उत्तराखंड के प्राकृतिक संसाधनों की लूट कर रहीं परियोजनाएं

13 Jun 2012
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उत्तराखंड के मुख्यमंत्री द्वारा जलविद्युत परियोजनाओं का निर्माण आवश्यक बताए जाने से लोग उनके पक्ष में खड़े होते दिख रहे हैं। इनमें समाजसेवी, साहित्यकार, बुद्धिजीवी एवं आम लोग भी शामिल दिख रहे हैं। भागीरथी पर बन रहे बांधों के खतरे सबके सामने हैं। टिहरी का जलस्तर बढऩे से कई गांव मौत के साये में जी रहे हैं। बावजूद इसके आंखें बंद कर राज्य को बिजली प्रदेश बनाने की जिद में बांध परियोजनाओं को जायज ठहराने की जो मुहिम चली है वह पहाड़ को बड़े विनाश की ओर ले जा सकती है। उत्तराखंड के प्राकृतिक संसाधनों के लूट की जानकारी देते चारु तिवारी।

पहाड़ी राज्य में जलविद्युत परियोजनाओं का निर्माण और इसे बिजली प्रदेश बनाने का सपना यहां की जनता की बेहतरी के लिए नहीं है। इस पूरी परिकल्पना के पीछे विकास के नाम पर एक बेहद शातिराना मुहिम चल रही है। सत्तर के दशक में टिहरी बांध के बाद विकास का यह दैत्याकार मॉडल लगातार यहां के लोगों को लील रहा है। प्राकृतिक धरोहरों के बीच रहने वाली जनता को लगातार उससे दूर करने की साजिश और इसे बड़े इजारेदारों को सौंपने की सरकारी नीतियां हिमालय के लिए बड़ा खतरा है।

उत्तराखंड के मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने लगता है अपने एजेंडे पर काम करना शुरू कर दिया है। उनके साथ उन लोगों की एक बड़ी जमात जुट गई है जो सत्ता के आसपास रहकर अपने हित साधने में लगी रहती है। मुख्यमंत्री ने आते ही राज्य में बन रही जलविद्युत परियोजनाओं का जिस तरह से पक्ष रखा है, उससे लगता है कि उन्होंने कारपोरेट, परियोजनाओं को बनाने वाली कंपनियों और स्थानीय ठेकेदारों का जबर्दस्त समर्थन किया है। द हिंदू में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार 17 अप्रैल को दिल्ली में नेशनल गंगा रीवर बेसिन अथॉरिटी की बैठक में विजय बहुगुणा ने कहा पर्यावरण और वन मंत्रालय ने जिन जल परियोजनाओं को तकनीकी मंजूरी दे दी है उन्हें कुछ लोगों की ‘मात्र अनुभूत भावनाओं के कारण’ बंद नहीं किया जाना चाहिए। आश्चर्यजनक रूप से उनकी इस बात का जबर्दस्त विरोध हुआ। विरोध करने वालों में राजेन्द्र सिंह सहित कई पर्यावरणविद् शामिल थे। इस घटना के पंद्रह दिन के अंदर ही राज्य में कई जगह बांधों के पक्ष में प्रदर्शन हुए। उसके बाद 4 मई को देहरादून में बुद्धिजीवियों का पद्मश्री लौटाने की धमकी का नाटक हुआ। यह खेल किस तरह से खेला जाएगा इसका अनुमान लोगों को पहले से ही था।

जब विजय बहुगुणा ने मुख्यमंत्री का पद संभाला था तो उनके विरोधियों को शंका थी कि उन्हें प्रदेश का मुखिया बनाने में इन्हीं लोगों का हाथ है। राष्ट्रीय स्तर पर गंगा को लेकर चलने वाले सरोकारों को काटने के लिए इस बात की सच्चाई तो तभी सामने आयेगी जब कभी इस की कोई निष्पक्ष जांच होगी। लेकिन कुछ बातें जो नजर आ रही हैं वे इस नापाक गठबंधन की ओर तो इशारा करती ही हैं, इस राज्य के भविष्य के लिए भी कोई शुभ संकेत नहीं मानी जा सकतीं। हैरानी की बात यह है कि मुख्यमंत्री ने अपनी कुर्सी को सुरक्षित करने के लिए आधारभूत कदम विधान सभा का सदस्य बनने से पहले ही ऐसे विवादास्पद मुद्दे को आगे बढ़ाना क्यों शुरू किया है जिसको लेकर राज्य में पहले से ही व्यापक विवाद और असंतोष है। इधर भाजपा के तराई के सितारगंज क्षेत्र के विधायक किरण मंडल को तोड़ लिया गया है। जिन अफरातफरी भरी संदेहास्पद स्थितियों में मंडल से इस्तीफा दिलवाया गया है वह बतलाता है कि बहुगुणा वहीं से चुनाव लडऩे जा रहे हैं। अब देखने की बात होगी कि इस चुनाव में कितने धनबल और बाहुबल का इस्तेमाल होता है।

इस बांध बनाओ मुहिम में मुख्यमंत्री के साथ बांध निर्माण कंपनियां, बड़े कारपोरेट घराने, स्थानीय ठेकेदार और राजनीतिक पार्टियों के नुमाइंदे तो हैं ही अब पहाड़ के बुद्धिजीवियों का एक वर्ग भी खासी धूम-धाम से शामिल हो गया है। सरकारी पुरस्कारों से सम्मानित, कभी सरकार में लालबत्ती पाने वाले, मुख्यमंत्रियों के मीडिया सलाहकार बनने की कतार में खड़े रहने वाले इन लोगों ने अब जलविद्युत परियोजनाओं को उत्तराखंड की आर्थिकी का आधार बताना शुरू कर दिया है। चारों तरफ से खतरे में घिरी पहाड़ की जनता जब हिमालय और अपनी प्राकृतिक धरोहरों को बचाने के आंदोलन को आगे बढ़ा रही है तब इन बुद्धिजीवियों को लगता है कि बांध बनेंगे, बिजली उत्पादित होगी तो यहां से पलायन रुकेगा। उन्होंने बांध विरोधी जनता को सीआईए के एजेंट से लेकर विकास विरोधी तमगों से नवाजा है।

उत्तराखंड में बांधों का विरोध कर रहे निवासीउत्तराखंड में बांधों का विरोध कर रहे निवासीपिछले दिनों देहरादून में इन बुद्धिजीवियों ने घोषणा की कि यदि जलविद्युत परियोजनाओं पर काम शुरू नहीं हुआ तो वे अपने पद्मश्री पुरस्कार वापस कर देंगे। इनमें एक साहित्यकार लीलाधर जगूड़ी, एनजीओ चलाने वाले कोई अवधेश कौशल और गढ़वाल विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति ए एन पुरोहित शामिल हैं, जिन्हें पहाड़ के लोगों ने तब जाना जब इन्हें पद्मश्री पुरस्कार प्राप्त हुये। इस समूह गान में सबसे ज्यादा ऊंची आवाज में गानेवाले एक पत्रकार महोदय हैं जो फिर से अपना भाग्य आजमाने में लगे हैं। वह हर मुख्यमंत्री के मीडिया सलाहकार बनने के लिए लाइन में खड़े रहते हैं पर अब तक उन्हें उनके बड़बोलेपन के कारण किसी ने उपकृत नहीं किया। हो सकता है बेचारे की किस्मत इस बार जाग जाए!

यह बात किसी से छिपी नहीं है कि इस पहाड़ी राज्य में जलविद्युत परियोजनाओं का निर्माण और इसे बिजली प्रदेश बनाने का सपना यहां की जनता की बेहतरी के लिए नहीं है। इस पूरी परिकल्पना के पीछे विकास के नाम पर एक बेहद शातिराना मुहिम चल रही है। सत्तर के दशक में टिहरी बांध के बाद विकास का यह दैत्याकार मॉडल लगातार यहां के लोगों को लील रहा है। प्राकृतिक धरोहरों के बीच रहने वाली जनता को लगातार उससे दूर करने की साजिश और इसे बड़े इजारेदारों को सौंपने की सरकारी नीतियां हिमालय के लिए बड़ा खतरा है। इस साजिश में अब नये नाम जुड़ते जा रहे हैं। पिछले दिनों जलविद्युत परियोजनाओं पर जिस तरह से बुद्धिजीवियों, मीडिया घरानों, सामाजिक संगठनों के एक बड़े हिस्से ने अपनी पक्षधरता दिखाई है वह चकित करनेवाली है। अब तक ऐसा नहीं था कि मीडिया और बुद्धिजीवी इस तरह से खुल कर बांधों के पक्ष में काम कर रहे हों। इससे स्पष्ट लगता है कि इस में इन तमाम वर्गों का एक ऐसा गिरोह काम करने लगा है जो इस नव गठित राज्य में चल रही लूट में शामिल हो जाने को लालायित हैं और जिन्होंने भ्रष्ट नेताओं और पूंजीपतियों से अपने स्वार्थ के चलते घनिष्ठ संबंध बना लिए हैं।

विकास के नाम पर लोगों को बरगलाने का सिलसिला बहुत पुराना है। टिहरी बांध के विरोध में स्थानीय लोगों ने लंबी लड़ाई लड़ी। आखिर सरकार की जिद और विकास के छलावे ने एक संस्कृति और समाज को डुबो दिया। राज्य में प्रस्तावित सैकड़ों जलविद्युत परियोजनाओं से पूरा पहाड़ खतरे में है। इनसे निकलने वाली सैकड़ों किलोमीटर की सुरंगों से गांव के गांव खतरे में हैं। कई परियोजनाओं के खिलाफ लोग सड़कों पर हैं। बांध निर्माण कंपनियों का सरकार की शह पर मनमाना रवैया जारी है।

विजय बहुगुणा ने जिस तत्परता से जलविद्युत परियोजनाओं की वकालत शुरू की है तथा उसके बिना विकास को बेमानी कहा है, उससे कई तरह की शंकाओं का पैदा होना लाजमी है। बांधों के पक्ष में प्रायोजित प्रदर्शन किए जाने लगे हैं। इस बात को समझा जाना चाहिए कि आखिर अचानक इन सब लोगों का जलविद्युत परियोजनाओं से मोह क्यों जाग गया। यह सवाल तब और महत्त्वपूर्ण हो जाता है जब राज्य के विभिन्न हिस्सों में बांधों के खिलाफ लगातार जनआंदोलन चल रहे हैं। पिछले दिनों पिंडर पर बांध न बनाने को लेकर जबर्दस्त आंदोलन हुआ है और केदार घाटी में जनता ने नारा दिया है सर दे देंगे, लेकिन ‘सेरा’ (बड़े सिंचित खेत) नहीं देंगे। प्रशासन लगातार आंदोलनकारियों को जेल में डालता रहा है। कई स्थानों पर अभी भी लोग जनसुनवाइयों में बांधों का जमकर विरोध कर रहे हैं। जो मीडिया गौरादेवी के चिपको आंदोलन को बढ़-चढ़ कर छापता रहा है उसे अब गौरा के रैंणी गांव के नीचे की सुरंग नहीं दिखाई दे रही है।

जो लोग जनपक्षीय कवितायें लिख रहे थे वे अब बांधों के लिए गीत लिख रहे हैं पर मुख्यमंत्री के सानिध्य में। पत्रकारों को कंस्ट्रक्शन कंपनियां गंगा घाटी की सैर करा रही हैं। कई राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाएं इतनी बेशर्मी पर उतर आयी हैं कि उन्हें चमोली जनपद में अलकनंदा पर बन रहे बाधों से प्रभावित लोगों की चीत्कार सुनाई नहीं दे रही है। प्रदेश के दैनिक तो सत्ताधारी दल के सुर में सुर मिला ही रहे थे राष्ट्रीय अखबारों ने भी अपना योगदान शुरू कर दिया है। सबसे पहले दिल्ली से प्रकाशित होने वाले साप्ताहिक शुक्रवार में पद्मश्री बुद्धिजीवियों के बयानों को लेकर रिपोर्ट छपी है। अगला नंबर इंडिया टुडे हिंदी का आया जिसने 24 मई के अंक में बांधों के पक्ष में अविश्वसनीय संदर्भों पर आधारित रिपोर्ट छापी।

जलविद्युत परियोजनाओं को जिस शातिराना तरीके से मीडिया मात्र आस्था और पर्यावरण का सवाल बना रहा है वह उत्तराखंड की जनता के खिलाफ षड़यंत्र से कम नहीं है। असल में गंगा को सिर्फ आचमन या शुद्धता के लिए बचाने की बात कहकर बांधों के खिलाफ अभियान को कमजोर किया जा रहा है। मीडिया के शीर्षक अपने आप में एक कहानी है। इंडिया टुडे ने ‘आस्था पर भारी विकास’ से यही कहने की कोशिश की है। शुक्रवार साप्ताहिक का शीर्षक था ‘अब बुद्धिजीवी संत समाज से टकराएंगे’ असलियत यह है कि गंगा को बचाने के लिए गंगा के पास रहने वाले लोगों का बचना जरूरी है। यह मसला संत समाज और बांध निर्माण की पक्षधर सरकार के बीच का नहीं है। न ही गंगा को शुद्ध रखने का आंदोलन जनता का आंदोलन है। जनता का आंदोलन अपने खेत-खलिहानों को बचाने का है। दूसरा सवाल पर्यावरण का है। उत्तराखंड में इस समय पचास हजार से ज्यादा एनजीओ काम कर रहे हैं। ये सभी हिमालय और गंगा की चिंता में दुबले हो रहे हैं। इन्होंने गंगा, हिमालय और पर्यावरण का ठेका ले लिया है। इनके पूरे अभियान में कहीं जनता के हित नहीं हैं।

उत्तराखंड में बनते जलविद्युत परियोजनाउत्तराखंड में बनते जलविद्युत परियोजनागंगा फिर से चर्चा में है। कभी सरकारी महकमे में बांधों को पर्यावरणीय संस्तुति देने वाले वैज्ञानिक अब साधु बन गए हैं। साधुओं का गुजारा बिना गंगा के नहीं होता है। कई पर्यावरणविद् और एनजीओ हैं जिनकी रोटी-रोजी इसी से है। सरकार राष्ट्रीय स्तर पर गंगा बेसिन प्राधिकरण में अपनी चिंता साझा करती है। इन सबके बीच मध्य हिमालय में बांधों का बनना जारी है। लोग अपनी जमीन-खेत बचाने के लिए सड़कों पर हैं। उत्तराखंड सरकार इस बात पर दुखी हो रही है कि जितनी विद्युत उत्पादन क्षमता उत्तराखंड की नदियों की है, उसे दोहन क्यों नहीं किया जा रहा है तो इससे पहले भाजपा सरकार ने गंगा को बाजार बनाकर बेचा है।

विकास के नाम पर लोगों को बरगलाने का सिलसिला बहुत पुराना है। टिहरी बांध के विरोध में स्थानीय लोगों ने लंबी लड़ाई लड़ी। आखिर सरकार की जिद और विकास के छलावे ने एक संस्कृति और समाज को डुबो दिया। राज्य में प्रस्तावित सैकड़ों जलविद्युत परियोजनाओं से पूरा पहाड़ खतरे में है। इनसे निकलने वाली सैकड़ों किलोमीटर की सुरंगों से गांव के गांव खतरे में हैं। कई परियोजनाओं के खिलाफ लोग सड़कों पर हैं। बांध निर्माण कंपनियों का सरकार की शह पर मनमाना रवैया जारी है। जिन स्थानों पर जनसुनवाई होनी है, वहां जनता के खिलाफ बांध कंपनियों और स्थानीय प्रशासन की मिलीभगत से भय का वातावरण बनाया गया है। राज्य की तमाम नदियों पर बन रही सुरंग-आधारित परियोजनाओं से कई गांव मौत के साये में जी रहे हैं। सरकार ने चमोली जनपद के चाईं गांव और तपोवन-विष्णुगाड परियोजना की सुरंग से रिसने वाले पानी से भी सबक नहीं लिया। यहां सुरंग से भारी मात्रा में निकलने वाले पानी से पौराणिक शहर जोशीमठ के अस्तित्व को खतरा है।

चमोली जनपद के छह गांव पहले ही जमींदोज हो चुके हैं। तीन दर्जन से अधिक गांव इन सुरंगों के कारण कभी भी धंस सकते हैं। बागेश्वर जनपद में कपकोट में सरयू पर बन रहे बांध की सुरंग से सुमगढ़ में मची भारी तबाही में 18 बच्चे मौत के मुंह में समा गए थे। भागीरथी पर बन रहे बांधों के खतरे सबके सामने हैं। टिहरी का जलस्तर बढऩे से कई गांव मौत के साये में जी रहे हैं। बावजूद इसके आंखें बंद कर राज्य को बिजली प्रदेश बनाने की जिद में बांध परियोजनाओं को जायज ठहराने की जो मुहिम चली है वह पहाड़ को बड़े विनाश की ओर ले जा सकती है। अब पूरे मामले को छोटे और बड़े बांधों के नाम पर उलझाया जा रहा है। असल में बांधों का सवाल बड़ा या छोटा नहीं है, बल्कि सबसे पहले इससे प्रभावित होने वाली जनता के हितों का है।

बताया जा रहा है कि पहाड़ में बड़े बांध नहीं बनने चाहिए। इन्हें रन ऑफ द रीवर बनाया जा रहा है, इसलिए इसका विरोध ठीक नहीं है। लेकिन यह सच नहीं है। उत्तराखंड में बन रही लगभग सभी परियोजनायें तकनीकी भाषा में भले ही रन ऑफ द रीवर बतायी जा रही हों या उनकी ऊंचाई और क्षमता के आधार पर उन्हें छोटा बताया जा रहा हो, लेकिन ये सब बड़े बांध हैं। सभी परियोजनायें सुरंग आधारित हैं। सभी में किसी न किसी रूप में गांवों की जनता प्रभावित हो रही है।

उल्लेखनीय है कि पिछले दिनों से गंगा को अविरल बहने देने और आस्था के नाम पर प्रो. जी.डी. अग्रवाल अनशन पर हैं। सरकार ने उनकी जान बचाने की कीमत पर पहले लोहारी-नागपाला परियोजना को बंद किया अब अलकनंदा पर बन रही पीपलकोटी परियोजना पर रोक लगा दी है। इसमें दो राय नहीं कि इस तरह की सुरंग आधारित सभी परियोजनाओं को बंद किया जाना चाहिए, लेकिन इसमें जिस तरीके से गंगा को सिर्फ आस्था के नाम पर सिर्फ 135 किलोमीटर तक शुद्ध करने की बात है, वह अर्थहीन है। असल में धर्म और आस्था के नाम पर चलने वाली भाजपा और संतों से डरने वाली कांग्रेस के लिए जनता का कोई मूल्य नहीं है। गंगा मात्र आचमन करने के लिए नहीं है। जल विद्युत परियोजनाओं का मतलब है वहां के निवासियों को बेघर करना। आस्था का सवाल तो तब आता है जब वहां लोग बचेंगे। प्रो. जी.डी. अग्रवाल उर्फ स्वामी सानंद के हिंदू परिषद के एजेंट के रूप में काम करने का किसी भी हालत में समर्थन नहीं किया जा सकता। पिछले चालीस वर्षों से जलविद्युत परियोजनाओं का विरोध कर रही जनता की इन सरकारों ने नहीं सुनी। लंबे समय तक टिहरी बांध विरोधी संघर्ष की आवाज को अगर समय रहते सुन लिया गया होता तो आज पहाड़ों को छेदने वाली इन विनाशकारी जलविद्युत परियोजनाओं की बात आगे नहीं बढ़ी होती। लोहारी-नागपाला ही नहीं, पहाड़ में बन रही तमाम छोटी-बड़ी जलविद्युत परियोजनाएं यहां के लोगों को नेस्तनाबूत करने वाली हैं।

इस बात का स्वागत किया जाना चाहिए कि केंद्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने देश के विभिन्न हिस्सों में मुनाफाखोर विकास की प्रवृत्ति पर लगाम लगाने के कुछ अच्छे कदम उठाये। उड़िसा, झारखंड, छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश आदि राज्यों में खान एवं जलविद्युत परियोजनाओं के खिलाफ व्यापक आंदोलन और जनगोलबंदी का परिणाम है कि अब ऐसी परियोजनाओं से पहले सरकारों को दस बार सोचना पड़ेगा। फिलहाल उत्तराखंड में बांध निर्माण कंपनियां और उनके एजेंट के रूप में काम कर रहे राजनीतिक लोगों ने जिस तरह बांधों के समर्थन का झंडा उठाया हुआ है, उसका भंडाफोड़ और उसे नाकाम करना जरूरी है।

जलविद्युत परियोजनाओं के खिलाफ मुखर हुई आवाज नई नहीं है। भागीरथी और भिलंगना पर प्रस्तावित सभी परियोजनाओं के खिलाफ समय-समय पर लोग सड़कों पर आते रहे हैं। लोहारी-नागपाला से फलेंडा और पिंडर पर बन रहे तीन बांधों के खिलाफ जनता सड़कों पर है। इस बीच जो सबसे बड़ा परिवर्तन आया है, वह है सरकार और बांध निर्माण कंपनियों का जनता को बांटने का षड़यंत्र। इसके चलते मौजूदा समय में पूरा पहाड़ समर्थन और विरोध में सुलग रहा है। केंद्र और राज्य सरकार के बीच एक ऐसा अघोषित समझौता है जिसके तहत वह न तो इन परियोजनाओं के बारे में कोई नीति बनाना चाहते हैं और न ही बिजली प्रदेश बनाने की जिद में स्थानीय लोगों के हितों की परवाह करते हैं। इसे इस बात से समझा जा सकता है कि यदि इन सरकारों की चली तो पहाड़ में 558 छोटे-बड़े बांध बनेंगे। इनमें से लगभग 1500 किलोमीटर की सुरंगें निकलेंगी। एक अनुमान के अनुसार अगर ऐसा होता है तो लगभग 28 लाख आबादी इन सुरंगों के ऊपर होगी। यह एक मोटा अनुमान सिर्फ प्रस्तावित बांध परियोजनाओं के बारे में है। इससे होने वाले विस्थापन, पर्यावरणीय और भूगर्भीय खतरों की बात अलग है।

17 अप्रैल को गंगा बेसिन प्राधिकरण की बैठक17 अप्रैल को गंगा बेसिन प्राधिकरण की बैठकमौजूदा समय में एक नई बात छोटी और बड़ी परियोजना के नाम पर चलाई जा रही है। बताया जा रहा है कि पहाड़ में बड़े बांध नहीं बनने चाहिए। इन्हें रन ऑफ द रीवर बनाया जा रहा है, इसलिए इसका विरोध ठीक नहीं है। लेकिन यह सच नहीं है। उत्तराखंड में बन रही लगभग सभी परियोजनायें तकनीकी भाषा में भले ही रन ऑफ द रीवर बतायी जा रही हों या उनकी ऊंचाई और क्षमता के आधार पर उन्हें छोटा बताया जा रहा हो, लेकिन ये सब बड़े बांध हैं। सभी परियोजनायें सुरंग आधारित हैं। सभी में किसी न किसी रूप में गांवों की जनता प्रभावित हो रही है। कई गांव तो ऐसे हैं जो छोटी परियोजनाओं के नाम पर अपनी जमीन तो औने-पौने दामों में गंवा बैठते हैं, लेकिन वे विस्थापन या प्रभावित की श्रेणी में नहीं आते हैं। जब सुंरग से उनके घर-आंगन दरकते हैं तो उन्हें मुआवजा तक नहीं मिलता, जान-माल की तो बात ही दूर है। सरकार और परियोजना समर्थकों की सच्चाई को जानने के लिए कुछ परियोजनाओं का जिक्र करना जरूरी है।

जिस लोहारी-नागपाला को लेकर विवाद की शुरुआत हुई है, उसे रन ऑफ द रीवर का नाम दिया गया। इसमें विस्थापन की बात को भी नकारा गया। स्थानीय लोगों ने तब भी इसका विरोध किया था, लेकिन उनकी किसी ने नहीं सुनी। यह परियोजना 600 मेगावाट की है। इसमें 13 किलोमीटर सुरंग है। भागीरथी पर ऐसे 10 और बांध हैं। इनमें टिहरी की दोनों परियोजनाओं और कोटेश्वर को छोड़ दिया जाये तो अन्य भी बड़े बांधों से कम नहीं हैं। इनमें करमोली हाइड्रो प्रोजेक्ट 140 मेगावाट की है। इसके सुरंग की लंबाई आठ किलोमीटर से अधिक है। जदगंगा हाइड्रो प्रोजेक्ट 60 मेगावाट की है। इसकी सुरंग 11 किलोमीटर है। 381 मेगावाट की भैरोघाटी परियोजना जिसे सरकार ने निरस्त किया है, उसके सुरंग की लंबाई 13 किलोमीटर है। मनेरी भाली प्रथम 90 मेगावाट क्षमता की रन ऑफ द रीवर परियोजना है। यह 1984 में प्रस्तावित हुई। इसे आठ किलोमीटर सुरंग में डाला गया है। इसका पावरहाउस तिलोय में है। इस सुरंग की वजह से भागीरथी नदी उत्तरकाशी से मनेरी भाली तक 14 किलोमीटर तक अपने अस्तित्व को छटपटा रही है। इसके बाद भागीरथी को मनेरी भाली द्वितीय परियोजना की सुरंग में कैद होना पड़ता है। 304 मेगावाट की इस परियोजना की सुरंग 16 किलोमीटर लंबी है। इसके बाद टिहरी 1000 मेगावाट की दो और 400 मेगावाट की कोटेश्वर परियोजना है। आगे कोटली भेल परियोजना 195 मेगावाट की है। इसमें भी 0.27 किलोमीटर सुरंग है।

गंगा की प्रमुख सहायक नदी अलकनंदा पर दर्जनों बांध प्रस्तावित हैं। इन्हें भी रन ऑफ द रीवर के नाम से प्रस्तावित किया गया। इस समय यहां नौ परियोजनाएं हैं। इनमे 300 मेगावाट की अलकनंदा हाइड्रो प्रोजेक्ट से 2.95 किलोमीटर की सुरंग निकाली गई है। 400 मेगावाट की विष्णुगाड परियोजना की सुरंग की लंबाई 11 किलोमीटर है। लामबगढ़ में बनी इसकी झील से सुरंग चाईं गांव के नीचे खुलती है जहां इसका पावरहाउस बना है। यह गांव इसके टर्बाइनों के घूमने से जमींदोज हो चुका है। लामबगढ़ से चाईं गांव तक नदी का अता-पता नहीं है। तपोवन-विष्णुगाड परियोजना इस समय सबसे संवेदनशील है। इस परियोजना की क्षमता 520 मेगावाट है। इससे निकलने वाली सुरंग की लंबाई 11.646 किलोमीटर है। यह ऐतिहासिक और सांस्कृतिक शहर जोशीमठ के नीचे से जा रही है। इससे आगे 444 मेगावाट विष्णुगाड-पीपलकोटी परियोजना है। इससे 13.4 किलोमीटर सुरंग निकली है। 300 मेगावाट की बोवाला-नंदप्रयाग परियोजना से 10.246 किलोमीटर की सुरंग से गुजरेगी। नंदप्रयाग-लंगासू हाइड्रो प्रोजेक्ट 100 मेगावाट की है। इसमें पांच किलोमीटर से लंबी सुरंग बननी है। 700 मेगावाट की उज्सू हाइड्रो प्रोजेक्ट की सुरंग की लंबाई 20 किलोमीटर है। श्रीनगर हाइड्रो प्राजेक्ट जिसे पूरी तरह रन ऑफ द रीवर बताया जा रहा था उसकी सुरंग की लंबाई 3.93 किलोमीटर है। यह परियोजना 320 मेगावाट की है। अलकनंदा पर ही बनने वाली कोटली भेल- प्रथम बी 320 मेगावाट की परियोजना है। यह भी सुरंग आधारित परियोजना है। गंगा पर बनने वाली कोटली भेल-द्वितीय 530 मेगावाट की है। इसकी सुरंग 0.5 किलोमीटर है। चिल्ला परियोजना 144 मेगावाट की है, इसमें से 14.3 किलोमीटर सुरंग बनेगी।

जलविद्युत परियोजनाओं की सुरंगों के ये आंकड़े केवल भागीरथी और अलकनंदा पर बनने वाले बांधों के हैं। इसके अलावा सरयू, काली, शारदा, रामगंगा, पिंडर आदि पर प्रस्तावित सैकड़ों बांधों और उनकी सुरंगों से एक बड़ी आबादी प्रभावित होनी है। अब सरकार और विकास समर्थक इसके प्रभावों को नकार रहे हैं। उनका कहना है कि पर्यावरणीय प्रभाव और आस्था के सवाल पर विकास नहीं रुकना चाहिए। असल में यह तर्क ही गलत है। जलविद्युत परियोजनाओं के निर्माण का विरोध पर्यावरण और आस्था से बड़ा स्थानीय लोगों को बचाने का है। इसके लिए आयातित आंदोलनकारी नहीं, बल्कि पिछले चार दशकों से यहां की जनता लड़ाई लड़ रही है। नदियों को बचाने से लेकर अपने खेत-खलिहानों की हिफाजत के लिए जनता सड़कों पर आती रही है।

चिपको आंदोलन की प्रणेता गौरा देवी के गांव रैणी के नीचे भी टनल बनाना महान आंदोलन की तौहीन है। वर्षों पहले रैणी महिला मंगल दल ने परियोजना क्षेत्र में पौधे लगाये थे। परियोजना तक सड़क ले जाने में 200 पेड़ काटे गए और मुआवजा वन विभाग को दे दिया गया। पेड़ लगाने वाले लोगों को पता भी नहीं चला कि कब ठेका हुआ। गौरा देवी की निकट सहयोगी गोमती देवी का कहना है कि पैसे के आगे सब बिक गया।

जिस तरह इस बात को प्रचारित किया जा रहा है कि इन बांध परियोजनाओं की शुरुआत में लोग नहीं बोले, यह गलत है। लोहारी-नागपाला के प्रारंभिक दौर से ही गांव के लोग इसके खिलाफ हैं। भुवन चंद्र खंडूड़ी के मुख्यमंत्रित्वकाल में लोहारी-नागपाला के लोगों ने उसका काली पट्टी बांधकर विरोध किया था। श्रीनगर परियोजना में भी महिलाओं ने दो महीने तक धरना-प्रदर्शन कर कंपनी की नींद उड़ा दी थी। लोहारी-नागपाला परियोजना क्षेत्र भूकंप के अतिसंवेदनशील जोन में आता है, जहां बांध का निर्माण पर्यावरणीय दृष्टि से कतई उचित नहीं है। विस्फोटकों के प्रयोग से तपोवन-विष्णुगाड जलविद्युत परियोजना में चाई गांव विकास के नाम पर विनाश को झेल रहा है। यहां के लोगों ने 1998-99 से ही इसका विरोध किया था, लेकिन जेपी कंपनी धनबल से शासन-प्रशासन को अपने साथ खड़े करने में सफल रही। आठ साल बाद 2007 में चाई गांव की सड़कें कई जगह से ध्वस्त हो गईं। मलबा नालों में गिरने लगा, जिससे जल निकासी रुकने से गांव के कई हिस्सों का कटाव और धंसाव होने लगा। गांव के पेड़, खेत, गौशाला और मकान भी धंस गए। करीब 50 मकान पूर्ण या आंशिक रूप से ध्वस्त हुए तथा 1000 नाली जमीन बेकार हो गई। 520 मेगावाट वाली तपोवन-विष्णुगाड जलविद्युत परियोजना का कार्य उत्तराखंड सरकार और एनटीपीसी के समझौते के बाद 2002 में प्रारंभ किया गया, जिसमें तपोवन से लेकर अणमठ तक जोशीमठ के गर्भ से होकर सुरंग बननी है। निर्माणाधीन सुरंग से 25 दिसंबर 2009 से अचानक 600 लीटर प्रति सेकेंड के वेग से पानी का निकलना कंपनी के पक्ष में भूगर्भीय विश्लेषण की पोल खोलता है। इस क्षेत्र में विरोध करने वालों पर अनेक मुकदमे दायर किए गए हैं।

चिपको आंदोलन की प्रणेता गौरा देवी के गांव रैणी के नीचे भी टनल बनाना महान आंदोलन की तौहीन है। वर्षों पहले रैणी महिला मंगल दल ने परियोजना क्षेत्र में पौधे लगाये थे। परियोजना तक सड़क ले जाने में 200 पेड़ काटे गए और मुआवजा वन विभाग को दे दिया गया। पेड़ लगाने वाले लोगों को पता भी नहीं चला कि कब ठेका हुआ। गौरा देवी की निकट सहयोगी गोमती देवी का कहना है कि पैसे के आगे सब बिक गया। रैणी से छह किमी दूर लाता में एनटीपीसी द्वारा प्रारंभ की जा रही परियोजना में सुरंग बनाने का गांववालों ने पुरजोर विरोध किया। मलारी गांव में भी मलारी झेलम नाम से टीएचडीसी की विद्युत परियोजना चल रही है। मलारी ममंद ने कंपनी को गांव में नहीं घुसने दिया। परियोजना के बोर्ड को उखाड़कर फेंक दिया। प्रत्युत्तर में कंपनी ने कुछ लोगों पर मुकदमे दायर किए हैं। इसके अलावा गमशाली, धौलीगंगा और उसकी सहायक नदियों में पीपलकोटी, जुम्मा, भिमुडार, काकभुसंडी, द्रोणगिरी में प्रस्तावित परियोजनाओं में जनता का प्रबल विरोध है।

उत्तराखंड में बांधों के लिए कट रहे पेड़उत्तराखंड में बांधों के लिए कट रहे पेड़पिंडर नदी में प्रस्तावित तीन बांधों के खिलाफ फिलहाल जनता वही लड़ाई लड़ रही है। यहां देवसारी परियोजना के लिए प्रशासन ने 13 अक्टूबर 2009 को कुलस्यारी में जनसुनवाई रखी। कंपनी प्रशासन ने बांध प्रभावित क्षेत्र से करीब 17 किमी दूर करने के बावजूद भी 1300 लोग इसमें पहुंचे। दूसरी जनसुनवाई 22 जुलाई 2010 को देवाल में आयोजित की गई जिसमें करीब 6000 लोगों ने भागीदारी की। लोगों ने एकजुट होकर बांध के विरोध में एसडीएम चमोली को ज्ञापन सौंपा। इस जनसुनवाई में सीडीओ चमोली ने ग्रामीण जनता को विश्वास में लेते हुए गांव स्तर पर जनसुनवाई करने की बात कही। 15 सितंबर, 2010 को थराली तहसील में मदन मिश्रा के नेतृत्व में देवाल, थराली, नारायणबगढ़ के सैकड़ों लोगों ने बड़े बांधों के विरोध में जोरदार प्रदर्शन कर बांधों के खिलाफ अपना अभियान जारी रखा हुआ है। राजनीतिकों की जाने दें क्या ऐसा हो सकता है कि हमारे तथाकथित बुद्धिजीवियों को यह सब समझ में नहीं आ रहा हो?

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