वैदिक वाङ्मय में नदी-भौतिक रूप या प्रतीकात्मक

ऋग्वेद और अथर्ववेद में अनेक नदियों का उल्लेख है। दोनों में ‘सप्त सिंधवः’ अर्थात साथ नदियों का अनेक बार उल्लेख है। अथर्ववेद में तो कहा गया है कि सात नदियाँ हिमालय से निकलती हैं और सिंधु में मिलती है। इन्हें सिंधु की पत्नी और सिंधु की रानी भी कहा गया है। इन सात नदियों में पाँच तो पंजाब की ही है- शुतुद्री, विपाशा, इरावती, चन्द्रभागा तथा बितस्ता, जिन्हें आज क्रमशः सतलज, व्यास, रावी, चिनाब और झेलम कहा जाता है। इनके अतिरिक्त दो और हैं- सिंधु और सरस्वती। ये सातों मिलकर ‘सप्तसिंधु’ कही जाती हैं।

सरस्वतीऋग्वेद में कहा गया है कि यह नदी पर्वत से निकलती है और समुद्र में मिलती है। अथर्ववेद में उल्लेख है कि देवों ने सरस्वती नदी के किनारे जौ की खेती की। वहाँ की भूमि अत्यन्त उर्वर थी। ऋग्वेद में इसकी बड़ी महिमा गाई गयी है। इसे सर्वोपरि देवी और सर्वोत्तम माता के तुल्य पूज्य बताया गया है। ब्राह्मणग्रंथों के अनुसार सरस्वती ‘प्लक्ष प्रास्त्रवणं’ नामक स्थान से प्रस्त्रावित हुई और ‘विनशन’ नामक स्थान पर लुप्त हुईँ हैं। विनशन वर्तमान में कुरुक्षेत्र का सिरसा नामक स्थान है। डॉ. सूर्यकांत का विचार है कि यह थानेस्वर के पश्चिम में बहने वाली और भटमेर में रेगिस्तान में विलीन हो जाने वाली ‘सरसुति’ नदी हो सकती हैं, जिसमें पटियाला के समीप घग्घर नदी आ मिलती है। वहाँ से सिन्धु तक एक सूखी नदी का मार्ग या घग्घर नदी का निशान अब भी विद्यमान है। कुछ विद्वानों का मत है कि घग्घर नदी ही सरस्वती नदी कही जाती थी। प्रो. मैक्समूलर का मत है कि सरस्वती सतलज जैसी विशाल नदी थी और वह समुद्र तक पहुँचती थी।1

स्वामी दयानंद सरस्वती तथा रहस्यवादी व्याख्याकार श्री अरविंद सभी शब्दों को यौगिक मानते हैं- अतः ये लोग ऐतिहासिक दृष्टि से वेद के व्याख्याकारों का पूर्णतः विरोध करते हैं और व्यक्तिवाचक संज्ञाओं का भी योग या अवयव शक्ति से अन्यथा अर्थ कर लेते हैं। मधुच्छन्दस् के तीसरे सूक्त की तीन ऋचाएँ, जिनमें सरस्वती का आवाहन किया गया है, इस प्रकार हैं-

पावका नः सरस्वती वाजेभिर्वा जिनीवती
यज्ञं वष्टु धियासुः।।10।।

चोदयित्री सनृतानां चेतन्ती सुमतीनाम्।
यज्ञं दधे सरस्वती।।11।।

महो अर्णः सरस्वती प्रचेतयति केवुना।
धियो विश्वा वि राजति।।12।।

इन मंत्रों का, जहां तक केवल व्याकरण के रूप का संबंध है, का अनुवाद इस प्रकार भी किया जा सकता है- ‘महोअर्णः’ को सरस्वती के समानाधिकण मानकर इस मंत्र का अर्थ होगा- ‘सरस्वती, जो बड़ी भारी नदी है, वोधन (केतु) के द्वारा हमें ज्ञान के प्रति जागृत करती है और हमारे सब विचारों में प्रकाशित होती है।’ यदि हम यहाँ ‘बड़ी भारी नदी’ इस मुहावरे को भौतिक अर्थ में लें और इससे पंजाब की भौतिक नदी समझें, जैसा कि सायण समझता है तो यहाँ हमें विचार और शब्द प्रयोग की एक बड़ी असंगति दिखाई पड़ने लगेगी। वस्तुतः इसका अभिप्राय है- अंतःप्रेरणा का भारी प्रवाह या समुद्र। सरस्वती सत्य की वह अंतःशक्ति है, जिसे हम अंतःप्रेरणा कहते हैं। सत्य से आने वाली यह अंतःप्रेरणा हमें संपूर्ण मिथ्यात्व से छुड़ाकर पवित्र कर देती है। इस प्राकर श्री अरविंद उक्त मंत्र का आध्यात्मिक अभिप्राय लेते हैं। वे उक्त मंत्र का अर्थ करते हैं- ‘सरस्वती अन्तः प्रेरणा, प्रकाशमय समृद्धताओं से भरपूर है (वाजेभिर्वा जिनीवती)’। वह यज्ञ को धारण करती है। देव के प्रति दी गई मर्त्य जीव की क्रियाओं की छवि को धारण करती है। एक तो इस प्रकार कि वह मनुष्य की चेतना को जागृत करती है, (चेतन्ती सुमतीनाम्) जिससे वह चेतना या भावना की समुचित अवस्थाओं को और विचार की समुचित गतियों को पा लेती है, जो अवस्थाएँ और गतियाँ उस सत्य के अनुरूप होती हैं। जहाँ से सरस्वती अपने प्रकाश को ऊँड़ेला करती हैं और दूसरे इस प्रकार कि वह मनुष्य की उस चेतना के अन्दर उन सत्यों के उदय होने को प्रेरित करती हैं। (चोदयित्री सूनतानाम्) जो सत्य की वैदिक ऋषियों के अनुसार जीवन और सत्ता को असत्य, निर्बलता और सीमा से छुड़ा देते हैं और उसके लिए परमसुखद द्वारों को खोल देते हैं।

इस सतत जागरण और प्रेरणा (चेतना और चोदन) के द्वारा जो केतु (वोधन) इस एक शब्द में संगृहीत है जिस केतु की वस्तुओं के मिथ्या मर्त्य दर्शन से भेद करने के लिए ‘दैव्यकेतु’ (दिव्य वोधन) करके प्रायः कहा गया है- सरस्वती मनुष्य की क्रियाशील चेतना के अंदर बड़ी भारी बाढ़ को या महान् गति को स्वयं सत्य चेतना को ही ला देती है, और इससे वह हमारे सब विचारों को प्रकाशमान कर देती है। (तीसरा मंत्र)। यह स्मरणीय है कि यह सत्य चेतना, वैदिक ऋषियों की यह सत्य चेतना एक अतिमानस स्तर है (मन से परे मनसतीत)। जीवन की पहाड़ी की सतह पर है- अद्रेः सानु। जो हमारी सामान्य पहुँच से परे है और जिस पर हमें बड़ी कठिनता से चढ़कर पहुँचना होता है। यह हमारी जागृति सत्ता का भाग नहीं है। यह हमसे छिपा हुआ अतिचेतन की निद्रा में रहता है। अब यह स्पष्ट हो गया कि इस ऋचा का क्या आशय है। यहाँ स्पष्ट कहा गया है कि सरस्वती अन्तःप्रेरणा की सतत क्रिया के द्वारा सत्य को हमारे विचारों में चेतना के प्रति जाग्रत कर देती है।

इस प्रकार चाहे हम यह समझें कि यह बड़ा भारी प्रवाह ‘महो अर्णः’ स्वयं सरस्वती ही हैं और चाहे हम इसे सत्य का समुद्र समझें- यह एक निश्चयात्मक तथ्य है जो इस संदर्भ के द्वारा असंदिग्ध रूप से स्थापित हो जाता है कि वैदिक ऋषि जल के, नदी के या समुद्र के रूपक को आलंकारिक अर्थ में और एक आध्यात्मिक प्रतीक के रूप में प्रयुक्त करते थे। सारी ब्राह्मण परम्परा में सत्ता को स्वयंम् एक समुद्र के रूप में वर्णित किया गया है। वेद दो समुद्रों का वर्णन करता है- उपरले जल और निचले जल, ये समुद्र हैं- एक तो अवचेतन का जो अंधकार मय और अभिव्यक्ति रहित है और दूसरा अतिचेतन का, जो प्रकाशमय है और नित्य अभिव्यक्त है- पर मानव मन से परे। अतिचेतन और अवचेतन का समुद्र तथा इन दोनों के मध्य में प्राणी का जीवन -ये तीनों मिलकर सत्ता का रूप निरूपित करते हैं। सत्ता का यही है- वैदिक विचार। सरस्वती, जो सात नदियों में से एक है- अन्तःप्रेरणा की नदी है, जो सत्य चेतना से निकलकर बहती है। फिर यह भी स्पष्ट है कि शेष छह नदियाँ भी आध्यात्मिक प्रतीक हैं। इन नदियों के जो विशेषण हैं- वे भौतिक नदी में घटित नहीं होते। ‘शवपवित्राः’- इस विशेषण के द्वारा और स्पष्ट हो जाता है। वामदेव द्वारा प्रयुक्त ‘मधुमान ऊर्मि’- मधुमय लहर इन्द्र द्वारा उन नदियों में से बहाकर लाई गई है जबकि इसका मार्ग पर्वतों पर वज्र द्वारा वृत्र का वध करके काटकर निकाला गया है। फिर यह स्पष्ट कर दिया गया है कि जल सात नदियाँ हैं जो इन्द्र द्वारा वृत्र के अवरोधक के आच्छादक के पंजे से छुड़ाकर लाई गई हैं और नीचे को बहाकर पृथ्वी की और भेजी गई हैं। क्या ये पंजाब की नदियाँ हैं? स्पष्ट ही ये सत्य और सुख के जल हैं जो उच्च परम समुद्र से प्रवाहित हैं। ये जल सत्य के सप्तविध जल हैं, दिव्यजल हैं जो हमारी सत्ता के उच्चतम शिखरों से इन्द्र द्वारा नीचे लाए गये हैं। ये सप्तविध जल ऊपर उठकर विशुद्ध मानसिक क्रियाएँ, द्युलोक की शक्तिशाली नदियाँ (दिवः यह्वीः) बन जाते हैं, औऱ दिव्य मन की सात वाणियों के रूप में अपने को प्रकट करती हैं (सप्त वाणीः) यद्यपि ये भिन्न धाराएँ हैं- पर निकली एक ही उद्गम से हैं।

वेद की सात नदियों को, जलों को, आपः को वेद की अलंकारिक भाषा में अधिकतर सात माताएँ या सात पोसक गौएँ ‘सप्तधेनवः’ कहकर भी प्रकट किया गया है। स्वयम् ‘आपः’ शब्द में ही दो अर्थ गूढ़ रूप से पड़े हुए हैं। अप धातु के मूल में केवल बहना अर्थ ही नहीं है जिससे बहुत सम्भवतः जलों का भाव लिया गया है किन्तु इसका एक और अर्थ ‘जन्म होना’ ‘जन्म देना’ भी है। सन्तान वाचक अपत्य शब्द में और दक्षिण भारत पिता अर्थ में प्रयुक्त ‘अप्वा’ शब्द में हम यही भाव देखते हैं। सात जल सत्ता के जल हैं। ये वे माताएँ हैं जिनसे सत्ता के सब रूप पैदा होते हैं। ‘सप्त गावः’ ‘सप्तगुः’ सात गौएँ या सात ज्योतियाँ का अर्थ देती हुई उक्त तथ्य का पोषण करतीं हैं।

ऋग्वेद का 10/75 सूक्त ‘नदी सूक्त’ ही कहा जाता है। इसमें एक साथ अनेक नदियों का उल्लेख है। मन्त्र है-

इमं मे गङ्गे यमुने सरस्वती शुतुद्रि स्तोमं सचता परुष्णया
असिक्न्या मरूद्ष्टधे वितस्तयाSSर्जिकीये शणुह्या सुषोमाया।।

ऋ 10/75/5

इस मंत्र में जिन नदियों का उल्लेख है, वे हैं- गंगा, यमुना, सरस्वती, शतुद्रि, परुष्णी, असिक्नी, मरुद्वृषा (चेनाव की एक सहायक नदी), वितस्ता, आर्जिकीया, सुषोमा। नदी सूक्त के ही अगले मंत्र में (10.75.6) सिन्धु की पश्चिमी सहायक नदियों का उल्लेख है-

तृष्टामया प्रथमं यातवे सजूः सुसर्त्वा रसया प्रवेत्या त्या।त्वं सिन्धो कुमया गोमतीं क्रुमुं मेहल्वा सरथं यामिरीयसे।।

तुष्टामा, सुसर्तु, रसा, श्वेती, कुभा, गोमती, क्रुमु, मैहलू। इन नदियों के अतिरिक्त सुवास्तु, सरयू, विदारा, आपया, दुषद्वती सदानीरा, अंशुमती। अथर्ववेद और ऋग्वेद में 90 और 99 नदियों का उल्लेख है। ऋग्वेद से ज्ञात होता है कि सप्त सिंधुओं में मिलने वाली छोटी पहाड़ी नदियाँ भी हैं। अथर्ववेद और ऋग्वेद में इनको ‘नाव्याः’ अर्थात् नौका से तरण योग्य बताया है।

ऋग्वेद और अथर्ववेद में कहीं दो, कहीं तीन और कहीं चार समुद्रों का उल्लेख मिलती है। श्री अरविंद जल मात्र को प्रतीक मानकर अपनी रहस्यवादी व्याख्या के अनुसार योजना करते हैं।

-------------------------------------------पाद टिप्पणी

भगवदनुग्रहयपावित्रितवाक् कालिदास ने अष्टमूर्ति शिव का प्रत्यक्ष शरीर कहा है जल को और उस जल को स्रष्टा की आदि सृष्टि माना है। उपनिषदों के सृपटिक्रम में पहले आकाश और तब वायु और फिर इन दोनों के बाद अप् अर्थात् जल का (तन्मात्र रूप में) उद्भव कहा गया है- फिर कालिदास ने ऐसा क्यों कहा? वस्तुतः वनस्पति और जीव जन्तु मात्र आकाश और वायु से नहीं, जहाँ जल होता है। वहीं से उत्पन्न होता है। इसीलिए संभवतः कालिदास ने ऐसा कहा होगा।

1-वैदिक इतिहास एवं संस्कृति, पृ. 250

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