड में जलक्रान्ति आ सकती है। यह प्रयास इसलिये जरूरी भी है कि प्रदेश में 200 से अधिक छोटी-बड़ी नदियाँ लगभग सूख चुकी है, या बरसाती नदी में तब्दील हो चुकी हैं। इस दिशा में शुभ संकेत भी मिल रहे हैं, क्योंकि राज्य सरकार चाल-खाल की परिकल्पना पर काम करने की तैयारी कर रही है। उत्तराखण्ड में पानी की नई कहानी लिख डालने की मजबूत शुरुआत हो चुकी है। बीते वर्ष मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने एक ऐसी पहल की, जिसके दम पर सूक्ष्म प्रयास से ही हर साल 14.74 लाख लीटर पानी बचाने का इन्तजाम कर लिया गया है। मुख्यमंत्री के आह्वान पर प्रदेश भर में शौचालय के फ्लश में रेत से भरी बोतल डालने की मुहिम शुरू की गई थी, जिसका असर यह हुआ कि बोतल में भरी रेत के भार के बराबर पानी हर फ्लश के बाद कम जमा होने लगा और उतना ही पानी फ्लश भी होने लगा। सरकार के ही आँकड़ों के अनुसार, राज्य में अब तक 2.73 लाख से अधिक बोतलें फ्लश में इस्तेमाल की जा रही हैं। नए साल पर यह उम्मीद है कि यह प्रयास और अधिक लोगों तक पहुँचेगा और जल संरक्षण को नया आयाम मिल सकेगा।

पानी की इस बचत की ठोस शुरुआत के बाद नए साल में जल संरक्षण का और भी बड़ा और विविधता भरा लक्ष्य रखा गया है। वजह है कि राज्य के 40 फीसद से अधिक गाँवों में मानक के अनुरूप पानी की आपूर्ति नहीं हो पा रही। जबकि 92 से 69 नगर निकायों को मानक से कम पानी मिल रहा है। पानी की इस कमी को पूरा करने के लिये राज्य के 5000 प्राकृतिक जलस्रोतों को पुनर्जीवित करने की कवायद शुरू की गई है। उत्तराखण्ड पेयजल निगम ने इसके लिये 250 करोड़ रुपए का प्रस्ताव तैयार किया है। पहले फेज में दो हजार स्रोतों को पुनर्जीवित करने का निर्णय लिया गया है। साथ ही जलस्रोतों की मैपिंग और उसकी मॉनीटरिंग के लिये भी करीब 12 करोड़ रुपए खर्च किये जा रहे हैं। जिससे सभी उपभोक्ता को पानी उपलब्ध कराया जा सकेगा।

भूजल पर भी दबाव कम


समय के साथ पेयजल की आपूर्ति के लिये भूजल पर निर्भरता तेजी से बढ़ी है, इसके चलते भूजल स्तर कम होने का खतरा भी बढ़ रहा है। हालांकि, भूजल पर दबाव कम करने के लिये मुख्यमंत्री ने हाल ही में घोषणा की है कि राज्य में ग्रेविटी (गुरुत्व) आधारित पेयजल योजनाओं को बढ़ावा दिया जाएगा। इसके लिये 1000 करोड़ रुपए की प्रावधान करने की बात कही गई है।

जीएसआई ने भी बढ़ाया सहयोग का हाथ


नए साल पर भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (जीएसआई) विभाग ने केन्द्रीय भूजल बोर्ड के साथ मिलकर उत्तराखण्ड के जलस्रोतों को रीचार्ज करने का बीड़ा उठाया है। इसे लेकर दोनों एजेंसी के बीच हाल ही में एमओयू साइन किया गया है। जलस्रोतों को रीचार्ज करने की शुरुआत अल्मोड़ा से की जा रही है।

राज्य में पानी तस्वीर


1- नेशनल रूरल ड्रिंकिंग वाटर प्रोजेक्ट (एनआरडीडब्ल्यूपी) के अनुसार राज्य के 39,282 गाँव-मजरों में से 21,706 में ही लोगों को मानक के अनरूप पानी मिल रहा है।
2- 2053 गाँव ऐसे हैं, जहाँ पानी की उपलब्धता बेहद कम है। शहरी क्षेत्रों की बात करें तो 92 नगर निकाय में से 23 में ही मानक के अनुरूप पेयजल की आपूर्ति हो पा रही है।

रिस्पना का पुनर्जीवन पकड़ेगा गति


बीते साल सरकारी और गैर सरकारी प्रयास से महज गन्दगी ढोने का जरिया बन चुकी राजधानी की रिस्पना नदी के पुनर्जीवन की शुरुआत की गई। स्वयं मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने रिस्पना के पुनर्जीवन कार्य का शुभारम्भ किया। इस साल यह प्रयास धरातल पर उतरेगा। सरकार का प्रयास है कि नदी के स्रोत को दुरुस्त किया जाये और इसके स्रोतों की संख्या भी बढ़ाई जाएगी। सरकार के साथ ईको टास्क फोर्स, मेकिंग ए डिफ्रेंस बाय बीइंग दि डिफ्रेंस (मैड) संस्था पूरे जोश के साथ इस काम में लगे हैं। वर्ष 2018 में सहयोग के यह हाथ और व्यापक हो सकते हैं। रिस्पना के साथ दून की बिंदाल नदी को भी पुनर्जीवित करने के लिये रिवर फ्रंट डेवलपमेंट प्लान के भी इस साल रफ्तार पकड़ने की पूरी उम्मीद है।

सदानीरा बनेंगी नदियाँ


पौड़ी के उफरैखाल में जिस तरह सच्चिदानन्द भारती के भगीरथ प्रयास से एक समय में सूख चुकी गाड़गंगा ने सदानीरा रूप ले लिया, उससे उम्मीद जगी है कि यदि चाल-खाल (छोटे-छोटे गड्ढे बनाकर पानी जमा करना) की परिकल्पना पर काम किया जाये तो उत्तराखण्ड में जलक्रान्ति आ सकती है। यह प्रयास इसलिये जरूरी भी है कि प्रदेश में 200 से अधिक छोटी-बड़ी नदियाँ (गाड़) लगभग सूख चुकी है, या बरसाती नदी में तब्दील हो चुकी हैं। इस दिशा में शुभ संकेत भी मिल रहे हैं, क्योंकि राज्य सरकार चाल-खाल की परिकल्पना पर काम करने की तैयारी कर रही है। लिहाजा, यह साल चाल-खाल की पारम्परिक विरासत को संजोने में मील का पत्थर साबित हो सकता है।

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