उत्तराखण्ड प्राकृतिक आपदा जून 2013 : एक वैज्ञानिक विवेचना

18 Oct 2016
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प्रागैतिहासिक काल में लगभग 5 करोड़ वर्ष पूर्व भारतीय महाद्वीप व यूरेशियन प्लेट के टकराव से उत्पन्न हिमालय पर्वत श्रृंखला आज भी निर्माण की प्रक्रिया से गुजर रही है। अनवरत रूप से निर्माण-पुनः निर्माण की प्रक्रिया से हिमालय की संरचना में बाहरी व आन्तरिक तोड़-फोड़ व बदलाव जारी रहता है। फलस्वरूप इसका पारिस्थितिकीय तंत्र बहुत ही संवेदनशील एवं नाजुक है। इसके कारण प्राकृतिक आपदायें हिमालय क्षेत्र में विनाशकारी सिद्ध होती हैं। विश्व की सबसे ऊँची एवं लगभग 2400-3000 किमी लम्बी व 150-400 किमी चौड़ी यह पर्वत श्रृंखला कई सदाबहार नदियों का उद्गम स्थल भी है। हिमालय क्षेत्र के वैश्विक पटल पर योगदान का अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यहाँ भी दो प्रमुख नदियों गंगा व सिन्धु का जल संग्रहण क्षेत्र 10,89370 वर्ग मीटर है जोकि विश्व की जनसंख्या के सातवें हिस्से लगभग एक अरब की आबादी का भरण-पोषण करता है। यह जनसंख्या अपनी दैनिक रोजी-रोटी के साथ-साथ पारिस्थितिकीय सेवाओं के लिये भी इसी क्षेत्र पर निर्भर है एवं अधिक जनसंख्या घनत्व व गरीबी के कारण प्राकृतिक आपदाओं के दौरान अधिकतम नुकसान झेलती है। मौसम परिवर्तन हिमालय क्षेत्रों में ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण विश्व में चिन्ता का विषय बन चुका है। क्योंकि यह स्थानीय, आंचलिक व वैश्विक स्तर पर प्राकृतिक, सामाजिक-आर्थिक संसाधनों व पारिस्थितिकीय तंत्र के साथ-साथ मानव जीवन-यापन के लिये भी चुनौती उत्पन्न कर रहा है।

मौसम परिवर्तन के कारण हिमालय को प्रभावित करने वाले प्राकृतिक त्रासदियों जैसे भूकम्प, सूखा, अतिवृष्टि, भूस्खलन, बादल फटना, आकस्मिक बाढ़ व हिमस्खलन आदि में भी अप्रत्याशित बढ़ोत्तरी हो रही है। यद्यपि विगत जून 16-17, 2013 को सम्पूर्ण उत्तर भारत में अतिवृष्टि ने एक प्राकृतिक आपदा का स्वरूप ग्रहण कर सम्पूर्ण क्षेत्र में भयंकर तबाही मचाई किन्तु उत्तराखण्ड राज्य में धार्मिक स्थलों विशेषकर बद्रीनाथ व केदारनाथ में अत्यधिक यात्रियों व पर्यटकों की भीड़ होने के कारण सर्वाधिक जन-धन की हानि का सामना करना पड़ा। उत्तराखण्ड के मुख्य धार्मिक स्थल, गंगा-यमुना नदियों की सहायक नदियों जैसे अलकनन्दा, भागीरथी, मन्दाकनी व टोन्स के उच्च जल संग्रहण क्षेत्र में विद्यमान हैं। (चित्र 1)

fig-1आज तक के ज्ञात इतिहास में उत्तराखण्ड त्रासदी जून 2013 सबसे भयावह घटना रही है। जिसमें 5700 यात्रियों व पर्यटकों को मृत घोषित किया गया तथा लगभग 1,17,000 लोगों को सुरक्षित स्थानों पर पहुँचाया गया। क्षेत्रीय अध्ययनों व उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार 80% सड़कें या तो अनुपयोगी हो गई या वह नष्ट हो गईं। संपूर्ण त्रासदी की भयंकरता का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि इस आपदा में 175 पुल, 1307 सड़कें, 4207 घर, 649 पशुघर नष्ट होने के साथ-साथ 9519 पशुओं की जानें भी गई थीं। उक्त नुकसान के साथ-साथ इस आपदा में फसलों, कृर्षि भूमि, वन, बागवानी आदि की भी अपूर्णनीय क्षति हुई है। विशेषकर उच्च हिमालय क्षेत्रों में जहाँ नकदी फसलों जैसे सेब, राजमा व मौसमी सब्जी पर ही स्थानीय आर्थिक तंत्र निर्भर रहता है, ये अर्थ तंत्र ही समाप्त हो गया। उदाहरणार्थ आपदा के दौरान सड़कों के टूटने के कारण परिवहन व्यवस्था ठप्प हो गई थी। जिसके कारण 1200 टन सबे सड़ गये थे फलस्वरूप लगभग 6 करोड़ का नुकसान किसानों को उठाना पड़ा था।

उक्त प्राकृतिक आपदा के अध्ययन के लिये धरातलीय व वातावरणीय दोनों कारकों का अध्ययन घटना से पर्वू व घटना के बाद किया गया। वैश्विक जलवायु तंत्र व भारतीय मानसनू तत्रं की भूमिका को विस्‍तृत रूप से जाँच-परख कर कारणों का विश्लेषण किया गया है। केदारनाथ घाटी के भू-आकृति व उससे जुड़े सभी कारकों जैसे घाटी की संरचना, बर्फ-ग्लेशियर उपस्थिति, ग्लेशियर मलवा व चौराबारी ताल की भूमिका आदि का विस्तृत अध्ययन किया गया।

आपदा से सम्बन्धित कारकों का अध्ययन करने के पश्चात ज्ञात हुआ कि केदार घाटी क्षेत्र में 115-210 मिमी तथा दून घाटी क्षेत्र में 370 मिमी वर्षा प्रतिदिन होने के कारण जल संग्रहण क्षेत्रों में वाहन क्षमता से अत्यधिक जल प्रवाह हो गया था जिससे जलीय असन्तुलन की स्थिति उत्पन्न हो गई। विशेषकर केदार घाटी में अचानक बाढ़ आने के कारण जल प्रलय द्वारा असीम जन-धन की हानि हुई। जिसको ‘‘हिमालयन सुनामी’’ की संज्ञा दे दी गई थी। वस्तुतः वातावरण के ट्रोपोस्फीयर क्षेत्र (लगभग 17 किमी ऊँचाई) में भारतीय मानसून की पश्चिमी विक्षोभ से जोरदार टक्कर के कारण उत्तर भारत में घनघोर वर्षा अतिवृष्टि के रूप में लगातार कई दिनों तक हुई थी। इस लगातार वर्षा के दौरान उत्तराखण्ड राज्य के कई क्षेत्रों जैसे धनोल्टी, रूद्रप्रयाग, माणा गांव, देवप्रयाग, थलीसैण, चौखुटिया तथा डोवा में बादल फटने जैसी घटनाओं के कारण जन-धन व संसाधनों के नुकसान में और बढ़ोत्तरी हो गई थी। चित्र 2 (टीआरआरएम इमेज) से स्पष्ट है कि सघन मानसून समय से पूर्व उत्तर भारत के ऊपर आच्छादित है। जिसकी विधिवत पुष्टि भारतीय उपग्रह से प्राप्त चित्र द्वारा भी की गई है (चित्र 3)।

भारत वर्ष के मौसम संबंधी इतिहास द्वारा ज्ञात होता है कि सामान्यतः उत्तर-पश्चिमी हिमालय में पश्चिमी विक्षोभ व भारतीय मानसून द्वारा वर्षा की जाती है। किन्तु पश्चिमी विक्षोभ गर्मियों में भारतीय क्षेत्र के बजाय यूरोपीय महाद्वीप में वर्षा करता है एवं शरद ऋतु में भारतीय हिमालय में वर्षा व बर्फबारी करता है। इस क्षेत्र की अधिकांश वर्षा अरब सागर-बंगाल की खाड़ी से उड़ने वाली मानसूनी हवाओं द्वारा जुलाई-सितम्बर में की जाती है। किन्तु अचानक कुछ वैश्विक जलवायु परिवर्तन के कारण पश्चिमी विक्षोभ मानसूनी हवाओं ने पहले संपूर्ण यूरोपीय देशों में मूसलाधार वर्षा की एवं उसके पश्चात अफगानिस्तान होते हुये उत्तर भारतीय क्षेत्र में प्रवेश कर दिया। भारतीय मानसून भी पिछले 60 वर्षों में तीव्रतम होने के कारण समय से पूर्व उत्तर भारत में पहुँच गया, फलस्वरूप वहाँ विद्यमान पश्चिमी-विक्षोभ से टक्कर के कारण अतिवृष्टि के रूप में तब्दील हो गया था।

Fig-2अत्यधिक वर्षा के साथ-साथ मन्दाकिनी नदी के उच्च जल संग्रहण क्षेत्र में स्थित चौराबारी व कम्पेनियन ग्लेश्यरों के आस-पास उपलब्ध बर्फ के पिघले पानी से भी जल प्रवाह काफी बढ़ गया। जिसने केदारनाथ मन्दिर व रामबाढ़ा में 16 तारीख रात को ही काफी नुकसान पहुँचा दिया था। भारतीय मौसम विभाग द्वारा भी जून 13 से 19 के अन्तराल की वर्षा को 1951 से 2000 के औसतन वर्षा से 400% ज्यादा रिकार्ड किया है। सामान्यतः इस अन्तराल में 14.3 मिमी वर्षा होती है जबकि इस बार 71.5 मिमी वर्षा हुई थी। उच्च शिखरीय क्षेत्रों में अतिवृष्टि का आकलन इस बात से लगाया जा सकता है कि लगभग 3866 मी ऊँचाई वाले चौराबारी ग्लेशियर क्षेत्र में 16 व 17 जून को 325 मिमी वर्षा हुई थी। जोकि ज्ञात इतिहास में अनपेक्षित रूप से सर्वाधिक है। यहाँ तक कि बाह्य हिमालय की तलहटी में स्थित शहर देहरादून में भी विगत 50 वर्षों के सापेक्ष जून माह में सर्वाधिक वर्षा 1028.8 मिमी हुई थी। जिसमें से 66% वर्षा (679 मिमी) जून 14 व 17 के दौरान हुई है। उत्तराखण्ड आपदा के दो दिन पश्चात ही अत्यधिक वर्षा के कारण टिहरी बाँध के साथ-साथ राज्य के सभी बाँधों के जलाशय मौसम के औसत से 449% अधिक भर गये थे। जिन्होंने एक बड़ी जलराशि अपने आप में समाहित करके बाँधों के निचले क्षेत्रों में आकस्मिक बाढ़ से होने वाली तबाही से बचा दिया।

किन्तु दुर्भाग्यवश केदारनाथ मन्दिर पूर्ण रूप से ग्लेशियर बहाव क्षेत्र पर ही स्थित है, जो कि ग्लेशियर से आये अवसाद की मोटी परत है तथा वास्तव में बहुत ही असघन है। ऊपर से मन्दिर के उत्तरी छोर पर चौराबारी व कम्पेनियन ग्लेशियर के मलबे का ढेर भी छोटी-छोटी पहाड़ियों के रूप में जमा है।

आपदा की घटना से पूर्व मन्दाकनी नदी का पानी मन्दिर के दायें से बहता था जिसमें कि मन्दिर के बायें ओर से बहने वाली सरस्वती नदी का पानी भी मिल गया था। किन्तु अतिवृष्टि के कारण चौराबारी-कम्पेनियन हिमनदों में स्थित मलबा भी पानी के साथ बह कर मन्दिर की ओर आ गया फलस्वरूप दोनों नदियों का मार्ग 16 जून को ही अवरुद्ध हो गया। सरस्वती नदी अपनी तेज धारा के साथ अपने मूल स्थान मन्दिर के बांये से बहकर विध्वंस मचाने लगी तथा सरस्वती नदी ने सीधे मन्दिर के प्रांगण की ओर प्रवाह कर केदारनाथ मन्दिर व उसके चारों ओर की बसावट को ध्वस्त कर दिया। वहाँ स्थित जन-समूह भी इस आकस्मिक बाढ़ की चपेट में आ गया।

Fig-3 मन्दाकनी नदी में तीन स्थानों पर प्रवाह ग्लेशियर मलबे से अवरुद्ध हो गया था जिसको चित्र 4 व 5 में 1, 2 व 3 नम्बरों से दर्शाया गया है। केदारघाटी की विशेष भू-आकृतिक सरंचना ने इस विध्वंसकारी आपदा में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। विशेषकर केदारनाथ के उत्तर में स्थित चौराबारी ताल के अचानक टूटने से भी 17 तारीख सुबह को ग्लेशियर के मलबे के साथ भयंकर बाढ़ आई जिसने पुनः केदार घाटी में जन-धन व संसाधनों को अत्यधिक क्षति पहुँचाई है। मंदिर के उत्तर दिशा में स्थित ग्लेशियर मलबे के ढेरों के साथ पानी के तीव्र बहाव से इतना ज्यादा कटाव हुआ कि वहाँ लगभग 60 मी. गहरी व 20-30 मी चौड़ी खाईयां बन गईं जिनको कि चित्र 6 में G1, G2 व G3 द्वारा प्रदर्शित किया गया है। और इसी मलबे ने केदारनाथ व रामबाड़ा में प्रलयकारी बाढ़ का स्वरूप ग्रहण कर लिया था।

मलबे के बहाव को चौराबारी ताल के फटने से इकट्ठे छूटे पानी ने भी तीव्र गति से बसावट की तरफ बहाया एवं आपदा को और तीव्रगामी बना दिया। चौराबारी ताल ग्लेशियर मुख से लगभग 85 मी दूर 3900 मी. ऊँचाई पर स्थित है जिसको चित्र 7 द्वारा प्रदर्शित किया गया है। गौरी कुन्ड व केदारनाथ के पुराने 14 किमी की पगडंडी के मध्य में स्थित रामबाड़ा भी आपदा में समूल नष्ट हो गया। लगभग 150 छोटी-बड़ी दुकानों एवं लगभग 2000 मानव धारक क्षमता वाली यह बस्ती आज इतिहास का हिस्सा बन चुकी हैं। चित्र 8 ए में आपदा से पहले का दृश्य दिखाई दे रहा है जबकि चित्र 8 बी में घटना के बाद का चित्र प्रदर्शित है। रामबाड़ा घाटी क्षेत्र एकदम मन्दाकनी नदी के तट पर स्थित होने के कारण अधिकतम जन-धन की हानि का स्थान माना जाता है।

Jpg-4वैज्ञानिक तथ्यों से यह साबित हो चुका है कि चौराबारी ताल से नीचे तलहटी में स्थित होने के कारण रामबाड़ा व केदारनाथ स्थानों पर बाढ़ के साथ अत्यधिक ग्लेशियर मलबा पहुँच गया था जिससे अधिकांश जन-धन जमींदोज हो गया था। केदारनाथ बस्ती से लगभग 316 मी. व रामबाड़ा से 884 मी. की ऊँचाई पर स्थित चौराबारी ताल से तीव्र ढलान होने के कारण अचानक बाढ़ की गति भी तीव्रतम थी। ग्लेशियरों के जल-बर्फ-संग्रहण क्षेत्र 14.39 वर्ग किमी से भी वर्षा व बर्फ पिघलन का पानी इकट्ठा होकर बहने से स्थिति और भी विकराल हो गई थी।

क्षेत्र में भारक क्षमता से अधिक पानी इकठ्ठा होने के कारण स्थानीय वनस्पति भी ढलानों पर मिट्टी को बाँध के नहीं रख सकी जिससे अधिकांश स्थानों पर सतही भूस्खलन हो गये थे। केदारनाथ घाटी के चारों तरफ भी यह दृश्य उत्पन्न हो गया था (चित्र 9)। भूस्खलन व ग्‍लेशियर मलबा नदी में बहने से नदियों के तलछट में जमा हो गया और केदारनाथ मन्दिर के दोनों तरफ बहने वाली नदियों ने अपना प्रवाह मार्ग बदल कर विध्वंस मचा दिया। चित्र 10 में दोनों नदियों के आपदा से पूर्व व आपदा के पश्चात नदी मार्गों को प्रदर्शित किया गया है।

Jpg-5भारतवर्ष के उत्तरी भाग में विशेषकर उत्तराखण्ड में मची इस तबाही को राष्ट्रीय एवं अन्तरराष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा मानवीय दृष्टिकोण से देखा गया एवं तदनुसार राहत, बचाव व पुर्नवास कार्यों में बढ़-चढ़ कर हिस्सेदारी भी की। कुछ पर्यावरणविदों, प्रकृति प्रेमियों व सामाजिक संस्थाओं द्वारा इस आपदा के कारणों पर अपनी टिप्पणियां भी विभिन्न अखबारों, टेलीविजन चैनलों, वेबसाइट व अन्य प्रसार तन्त्रों द्वारा प्रेषित की हैं। कई लोगों का मत था कि उत्तराखण्ड में हो रहे विकासात्मक कार्यों से भूमि-उपयोग परिवर्तन व वनों के विनाश का कारण हो रहा है। विकास कार्यों विशेषकर सड़क निर्माण, जलविद्युत परियोजनाओं को मुख्य निशाना बनाकर इसे आपदा के लिये जिम्मेदार माना जा रहा था। मूल रूप से बैंगलोर स्थित ‘‘बाँध, नदी एवं मानव से सम्बन्धित दक्षिण ऐशिया क्षेत्र के तन्त्र’’ (सेन्टरप) द्वारा यह विचारधारा जोर-शोर से उठाई गई थी। वैज्ञानिक समाज व आम जनमानस में एक प्रकार का भ्रम व संदेह उत्पन्न हो गया था।

इस संबंध में वैज्ञानिक पड़ताल करके पाया गया कि जून, 2013 में घटित उत्तराखंड त्रासदी का राज्य के भू-उपयोग परिवर्तन से कोई संबंध नहीं है, क्योंकि (i) घटना वातावरण के टोपोस्फीयर क्षेत्र में पश्चिमी विक्षोभ व भारतीय मानसून के टकराने से हुई जिसका राज्य के वन विनाश व जल विद्युत योजनाओं से कोई संबंध नहीं है। (ii) भारतीय उपग्रह IRS P6 LISS-III द्वारा भी अक्टूबर 2008 से मार्च 2009 तक वन क्षेत्र कम होने की पुष्टि नहीं की बल्कि उत्तराखंड में वन 45.8% व हिमाचल में 26.37% पाये गये। प्राकृतिक रूप से भी वृक्ष रेखा के बढ़ने से भी वन क्षेत्र बढ़ रहे हैं। (iii) इस आपदा के दौरान अधिकांश बाँध जलाशयों जैसे टिहरी, कालागढ़, छिब्रो आदि ने बाढ़ के पानी को अपने में समेटकर अचानक बाढ़ से क्षेत्रों को सुरक्षित रखा है।

निष्कर्ष एवं सुझाव


1. धरातलीय शोध कार्य व भू-उपग्रह चित्रों व आंकड़ों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि उत्तराखण्ड की आपदा जून, 2013 प्राकृतिक कारणों से घटित हुई थी। किन्तु इस आपदा से अधिक जन-धन व संसाधनों की क्षति, मानवीय कार्य-कलापों विशेषकर नदी की प्रवाह स्थल व तट क्षेत्रों पर मानव बस्ती बसाना था।

2. यह घटना इस बात का उदाहरण प्रस्तुत करती है कि उच्च शिखरीय हिमालय जैसे दुरूह व विषम भौगोलिक परिस्थतियों वाले क्षेत्रों, विशेषकर सर्दी, बर्फवारी व बरसात के मौसम में आपदा बचाव-राहत कार्यों हेतु एक नई ठोस नीति बनाने की आवश्यकता है जिसमे आपदा से पूर्व व पश्चात दोनों की रणनीति हो।

3. आपदा राहत, बचाव व पुर्नवास कार्यों में राज्य-केन्द्र सरकार के साथ-साथ वैज्ञानिक, अभियन्ता, आपदा विशेषज्ञ, स्वंय-सेवी संस्थाओं के साथ स्थानीय निवासियों की प्रमुख सहभागिता होनी आवश्यक है।

4. आपदा के पुर्वानुमान हेतु हिमालय क्षेत्रों में मौसम सम्बन्धी आँकड़ों को एकत्रित करने हेतु डापलर व स्वचालित मौसम केन्‍द्रों का सघन तंत्र स्थापित होना चाहिये।

5. उच्च हिमालय में निर्माण व पुनः निर्माण करने से पूर्व भू-गर्भीय, भू-आकृतिक, भूकम्प एवं अन्य स्थानीय कारक जैसे हिमस्खलन, ग्लेशियर मलबा, नदी कटाव व प्रवाह बदलाव से सम्बन्धित अध्ययन भी पूर्ण रूप से होना चाहिये।

6. निर्माण कार्यों से उत्पन्न मलबे का निष्पादन तथा बंजर भूमि का पुनर्उत्‍थान बायोइजींनियरिंग पद्धति से करना चाहिये जो कि पारिस्थितिकीयजन्य, सस्ती, सतत एवं स्वयं पोषित है। इस पद्धति से न्यूनतम पर्यावरण ह्रास व मलबे का उत्पादन होता है।

7. आपदा के पश्चात अल्प कालिक व दीर्घकालिक दोनों प्रकार की योजनाओं का निर्माण पुनर्वास कार्यों के माध्यम से सामाजिक-आर्थिक तंत्र को पुनर्जीवित करने हेतु आवश्यक है।

8. हिमालय के संवेदनशील क्षेत्रों में पर्यावरणीय क्षति बचाने हेतु आवागमन के लिये वृहत सड़क निर्माण की जगह मार्गों का निर्माण होना चाहिये।

9. आपदा राहत, बचाव व पुनर्वास समीतियों का गठन ग्राम, विकासखण्ड, जनपद स्तर पर कर स्थानीय निवासियों को पर्वतारोहण, बचाव आदि तकनीक से दक्ष करना चाहिये। ताकि संकटकालीन परिस्थतियों में स्थानीय जन-मानस की भागीदारी प्राप्त की जा सके।

(नोट : आलेख में प्रस्तुत मौसम संबंधी आँकड़े वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान, वन अनुसधांन संस्थान, भारतीय मौसम विज्ञान विभाग तथा चित्र 6, 8B, 9-10 मूल रूप से इंडियन ऐक्सप्रेस से प्राप्त किये गये हैं।)

सम्पर्क


पी. एस. नेगी
वा. हि. भूवि. सं., देहरादून


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