वाष्प स्नान : रोग-निवारण की प्राकृतिक विधा

स्नान शुरू से ही मनुष्य के जीवन का एक अनिवार्य अंग रहा है। हम सभी का यह साधारण अनुभव है कि इससे न केवल शारीरिक स्वच्छता बल्कि मानसिक प्रफुल्लता भी मिलती है। वाष्प स्नान हमारे सामान्य शीतल जल स्नान से थोड़ा भिन्न जरूर है किंतु हमारे स्वच्छता और प्रसन्नता के साथ-साथ अत्यंत सरल तरीके से अनेक रोगों से हमारे शरीर की रक्षा हो जाती है। वर्षों पहले एक अनौपचारिक बातचीत के दौरान स्व. डॉ. विट्ठल दास मोदी ने मुझे बताया था कि हमारी अस्वास्थ्यकर जीवनशैली के कारण हमारे शरीर में अनेक प्रकार के विष उत्पन्न हो जाते हैं। जब तक हमारी रोग-प्रतिरोधक क्षमता दुर्बल नहीं होती तब तक हम शरीर के विभिन्न निर्गम स्रोतों से इस विष का स्वाभाविक रूप से निस्सारण करके स्वस्थ बने रहते हैं। किंतु यदि हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता कमजोर हुई तो हम रुग्ण हो जाते हैं और हमें इस विष के निस्सारण का उचित उपाय करना पड़ता है। वाष्प स्नान से शरीर के तमाम रोमकूप खुल जाते हैं और उनसे अत्यधिक पसीना निकलने लगता है। इसी पसीने के साथ हमारे शरीर का विष भी निकल जाता है। इसके साथ ही अपने खान-पान एवं रहन-सहन में समुचित सुधार करने से हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता उत्पनन हो जाती है जिसके परिणामस्वरूप हम पुनः स्वस्थ हो जाते हैं।

विधि


भारत में हम लोगों ने वाष्प स्नान को रोग निवारण के लिए प्राकृतिक चिकित्सा के रूप में ही देखा है। किंतु फिनलैंड में शायद भौगोलिक परिस्थितियोंवश स्नान का यह अनोखा तरीका वहाँ के सामान्य जनजीवन और संस्कृति का एक अपूर्व अंग बन चुका है। फिनिश भाषा में इसे 'साउना' कहते हैं। फिनलैंडवासी 'साउना' को एक रोग निवारक (प्रिवेंटिव) क्रिया के रूप में ही नहीं बल्कि इसे सामाजिक जीवन के अनिवार्य अंग के रूप में स्वीकार कर चुके हैं। आश्चर्य नहीं कि फिनलैंडवासी विश्व के सर्वाधिक स्वस्थ लोगों में हैं।

वाष्प स्नान लेते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि उतनी ही गर्मी हमें प्राप्त हो जितना हमारा शरीर आसानी से बर्दाश्त कर सके। वाष्प स्नान का समय धीरे-धीरे आवश्यकता अनुसार बढ़ाया जा सकता है। वाष्प स्नान के बाद पानी, दूध, फलों का रस, सूप आदि लेकर शरीर से पानी एवं नमक की कमी को पूरा कर लेना चाहिए।आजकल पाँच सितारा होटलों में 'फिनिश साउना' का निर्माण करके वाष्प स्नान की सुविधा उपलब्ध कराई जाती है। फिनलैंड में सामान्यतः लोग अपने घरों के एक या दो कमरों में या फिर झील के किनारे एक छोटे से लकड़ी के मकान में 'साउना' का निर्माण कर लेते हैं। एक कमरे में ड्रेसिंग टेबल, कुछ हैंगर्स और उससे लगा हुआ बाथरूम। दूसरे बंद कमरे में लकड़ी के पटरों की बनी खूबसूरत-सी सीढ़ियाँ जिन पर लोग निर्वस्त्र बैठकर वाष्प स्नान का आनंद लेते हैं। कमरे के कोने में एक विद्युत हीटर होता है जिस पर पत्थर के कुछ टुकड़े पड़े होते हैं और लोग उन पत्थरों पर थोड़ा-थोड़ा पानी डालते रहते हैं जिससे भाप उत्पन्न होकर पूरे कमरे में फैल जाती है। जैसे-जैसे भाप बढ़ती जाती है, कमरे का तापक्रम भी बढ़ता जाता है। कुछ मिनटों में ही लोग पसीने से तर-बतर हो जाते हैं। कुछ लोग 'साउना' से निकलकर साधारण पानी से स्नान करके निकल आते हैं, किंतु कुछ लोग साउना से बाहर आकर जमी हुई झील पर लोटते हैं और बर्फ से खेलते हैं या फिर जमी हुई झील की सतह पर बर्फ को काटकर निकालने के बाद बर्फीले पानी में डुबकी लगाते हैं। उसके उपरांत सामान्य ताप वाले पानी से स्नान करने के बाद कपड़े पहनकर निकलते हैं।

किंतु जनसाधारण के लिए वाष्प स्नान की बड़ी ही सरल व्यवस्था की जा सकती है। एक बेंत की कुर्सी पर बैठकर कुर्सी सहित अपने निर्वस्त्र शरीर को गर्दन तक कंबल से ढकने के बाद कुर्सी के नीचे किसी बड़े बर्तन में खौलता पानी रखकर वाष्प स्नान लिया जा सकता है। पानी ठंडा होने पर बदलते रहना चाहिए। यदि संभव हो तो किसी स्टोव पर एक ऐसे बर्तन में पानी गर्म किया जाए जिसमें ऊपर भांप निकलने के लिए एक टोटी लगी हो और उस टोटी से रबड़ की पाइप के जरिए कुर्सी के नीचे भाप की निरंतर उपलब्धता बनाई रखी जा सकती है। इससे आवश्यकतानुसार भाप की मात्रा भी कम या अधिक की जा सकती है।

डॉ. कुलरंजन मुखर्जी ने वाष्प स्नान लेने के पूर्व सिर, मुख और गर्दन ठंडे पानी से अच्छी तरह धो लेने तथा एक भीगे तौलिए को सिर में लपेट लेने एवं इसके साथ ही दूसरे भीगे तौलिए को हृदय क्षेत्र में रख लेने की सलाह दी है। उसके उपरांत एक-दो ग्लास पानी पीकर ही कुर्सी पर बैठें ताकि पसीना अधिक से अधिक निकले। वाष्प स्नान के दौरान भाप की मात्रा धीरे-धीरे बढ़ाई जानी चाहिए और उतनी ही देर वाष्प स्नान लेना चाहिए जितना आसानी से सहा जा सके। भाप स्नान बंद करने के बाद कंबल के अंदर ही एक भीगी तौलिया से शरीर को अच्छी तरह पोंछकर शरीर का ताप कम किया जाना चाहिए। इसके उपरांत घर्षण स्नान, स्पंज स्नान, सुखी मालिश या फिर साधारण पानी से स्नान भी किया जा सकता है।

सावधानियाँ


अत्यंत दुर्बल व्यक्तियों, हृदयरोग, यक्ष्मा, बहुमूत्र रोग, प्रमस्तिष्कीय रक्तालपता, रक्तस्रावग्रस्त और स्नायविक रोगों से पीड़ित व्यक्तियों को वाष्प स्नान बड़ी सावधानी से एवं किसी प्राकृतिक चिकित्सक की देख-रेख में ही लेना चाहिए।

दरअसल जहाँ एक सीमित समय तक वाष्प स्नान लेने से स्वास्थ्य लाभ होता है वहीं बहुत अधिक गर्मी से उत्पन्न होने वाले कष्ट काफी जटिल भी हो सकते हैं क्योंकि हमारा शरीर ताप वृद्धि के प्रति अत्यधिक संवेदनशील होता है। काफी समय तक बहुत अधिक गर्मी में रहने के कारण विभिन्न प्रकार की तापजनित विकृतियाँ उत्पन्न हो सकती हैं। इस संबंध में 'एंथोनी स्मिथ' ने अपनी पुस्तक 'एक्सप्लोरेशन मेडिसिन' का उद्दरण देते हुए लिखा है कि बहुत अधिक ताप से (1) ताप-सम्मूर्छा चक्कर और थकान के अतिरिक्त देह शाखाओं में सूजन भी हो सकता है। (2) शरीर में पानी की कमी और तापजनित शक्तिक्षय की संभावना हो सकती है जिसे काफी पेय लेकर पूरा किया जाना चाहिए। (3) शरीर में नमक की कमी हो सकती है जिसके कारण थकान, चक्कर, मिचली, उल्टी और मांसपेशियों में ऐंठन जैसी पीड़ा उत्पन्न हो सकती है।

हमारे प्रतिदिन के सामान्य भोजन में 10 ग्राम नमक की मात्रा होती है। प्रति लीटर पसीने के साथ 4 ग्राम नमक निकल जाता है। इसलिए वाष्प स्नान लेते समय और उसके बाद शरीर में नमक की उपलब्धता पर नियंत्रण रखना जरूरी है। इसके अलावा अधिक गर्मी से हमारे शरीर की त्वचा पर अम्भौरिया या पसीने के स्थान पर छोटे-छोटे स्फोट उत्पन्न हो सकते हैं या फिर 'हीट स्ट्रोक' भी हो सकता है। अतः वाष्प स्नान लेते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि उतनी ही गर्मी हमें प्राप्त हो जितना हमारा शरीर आसानी से बर्दाश्त कर सके। वाष्प स्नान का समय धीरे-धीरे आवश्यकता अनुसार बढ़ाया जा सकता है। वाष्प स्नान के बाद पानी, दूध, फलों का रस, सूप आदि लेकर शरीर से पानी एवं नमक की कमी को पूरा कर लेना चाहिए।

सामान्य स्वास्थ्य का स्तर उच्चतम बनाए रखने के साथ-साथ विभिन्न रोगों में वाष्प स्नान हमारी सहायता करके हमें रोग मुक्त करता है। अजीर्ण में वाष्प स्नान के दौरान विष के साथ-साथ शरीर से काफी पसीना निकल जाने से जलाभाव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है, लेकिन ऐसी स्थिति में हमारी आंतों की स्वांगीकरण अथवा अन्न पाचन क्षमता में काफी वृद्धि हो जाती है। फलस्वरूप हमारे द्वारा लिए गए भोजन और तरल पदार्थों से आंतों द्वारा आवश्यक तत्वों का समुचित स्वांगीकरण करने से हमें स्वास्थ्य लाभ मिलता है।

वृक्कशोथ (नेफ्राइटिस) में वाष्प स्नान से उत्पन्न अतिस्वेदन के साथ रोगग्रस्त वृक्कों द्वारा निष्काषित न किए गए विष का विसर्जन होकर हमें स्वास्थ्य लाभ प्राप्त है। वात रोगों में भी इस स्नान से शरीर के त्याज्य पदार्थों का निवारण सरल हो जाता है। गठिया और जोड़ों के दर्द, कटिवात, आमवात, गर्दन की पीड़ा आदि में वाष्प-ताप से पीड़ा में कमी और रक्त प्रवाह में वृद्धि के कारण धीरे-धीरे हमें रोगों से मुक्ति मिल जाती है। इसी प्रकार त्वचा के रोगों, मूत्रपथरी, अन्य मूत्ररोग, प्रमेहरोग, यकृतरोग, श्वासरोग, मोटापा आदि में भी वाष्प स्नान बहुत लाभदायक है।

(स्वतंत्र लेखक)

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