विकास की बलि चढ़ते मैंग्रोव वन
अपनी खास वनस्पतियों और जलीय विशेषताओं के कारण पहचाने जाने वाले मैंग्रोव वन कुछ ही दशकों में मिट सकते हैं। यह आकलन अमेरिकी शोधकर्ताओं के एक दल का है। इन शोधकर्ताओं का अध्ययन इस मामले में अंतर्राष्ट्रीय है कि दल ने दुनिया भर के मैंग्रोव वनों का व्यापक अध्ययन किया और पाया कि मैंग्रोव वनस्पतियों की कम से कम 70 प्रजातियों का वजूद खतरे की जद में है। इन प्रजातियों के संरक्षण-संवर्द्धन पर अगर तुरंत ध्यान नहीं दिया गया तो दो दशक के भीतर ही ये लुप्त हो सकती हैं। ऐसा नहीं है कि इस तरह का आकलन केवल अमेरिकी दल का है। हाल ही में इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर यानी आईयूसीएन ने भी एक रिपोर्ट जारी की है,जिसके अनुसार 11 मैंग्रोव प्रजातियों का जीवन तो बिलकुल खतरे में और बाकी 50 से अधिक प्रजातियों की हालत दयनीय है। दरअसल, पूरी धरती से मैंग्रोव वन क्षेत्र प्रतिवर्ष औसतन तीन-चार फीसदी की दर से घटता जा रहा है। मैंग्रोव के जंगल केवल कार्बन डाईऑक्साइड गैसों को बढ़ने से ही नहीं रोकते बल्कि सुनामी जैसी आपदा भी इनके आगे नतमस्तक हो जाती है। इन वनस्पतियों की मजबूत और सघन जड़ें समुद्री लहरों से तटों का कटाव होने से बचाती हैं। मैंग्रोव वन चक्रवाती तूफान से होने वाली तबाही को भी कम करते हैं लेकिन इसके बावजूद इसे बचाने का ठोस प्रयास नहीं किया जा रहा है।
मैंग्रोव वन ब्राजील में भी घटे हैं और इंडोनेशिया में भी। आज ब्राजील में करीब 25000 वर्ग किलोमीटर और इंडोनेशिया में 21000 वर्ग किलोमीटर में मैंग्रोव वन बचे हैं, जबकि 1950 के आसपास इन दोनों देशों को मिलाकर एक लाख वर्ग किलोमीटर के क्षेत्रफल में मैंग्रोव जंगल फैला था।
भारत और दक्षिण एशियाई देशों की बात करें तो पिछले 50 सालों में यहां मैंग्रोव वनों का 80 फीसदी हिस्सा मिट चुका है। अपने देश में मैंग्रोव प्रजातियों पर संकट कई स्तरों पर है। समुद्र किनारे होता तीव्र शहरी विकास, समुद्री जलस्तर में बढ़ोतरी, तटीय आबादी की जलीय खेती पर बढ़ती निर्भरता और वनों की अंधाधुंध कटाई इसमें सबसे अहम हैं। हाल ही में सुंदरी प्रजाति की मैंग्रोव वनस्पति एक दूसरे कारण से भी तबाह हुई है। इस प्रजाति में 'टाप डाइंग' नाम की बीमारी लग गई जिसने खासतौर से सुंदरवन के मैंग्रोव वन को काफी नुकसान पहुंचाया। ज्ञात हो कि सुंदरवन का नामकरण भी इसी सुंदरी प्रजाति की वनस्पति के कारण हुआ है जो वहां बहुतायत में पाई जाती है। सुंदरवन के निचले इलाके में 70 फीसदी पेड़ इसी प्रजाति के होते हैं। 'टाप डाइंग' का कारण अज्ञात है लेकिन अभी तक विशेषज्ञ जिस नतीजे पर पहुंचे हैं उसका निहितार्थ यही है कि पानी में बढ़ता खारापन और ऑक्सीजन की कमी ही इसके लिए जिम्मेदार है। इस बिंदु पर जल्द ही गंभीरता से ध्यान देना होगा क्योंकि सुंदरवन की सघनता खत्म होने का अर्थ तमाम दुष्प्रभावों के सामने आने के साथ-साथ बाघों के प्राकृतिक आवास छिन जाने से भी है। कई स्थान ऐसे हैं जहां मैंग्रोव के कटने से पेड़ों की सघनता घटी है और बाघ डेल्टा के उत्तरी हिस्से में चले गए हैं, जहां मानव आबादी काफी सघन रूप में है। बाघों के इस प्रवास का प्रतिफल ही है कि मानवों के साथ उनका संघर्ष बढ़ा है।
पर्यावरण हितैषी मैंग्रोव वन अब संकट में
जरूरत इस बात की है कि हम इन वनों की भूमिका को गहराई से महसूस करें। मैंग्रोव के जंगल केवल कार्बन डाइऑक्साइड गैसों को बढ़ने से ही नहीं रोकते बल्कि सुनामी जैसी आपदा भी इनके आगे नतमस्तक हो जाती है। इन वनस्पतियों की मजबूत और सघन जड़ें समुद्री लहरों से तटों का कटाव होने से बचाती हैं। घने मैंग्रोव वन चक्रवाती तूफान की गति को भी कम कर तटीय इलाकों में होने वाली तबाही को कम करते हैं। मैंग्रोव वनों का इतना महत्व होते हुए और सुनामी के अनुभव के बाद भी हम इसके संरक्षण की दिशा में विशेष प्रयास नहीं कर रहे, न तो संसद में इसके लिए चिंता दिखती है और न सड़कों पर। आज इन विशेष प्रकार के वनों को विनाश से बचाना हमारी पहली प्राथमिकता होनी चाहिए क्योंकि उनके अनेक पारिस्थितिक उपयोग हैं और फिर उनका आर्थिक मूल्य भी कुछ कम नहीं।