वैदिक वाङ्मय और पर्यावरण संस्कृति

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पर्यावरण

दश कूप समा वापी, दशवापी समोहद्रः।
दशहृद समः पुत्रो, दशपुत्रो समो द्रुमः।



प्राकृतिक शक्तियों में देवी स्वरूप की अवधारणा मात्र यह इंगित करती है कि हम इनकी रक्षा करें, इनसे अनुराग रखें और स्वस्थ, संतुलित जीवनयापन करते हुए पर्यावरण की यथाशक्ति रक्षा करें। उक्त बिंदुओं को यदि नैतिकता-अनैतिकता की सीमा-रेखा में न भी बांधें तो भी ये प्रकृति और प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के संवाहक प्रतीत होते हैं। भारतीय चिंतन-धारा की यही प्रमुख विशेषता है, जो इस प्रदूषण-अभिशप्त सदी में हमें अपने अतीत की बार-बार याद दिलाती है।

प्रदूषण

प्रदूषण : सृष्टि के लिए विनाशकारी

प्रदूषण का प्रभाव

पृथ्वी मंडल

1. मृणमयी पृथ्वी-

भुवनमात्र में प्रथम उत्पन्न होने के कारण इस भूमि को मृणमयी कहा गया है (यजुर्वेद, 37/4 एवं शतपथ ब्राह्मण, 14/1/2/10)। जल प्रधान आर्द्रा पृथ्वी में अग्नि और जल के मेल से मलाई रूप झाग (फेन) उत्पन्न होकर, जब वह कुछ ठोस आकृति में परिवर्तित हो गया, तब वही मृद कहलाया। वही मृद पृथ्वी कहलाई (शतपथ ब्राह्मण, 14/1/2/9)।

2. अश्ममयी पृथ्वी-

मृदा के तप्त होने पर सफेद और काली दो प्रकार की सिकता बनी। (शतपथ ब्राह्मण, 6/1, 3/4/7, 3/1, 4/3) और ढीली पृथ्वी को देवों ने कंकर-पत्थर से दृढ़ किया (शतपथ ब्राह्मण, 6/1/3/3 तथा मैत्रयणी संहिता 1/6/3)। इस प्रकार पृथ्वी अश्ममयी हुई।

3. रत्नगर्भा भूमि (अथर्ववेद 12/1/26 तथा गोपथ ब्राह्मण, 2/2/7)।
4. अग्निगर्भा पृथ्वी (अथर्ववेद, 12/1/21, शतपथ, 14/9/4/21 तथा जैमनीय ब्राह्मण, 3/186)।
5. परिमंडल पृथ्वी (शतपथ ब्राह्मण, 7/1/1/37 व जैमिनीय ब्राह्मण, 1/2/5/7)।
6. हरित भूमि (ऋग्वेद 5/84/3, 6/47/27, 7/34/23 व मैत्रायणी संहिता, 3/9/2, 4/5/5/ जैमनीय ब्राह्मण, 2/5/4 व कोषीतकी ब्राह्मण, 6/14)।
7. गंधवती पृथ्वी (अथर्ववेद, 12/1/23-25 तथा शतपथ ब्राह्मण, 9/4/1/8, 10)।

पृथ्वी एवं पर्यावरण

पृथ्वी पर्यावरण का महत्वपूर्ण अंग है। प्राणी जिस पर बसते हैं और जिसके आधार पर जीवन पाते हैं, वह भूमि निश्चय ही वंदनीय एवं अतिशय उपयोगी है। इसीलिए पृथ्वी को माता कहकर नमन करने का संकेत वेदमंत्रों में है (अथर्ववेद, 12/1/23/2/5, ऋग्वेद, 10/18, 10/11यजुर्वेद 9/22, 13/18, 36/13 व अथर्ववेद, 12/1/1-3, 12/1/6, 10/12, 6/21/1)। पृथ्वी के अत्यधिक महत्व का प्रतिपादन आधुनिक पर्यावरणविदों ने भी किया है। भूमि या मिट्टी सर्वाधिक मूल्यवान संसाधन हैं, क्योंकि विश्व के 71 प्रतिशत खाद्य पदार्थ मिट्टी से ही पैदा होते हैं। 2 प्रतिशत भाग में ही कृषि योग्य भूमि है, जो निम्न प्रकार है-

1. कृषि भूमि – भूमंडल का 2 प्रतिशत- 71 प्रतिशत खाद्य पदार्थ।
2. वन भूमि- भूमंडल का 8.8 प्रतिशत- 10.4 प्रतिशत खाद्य पदार्थ।
3. घास मैदान- भूमंडल का 7.2 प्रतिशत- 12 प्रतिशत खाद्य पदार्थ।
4. दलदल व मरुस्थल-भूमंडल का 10.4 प्रतिशत- 3.3 प्रतिशत खाद्य पदार्थ।
5. समुद्र- 71.8 प्रतिशत- 3.3 प्रतिशत खाद्य पदार्थ।

इस प्रकार हम देखते हैं कि भूमि या मिट्टी एक अतिसीमित किंतु मूल्यवान संसाधन है। खाद्य पदार्थों की समुचित उपलब्धि के लिए इस सीमित संसाधन को प्रदूषण से बचाना आज की अनिवार्य आवश्यकता है।

प्रदूषण रहित भूमि एवं उसका संरक्षण

प्रदूषण रहित प्राचीन कृषि विज्ञान

यज्ञ द्वारा प्रदूषण निवारण

पर्यावरण का संदेश

पर्यावरण वानिकी

पर्यावरण-संरक्षण और प्राणी

1. अग्निमय पशु-

अग्नि का तेज प्रदूषण निवारण में सक्षम है। अग्नि के तेज से उत्पन्न होने के कारण पशुओं को आग्नेय कहा गया है (कपिष्ठल संहिता 38/1, एतरेय ब्राह्मण, 2/6, तैत्तिरीय ब्राह्मण, 1/1/4/3)।

2. गंधमय पशु-

पशु एक विशिष्ट गंध से समाविष्ट हैं, जो प्रदूषण निवारण में सक्षम है। देवताओं ने यह गंध, सोम से लेकर, पशुओं में प्रविष्ट की है, अतः इस गंध को घृणित समझकर नाक बंद नहीं करनी चाहिए (शतपथ ब्राह्मण एक सांस्कृतिक अध्ययन, पृ. 223)।

3. मारुत पशु-

पशु मरुत गुण से भी संबंधित हैं, जो प्रदूषण को विनष्ट करते हैं (ऐतरेय ब्राह्मण, 3/19)।

पशुओं का पर्यावरणीय महत्व इसी से सिद्ध हो जाता है कि उनकी उपस्थिति मात्र से वायु और भूमि आदि में विद्यमान दोष स्वतः दूर हो जाते हैं। उनके गंध और अग्नि तेज से रोगाणु तथा विष तो नष्ट होते ही हैं, पशुओं द्वारा प्रदत्त दूध, घी एवं मल-मूत्र भी रोग तथा विषनाशक हैं। पशुओं में सर्वाधिक उपयोगी गाय है। ऋग्वेद में गाय को यज्ञपूरक तथा दुग्ध आदि से बढ़ाने वाली कहा गया है (ऋग्वेद, 10/69/3)। वैज्ञानिकों का मत है कि गाय के रोम-रोम से ऑक्सीजन निःसृत होती है। गौ-घृत से तैयार यज्ञ-आहुति से ऑक्सीजन तैयार होती है। बकरियां क्षयरोग को विनष्ट करती हैं। अपान शुद्धि के लिए बकरी का दूध, ज्ञानयुक्त वाणी बढ़ाने के लिए भेड़ का दूध, ऐश्वर्य वृद्धि के लिए गौ-दुग्ध, रोग निवारण में औषधियों का रस तथा बल के लिए संस्कारवान अन्न का भोजन करने का परामर्श दिया गया है (यजुर्वेद, 21/59-60)। घोड़े के हिनहिनाने से ज्वर और खांसी आदि का निवारण होता है (अथर्ववेद, 2/30/5, 11/2/22)। बैल पृथ्वी को धारण करता है और परिश्रम से प्रदूषण को विनष्ट करता है (अथर्ववेद, 4/11/1, 4/10)। मृग (हिरण) भी पर्यावरण-प्रदूषण को दूर करने में समर्थ है। शीघ्रगामी हरिण के मस्तक के भीतर औषधि है, वह अपने सींग से क्षेत्रीय रोग और विष को नष्ट कर देता है (अथर्ववेद, 3/7/1/2)। इनकी रक्षा के लिए कठोर-से-कठोर दंड का प्रावधान करते हुए कहा गया है कि जो पुरुष घोड़े तथा गाय आदि पशुओं की हत्या, मांसाहार के लिए करता है, वह राक्षस है। पर्यावरण के पोषक तत्वों को नष्ट करने वाले कठोर-से-कठोर दंड के योग्य हैं।

मनुष्य समाज में गृह-निर्माण कला का अतिशय महत्व है। वास्तुकला पर ऋषियों ने चिंतन करते हुए कहा है कि जब कोई मनुष्य घर बनाए तो वह सब तरह की आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाला उत्तम उपमायुक्त हो, जिसे देखकर विद्वान, लोग सराहना करें उसमें एक द्वार के सामने दूसरा द्वार तथा उसके कोने एवं कक्षा भी सम्मुख हों। वह चारों ओर के परिमाण से समचौरस हो।इसी प्रकार तोता पक्षी को पीलिया (कामला) रोग को हरने वाले क्षयरोग से दूषित वायु को चीड़ के वृक्ष और बकरी-बंदर आदि पशु अधिक अपनाते हैं। ऐसे ही मनुष्य के कामला रोग को दारुहल्दी के वृक्ष एवं हरे तोते अपनाते हैं (अथर्ववेद, 1/22/4 तथा अथर्ववेदीय मंत्र विद्या, स्वामी ब्रह्म मुनि परिव्राजक पृ. 26)। गरुड़ और मोर तथा सर्प आदि विषभक्षक हैं (अथर्ववेद, 4/6/3-4)। इस तरह हम देखते हैं कि भूमि, वृक्ष, पशु-पक्षी तथा मनुष्य-एक-दूसरे के पूरक ही नहीं अपितु अभिन्न हैं। ये पर्यावरण-चक्र के परे हैं। इनमें से किसी एक का भी अभाव सृष्टि प्रवाह में बाधक ही नहीं, अपितु पर्यावरण के लिए घातक है।

पर्यावरण एवं पर्वत

पर्यावरण एवं निवास स्थान

वास्तुकला

जल मंडल

जल का महत्व

जल-निर्माण प्रक्रिया

तेजोमंडल

अग्नि के नाम व भेद हमें वैदिक साहित्य में इस प्रकार प्राप्त होते हैं-


अग्नि- आचार्य शाकपूणि ने अग्नि शब्द को –इण (जानना), अञ्ज (चमकना) या दह (जलाना) तथा नी (ले जाना)- इन तीन क्रियाओं से बना बताया है। अग्नि शब्द के निर्माण में इ से आकार, अञ्ज या दह से गकार और नी से अंतिम वर्ण नि हुआ (निरुक्त, 7/4/14)। अमरकोश के टीकाकार ने अग्नि का अर्थ-जाना, चलना किया है, जो गतिशील है वह अग्नि है (अमरकोश, रामश्री टोका, पृ. 20)।

वेदों में अग्नि के निम्न प्रकार आए हैं-

1. वैश्वानर-

ऋग्वेद (1/98, 3/3, 1/59, 7-8, 10/88)। आधुनिक वैज्ञानिक शब्दावली अर्थात् अंग्रेजी में इसका अर्थ दिया गया है (Latent Heat of Fusion & Vaporisation)।

2. जातवेद –

ऋग्वेद (1/19/1)। इसे अंग्रेजी में Potentional and Kinetic Energy कहा है।

3. द्रविणोदः –

ऋग्वेद (1/15/7)। इसे Atomic Energy कहा गया है।

4. इध्म –

ऋग्वेद (1/13/1) इसे Thermal Heat कहा गया है।

5. तनूनपात्-

इसे Internal Combustion of Fuel Derivatives Like Ghee, Petroleum and Coal Gas etc. कहा गया है। ऋग्वेद (सायण भाष्य, 3/29/11)।

6. नराशंस –

(निरुक्त, 8/2/4) इसे Chemical Energy and the Result of Chemical Affinity in Terms of Valancy कहा गया है।

7. ईल –

(निरुक्त, 8/2/5) इसे Electromagnetic Field कहा गया है।

8. बर्हि -

(निरुक्त, 8/2/6) इसे Echo-Resonant Energy of Use in Rectar etc. कहा गया है।

9. द्वार –

(निरुक्त सम्मर्श, स्वामी ब्रह्ममुनि, पृ. 628-632) इसे Electrons in Atomic Arbits कहा गया है।

10. उषासानक्ता –

इसे Ions and chagres in electrolytes of Electrostatic and Dynamic Machines Proceeding in a current to Electrodes and Terminals as Positive and Negative Charges कहा गया है।

इसी प्रकार तेज या अग्नि के 108 नाम व भेद वैदिक साहित्य में आए हैं। उनमें कहा गया है कि सर्वप्रथम आग्नि को मंथन के द्वारा अथवा ऋषि ने उत्पन्न किया (ऋग्वेद, 1/95, 3/29, 2, 6/15/17, 6/16/13) आदि। वेदों में अग्नि को ‘अपां गर्भः’ कहकर जल का पुत्र कहा गया है। अग्नि के अनेक भेद बताए गए हैं। अग्नि सात ज्वालाओं वाली कही गई है (ऋग्वेद, 10/8/4)। ऋग्वेद में कम-से-कम 200 सूक्तों में अग्नि का वर्णन है। पर्यावरण में अग्नि का महत्व सर्वोपरि है। अग्नि से ही प्रदूषण समाप्त होता है। ताप और आर्द्रता दोनों के संयोग से ही किसी भूभाग की वनस्पति तथा जीवमंडल का निर्धारण होता है (संसाधन संरक्षण, भूगोल, राजीव शर्मा, पृ. 23)। ऋग्वेद (1/160/3) में कहा है कि अग्नि यज्ञवेदी एवं शरीर के रोगाणुओं को मारती है। अग्नि को वर्षाकारक माना गया है।

प्रदूषण-निवारण तथा पर्यावरण-पोषण के लिए अग्नि में ही यज्ञ पूर्ण होते हैं। यज्ञ प्रदूषण को नष्ट करता है एवं जगत् को पुष्ट करता है। यज्ञ जगत् की नाभि है (ऋग्वेद, 1/164, 34-35)। यज्ञ प्राकृतिक शक्तियों को न केवल वहन ही करता है, अपितु उन्हें अनुकूल भी करता है। इसलिए प्राचीन ऋषियों ने यज्ञ को देवरथ के रूप में प्रस्तुत किया है (एतरेय ब्रा., 2/37)। यज्ञ आरोग्यप्रद है (यजुर्वेद, 19/12)। प्रदूषण-निवारण में वेदपारायण यज्ञों को देखा व परखा जा सकता है। संहिता तथा ब्राह्मण ग्रंथों में घी का महत्व न केवल यज्ञ की अग्नि के लिए अपितु पर्यावरण-शोधन में भी महत्वपूर्ण द्रव के रूप में प्रतिपादित है (तैत्तिरीय सं., 2/3, 10/1)। यज्ञ से आणविक-विकिरण का प्रभाव बहुत कम हो जाता है। गाय के गोबर से घर लीपने पर विकिरण का प्रभाव समाप्त हो जाता है।

गोघृत की आहुतियां अग्नि में देने से वायुमंडल सुगंधित एवं तुष्टिकारक बनता है। प्रदूषण के कारण वातावरण में समाए रसायन आदि सभी सौम्य विषयों का प्रभाव तत्काल समाप्त हो जाता है। पूना के फर्ग्यूसन कॉलेज के जीवाणु शास्त्रियों ने एक प्रयोग में पाया है कि नित्य अग्निहोत्र की एक समय की आहुतियों से 36x22x10 फुट के हाल में कृत्रिम रूप से निर्मित वायु-प्रदूषण समाप्त हो जाता है। इससे सिद्ध हुआ कि एक समय के अग्निहोत्र से ही 8000 घन फुट वायु का 77.5 प्रतिशत हिस्सा शुद्ध और पुष्टिकारक वायु से युक्त हो जाता है और 96 प्रतिशत कीटाणु नष्ट हो जाते हैं। वेदमंत्रों की ध्वनि शक्ति से भी पर्यावरण को शुद्ध एवं पुष्ट किया जाता है।

वायुमंडल

आकाश-मंडल शब्द

ध्वनि प्रदूषण

ध्वनि प्रदूषण के प्रभाव

ध्वनि-शोधन

उपसंहार

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