वैदिक वाङ्मय और पर्यावरण संस्कृति


पर्यावरण


आज पर्यावरण शब्द जिस अर्थ में प्रयुक्त हो रहा है, अब से तीन-चार दशक पूर्व उसका ऐसा कोई पारिभाषिक अर्थ नहीं था। प्राचीन कोशों में और यहां तक कि संस्कृत हिंदी कोशों में भी यह शब्द उपलब्ध नहीं होता। उसके पीछे मूल कारण यही है कि यह शब्द उस समय तक किसी पारिभाषिक रूप से प्रचलित नहीं हो पाया था। अतएव प्राचीन कोशकारों ने इसका कोई विशेष अर्थ प्रस्तुत नहीं किया। पर्यावरण शब्द की उत्पत्ति, परि-उपसर्ग के साथ आवरण शब्द की संधि से होती है। पर्यावरण एक व्यापक शब्द है। यह उन संपूर्ण शक्तियों, परिस्थितियों एवं वस्तुओं का योग है, जो मानव जगत को परावृत्त करती हैं तथा उनके क्रियाकलापों को अनुशासित करती हैं। हमारे चारों ओर जो विराट प्राकृतिक परिवेश व्याप्त है, उसे ही हम पर्यावरण कहते हैं। परस्परावलंबी संबंध का नाम पर्यावरण है। हमारे चारों ओर जो भी वस्तुएं परिस्थितियां एवं शक्तियां विद्यमान हैं, वे सब हमारे क्रियाकलापों को प्रभावित करती हैं और उसके लिए एक दायरा सुनिश्चित करती हैं। इसी दायरे को हम पर्यावरण कहते हैं। यह दायरा व्यक्ति, गांव, नगर, प्रदेश, महाद्वीप, विश्व अथवा संपूर्ण सौरमंडल या ब्रह्मांड हो सकता है। इसीलिए वेदकालीन मनीषियों ने द्युलोक से लेकर व्यक्ति तक, समस्त परिवेश के लिए शांति की प्रार्थना की है। शुक्ल यजुर्वेद में ऋषि प्रार्थना करता है, ‘द्योः शांतिरंतरिक्षं...’ (शुक्ल यजुर्वेद, 36/17)। इसलिए वैदिक काल से आज तक चिंतकों और मनीषियों द्वारा समय-समय पर पर्यावरण के प्रति अपनी चिंता को अभिव्यक्त कर मानव –जाति को सचेष्ट करने के प्रति अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह किया गया है।

इस प्रकार द्युलोक से लेकर पृथ्वी के सभी जैविक और अजैविक घटक संतुलन की अवस्था में रहें, अदृश्य आकाश (द्युलोक), नक्षत्रयुक्त दृश्य आकाश (अंतरिक्ष), पृथ्वी एवं उसके सभी घटक-जल, औषधियां, वनस्पतियां, संपूर्ण संसाधन (देव) एवं ज्ञान-संतुलन की अवस्था में रहें, तभी व्यक्ति और विश्व, शांत एवं संतुलन में रह सकता है। प्रकृति ने हमें जो कुछ भी परिलक्षित होता है, सभी सम्मिलित रूप में पर्यावरण की रचना करते हैं। जैसे-जल, वायु, मृदा, पादप और प्राणी आदि। अर्थात् जीवों की अनुक्रियाओं को प्रभावित करने वाली समस्त भौतिक और जीवीय परिस्थितियों का योग पर्यावरण है। इसलिए विद्वानों का मत है कि प्रकृति ही मानव का पर्यावरण है और यही उसके संसाधनों का भंडार है।

वैदिक ऋषियों ने उन समस्त उपकारक तत्वों को देव कहकर उनके महत्व को प्रतिपादित तो किया ही है, साथ ही मनुष्य के जीवन में उनके पर्यावरणीय महत्व को भी भली-भांति स्वीकार किया है। इन देवताओं के लिए मनुष्य का जीवन ऋणी हो गया और शास्त्रीय कल्पनाओं ने मनुष्य को पितृऋण और ऋषिऋण के साथ-साथ देवऋण से भी उन्मुक्त होने की ओर संकेत किया है। वह अपने कर्तव्य में देवऋण से मुक्त होने के लिए भी कर्तव्य करें। ऋषियों ने उसके लिए यह मर्यादा स्थापित की है। पर्यावरण को संतुलित रखने के लिए जिन देवताओं की महत्वपूर्ण भूमिका है उनमें – सूर्य, वायु, वरुण (जल) एवं अग्नि देवताओं से रक्षा की कामना की गई है। ऋग्वेद (1/158/1, 7/35/11) तथा अथर्ववेद (10/9/12) में दिव्य, पार्थिव और जलीय देवों से कल्याण की कामना स्पष्ट रूप से उल्लिखित है।

आज पर्यावरण शब्द जिस अर्थ में प्रयुक्त हो रहा है, अब से तीन-चार दशक पूर्व उसका ऐसा कोई पारिभाषिक अर्थ नहीं था। प्राचीन कोशों में और यहां तक कि संस्कृत हिंदी कोशों में भी यह शब्द उपलब्ध नहीं होता। उसके पीछे मूल कारण यही है कि यह शब्द उस समय तक किसी पारिभाषिक रूप से प्रचलित नहीं हो पाया था। अतएव प्राचीन कोशकारों ने इसका कोई विशेष अर्थ प्रस्तुत नहीं किया। पर्यावरण शब्द की उत्पत्ति, परि-उपसर्ग के साथ आवरण शब्द की संधि से होती है। इसके साथ ही आङ्पूर्वक वरण शब्द का प्रयोग भी संस्कृत शब्दार्थ-कौस्तुभ ग्रंथ में हमें प्राप्त होता है, जिसका अर्थ है, ‘ढकना, छिपाना, घेरना, ढक्कन, पर्दा, घेरा, चारदीवारी, वस्त्र, कपड़ा और ढाल (वही, पृ. 200)। इसी ग्रंथ में संस्कृत के उपसर्ग ‘परि’ का अर्थ-सर्वतोभाव, अच्छी तरह, चारों ओर तथा आच्छादन आदि के रूप में मिलता है और ‘आङ्’ भी संस्कृत का एक उपसर्ग है, जिसका अर्थ, ‘समीप, सम्मुख और चारों ओर से होता है (वही, वृ. 170)। वरण शब्द संस्कृत के ‘वृ’ धातु से बना है, जिसका अर्थ, ‘छिपना, चुनना, ढकना, लपेटना, घेरना, बचाना आदि है (वही, पृ. 1056)। इसी प्रकार पर्यावरण – परि+आवरण से बने शब्द का अर्थ, ‘चारों ओर से ढंकना, चारों ओर से घेरना या चारों ओर का घेरा’ होगा। अतएव वैज्ञानिक कोशकारों ने इसका अर्थ, ‘पास पड़ोस की परिस्थितियां और उनका प्रभाव’ के रूप में माना है।

सर्वप्रथम डॉ. रघुवीर ने तकनीकी शब्द कोष निर्माण के समय ‘इन्वायरमेंट’ (फ्रेंच भौतिक शब्द) के लिए ‘पर्यावरण’ शब्द का प्रयोग किया है। वे ही इसके प्रथम ‘शब्द प्रयोक्ता है (कंप्रिहेंसिव इंग्लिश-हिंदी डिक्शनरी, डॉ. रघुवीर, पृ. 589)। वास्तव में पर्यावरण या इन्वायरमेंट शब्द अत्यधिक प्राचीन शब्द नहीं है। जर्मन जीव वैज्ञानिक अर्नेस्ट हीकल द्वारा ‘इकॉलाजी’ शब्द का प्रयोग सन् 1869 में किया गया, जो ग्रीक भाषा के ओइकोस (गृह या वासस्थान) शब्द से उद्धृत है। यही शब्द पारिस्थितिकी के अंग्रेजी पर्याय के रूप में इन्वायरमेंट शब्द से प्रचलित हुआ है। (पर्यावरण तथा प्रदूषण, अरुण रघुवंशी, पृष्ठ 41)। इन्वायरमेंट शब्द का प्रयोग, ऐसी क्रिया जो घेरने के भाव को सूचित करे, के संदर्भ में किया जाता है। विभिन्न कोशों में इसके विभिन्न अर्थ दिए गए हैं। जैसे-वातावरण, उपाधि, परिसर, परिस्थिति, प्रभाव, प्रतिवेश, परिवर्त, तथा वायुमंडल, वातावरण और परिवेश, अड़ोस-पड़ोस, इर्द-गिर्द, आस-पास की वस्तुएं एवं पर्यावरण आदि।

आधुनिक चिंतन में पर्यावरण के दो भेदों का ही वर्णन मिलता है। वे हैं-

1. भौतिक या प्राकृतिक पर्यावरण-इसके अंतर्गत वे तत्व सम्मिलित होते हैं, जो जैवमंडल का निर्माण करते हैं।
2. सांस्कृतिक या मानवकत पर्यावरण इसमें आर्थिक क्रियाएं, धर्म अधिवास, आवासीय दशाएं एवं राजनीतिक परिस्थितियां आदि सम्मिलित हैं। इस प्रकार यह तथ्य वैदिक और आधुनिक चिंतन से स्वयं स्पष्ट होता है कि प्राणि-जगत् को प्रभावित करने वाले पर्यावरणीय तत्व ‘देव’ केवल पार्थिव ही नहीं है, अपितु उनका स्थान अंतरिक्ष और द्युलोक भी है। वैदिक ऋषियों ने उन सभी से प्राणियों की मंगल-कामना एवं सुरक्षा चाही है।

पर्यावरण को जानने के लिए अब यह जानना भी आवश्यक है कि पर्यावरण का निर्माण करने वाले समस्त तत्वों की सृष्टि किस क्रम में और किस प्रकार हुई और उसके कारक तत्व कौन से हैं, तभी पर्यावरण के समस्त रहस्यों से आवरण दूर किया जा सकता है। वैदिक ऋषियों ने ही सर्वप्रथम पर्यावरण पर चिंतन-मनन करते हुए, सृष्टि को प्रारंभिक अवस्था में जिस रूप में देखा, उसका वर्णन ऋग्वेद की ऋचाओं ‘नासदासीत्रो सदासीत्तदानी...’ (ऋग्वेद, 10/129, 1-7) में उपलब्ध होता है। जहां ऋषि कहते हैं कि सृष्टि के आरंभ में न सत् था न असत् फिर ब्राह्मण ग्रंथों (पृ. 158) में भी पुनः शंका उठाई गई कि कौन जानता है यह सब? और कौन उसका वर्णन ही कर सकता है? किंतु इसके समाधान के लिए ऋग्वेद संहिता में मंत्र है, ‘हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे...’ (ऋग्वेद, 10/121/1) जिसमें सृष्टि के विकास-क्रम को बताया गया है कि सर्वप्रथम जीवों का स्वामीभूत हिरण्यगर्भ अस्तित्व में आया और उसी से सृष्टि का अविच्छिन्न विकास हुआ आदि-आदि।विज्ञान के अनुसार प्रकृति सदैव तीन रूपों में विद्यमान रहती है-कण, प्रतिकण एवं विकिरण। चाहे वह सृष्टि उत्पत्ति का समय हो या अन्य कोई समय। वैदिक सिद्धांत के अनुसार प्रकृति में मूल तीन वर्ग, ‘त्रयः कृण्वति भुवनस्य रेत’ (ऋग्वेद, 7/33/7) विद्यमान हैं। ये हैं वरुण, मित्र और अर्यमा। इनकी संयुक्त सत्ता को अदिति कहा गया है, जो अनादि एवं अखंड सत्ता है। व्यक्तिगत रूप से ये आदित्य कहलाते हैं। ये अनादि शाश्वत सत्ता के अंगभूत हैं। अर्यमा उदासीन कण है, जो विज्ञान की विकिरण के फोटांस के अनुरूप है। वरुण और मित्र प्रकृति का द्रव्य भाग बनाते हैं तथा विज्ञान के कण-प्रतिकण का प्रतिनिधित्व करते हैं तथा वे विपरीत आवेश (चार्ज वहन करते हैं। वैदिक परिकल्पनानुसार सृष्टिकाल से दृश्य जगत तक भौतिक पदार्थ पांच अवस्थाओं में निष्क्रमण करते हैं। वैज्ञानिक दृष्टि में महा-अग्निकांड (बिग बैंग) के बाद की अवस्थाएं क्रमशः इस प्रकार हैं-

1. आपः (क्रियाशील) अवस्था-क्वांटम या क्वार्कसूप (शपतथ ब्राह्मण, 1/1/1)
2. बृहती आपः -प्लाज्मा अवस्था (ऋग्वेद, 10/12/7)
3. अपानपात-नाभिक अवस्था या कॉस्मिक मैटर (ऋग्वेद, 1/35/2)
4. अर्ध गर्भ­­­­­: -परमाणु अवस्था (ऋग्वेद, 1/164/36)
5. पंचमहाभूतों (पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश) का दृश्य जगत्।

इसी प्रकार ब्राह्मण ग्रंथों एवं उपनिषदों में –तैत्तिरीय ब्राह्मण (2, 8, 9, 6 तथा 1, 1, 3, 1), गोपथ ब्राह्मण (1, 1, 1, 2), सामविधान ब्राह्मण 1/1), जैमिनीयोपनिषद् ब्राह्मण (7, 1, 1), शतपथ ब्राह्मण (6, 1, 1, 13, 19, 2, 2, 3, 28), जैमिनीय ब्राह्मण (1, 68 तथा 2, 146, ऐतरेय ब्राह्मण (5, 5, 7), ताङ्य ब्राह्मण (4,1, 1), तैत्तिरीय संहिता (4, 1, 8, 3), ऐतरेये उपनिषद् (1, 1), तैत्तिरीय उपनिषद् (2, 7, 10) आदि में भी सृष्टि प्रक्रिया का वर्णन है, जो वेदों की विषद् व्याख्या रूप हैं और उन अर्थों का पूरक भी है। इसी क्रम में दार्शनिकों एवं वेदांत ने भी उसी प्रकार चिंतन किया है। पौराणिक दृष्टि तथा मनु का सृष्टि सिद्धांत व आयुर्वेद का चिंतन भी वैदिक विज्ञान का समर्थन करता हुआ ही प्रतीत होता है।

वस्तुतः सृष्टि की उत्पत्ति और जगत् का विकास ही पर्यावरण प्रादुर्भाव है। सृष्टि का जो प्रयोजन है वही पर्यावरण का भी है। जीवन और पर्यावरण का अन्योन्य संबंध है। इसीलिए आदिकाल से मानव पर्यावरण के प्रति जागरूक रहा है, ताकि मानव दीर्घायुष्व, सुस्वास्थ्य, जीवन-शक्ति, पशु, कीर्ति, धन एवं विज्ञान को उपलब्ध हो सके। यही कामना अथर्ववेद का ऋषि, ‘आयुः प्राणं प्रजां पशुं’ (अथर्ववेद, 19, 71, 1) व ‘शत जीव शरदो’ ...अथर्ववेद, 3, 11, 4) करता है और ऋग्वेद में ऋषि, ‘शतां जीवंतु शरदः...’ (ऋग्वेद 10/18/4) तथा यजुर्वेद में ऋषि, ‘शतिमिन्नु शरदो अंति...’ (यजुर्वेद, 25/22) तथा वह ऋषि का आशीर्वाद पाता है कि हे मनुष्य! बढ़ता हुआ तू सौ शरद ऋतु और सौ बसंत तक जीवित रहे। इंद्र (विद्युत), अग्नि, सविता (सूर्य), बृहस्पति (संकल्पशक्ति) और हवन (यज्ञ) तुझे सौ वर्ष तक आयुष्य प्रदान करें (अथर्ववेद)।

इतना ही नहीं कि किसी भी तरह सौ वर्ष जिएं, प्रत्युत, आरोग्यता और बल के साथ जिएं। हम सौ वर्ष पर्यंत, ज्ञानशक्ति का विकास करें, सौ वर्ष तक जीवन को ज्ञान के अनुकूल विकसित करें, सौ वर्ष तक वेद को सुनें और प्रवचन करें और आयु भर किसी के पराधीन न रहें (ऋग्वेद, 7/66/16)। संतान और धन के साथ अभ्युदय को हम प्राप्त होते हुए बाहर से शुद्ध, अंदर से पवित्र तथा निरंतर यज्ञ करने वाले हों। नृत्य, हास्य, सरलता और कल्याणमय श्रेष्ठ मार्ग के आचरण से आयु बढ़ती है (ऋग्वेद 10/18/2 तथा 10/18/3)। दीर्घायु प्राप्ति के लिए सर्वप्रथम अपने मन में श्रेष्ठ सद्गुण बढ़ाते हुए राष्ट्रीयता तथा क्षात्रतेज अपने अंदर बढ़ाना चाहिए। प्राणशक्ति के साथ आत्मिक बल धारण करने वाले मृत्यु के वश में नहीं जाते (अथर्ववेद 10/3/12 तथा 19/27/8)। इसलिए वेद की उपर्युक्त शाश्वत् भावना के अनुरूप ही पर्यावरण शुद्धि एवं सुस्वास्थ्य मानव की एक बड़ी आवश्यकता है।

वैदिक साहित्य में प्राकृतिक पदार्थों से कल्याण की कामना को स्वस्ति कहा गया है। इस पर आचार्य सायण एवं नैरुक्त चिंतन है कि अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति योग है एवं प्राप्ति का संरक्षण क्षेम है (ऋग्वेद, 5/51/11)। अतएव सहज-सुलभ प्राकृतिक पदार्थों का सुरक्षित रहना स्वस्ति है। इस प्रकार पर्यावरण को सुरक्षित रखने की उदात्त भावनाएं हमें अनेक स्थलों पर देखने को मिलती हैं (ऋग्वेद, 5/51/11, 5/51/13, 5/51/14 तथा 10/7/1)।

पर्यावरणीय तत्वों में समन्वय होना ही सुख शांति का आधार है। दूसरे शब्दों में पदार्थों का परस्पर समन्वय ही शांति है। प्राकृतिक पदार्थों में शांति की भावनाएं अनेक स्थलों पर हमें उपलब्ध होती हैं। जैसे-पृथ्वी हमारे लिए कंटकरहित और उत्तम बसने योग्य हो (ऋग्वेद, 7/35/3 तथा यजुर्वेद 36/13)। हमारे दर्शन के लिए अंतरिक्ष शांतिप्रद हो (ऋग्वेद, 10/35/5)। वह आकाश जिसमें बहुत पदार्थ रखे जाते हैं, हमारे लिए सुख करने वाला हो (ऋग्वेद, 7/35/2)। सूर्य, अपने विस्तीर्ण तेज के साथ हमारे लिए सुख करने वाला हो (ऋग्वेद, 10/35/8)। सूर्य, हमारे लिए सुखकारी तपे (यजुर्वेद, 36/10), चंद्रमा हम लोगों के लिए सुखरूप हो (ऋग्वेद, 7/35/7)। नदी, समुद्र और जल हमारे लिए सुखप्रद हो (ऋग्वेद, 7/35/8)। पीने का जल और वर्षा का जल हमारे लिए कल्याणकारी हो (यजुर्वेद, 36/12)। जलधाराएं तुम्हारे लिए अमृत वस्तुएं बरसाएं (अथर्ववेद, 8/6/5)। ज्योतिर्मय अग्नि हम लोगों के लिए सुखरूप हो (ऋग्वेद, 7/35/4)। अग्नि दुःखदायक रोगादि को और अनावृष्टि आदि दुःखों का हनन करती है (सामवेद मंत्र-4)।

पर्यावरण के संतुलन में वृक्षों के महान् योगदान एवं भूमिका को स्वीकार करते हुए मुनियों ने बृहत् चिंतन किया है। मत्स्य पुराण में उनके महत्व एवं महात्म्य को स्वीकार करते हुए कहा गया है कि दस कुओं के बराबर एक बावड़ी होती है, दस बावड़ियों के बराबर एक तालाब, दस तालाबों के बराबर एक पुत्र है और दस पुत्रों के बराबर एक वृक्ष होता है। इसी प्रकार अन्य पर्यावरणीय घटकों के लिए शुभकामनाएं की गई हैं। जैसे- शीघ्र चलने वाली वायु हम लोगों के लिए सब ओर से सुखरूप होकर बहे (ऋग्वेद, 7/35/4)। पवन हमारे लिए सुखकारी चले (यजुर्वेद, 36/10)। पूर्व आदि चारों दिशाएं व विदिशाएं हमारे लिए सुखरूप हों (ऋग्वेद, 7/35/8)। समस्त दिशाएं हमें मित्रवत सुख दें (अथर्ववेद, 19/15/16)। विशेष दीप्ति वाली उष्माएं हमारा कल्याण करें (ऋग्वेद 7/35/10)। दिन और रात्रि हमारे लिए सुखकारी हो (यजुर्वेद 36/11)। हम दिन और रात में अभय रहें (अथर्ववेद, 19/15/16)। मेघ हम प्रजाजनों के लिए शांतिप्रद हों (ऋग्वेद, 7/35/10)। बिजली और गरज के साथ शब्द करते हुए पर्जन्य (मेघ) देव की वर्षा कल्याणकारी हो (यजुर्वेद, 36/10), आज वैज्ञानिकों ने भी मौसम में बदलाव को नियंत्रित करने में बादलों की भूमिका को स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है (टेक्सास ए एंड एम यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर शाइमा नसीरी, नवभारत, 4 जनवरी, 2011 के रायपुर संस्करण के पृष्ठ 5 पर)। उन्होंने शोध कर कहा कि मध्य स्तर के बादल छोटी बूंदों और बर्फ के कणों का निर्माण करते हैं। उन्होंने इस प्रकार के अध्ययन में नई सेटेलाइट टेक्नोलॉजी को वैज्ञानिक रहस्य उजागर करने में बहुत कारगर एवं सहयोगी बताया। नासा ने इस अध्ययन के लिए प्रो. शाइमी को न केवल सम्मानित किया, अपितु उन्हें भू-व्यवस्था का अध्ययन करने के लिए 3 लाख 24 हजार डॉलर का तीन वर्ष के लिए अनुदान भी दिया।

इसी तारतम्य में वैदिक ऋषियों ने पर्वतों, वृक्षों, वनस्पतियों एवं पशुओं को प्रजाजनों के लिए सुख स्वरूप होने की कामना की है। उदाहरणार्थ-हमारी शांति के लिए पर्वत निश्चल हों (ऋग्वेद 7/35/3 एवं 8), वनों के वृक्ष हमारे लिए सुखरूप हों (ऋग्वेद, 7/35/5), हमारे लिए औषधियां शांतिकारक हों (यजुर्वेद, 36/17), घोड़े और गायें हम लोगों के लिए सुखरूप हों (ऋग्वेद, 7/35/12)। इस प्रकार पर्यावरण के हर घट के शांत एवं सौम्य रहने पर ही विश्व-शांति का स्वप्न साकार होने की कामना वैदिक ऋषियों ने की है। उन्होंने एक संपूर्ण वैचारिक जगत् के साथ-साथ सांस्कृतिक जगत् पर भी अत्यंत गहराई से विचार कर पर्यावरण के दायरे को विराटता प्रदान की है और प्राकृतिक आपदाओं से रक्षा की कामना के साथ-साथ मार्धुय की उदात्त भावना तथा अभय की प्रार्थना भी की है। जहां-जहां हमारे लिए जैसी परिस्थिति हों, वहां-वहां हमें हर प्रकार से अभय प्राप्त हो तथा प्रजा एवं पशुओं से भी हमें अभय मिले (यजुर्वेद, 37/12)। संसार में वायु मधुर होकर चले, नदियां मधुर होकर बहें, औषधियां मधुर उगें। रात मधुर हो प्रभात भी। पृथ्वी, द्यौ, वनस्पतियां, सूर्य और गौवें मधुर हों (यजुर्वेद, 13/27, 29)। हमें अंतरिक्ष अभय करे, द्यावा, पृथ्वी, नीचे-ऊपर, आगे-पीछे, मित्र-शत्रु, ज्ञात-अज्ञात, रात दिन और समस्त दिशाओं से अभय की प्राप्ति हो (अथर्ववेद, 19/15/5/6)।

पर्यावरण के संतुलन में वृक्षों के महान् योगदान एवं भूमिका को स्वीकार करते हुए मुनियों ने बृहत् चिंतन किया है। मत्स्य पुराण में उनके महत्व एवं महात्म्य को स्वीकार करते हुए कहा गया है कि दस कुओं के बराबर एक बावड़ी होती है, दस बावड़ियों के बराबर एक तालाब, दस तालाबों के बराबर एक पुत्र है और दस पुत्रों के बराबर एक वृक्ष होता है-

दश कूप समा वापी, दशवापी समोहद्रः।
दशहृद समः पुत्रो, दशपुत्रो समो द्रुमः।


प्राकृतिक शक्तियों में देवी स्वरूप की अवधारणा मात्र यह इंगित करती है कि हम इनकी रक्षा करें, इनसे अनुराग रखें और स्वस्थ, संतुलित जीवनयापन करते हुए पर्यावरण की यथाशक्ति रक्षा करें। उक्त बिंदुओं को यदि नैतिकता-अनैतिकता की सीमा-रेखा में न भी बांधें तो भी ये प्रकृति और प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के संवाहक प्रतीत होते हैं। भारतीय चिंतन-धारा की यही प्रमुख विशेषता है, जो इस प्रदूषण-अभिशप्त सदी में हमें अपने अतीत की बार-बार याद दिलाती है।

प्रदूषण


पर्यावरण प्रदूषण की आज अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा जोर-शोर से होने लगी है, लेकिन इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि यह शब्द अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अचानक ही दो-चार दशक पूर्व प्रकट हो गया है। इसकी अवधारणा भले ही नई लगती हो, किंतु यह तो प्रकृति के प्रारंभ से ही विद्यमान रहा है, क्योंकि मानव द्वारा श्वास और मल-मूत्र तथा पसीना त्यागने के साथ-ही-साथ प्रदूषण आरंभ हो गया।

महर्षि यास्क ने अपने निरुक्त में वस्तु या भाव के जो छह विकार गिनाए हैं, उनमें पर्यावरण के संबंध में अस्ति या सत्ता शब्द चिंतनीय हैं। इसकी व्याख्या में वे कहते हैं कि कोई वस्तु तभी अपनी सत्ता बनाए रख सकती है।, जब वह स्वयं को धारण करने में समर्थ हो। जब उसमें बाहरी हस्तक्षेप अधिक होता है अथवा उसकी नैसर्गिक संरचना विकृत होती है तो उसकी आत्मधारणा शक्ति नष्ट हो जाती है, यही उसका प्रदूषण है। वस्तु के निर्माण का जो अनुपात है, वह स्थित रहना चाहिए। अनुपात भंग हुआ और वस्तु का स्वास्थ्य नष्ट हो गया। वस्तु के स्वास्थ्य का विनष्ट होना ही प्रदूषण है।

प्रकृति में एक का उच्छिष्ट दूसरे के लिए उपभोग्य बन जाता है। प्रकृति की संतुलन प्रक्रिया सृष्टि के आदिकाल से अनवरत एवं अविछिन्न रूप से चली आ रही है। यदि किसी कारण से इसमें कभी कोई व्यवधान पड़ता है तो पारिवेशिक संतुलन में प्रतिकूल स्थितियां दृष्टिगत होने लगती हैं। वस्तुतः प्रकृति में उत्पन्न होने वाली यही प्रतिकूलता प्रदूषण है। प्रदूषण के भाव को दर्शाने वाले कुछ शब्द हमें प्राचीन संस्कृत साहित्य में उपलब्ध होते हैं। जैसे-

‘रपः’ शब्द वैदिक वाङ्मय में कुछ स्थलों पर आया है, जिसे शारीरिक दोष या बुराई के अर्थ में माना गया है। ऋग्वेद में प्राचीन चिकित्सक अश्विनी कुमारों से प्रार्थना की गई है कि तुम हमारे दोषों को अच्छी प्रकार शोधन करो (ऋग्वेद, 1/34/11)। इसी प्रकार रुद्रदेव को देवकृत पाप का अपहरण करने वाला तथा किए हुए अपराध को क्षमा करने वाला या विनष्ट करने वाला बताया गया है (ऋग्वेद, 2/33/7 तथा 10/97/10)। औषधियों को भी शरीर के प्रदूषण को दूर करने वाली बताया गया है और अन्यत्र वायु से व्याधि दूर कर सूख प्रदान करने और दोषों को हटाने की कामना की गई है (ऋग्वेद, 10/137/10)।

इसी प्रकार ‘विष’ शब्द का प्रयोग शारीरिक व प्राकृतिक प्रदूषण के रूप में किया गया है। ऋग्वेद के प्रथम मंडल के 191वें सूक्त के मंत्रों में विष शब्द अनेक बार प्रयुक्त हुआ है। ऋषि अगस्त्य ने विष की आशंका से युक्त होकर उसके निवारण के लिए इस सूक्त का प्रयोग किया है। इसके देवता जल, तृण और सूर्य हैं तथा इसमें मधुविद्या का वर्णन है। आचार्य सायण ने इसे विषरहित करने वाली मधुविद्या कहा है कि यह विषभाव को दूर कर अमृत बनाती है। उन्होंने इसके अल्प और महाविष- दो प्रकार लिखे हैं। इकाई अथवा सामूहिक रूप से इसका प्रयोग किया जा सकता है। विष के प्रभाव से खाद्य, पेय, भक्ष्य सामग्री तथा जल एवं वायु आदि विषाक्त हो जाते हैं। इस प्रकार सभी विष क्षोभक और श्वासरोधक होकर प्राणों का नाश करते हैं। प्राचीन युग के विष चिकित्सक अपने राजा की सेना एवं जनपद की रक्षा करने में समर्थ होते थे।

एक और शब्द ‘पाप’ भी प्रदूषण के पर्याय स्वरूप अथर्ववेद में आया है (अथर्ववेद, 10/1/10)। उपनिषदों में प्रदूषण का पर्याय ‘पाप’ शब्द आया है (महानारायणोपनिषद्, 4/6)। यहां मिट्टी से दोष हरने की प्रार्थना है। अन्यत्र तिल को भी पापनाशक माना है। कहीं-कहीं ‘मल’ शब्द भी प्रदूषक वाचक माना गया है (अथर्ववेद, 6/115/3) इसमें स्नान करने से जैसे दैहिक मल दूर होता है, वैसे ही पवित्र आचरण व व्यवहार से सभी लोग प्रदूषण से बचने के लिए प्रयत्नशील हों। इसी प्रकार ऋग्वेद में पापों और हिंसकों के आने के पूर्व ही उनसे बचने के लिए प्रयत्न करने को कहा गया है (ऋग्वेद, 8/44/30 तथा 10/113/10)। इसके लिए यहां ‘दुरित’ शब्द का प्रयोग हुआ है। कुछ स्थलों पर ‘अहः’ शब्द भी पर्यावरण के लिए प्रयुक्त हुआ है (ऋग्वेद, 1/106/10)। इसमें यह प्रार्थना है कि हमसे सभी दोषों को दूर कर दें। अथर्ववेद 4/27/1 से 7/11/6 तथा 6/8 एवं 10/21) के अनेक मंत्रों में मरुत देवों से पाप एवं दोषों को छुड़ाने की बार-बार प्रार्थना की गई है। वेद में एक और शब्द ‘एनः’ उन्हीं अर्थों में आया है, जिनमें अहं: या अध शब्द आए हैं। यजुर्वेद के कई मंत्रों में – अग्नि, वायु और सूर्य द्वारा दिन-रात, स्वप्न अथवा जागते हुए पाप अथवा प्रदूषण से छूटने की कामना की गई है (यजुर्वेद, 20/14 से 16)।

प्रदूषण निवारण के लिए ऋग्वेद (मंडल 7, सूक्त 50) में विभिन्न पदार्थों से विष आदि हरण की कामनाएं की गई हैं। आचार्य सायण ने ‘विषादिहरणे विनियोग’ लिखकर ही इस सूक्त का भाष्य किया है। प्रथम मंत्र में मित्र वरुण देवताओं से प्रार्थना की गई है कि विशेष रूप से बढ़े हुए विष से बचाते हुए हमारे पालना करें। ‘अजका’ नामक रोग की तरह यह अनिष्टकारी विष समाप्त हो, जिससे हम लोग प्रदूषण के पाप से पीड़ित न हों। दूसरे मंत्र में कहा गया है कि वृक्षों की गांठ में अथवा शरीर के विभिन्न भागों में जो विष है, उसे प्रदीप्त अग्नि हमसे दूर करे। तीसरे मंत्र में, जो प्राण हरने वाला पदार्थ विष सेमर आदि वृक्षों में तथा जो नदियों के प्रवाह में होता है और जो विष, यव आदि औषधियों से उत्पन्न होता है, उस विष को विद्वान् निरंतर दूर करें, ताकि उस पापाचरण प्रदूषण से उत्पन्न होने वाले रोग हमें प्राप्त न हों।

ऋग्वेद (7/104/9) में चेतावनी दी गई है कि जो कल्याणकारक पदार्थों अथवा वचनों को अपनी क्रियाओं से दूषित करते हैं, वे राक्षस दुःख सागर में गोते खाते हैं। इस प्रकार भौतिक एवं वैचारिक प्रदूषण के प्रति भी ऋषियों ने अपनी चिंता प्रकट की है। ऋग्वेद (10/137/5) के इस मंत्र में, देवगणों से प्रदूषण आदि दोषों से हमारे शरीर की रक्षा करने की कामना की गई है। इस लोक में सारी दिव्य शक्तियां सबकी रक्षा करें, मरुतों का समूह सबकी रक्षा करे, समस्त उत्पन्न पदार्थ हमारी रक्षा करें, जिससे हमारे शरीर आदि निर्दोष रहें। इसी प्रकार अथर्ववेद (8/2/19) में भी प्रदूषण मुक्ति की कामना उपलब्ध है, ‘हे मनुष्य! जो तू खेती का उपजा धान्य खाता है और जो तू दूध व जल पीता है, चाहे वह नया हो या पुराना, वह सब अन्नादि तेरे लिए विष रहित हों।’

प्रदूषण : सृष्टि के लिए विनाशकारी


सृष्टि की विनाश प्रक्रिया पर विचार करने पर यही निष्कर्ष निकलता है कि विनाश का मूल कारण प्रदूषण ही है, क्योंकि व्यक्त पदार्थों के गुणों में विकार उत्पन्न होने पर, उनके विनष्ट होने की प्रक्रिया प्रारंभ होती है। इसे ही वेदों में प्रतिसर्ग अथवा सर्ग कहा गया है। उक्त विकार को ही आधुनिक भाषा में प्रदूषण कहते हैं। वेदों को व्याख्यायित करते हुए वायुपुराण (62/15) में महर्षि वेदव्यास ने अपनी चिंता प्रकट करते हुए कहा है कि इस सृष्टि के अपने स्वरूप में अधिष्ठित हो जाने पर इसका अंधाधुंध दोहन न किया जाए, क्योंकि मनुष्यों के क्रियाकलापों तथा अतिशय भोगवादिता के कारण प्राकृत पदार्थों में समय पूर्व वे दोष उत्पन्न हो जाते हैं, जो कल्प के अंत में आने वाली प्रलय में उत्पन्न होते हैं, जिससे यह दृश्य प्रकृति लय की ओर अग्रसर हो दुःखद हो जाता है। ऋग्वेद (10/86/5) का ऋषि भी इसी प्रकार चिंता करते हुए कहता है कि पर्यावरण प्रदूषण द्वारा बनाए हुए व्यक्त पदार्थों को, जब मनुष्य अपनी अतिशय भोगतृष्णा से दूषित करता है, तब यह प्रकृति उसके सिर को झुका देती है। ऐसे विनाश की ओर जाने वाला विश्व के लिए यह प्रकृति सुज्ञेय एवं सुखकारी नहीं होती।

प्रदूषण का प्रभाव


प्रदूषण के कारण अत्यधिक ताप बढ़ जाने से सूर्यादि ग्रह क्रूर हो जाते हैं और सर्य की किरणें उग्र होकर स्थावर, जंगल, नदी, पर्वत, वनस्पति आदि तीनों लोकों को जलाने लगती हैं (महाभारत, भिष्म पर्व, 77/11 तथा वायु पुराण, 7/41-42।) इसी प्रकार मत्स्य पुराण में भी कहा गया है कि प्रचंड सूर्य अपनी किरणों से समुद्रों को शोषित कर संपूर्ण नदी, कूप एवं पर्वतों के झरनों के जल को भी सूखा देता है और अंत में वह अपनी प्रलयकालीन किरणों द्वारा पृथ्वी का भेदन करता हुआ, पाताल के जल को भी अर्थात् भूगर्भ के जल को भी खींच लेता है (मत्स्यपुराण, 165/1-3)। इससे भूगर्भीय जल का स्तर निरंतर नीचे गिरने लगता है, जिससे कुएं और नलकूप असफल होने लगते हैं और चारों ओर विशेष रूप से ग्रीष्म ऋतु में पानी के जल का भीषण संकट ग्राम और नगर सब ओर दिखाई देने लगता है। इस भीषण अग्नि से, वन आदि जलने लगते हैं। मत्स्य पुराण (165/11/1) में इसी प्रलयकालीन संवर्तक अग्नि के विनाशक रूप का वर्णन किया गया है।

इसी प्रकार अधिक ताप उत्पन्न होने के कारण भयानक आंधियां चलने लगती हैं और प्रकुपित वायु के प्रकोप से विनाशकारी मेघ, सूर्य, अग्नि और आंधियों की उत्पत्ति होती है (महाभारत, शल्य पर्व, 66/6)। यह प्रकुपित वायु समुद्रों को भी सुखा देती हैं, जिससे भीषण जल-संकट उत्पन्न हो जाता है। अधिक ताप उत्पन्न होने के फलस्वरूप वृष्टि (वर्षा) असंभव हो जाती है और अनावृष्टि से चारों ओर हाहाकार मचने लगता है। यही संकेत ब्रह्मपुराण (231/14) में भी किया गया है। इस प्रकार बढ़े हुए ताप को ही ‘कालाग्नि’ के नाम से अभिहित किया गया है और उसके द्वारा विदग्ध हुई भूमि का भयावह चित्रण करते हुए महाभारत (शांतिपर्व, 293/4) में कहा गया है कि इससे समस्त स्थावर-जंगल प्राणियों के नष्ट होने का संकट उत्पन्न हो जाता है और अंत में समुद्रों का जल सूख जाने के कारण इस भूमि के जल और तृण आदि से रहित होने पर कछुए की पीठ की तरह स्वरूप होने की संभावना प्रबल हो जाती है। इस प्रकार अत्यधिक ताप और भयानक आंधियों के पश्चात उनसे भी अधिक भयंकर घने मेघ आकाश में उत्पन्न होते हैं और घनघोर वर्षा द्वारा इस संसार के जल-प्लावित होने का भय उत्पन्न हो जाता है, जिससे इस सृष्टि के डूबकर नष्ट होने की संभावनाएं प्रबल हो जाती हैं (मत्स्यपुराण, 165/15)। ब्रह्मपुराम (232/14-19) में इसी प्रकृति-प्रलय की संभावनाओं को प्रदर्शित करते शार्दूल-मुनि ने पर्यावरण रक्षा के लिए विश्व को सचेत रहने का उपदेश किया है और भौतिक पर्यावरण में इनकी रक्षा का उपाय बताते हुए, इनके स्थान क्रम को इस प्रकार परिगणित किया है- 1. पृथ्वी मंडल, 2. जल मंडल, 3. तेजो मंडल, 4. वायु मंडल और 5. आकाश मंडल। इनका संक्षिप्त वर्णन निम्न प्रकार हैं-

पृथ्वी मंडल


इस संदर्भ में भूमि, वन, प्राणी, पर्वत, ग्रह और ऋतु आदि का समावेश किया गया है। प्राकृतिक पदार्थों का विशिष्ट उपभोक्ता मनुष्य ही है। उपभोग की अधिकांश वस्तुएं इस प्रकृति में हैं, इसलिए भौतिक पर्यावरण में प्रथम स्थान में परिगणित पृथ्वी आदि शब्द विचारणीय है। पृथ्वी के अनेक गुणों के कारण उसके अनेक पर्यायवाची शब्द उसमें अभिहित अर्थों की ओर संकेत करते हैं। उक्त नामों में से कुछ नामों पर संहिता ग्रंथों एवं वैदिक व्याख्यापरक वाङ्मय में विवेचना की गई है। यहां स्थानाभाव के कारण उनके केवल संदर्भ दिए गए हैं। यथा-

1. पृथ्वी (तैत्तिरीय संहिता, 2/1/2/3, निरुक्त, 1/4/5, ऋग्वेद सायण भाष्य, 5/85/1 और अमरकोश, रामाश्रमी : टीका, पृ. 141) के विस्तार के कारण पृथ्वी है।
2. गौः (निरुक्त 2/2/5) गति के कारण गौ है।
3. भूमि (रामाश्रमी टीका, अमरकोष पृ. 141) निवास योग्य होने के कारण भूमि है।
4. वसुंधरा (वही, पृ. 141 रत्न आदि धनों से युक्त होने के कारण।5. मही (वही, पृ. 141) पूजनीय एवं इसमें प्राणियों के बड़े होने के कारण।
6. धरा (वही, पृ. 141) धारण करने के कारण।
7. धरणी (वही, पृ. 141) धारण करने के कारण।
8. अवनी (वही, पृ. 141) प्राणियों की रक्षा एवं पालन करने के कारण।
9. मेदिनी (वही, पृ. 141) समस्त प्राणियों से स्नेह होने के कारण।
10 स्थिरा (वही, पृ. 141) अपने स्थान पर स्थित रहने के कारण।
11. विश्वंभरा (वही, पृ. 141) सबका भरण-पोषण होने के कारण।
12. रसा (वही, पृ. 141) रस से परिपूर्ण होने के कारण।
13. क्षमा (वही, पृ. 141) क्षमाशील होने के कारण।
14. गोत्रा (वही, पृ. 142) सहनशील होने के कारण।
15. सर्वसहा (वही, पृ. 142) सब कुछ सहने के योग्य होने के कारण।
16. अचल (वही, पृ. 142) स्थित होने के कारण।
17. अनंता (वही, पृ. 142) अंतिम छोर न होने के कारण।

इसी प्रकार पृथ्वी-उत्पत्ति के इतिहास पर, सृष्टि-सृजन से लेकर आज तक चिंतन करने पर, उसके स्वरूप का भी बोध होता है। यथा-

1. मृणमयी पृथ्वी-भुवनमात्र में प्रथम उत्पन्न होने के कारण इस भूमि को मृणमयी कहा गया है (यजुर्वेद, 37/4 एवं शतपथ ब्राह्मण, 14/1/2/10)। जल प्रधान आर्द्रा पृथ्वी में अग्नि और जल के मेल से मलाई रूप झाग (फेन) उत्पन्न होकर, जब वह कुछ ठोस आकृति में परिवर्तित हो गया, तब वही मृद कहलाया। वही मृद पृथ्वी कहलाई (शतपथ ब्राह्मण, 14/1/2/9)।

2. अश्ममयी पृथ्वी- मृदा के तप्त होने पर सफेद और काली दो प्रकार की सिकता बनी। (शतपथ ब्राह्मण, 6/1, 3/4/7, 3/1, 4/3) और ढीली पृथ्वी को देवों ने कंकर-पत्थर से दृढ़ किया (शतपथ ब्राह्मण, 6/1/3/3 तथा मैत्रयणी संहिता 1/6/3)। इस प्रकार पृथ्वी अश्ममयी हुई।

3. रत्नगर्भा भूमि (अथर्ववेद 12/1/26 तथा गोपथ ब्राह्मण, 2/2/7)।
4. अग्निगर्भा पृथ्वी (अथर्ववेद, 12/1/21, शतपथ, 14/9/4/21 तथा जैमनीय ब्राह्मण, 3/186)।
5. परिमंडल पृथ्वी (शतपथ ब्राह्मण, 7/1/1/37 व जैमिनीय ब्राह्मण, 1/2/5/7)।
6. हरित भूमि (ऋग्वेद 5/84/3, 6/47/27, 7/34/23 व मैत्रायणी संहिता, 3/9/2, 4/5/5/ जैमनीय ब्राह्मण, 2/5/4 व कोषीतकी ब्राह्मण, 6/14)।
7. गंधवती पृथ्वी (अथर्ववेद, 12/1/23-25 तथा शतपथ ब्राह्मण, 9/4/1/8, 10)।

पृथ्वी एवं पर्यावरण


वेदों में सर्वप्रथम भूमि संस्कारवान बनाने के लिए कहा गया है। भूमि और अन्न को प्रदूषणरहित रखने के लिए मलिन अथवा विषयुक्त खाद डालकर उसे बिगाड़ने के प्रति निषेध किया गया है। यजुर्वेद में हल बैलों द्वारा खेतों को जोतकर, उत्तम अन्नों के बीज बोने का निर्देश दिया गया है। खेतों में गोबर-खाद डालें और विष्ठा आदि मलिन पदार्थ न डालने के लिए कहा गया है। बीजों को सुगंध आदि से उपचारित करके बोएं ताकि अन्न भी रोगरहित होकर मनुष्य की बुद्धि को बढ़ाए। वहां निर्देश दिया गया है कि खेतों को घी, मीठा, और जल आदि से संस्कारित करें।

पृथ्वी पर्यावरण का महत्वपूर्ण अंग है। प्राणी जिस पर बसते हैं और जिसके आधार पर जीवन पाते हैं, वह भूमि निश्चय ही वंदनीय एवं अतिशय उपयोगी है। इसीलिए पृथ्वी को माता कहकर नमन करने का संकेत वेदमंत्रों में है (अथर्ववेद, 12/1/23/2/5, ऋग्वेद, 10/18, 10/11यजुर्वेद 9/22, 13/18, 36/13 व अथर्ववेद, 12/1/1-3, 12/1/6, 10/12, 6/21/1)। पृथ्वी के अत्यधिक महत्व का प्रतिपादन आधुनिक पर्यावरणविदों ने भी किया है। भूमि या मिट्टी सर्वाधिक मूल्यवान संसाधन हैं, क्योंकि विश्व के 71 प्रतिशत खाद्य पदार्थ मिट्टी से ही पैदा होते हैं। 2 प्रतिशत भाग में ही कृषि योग्य भूमि है, जो निम्न प्रकार है-

1. कृषि भूमि – भूमंडल का 2 प्रतिशत- 71 प्रतिशत खाद्य पदार्थ।
2. वन भूमि- भूमंडल का 8.8 प्रतिशत- 10.4 प्रतिशत खाद्य पदार्थ।
3. घास मैदान- भूमंडल का 7.2 प्रतिशत- 12 प्रतिशत खाद्य पदार्थ।
4. दलदल व मरुस्थल-भूमंडल का 10.4 प्रतिशत- 3.3 प्रतिशत खाद्य पदार्थ।
5. समुद्र- 71.8 प्रतिशत- 3.3 प्रतिशत खाद्य पदार्थ।

इस प्रकार हम देखते हैं कि भूमि या मिट्टी एक अतिसीमित किंतु मूल्यवान संसाधन है। खाद्य पदार्थों की समुचित उपलब्धि के लिए इस सीमित संसाधन को प्रदूषण से बचाना आज की अनिवार्य आवश्यकता है।

प्रदूषण रहित भूमि एवं उसका संरक्षण


ऋग्वेद में भूमि संरक्षण संबंधी विभिन्न विचार उपलब्ध हैं। उनमें ऋषि द्वारा विद्वानों को सत्य लक्षणों से युक्त ज्ञान से प्रकाशित मंत्रों से भूमि को धारण करने का निर्देश दिया गया है (ऋग्वेद, 1/67/3)। उनमें राजा को आदेश दिया गया है कि वह धन, औषधि, जल आदि को धारण करने वाली पृथ्वी की सुरक्षा करें (ऋग्वेद, 3/51/5 तथा 3/55/22)। यजुर्वेद में यह कामना करते हुए संदेश दिया गया है कि भूमि को अपने दुष्कर्मों से न बिगाड़ें, उसको प्रदूषित करना उसके प्रति हिंसा है। भूमि की हिंसा हम और हिंसा हमारी भूमि न करे (यजुर्वेद, 10/23)। अथर्ववेद में ऋषि कहते हैं कि सबका पालन करने वाली भूमि की उपजाऊ शक्ति को नष्ट न होने दें। हे भूमि, हम तेरी खुदाई करें, वह शीघ्र भर जाए, हम तेरी हिंसा न करें (अथर्ववेद, 12/1/34-35)। भूमिसूक्त के ऋषि प्रार्थना करते हुए कहते हैं कि यज्ञ भूमि में देवताओं के लिए हम अंलकृत हव्य प्रदान करें। उसी भूमि में मरणशील मनुष्य स्वधा और अन्न से जीवन धारण करते हैं। वह भूमि हमें वृद्धावस्था तक प्राणप्रद वायु प्रदान करे। पृथ्वी की गोद हमारे लिए निरोग और सब रोग से रहित हो। दीर्घकाल तक जागते हुए हम अपने जीवन को इसकी सेवा में लगाएं (अथर्ववेद, 12/1/22 तथा 12/1/62)।

भूमिसूक्त का ऋषि हमें बताता है कि निवास योग्य तथा विभिन्न कार्यों में प्रयोग होने वाली भूमि का संरक्षण करने से वह सुखद होती है। हे भूमि, तुम्हारी पहाड़ियां, हिमाच्छादित पर्वत, वन, पुष्टि देने वाली भूरे रंग की मिट्टी, कृषि-योग्य काली मिट्टी, उपजाऊ लाल रंग की मिट्टी अनेक रूपों वाली, सबका आश्रय स्थान, स्थिर भूमि पर अजेय, अवध्य और अक्षत रहकर हम निवास करें (अथर्ववेद, 12/1/11)। वेदों में मनुष्य को समृद्ध बनाने वाली उर्वरा भूमि के लिए कृषकों एवं वैज्ञानिकों की प्रेरणा दी गई है कि वे उसकी उर्वरा-शक्ति बनाए रखने के लिए पर्यावरण-प्रदूषित करने वाले खाद के स्थान पर, गोबर-खाद प्रयुक्त खेती को ही उत्तम फलवती मानकर, मधुर अन्न उत्पन्न करने वाले खाद के स्थान पर उन्नत करें। बार-बार बुआई से भूमि की उर्वरा शक्ति नष्ट होने की ओर संकेत किया गया है कि सब कुछ देने वाली जिस विस्तृत पृथ्वी की जागरूक, विविध व्यवहारों में कुशल विद्वान प्रजाजन प्रमादरहित होकर रक्षा करते हैं, उस भूमि को हम प्रिय मधु दिया करें तथा हम उसके तेज को बढ़ाएं (अथर्ववेद, 19/31/2 तथा 12/17)।

प्रदूषण रहित प्राचीन कृषि विज्ञान


वेदों में सर्वप्रथम भूमि संस्कारवान बनाने के लिए कहा गया है। भूमि और अन्न को प्रदूषणरहित रखने के लिए मलिन अथवा विषयुक्त खाद डालकर उसे बिगाड़ने के प्रति निषेध किया गया है। यजुर्वेद में हल बैलों द्वारा खेतों को जोतकर, उत्तम अन्नों के बीज बोने का निर्देश दिया गया है। खेतों में गोबर-खाद डालें और विष्ठा आदि मलिन पदार्थ न डालने के लिए कहा गया है। बीजों को सुगंध आदि से उपचारित करके बोएं ताकि अन्न भी रोगरहित होकर मनुष्य की बुद्धि को बढ़ाए। वहां निर्देश दिया गया है कि खेतों को घी, मीठा, और जल आदि से संस्कारित करें। यहां मीठा का अर्थ शहद या शक्कर से लिया गया है। प्रदूषणरहित कृषि ही राष्ट्र निवासियों को बलवान बनाती है। इसलिए राजा को भी आदेश दिया गया है कि राजा हमारे लिए ऐसी खेती को सदैव बढ़ावा दें, उसे प्रोत्साहित करें। मनुष्यों में तेज और बल बढ़ने से ही उत्तम राष्ट्र उन्नतिशील होता है और यह संभव होता है प्रदूषणरहित कृषि अपनाने से (ऋग्वेद, 10/101/3, 4 तथा यजुर्वेद 4/10, 12/69/70, 23/46 एवं अथर्ववेद 8/10/12 व 3/12/4)।

यज्ञ द्वारा प्रदूषण निवारण


भूमि प्रदूषण निवारण हेतु अनेक उपाय वैदिक साहित्य में उपलब्ध हैं। उन उपायों में यज्ञ महत्वपूर्ण है, जिससे पृथ्वी सस्यादि से पुष्ट होकर सुख देने वाली बनती है। वैदिक ऋषि कहते हैं कि विस्तृत द्युलोक तथा भूमि हमारे इस यज्ञ का सेवन करे और वे यज्ञ से पोषण प्राप्त कर, हमारे भरण-पोषण करें। क्योंकि यजमान द्वारा अऩुष्ठीयमान यज्ञ वर्षाकारक इंद्र की शक्ति को बढ़ाता है और भू-लोक को विविध अनाज आदि से पुष्ट करता है (ऋग्वेद 1/22/13 तथा 8/14/5)।

प्रदूषण से भूमि फलवती नहीं होती, जिसे आचार्य सायण ने अनृत का परिणाम लिखा है। उन्होंने कहा है कि सत्यविरोधी अधर्माचरण से भूमि में अन्नादि नहीं फलते। यजमान द्वारा यज्ञादि में दी गई आहुति से देवगण नया जीवन पाते हैं। अग्नि में घी-सामग्री को हवि देने से भूमि महती होती है और वर्षा द्वारा अनाज आदि की वृद्धि के कारण औषधि से प्रवर्धित पृथ्वी बलवती होती है (ऋग्वेद, 10/85/ 1-2)। यजुर्वेद में भी पृथ्वी को यज्ञ के द्वारा समर्थ बनाने की कामना की गई है। उसमें कहा गया है कि विस्तृत भूमि और उसमें स्थित पत्थर, हिरा आदि रत्न, मिट्टी, मेघ, छोटे-बड़े पर्वत और उसमे होने वाले पदार्थ, रेत आदि और बड़, पीपल, आम आदि वृक्ष, सोना, चांदी, लोहा, तांबा, नीलमणि, चंद्रमणि, सीसा और लाख, जस्ता एवं पीतल आदि- ये सब यज्ञ से समर्थ होते हैं (यजुर्वेद, 18/13/18)। इसमें पृथ्वी को भस्म से भरने का भी संकेत है, जो यज्ञ से प्राप्त होती है, चूंकि यज्ञ की भस्म द्वारा उत्तमोत्तम औषधियों का क्षारतत्व पृथ्वी को प्राप्त होता है (यजुर्वेद 6/21 तथा मैत्रायणी संहिता 3/9/4)।

यजुर्वेद में आया है कि भूमि को उपयोगी बनाते समय यज्ञ का प्रयोग करें। इससे पृथ्वी समर्थ और शक्तिशाली बनेगी। वर्षा भी यज्ञ द्वारा समर्थ होती है। वहां यह भी कहा गया है कि यदि उत्तान लेटी हुई भूमि का हृदय क्षतिग्रस्त हो गया है और उसकी उपजाऊ शक्ति क्षीण या समाप्तप्रायः हो गई है तो कुछ समय उसमें खेती न करके तथा उसे खाली रखकर उसमें शुद्ध वायु, सूर्यरश्मि, वर्षा आदि द्वारा पुनः शक्ति का संधान करना चाहिए (यजुर्वेद, 18/9, 11/39 एवं आर्षज्योति, पृ. 261)।

पर्यावरण का संदेश


अथर्ववेद में ‘भूमि की हरेपन से रक्षा करने’ का जो संदेश है, उसके द्वारा दो बातें कही गई हैं। प्रथम तो यह कि पर्यावरण तथा प्राणियों की रक्षा पृथ्वी में हरियाली के माध्यम से होती है एवं द्वितीय यह कि भूमि भी पेड़-पौधों की हरितिमा से सुरक्षित रहती है। इसलिए भूमि को प्रदूषण से बचाए रखने के लिए न केवल हरियाली के प्रभाव को समझना होगा, अपितु सघन वृक्षारोपण कार्यक्रम चलाकर, धरती पर हरियाली का हर संभव प्रयास करना होगा। यही कारण है कि हमारे चिंतक मनीषियों ने वृक्षों एवं वनों की रक्षा करने वालों का विशेष सम्मान करने तथा उन्हें सतत् अन्न-धन देते रहने का संदेश दिया है। इसीलिए अथर्ववेद के भूमिसूक्त में ऋषि ने भूमि से भी कहा है कि तेरे जंगल हमारे लिए सुखदायी हों (अथर्ववेद, 5/28/5, 12/1/11 तथा यजुर्ववेद, 16/18-20)। सुश्रुत संहिता (कल्पस्थान, 3/12) में भूमि उपचार (चिकित्सा) का वर्णन करते हुए बताया गया है कि अनंता (सारिवा) को एलादिगण (सर्वगंधा) के साथ सुरा में पीसकर दूध तथा काली मिट्टी अथवा वाल्मीकि मिट्टी मिलाकर इससे छिड़काव करें। इसके अतिरिक्त वायविडंग, पाठा, कटभी (अपराजिता) आदि द्रव्यों के काढ़े से प्रदूषित भूमि में परिषेक क्रिया करें।

पर्यावरण वानिकी


वैदिककाल में लोकजीवन वनस्पतिमय था। वन्य प्रदेशों में तो वनस्पतियों का बाहुल्य था ही, ग्रामीण क्षेत्रों में भी उसकी अधिकता थी। इस कारण मनुष्य अपनी दैनंदिन आवश्यकताओं की पूर्ति उसी के माध्यम से करता था। यज्ञों में भी वनस्पतियों का विशेष उपयोग था। इन प्राकृत प्रयोजनों के अतिरिक्त विकारों के निवारण के लिए भी वनस्पतियों का प्रयोग होता था। प्राचीन मानव के योग क्षेम में वनस्पतियों का महत्वपूर्ण स्थान था। यही कारण है कि हमें वैदिक वाङ्मय में औषधि-वनस्पतियों की स्तुति में अनेक मंत्र उपलब्ध होते हैं। ऋग्वेद के औषधि सूक्त (1/187 तथा 10/97) तो प्रसिद्ध ही हैं, अथर्ववेद में भी ऐसे अनेक स्थल (अथर्ववेद, 8, 7, 11, 6, 19, 28, 44) तथा यजुर्वेद का 12वां अध्याय है, जहां मंत्रदृष्टा महर्षि वनस्पतियों की स्तुति करते नहीं अघाते।

वैदिककाल में प्रकृति के साहचर्य से भी वनस्पतियों का ज्ञान प्राप्त किया गया। सभ्यता के विकास के साथ जैसे-जैसे उसकी आवश्यकताएं बढ़ने लगीं, वैसे-वैसे वनस्पतियों का क्षेत्र विकसित होता गया। इस कार्य में उसने प्राणियों से भी सहायता ली। पशु-पक्षी अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जिन औषधियों का उपयोग करते थे, उन पर भी मनुष्य ने अपने लिए प्रयोग किए। पशुओं की प्रयोगशाला में भी उसने अनेक अनुसंधान किए (अथर्ववेद, चिकित्सा विज्ञान, पृ. 69-70)। कुछ पौधों को वराह (सूअर) जानता है और कुछ औषधियों को नेवला, कुछ को सांप और गंधर्व। कुछ आंगिरसी औषधियां सुपर्ण (चील, गिद्ध) जानते है और कुछ रघट जानता है। कुछ को पक्षी एवं हंस तथा अन्य पंखवाली चिड़िया जानती हैं। कुछ औषधियां मृग जानते हैं। न जाने कितनी औषधियां गौएं खाती हैं और कितनी भेड़-बकरियां। ये सब औषधियां कल्याणकारी और पोषक हों (अथर्ववेद, 8/7/23-25)। इसी प्रकार आयुर्वेद के आचार्यों ने और भी अनेक औषधियों का आविष्कार किया, जो पर्यावरण संतुलन के लिए अत्यंत आवश्यक थीं (वैज्ञानिक विकास की भारतीय पंरपरा, डॉ. सत्यप्रकाश, पृ. 219)। इसी प्रकार वैदिक ऋषि अत्रि ने वन और वर्षा का परस्पर संबंध बताते हुए कहा है कि वनों से जल फैलाया जाता है (ऋग्वेद, 5/85/2)। जंगलों से अधिक वृष्टि होने के प्रमाण भी वेदों में मिलते हैं। सूर्य की किरणें अंतरिक्ष में जल का संचय करके अवर्षण के समय में भी वर्षा को वनों के ऊपर गिरने की प्रेरणा करती हैं। इसलिए जंगलों में कभी अवर्षण नहीं होता (ऋग्वेद, 1/24/7 तथा वैदिक संपत्ति, पं. रघुनंदन शर्मा, पृ. 654)। औषधियां पृथ्वी की आच्छादक होने से वस्त्र के समान हैं (एतरेय ब्राह्मण, 5/28)।

प्राचीन ऋषिगण, औषधियों के पर्यावरणीय महत्व से भलीभांति परिचित थे। वे औषधियों को प्रदूषणनाशक मानते थे। (ऋग्वेद, 1/191/2)। उन्होंने औषधि ‘अवघ्नती’ को अपने गंध से अनेक विषों को नष्ट करने वाली तथा कीटों को मारने वाली बताया है। (वैदिक साहित्य में शल्य चिकित्सा एक अध्ययन, डॉ. रामजी विश्वकर्मा, पृ. 105)। पर्यावरण पर औषधियों के प्रभाव को बताते हुए कहा है कि जहां भी प्रदूषण होता है, वे उसे बाहर निकाल देती हैं (यजुर्वेद, 12/84/91/101)। यहां राजा को प्राकृतिक संसाधनों को न बिगाड़ने का आदेश दिया गया है और प्रत्येक स्थान में जल और औषधियों, अन्नपान पदार्थों तथा वनज पदार्थों को न बिगाड़ने की भी व्यवस्था करें (यजुर्वेद, 12/72)।

औषधियां प्रदूषण हरने वाली होती हैं (अथर्ववेद, 8/7/10, 13, 14, 17)। जितनी औषधियां इस पृथ्वी के ऊपर हैं, सहस्त्रों पोषण वाली, वे सब हमें प्रदूषण से बचाएं। संहिता ग्रंथों में भी औषधियों को प्रदूषण-नाशक कहा गया है (तैत्तिरीय संहिता, 4/2/6/1, मैत्रालयी संहिता, 2/7/13, काठक संहिता, 16/13, मैत्रालयी संहिता 4/9/27)। पृथ्वी के जिस भाग में अधिक पौधे होते हैं, वह स्थान प्राणियों के लिए अतिशय जीवनोपयोगी होता है (शतपथ ब्राह्मण, 1/3/3/10)। ऋषि पुनर्वसु ने छह प्रकार के जिन पौधों को पर्यावरण को शुद्ध करने वाला माना है, वे इस प्रकार हैं-स्नुही (थुहर), अर्क (आकंड़ा), अश्मंतक (पथरचटा), पूतीक (करंज), कृष्णगंधा (सहजना), तिल्लक (पठानी लोध), (चरक संहिता, सूत्रस्थान, 1/76)।

अथर्ववेद में जिन पर्यावरणोपयोगी पेड़-पौधों का वर्णन हैं, वे इस प्रकार हैं- 1. अश्वत्थ, 2. शमी, 3. वरणवर्ती, 4. अजश्रृंगी, 5. अपामार्ग, 6. उदुंबर, 7. दर्भ, 8. जडिगड़, 9. शतावर, 10. गुग्गुल, 11. करीर, 12. पलाश। करीर की यज्ञ में आहुति देने से शीघ्र वृष्टि होती है। पलाश को ब्रह्मतुल्य कहा गया है, जो व्यापक प्रदूषणों को दूर करता है।

पर्यावरण-संरक्षण और प्राणी


प्राणी भी पर्यावरण के लिए मुख्य घटक हैं। पर्यावरण को जीवंत रखने के लिए पशु-पक्षी महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। मनुष्य, जीव तथा पेड़-पौधे परस्पर संबद्ध हैं, इसलिए पर्यावरण संरक्षण में प्राणियों का सुरक्षित होना नितांत आवश्यक है। ये प्राणी-पर्यावरण से, पर्यावरण में और पर्यावरण के लिए जीते हैं, इसलिए प्राचीन साहित्य में पशु-पक्षियों के स्वरूप, महत्व एवं भेद पर हमें बहुत अधिक विवरण प्राप्त होता है। यथा-

1. अग्निमय पशु- अग्नि का तेज प्रदूषण निवारण में सक्षम है। अग्नि के तेज से उत्पन्न होने के कारण पशुओं को आग्नेय कहा गया है (कपिष्ठल संहिता 38/1, एतरेय ब्राह्मण, 2/6, तैत्तिरीय ब्राह्मण, 1/1/4/3)।

2. गंधमय पशु-पशु एक विशिष्ट गंध से समाविष्ट हैं, जो प्रदूषण निवारण में सक्षम है। देवताओं ने यह गंध, सोम से लेकर, पशुओं में प्रविष्ट की है, अतः इस गंध को घृणित समझकर नाक बंद नहीं करनी चाहिए (शतपथ ब्राह्मण एक सांस्कृतिक अध्ययन, पृ. 223)।

3. मारुत पशु- पशु मरुत गुण से भी संबंधित हैं, जो प्रदूषण को विनष्ट करते हैं (ऐतरेय ब्राह्मण, 3/19)।

पशुओं का पर्यावरणीय महत्व इसी से सिद्ध हो जाता है कि उनकी उपस्थिति मात्र से वायु और भूमि आदि में विद्यमान दोष स्वतः दूर हो जाते हैं। उनके गंध और अग्नि तेज से रोगाणु तथा विष तो नष्ट होते ही हैं, पशुओं द्वारा प्रदत्त दूध, घी एवं मल-मूत्र भी रोग तथा विषनाशक हैं। पशुओं में सर्वाधिक उपयोगी गाय है। ऋग्वेद में गाय को यज्ञपूरक तथा दुग्ध आदि से बढ़ाने वाली कहा गया है (ऋग्वेद, 10/69/3)। वैज्ञानिकों का मत है कि गाय के रोम-रोम से ऑक्सीजन निःसृत होती है। गौ-घृत से तैयार यज्ञ-आहुति से ऑक्सीजन तैयार होती है। बकरियां क्षयरोग को विनष्ट करती हैं। अपान शुद्धि के लिए बकरी का दूध, ज्ञानयुक्त वाणी बढ़ाने के लिए भेड़ का दूध, ऐश्वर्य वृद्धि के लिए गौ-दुग्ध, रोग निवारण में औषधियों का रस तथा बल के लिए संस्कारवान अन्न का भोजन करने का परामर्श दिया गया है (यजुर्वेद, 21/59-60)। घोड़े के हिनहिनाने से ज्वर और खांसी आदि का निवारण होता है (अथर्ववेद, 2/30/5, 11/2/22)। बैल पृथ्वी को धारण करता है और परिश्रम से प्रदूषण को विनष्ट करता है (अथर्ववेद, 4/11/1, 4/10)। मृग (हिरण) भी पर्यावरण-प्रदूषण को दूर करने में समर्थ है। शीघ्रगामी हरिण के मस्तक के भीतर औषधि है, वह अपने सींग से क्षेत्रीय रोग और विष को नष्ट कर देता है (अथर्ववेद, 3/7/1/2)। इनकी रक्षा के लिए कठोर-से-कठोर दंड का प्रावधान करते हुए कहा गया है कि जो पुरुष घोड़े तथा गाय आदि पशुओं की हत्या, मांसाहार के लिए करता है, वह राक्षस है। पर्यावरण के पोषक तत्वों को नष्ट करने वाले कठोर-से-कठोर दंड के योग्य हैं।

मनुष्य समाज में गृह-निर्माण कला का अतिशय महत्व है। वास्तुकला पर ऋषियों ने चिंतन करते हुए कहा है कि जब कोई मनुष्य घर बनाए तो वह सब तरह की आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाला उत्तम उपमायुक्त हो, जिसे देखकर विद्वान, लोग सराहना करें उसमें एक द्वार के सामने दूसरा द्वार तथा उसके कोने एवं कक्षा भी सम्मुख हों। वह चारों ओर के परिमाण से समचौरस हो।इसी प्रकार तोता पक्षी को पीलिया (कामला) रोग को हरने वाले क्षयरोग से दूषित वायु को चीड़ के वृक्ष और बकरी-बंदर आदि पशु अधिक अपनाते हैं। ऐसे ही मनुष्य के कामला रोग को दारुहल्दी के वृक्ष एवं हरे तोते अपनाते हैं (अथर्ववेद, 1/22/4 तथा अथर्ववेदीय मंत्र विद्या, स्वामी ब्रह्म मुनि परिव्राजक पृ. 26)। गरुड़ और मोर तथा सर्प आदि विषभक्षक हैं (अथर्ववेद, 4/6/3-4)। इस तरह हम देखते हैं कि भूमि, वृक्ष, पशु-पक्षी तथा मनुष्य-एक-दूसरे के पूरक ही नहीं अपितु अभिन्न हैं। ये पर्यावरण-चक्र के परे हैं। इनमें से किसी एक का भी अभाव सृष्टि प्रवाह में बाधक ही नहीं, अपितु पर्यावरण के लिए घातक है।

पर्यावरण एवं पर्वत


पर्वत भी पर्यावरण के महत्वपूर्ण भाग हैं। पृथ्वी में कील की तरह विद्यमान पर्वत, न केवल भूमि की सुरक्षा के लिए हैं, अपितु पर्यावरण संतुलन में उपयोगी भी हैं। औषधि, जल और विभिन्न रत्नों के केंद्र होने के कारण पर्वतों की उपयोगिता है। अथर्ववेद (3/21, 10/8, 7/17)। में उल्लेख है कि मनुष्य प्रयत्न करे कि सोम लता आदि औषधियां उत्पन्न करने वाले पर्वत, जल, वायु, मेघ, अग्नि आदि सब पदार्थों को शुद्ध रखकर सुखदायक हों। पर्वत शब्द के अर्थ पर चिंतन करने से भी पर्वत महत्व का बोध होता है। पालनार्थक और पूरणार्थक ‘पृ’ धातु से ‘पर्व’ शब्द बनता है, जो पालना करे और कामनाओं की पूर्ति करे, वह पर्व कहा जाएगा। ऐसे पदार्थ जिसके पास हों, वह पर्वत कहलाएगा। पर्वतों में हमारी पालना एवं आवश्यकताओं की पूर्ति तथा प्रदूषण को विनष्ट करने वाले अनेक पदार्थ होते हैं (ऋग्वेद, 3/57/6, 6/24/6, अथर्ववेद, 20/51/2 तथा वेदों के राजनीतिक सिद्धांत, आचार्य प्रियवत, पृ. 507)।

पर्यावरण एवं निवास स्थान


पर्यावरण में गृह का विशेष महत्व है। परिवेश का अपर पर्याय आवास को कहा जा सकता है। जिस आवास में हम रहते हैं, वह न केवल हमारे लिए, वरन् पशु-पक्षियों के लिए भी उपयुक्त होना चाहिए। इस दिशा में भी वैदिक ऋषियों ने पर्याप्त चिंतन किया है। ऋग्वेद में हवादार तथा प्रकाशयुक्त विशाल घर को परम् पद प्राप्ति में सहायक कहा गया है। यहां दीर्घतमा ऋषि ने ऐसा घर बनाने का उपदेश किया है (ऋग्वेद 1/154/6)। अथर्ववेद के शाला-देवता वाले सुक्त में भी गृह महत्व का प्रतिपादन है। इन मंत्रों में प्रयुक्त शाला के विशेषण, पर्यावरण की दृष्टि से विशेष महत्वपूर्ण एवं चिंतनीय हैं। उसमें कहा गया है स्थिरता से स्थापित घर, गाय और घोड़े से युक्त बलप्रद, दूध, घी से भरपूर, महान् सौभाग्य के लिए है। विशाल छत के नीचे शुद्ध अन्न-धन का भंडार हो। सुख देने वाली देवी शाला, देवताओं की आश्रय स्थली है। घास-पात से ढंकी हुई, घृत की अमृतधारा से संपृक्त शाला में अग्नि के साथ निवास करें (अथर्ववेद, 3/12/2, 3/5, 8/9)।

वास्तुकला


मनुष्य समाज में गृह-निर्माण कला का अतिशय महत्व है। वास्तुकला पर ऋषियों ने चिंतन करते हुए कहा है कि जब कोई मनुष्य घर बनाए तो वह सब तरह की आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाला उत्तम उपमायुक्त हो, जिसे देखकर विद्वान, लोग सराहना करें उसमें एक द्वार के सामने दूसरा द्वार तथा उसके कोने एवं कक्षा भी सम्मुख हों। वह चारों ओर के परिमाण से समचौरस हो। उस घर के द्वार चारों ओर के पवन को ग्रहण करने वाले हों। उसकी चिनाई एवं बंघन दृढ़ हों (अथर्ववेद, 9/3/1, 7,11)। प्रत्येक घर में होम करने का स्थान एवं यज्ञीय पदार्थ रखने का स्थान होना चाहिए। इससे घर की वायु में विशेष प्रकार के पौष्टिक, सुगंधित, रोगनाशक (प्रदूषण नाशक) और आयुवर्धक तत्वों की उपस्थिति एवं वृद्धि बनी रहती है। इससे वायु संस्कारित होती है। घर केवल ईंटों और पत्थरों से घिरा हुआ स्थान नहीं होता, यह वह स्थान होता है, जहां परिवार के लोग अपने स्वभाव को सुधारने एवं एक सीढ़ी के बाद दूसरी सीढ़ी पर चढ़कर जीवन के पुरुषार्थों को पाकर आध्यात्मिक लक्ष्य की ओर अग्रसर होते हैं।

जल मंडल


जल भी पृथ्वी की तरह ही पर्यावरण का महत्वपूर्ण घटक है। जल के बिना किसी तरह का जीवन संभव नहीं। जल के कारण ही पृथ्वी पर जीवन प्रारंभ हुआ। प्राचीन साहित्यकारों द्वारा इसकी अतिशय उपादेयता का ध्यान कर ही जल के- अर्णः, क्षोदः, नभः, अंभः, सलिलम्, आपः, अमृतम्, इंदुः, अंब, तोयम, वारि, इदम् आदि 101 नाम गिनाए गए हैं (निघंटुकोश, 1/12) अमरकोश में पानी के 27 नाम आए हैं, जिनमें से 17 नाम निघंटु में वर्णित हैं (अमरकोश, 1/10/3-5)। अथर्ववेद के आपोदेवता वाले सूक्त में भी जल के कुछ नामों के निर्वचन उपलब्ध हैं (अथर्ववेद, 3/13/1-3)। जल के अनेक अभिधानों के संबंध में यह अभिमत है कि वैदिक काल में जल का नामकरण उसके गुणों के आधार पर रखा गया है, जो निश्चित रूप से पर्यावरण की रक्षा करते हैं।

अथर्ववेद में पर्यावरण को दूषित करने वालों को चेतावनी देते हुए कहा है कि वे कुएं आदि जलस्रोतों गंदा न करें। इस संदेश के साथ राजा को यथावत् प्रबंध करने के लिए कहा गया है (अथर्ववेद 5/31/8)। इन जलस्रोतों का प्राचीन साहित्य में इस प्रकार उल्लेख हुआ है- 1. वर्षा जल को ऐंद्र और दिव्य कहा गया है, 2. नदी एवं नद-गंगा आदि नदियां और सिंधु आदि नद कहे गए हैं, 3. समुद्र, 4. झील, 5. कुआं-कूप तथा वापी यह दो प्रकार का होता है। 6. तालाब-(अ) पुष्करिणी (ब) पुष्कर (स) सर –जो प्राकृतिक हो और तड़ाग–जो मनुष्यकृत हो। 7. निर्झर, 8. औदिभद (सोते का जल), 9. चौड़ा-जो थोड़ा गहरा हो और बंधा न हो – ऐसा कुआं, 10. विकरि- बालू के नीचे का जल, 11. क्यारी या नहर का जल, 12. पल्लव को गड़ही कहा गया है और 13. प्रपा-ऋग्वेद में प्याऊ को प्रपा कहा गया है। इसी प्रकार जल के अनेक प्रकार वेदसंहिताओं में कहे गए हैं- ऋग्वेद एवं अथर्ववेद में 14. प्रकार के जल का उल्लेख है, जबकि (शतपथ) ब्राह्मण ग्रंथों में 17 प्रकार के जल का उल्लेख है। आचार्य सायण ने 16 नामों का भाष्य किया है। इन सब जल से पर्यावरण की शुद्धि बताई गई है।

इसी प्रकार आयुर्वेदज्ञों ने विभिन्न जल के विज्ञान का निरूपण भेदोपभेदपूर्वक लिखा है। यथा-1. धारा जल, 2. समुद्र जल, 3. अनार्तव जल, 4. कारक जल, 5. तौषार जल, 6. हिम जल, 7. आनूप जल, 8. जांगल जल, 9. साधारण जल और 10. नादेय जल।

जल का महत्व


सृष्टि निर्माण के मौलित तत्वों में जल मुख्य घटक है। माता के गर्भ में जिस प्रकार शिशु के चारों ओर कलल रस विद्यमान रहता है, जिससे शिशु का संवर्धन, पोषण एवं संरक्षण होता है, उसी प्रकार इस महान ब्रह्मांड के भी चारों ओर रसज् या कुहूक (कोहरा) स्थिति में जल विद्यमान रहता है (वैदिक संपदा, पं. वीरसेन वेदश्रमी, पृ. 381)। जल उत्कृष्ट माता है, क्योंकि इससे पर्यावरण का निर्माण ही नहीं वरन् पालन भी होता है (ऋग्वेद 1, 23/16, 6/50, 7, 10, 9, 2, 10, 17, 10)। जल अमृतमय है (ऋग्वेद, 1/23/19)। जल महौषध है (ऋग्वेद 1/23/19-21)। वैदिक संहिताओं में जल को दुरित निवारक एवं पाप-संशोधक कहकर, जल के पर्यावरणीय महत्व का प्रतिपादन किया गया है (ऋग्वेद, 1/23/22, 10/9/3)। गायत्री मंत्र से अभिमंत्रित जल से राक्षसों का शासन होता है (तैत्तिरीय आरण्यक, 2/2/1)। उसी प्रकार पर्यावरणीय जलविज्ञान में पर्जन्य (बादल) बहुत महत्वपूर्ण है। ऋग्वेद (5/83/1 से 5, 9, 10/36/4) में कहा गया है कि गरजता हुआ बादल राक्षस-रोग व प्रदूषण को नष्ट करता है। इसी प्रकार नदियों के भी 24 प्रकार के भेद कहे गए हैं (ऋग्वेद 10/75/5-8)। सूर्य और वायु दोनों प्रदूषित जलों को पवित्र करते हैं (यजुर्वेद, 1/12 तथा अथर्ववेद, 4/37/8)। ऋग्वेद (7/47/3) में जल वृष्टि को यज्ञ द्वारा पवित्र करने का संकेत है। अतः घृत को यज्ञ में देवताओं के लिए प्रयुक्त करना चाहिए ताकि वृष्टिजल शुद्ध हो सके (ऋग्वेद, 9/49, 11/3), जिससे पर्यावरण पवित्र होता है। यज्ञ से संस्कारित जल का निर्माण होता है। कुशा आदि अनेक औषधियों से भी जल शुद्धि बताई गई है।

जल-निर्माण प्रक्रिया


प्राचीन चिंतन में जल निर्माण प्रक्रिया को समझाया गया है। जीवन के देने वाले मित्र तथा वरुण (प्राण व उदान), वृष्टि का सृजन कर पृथ्वी एवं द्युलोक को धारण करते हैं (ऋग्वेद, 5/62/3, 7/33, 10-11)। संहिता तथा ब्राह्मण ग्रंथों में भी यही प्रतिपादित किया गया है (तैत्तिरीय संहिता, 6/4, 3/3 तथा मैत्रायणी संहिता 4/5/2)।

तेजोमंडल


अग्नि के नाम व भेद हमें वैदिक साहित्य में इस प्रकार प्राप्त होते हैं-
अग्नि- आचार्य शाकपूणि ने अग्नि शब्द को –इण (जानना), अञ्ज (चमकना) या दह (जलाना) तथा नी (ले जाना)- इन तीन क्रियाओं से बना बताया है। अग्नि शब्द के निर्माण में इ से आकार, अञ्ज या दह से गकार और नी से अंतिम वर्ण नि हुआ (निरुक्त, 7/4/14)। अमरकोश के टीकाकार ने अग्नि का अर्थ-जाना, चलना किया है, जो गतिशील है वह अग्नि है (अमरकोश, रामश्री टोका, पृ. 20)।

वेदों में अग्नि के निम्न प्रकार आए हैं-
1. वैश्वानर- ऋग्वेद (1/98, 3/3, 1/59, 7-8, 10/88)। आधुनिक वैज्ञानिक शब्दावली अर्थात् अंग्रेजी में इसका अर्थ दिया गया है (Latent Heat of Fusion & Vaporisation)।

2. जातवेद – ऋग्वेद (1/19/1)। इसे अंग्रेजी में Potentional and Kinetic Energy कहा है।

3. द्रविणोदः – ऋग्वेद (1/15/7)। इसे Atomic Energy कहा गया है।

4. इध्म – ऋग्वेद (1/13/1) इसे Thermal Heat कहा गया है।

5. तनूनपात्- इसे Internal Combustion of Fuel Derivatives Like Ghee, Petroleum and Coal Gas etc. कहा गया है। ऋग्वेद (सायण भाष्य, 3/29/11)।

6. नराशंस – (निरुक्त, 8/2/4) इसे Chemical Energy and the Result of Chemical Affinity in Terms of Valancy कहा गया है।

7. ईल – (निरुक्त, 8/2/5) इसे Electromagnetic Field कहा गया है।

8. बर्हि - (निरुक्त, 8/2/6) इसे Echo-Resonant Energy of Use in Rectar etc. कहा गया है।

9. द्वार – (निरुक्त सम्मर्श, स्वामी ब्रह्ममुनि, पृ. 628-632) इसे Electrons in Atomic Arbits कहा गया है।

10. उषासानक्ता – इसे Ions and chagres in electrolytes of Electrostatic and Dynamic Machines Proceeding in a current to Electrodes and Terminals as Positive and Negative Charges कहा गया है।

इसी प्रकार तेज या अग्नि के 108 नाम व भेद वैदिक साहित्य में आए हैं। उनमें कहा गया है कि सर्वप्रथम आग्नि को मंथन के द्वारा अथवा ऋषि ने उत्पन्न किया (ऋग्वेद, 1/95, 3/29, 2, 6/15/17, 6/16/13) आदि। वेदों में अग्नि को ‘अपां गर्भः’ कहकर जल का पुत्र कहा गया है। अग्नि के अनेक भेद बताए गए हैं। अग्नि सात ज्वालाओं वाली कही गई है (ऋग्वेद, 10/8/4)। ऋग्वेद में कम-से-कम 200 सूक्तों में अग्नि का वर्णन है। पर्यावरण में अग्नि का महत्व सर्वोपरि है। अग्नि से ही प्रदूषण समाप्त होता है। ताप और आर्द्रता दोनों के संयोग से ही किसी भूभाग की वनस्पति तथा जीवमंडल का निर्धारण होता है (संसाधन संरक्षण, भूगोल, राजीव शर्मा, पृ. 23)। ऋग्वेद (1/160/3) में कहा है कि अग्नि यज्ञवेदी एवं शरीर के रोगाणुओं को मारती है। अग्नि को वर्षाकारक माना गया है।

प्रदूषण-निवारण तथा पर्यावरण-पोषण के लिए अग्नि में ही यज्ञ पूर्ण होते हैं। यज्ञ प्रदूषण को नष्ट करता है एवं जगत् को पुष्ट करता है। यज्ञ जगत् की नाभि है (ऋग्वेद, 1/164, 34-35)। यज्ञ प्राकृतिक शक्तियों को न केवल वहन ही करता है, अपितु उन्हें अनुकूल भी करता है। इसलिए प्राचीन ऋषियों ने यज्ञ को देवरथ के रूप में प्रस्तुत किया है (एतरेय ब्रा., 2/37)। यज्ञ आरोग्यप्रद है (यजुर्वेद, 19/12)। प्रदूषण-निवारण में वेदपारायण यज्ञों को देखा व परखा जा सकता है। संहिता तथा ब्राह्मण ग्रंथों में घी का महत्व न केवल यज्ञ की अग्नि के लिए अपितु पर्यावरण-शोधन में भी महत्वपूर्ण द्रव के रूप में प्रतिपादित है (तैत्तिरीय सं., 2/3, 10/1)। यज्ञ से आणविक-विकिरण का प्रभाव बहुत कम हो जाता है। गाय के गोबर से घर लीपने पर विकिरण का प्रभाव समाप्त हो जाता है।

गोघृत की आहुतियां अग्नि में देने से वायुमंडल सुगंधित एवं तुष्टिकारक बनता है। प्रदूषण के कारण वातावरण में समाए रसायन आदि सभी सौम्य विषयों का प्रभाव तत्काल समाप्त हो जाता है। पूना के फर्ग्यूसन कॉलेज के जीवाणु शास्त्रियों ने एक प्रयोग में पाया है कि नित्य अग्निहोत्र की एक समय की आहुतियों से 36x22x10 फुट के हाल में कृत्रिम रूप से निर्मित वायु-प्रदूषण समाप्त हो जाता है। इससे सिद्ध हुआ कि एक समय के अग्निहोत्र से ही 8000 घन फुट वायु का 77.5 प्रतिशत हिस्सा शुद्ध और पुष्टिकारक वायु से युक्त हो जाता है और 96 प्रतिशत कीटाणु नष्ट हो जाते हैं। वेदमंत्रों की ध्वनि शक्ति से भी पर्यावरण को शुद्ध एवं पुष्ट किया जाता है।

वायुमंडल


पर्यावरण का चतुर्थ ‘वायु’ महाभूतों की उत्पत्ति के क्रम में द्वितीय तत्व है। वह अन्य तत्वों से सूक्ष्म होने के कारण बहुत शक्तिशाली होते हैं। अमरकोश में वायु के वायु, वात, प्राण आदि बीस नाम गिनाए हैं (अ.कोश 1/1/61-63)। कहीं-कहीं इसके 150 तक नामों की गिनती भी है। वायु स्पर्श के गुण से पहचानी जाती है। पृथ्वी के जन्म से ही उसे चारों ओर से गैसों ने घेर रखा है, जिसे वायुमंडल कहते हैं। 12 मील की ऊंचाई पर कार्बन डाइऑक्साइड, 62 मील की ऊंचाई पर ऑक्सीजन तथा 80 मील की ऊंचाई पर नाइट्रोजन लुप्त हो जाती है।

विषाक्त/प्रदूषित वायु से बचने के लिए प्रतिविष के रूप में लाक्षा, हरिद्रा, अतीस, हरीतकी, मोथा, हरेणुका, इलायची, दालचीनी, तगर, कूठ और प्रियंगु आदि द्रव्यों को अग्नि में जलाकर, उससे उत्पन्न धूम के द्वारा वायु को शुद्ध करें। 400 वर्गमीटर क्षेत्र के लिए 4-5 मिनट में 16 आहुतियों द्वारा होने वाले दैनिक अग्निहोत्र से वायु प्रदूषण से मुक्त हो जाती है।

सुश्रुत संहिता (कल्पस्थान, 5/68-73) में जटामांसी, हरेणु, त्रिफला, शोभांजन, आदि चीजों को कूट-पीसकर पित तथा शहद के साथ लेप बनाकर यदि भेरी या नगाड़े पर लगा दिया जाए तो बजाने से विष शीघ्र नष्ट हो जाता है। तोरण, पताका आदि में लगाने से भी विष दूर हो जाता है।

आकाश-मंडल शब्द


पंचमहाभूतों में आकाश अंतिम तत्व है, परंतु उत्पति क्रम में प्रथम है। ऋग्वेद के मंत्रदृष्टा ऋषि वशिष्ठ ने बृहस्पति देवता युक्त मंत्र में गाया है कि आकाश का रूप नहीं है, किंतु वायु आदि का आवासीय केंद्र है। सर्वव्यापक होने से आकाश सभी में है तथा निरूप निरवयव होने से सबका आश्रयस्थल है (ऋ. 7/97/6) व्योम के यजुर्वेद में 16 प्रकार के स्तर बताए गए है (यजु.14/2/3)। उपनिषदकार ने विद्युदाकाश आदि पांच प्रकार के आकाश बताए हैं। आधुनिक वैज्ञानिकों ने आकाश के ट्रापोस्फियर आदि पांच विभाजन किए हैं। वैदिक कोश निघंटु एवं अमरकोश में आकाश के 16 नाम गिनाए हैं। शब्द की सिद्धि में कणाद मुनि ने कहा है कि शब्द पृथ्वी आदि चार भूतों, आत्मा और मन का गुण न होने के कारण आकाश का चिन्ह है। निघंटु में वाणी इंद्रिय और उसके कार्य शब्द को मिलाकर 57 नामों का उल्लेख है। अमरकोश ने शब्द के ध्वनि, निनाद आदि 17 नाम गिनाए गए हैं। प्रचंड वचनों को विष-निवारक कहा गया है (अथर्व, 5/13/3)। सूक्ष्म ध्वनि वाला शंख रोगजनक प्रदूषण से बचाए। बाजे और ढोल-नगाड़ों से भयंकर प्रदूषण भी नष्ट हो जाते हैं (अथर्व, 5/20, 5/21)।चाणक्य ने भी शत्रु द्वारा किए विष-प्रयोग से बचने के उपायों में से एक उपाय औषधि लिप्त बाजे का बजाया जाना भी बताया है (कौटिल्य अर्थशास्त्र, 14/11/12)। ध्वनि के दो भेद-नाद और शब्द हैं। नाद के पुनः दो भेद-आहत और अनाहत कहे गए हैं (संगीत रत्नाकर, 1/2/3)।

ध्वनि प्रदूषण


आधुनिक पर्यावरणविद् अवांछित ध्वनि को ध्वनि प्रदूषण मानते हैं। इसके लिए वे उर्दू शब्द ‘शोर’ का प्रयोग करते हैं। शोर प्रदूषण का अर्थ है वायुमंडल में उत्पन्न की गई अवांछित ध्वनि, जिसका मानव व अन्य प्राणियों के श्रवण तंत्र और स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। संस्कृत के वैयाकरणों ने इस पर अत्यधिक गंभीर चिंतन किया है और उन्होंने संवृतः,एणीकृत आदि 16 प्रकार के ध्वनि प्रदूषण पर प्रकाश डाला है (व्याकरण महाभाष्य, चारूदेव शास्त्री, पृ. 47)। आज प्राकृतिक स्रोतों के अतिरिक्त कृत्रिम स्रोत औद्योगीकरण और शहरीकरण के कारण यह समस्या विकाराल होती जा रही है। उद्योग-धंधे और मशीनें, स्थल तथा वायु परिवहन के सघन, तीव्र ध्वनि वाले मनोरंजन एवं सामाजिक क्रियाकलापों को अनुशासित एवं नियंत्रित करना आवश्यक है, तभी पर्यावरण को स्वस्थ और पुष्टिकारक बनाया सकता है।

ध्वनि प्रदूषण के प्रभाव


ध्वनि प्रदूषण हाइड्रोजन बम से भी खतरनाक है। इनमें अंतर केवल सहसा और निरंतरता का है। 190 डेसिबल का शोर स्टील गर्डर के रिबेट तोड़ सकता है। आदमी 150 डेसिबल का शोर तनिक भी सहन नहीं कर सकता । तीव्र दर्द का शोर 130 डेसिबल होता है। हवाई जहाज की उड़ान-उतार का शोर 120 डेसिबल होता है। कार-स्कूटर-बस का शोर 120 डेसिबल। खेतों की बहती हवा का शोर 10-15 डेसिबल होता है। स्वास्थ्यकर ध्वनि 30 डेसिबल होती है। सतत् शोर में काम करने वाले लोग चिड़चिडे और असामाजिक हो जाते हैं।

ध्वनि-शोधन


ध्वनि-शोधन का अर्थ है, उसका संतुलित प्रयोग। पर्यावरण में ध्वनि प्रदूषण के प्रभाव रोकने के लिए अग्नि में सुगंधित पदार्थ आदि को होमने के लिए कहा है (ऋग्वेद, 3/30/16)। मौन रहकर भी उसका श्रेष्ठ उपाय किया जा सकता है (ऋग्वेद, 1/162/15)। आधुनिक पर्यावरणविदों ने ध्वनि-प्रदूषण को निंयत्रित करने के लिए हॉर्न आदि पर प्रतिबंध लगाने आदि के आठ सूत्र सुझाए हैं।

उपसंहार


वैदिक संस्कृति में प्रकृति प्रेम और उसका संरक्षण एक महत्वपूर्ण कार्य है। भूमि को प्रदूषण से बचाने के लिए हरियाली के प्रयोग की ओर संकेत किया गया है। नदियां प्रदूषणरहित हों, ऐसी उदात्त कामना की गई है। जल और वायु शुद्धि के लिए वनौषधि और यज्ञ को उपयुक्त माना है। आकाशीय शब्द की तारता, तीव्रता अथवा मंदता का प्रभाव पर्यावरण पर पड़ता है। संतुलित प्रयोग एवं मौन साधना तथा वाणी के संयम से किसी भी प्रकार की तीव्र ध्वनि का विस्तार रोका जाना चाहिए।

निष्कर्षतः क्रियात्मक-अध्यात्म का परिपालन, विरासत की सुरक्षा और तृष्णा पर अंकुश लगाकर ही पर्यावरण को बचाया जा सकता है। आज जरूरत है। प्रदूषण रहित तकनीक की। विवादहीन प्रगति ही सही विकास है। आज पूरा विश्व पर्यावरण प्रदूषण पर चिंतन कर रहा है। हम आशा करते हैं कि आने वाली सदी प्रदूषणरहित पर्यावरण की सदी होगी।

27/406, पुरानी बस्ती
रायपुर

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