उत्तराखंड : बैंबू हट्स का बढ़ रहा आकर्षण

राज्य के बांस एवं रेशा विकास परिषद की खास मुहिम रंग ला रही है। अब इसका उपयोग फर्नीचर बनाने के साथ ही ध्यान केंद्र बनाने में भी हो रहा है

पूर्वोत्तर के बाद अब पहाड़ी राज्य उत्तराखंड में भी बांस लोगों की तकदीर बदलने का जरिया बन रहा है। चारधाम यात्रा मार्ग से लेकर गढ़वाल व कुमाऊं के अनेक क्षेत्रों में बनाए गए 'बैंबू' हट पर्यटकों को खूब भा रहे हैं। चारधाम यात्रा मार्ग में ऐसे घरों को एडवांस बुकिंग मिल रही है। इससे न सिर्फ निगम अधिकारियों के चेहरे खिले हुए हैं बल्कि राज्य में बांस आधारित उद्योगों को भी पंख लगने की पूरी संभावना है। पूर्वोत्तर राज्यों में तो बांस का उपयोग घर बनाने, जलावन लकड़ी, हथियार और बर्तन बनाने तक में किया जाता है जबकि उत्तराखंड में बांस को बहुत उपयोगी नहीं समझा जाता। यहां बांस को घर ले जाने से भी परहेज करते हैं। लेकिन पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार द्वारा गठित उत्तराखंड में बांस एवं रेशा विकास परिषद द्वारा शुरू की गई बांस के बहुआयामी उपयोग की मुहिम अब रंग ला रही है। अब इसका उपयोग फर्नीचर बनाने के लिए भी होने लगा है। कोटद्वार में बांस के फर्नीचर बनाने का उद्योग स्थापित करने के साथ ही परिषद ने पूरे राज्य में बांस से बने 60 से अधिक कॉटेज तैयार किए हैं।

इनमें से अधिकांश कॉटेज गढ़वाल मंडल विकास निगम ने बनवाए हैं। निजी होटल वाले भी अब इसमें रुचि दिखा रहे हैं। यही नहीं, ऋषिकेश, जोशीमठ जैसे आध्यात्मिक स्थलों में ध्यान केंद्र भी बनाए गए हैं। उत्तराखंड में बांस एवं रेशा विकास परिषद का गठन 2004 में किया गया था। बांस के उत्पादन एवं उपयोग की बात को लेकर ही पूर्वोत्तर मूल के आईएफएस अधिकारी एसटीएस लेप्चा को इसका मिशन डायरेक्टर बनाया गया। जिसके बाद 2005 से बोर्ड ने राज्य में बांस के कॉटेज बनाने शुरू किए। अब तक राज्य के कोटद्वार, लैंसडाउन, खिर्सु, कौड़ियाला, मालाखुंटी, गुटुघाट (ऋषिकेश), सियालसौर, रामबाढ़ा (केदारनाथ मार्ग), बिराही, जोशीमठ, कॉचुलाखर्क, घनसाली, धनौल्टी, देहरादून, चकराता, चुनाखान, नैनीताल, कपकोट, लोहाजंग और सितारगंज के साथ ही यमुनोत्री मार्ग के जानकी चट्टी और गोपेश्वर के अलावा कई अन्य स्थानों पर कॉटेज बनाए गए हैं।

बांस का घरबांस का घरये कॉटेज आसान और सस्ते हैं। पहाड़ों में बड़े-बड़े होटलों और विश्राम गृहों का निर्माण करना बेहद खर्चीला और जोखिम भरा काम होता है। बांस विकास परिषद के मिशन अधिकारी एसटीएस लेप्चा का कहना है कि खूबसूरत बनावट और प्राकृतिक होने के कारण पर्यटक इन कॉटेज की ओर आकर्षित होते हैं। इन पांच सालों के दौरान गढ़वाल मंडल विकास निगम के साथ ही निजी पर्यटन व्यवसायी भी कॉटेज बनवा रहे हैं।बांस तकनीक के इंजीनियर मेरिसियांग पामेई का कहना है कि उत्तराखंड में बांस एक उद्योग का रूप ले सकता है। बांस की एक औसत कॉटेज को बनाने की लागत 700 से 1500 रुपए प्रति वर्ग फुट तक होती है। दो कमरों का एक कॉटेज 7-8 लाख में बनता है और एक कान्फ्रेंस हाल की लागत भी इतनी ही होती है। पामेई के मुताबिक हट या कॉटेज बनाने की लागत लोकेशन पर भी निर्भर करती है।

पामेई आजकल बांस से बने देश के सबसे बड़े ढांचे को बनाने में लगे हैं। पालमपुर, हिमांचल प्रदेश में इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन बायोसोर्स टेक्नोलॉजी द्वारा 3694 वर्ग फुट में बांस संग्रहालय बनाया जा रहा है। वर्तमान में कॉटेज से पर्यटन व्यवसायी और कुछ फर्नीचर बनाने वाले अच्छी कमाई कर रहे हैं। ऋषिकेश-देवप्रयाग मार्ग में ऋषिकेश से 25 किमी दूर मालाकुटी में 6 कॉटेज और डायनिंग हाल स्थापित करने वाले राफ्टिंग व्यवसायी हर्षवर्धन कहते हैं कि राफ्टिंग के लिए देश-विदेश से आने वाले लोगों को यह कॉटेज खूब भा रहे हैं। इनमें कहीं भी सीमेंट का प्रयोग नहीं किया गया है।

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