विकास में है संतुलन की जरूरत

3 Jul 2014
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देशभर की नदियां तिल-तिल कर मर रही हैं। इनके किनारे बसे शहर इनका पानी ले रहे हैं और गंदा पानी इनमें छोड़ रहे हैं, जिसमें औद्योगिक कचरा भी शामिल है। सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट बनाकर नदियों को साफ रखने की नीति असफल सिद्ध हो चुकी है। ऐसे में यह आवश्यक है कि नदियों की सफाई के साथ-साथ नदियों में प्रदूषित पदार्थों और गंदे पानी के विसर्जन पर रोक लगे। इसके लिए एक समग्र नीति की आवश्यकता है, जिसमें कचरा अलग करके उसकी उपयोगिता ढूंढ़ना, लघु उद्योगों के लिए उचित तकनीक विकसित करना और एक राष्ट्रीय स्वच्छता नीति बनाना अनिवार्य है।

अपने विकासशील देश में जन-जन की इच्छा है कि हमारा देश विकसित देशों की श्रेणी में आ जाए। हर व्यक्ति विकास चाहता है और यह सही भी है, लेकिन विकास-विकास रटने के साथ हमें यह भी ध्यान रखने की आवश्यकता है कि विकास ऐसा हो, जो स्थाई हो और लाभदायक हो।

उदाहरण के लिए उत्तराखंड की त्रासदी को ही ले सकते हैं। एक साल पूरा हो चुका है और दुखद है कि अभी तक वहां मलबे से लाशें निकल रही हैं। उत्तराखंड में जगह-जगह बड़े-बड़े भवन उग आए थे, जिनमें हर तरह का व्यवसाय चलता था और जनजीवन अपेक्षाकृत सुविधाजनक था, पर्यटकों को अपनी आवश्यकता की वस्तुएं आसानी से मिल जाती थीं और स्थानीय निवासियों के लिए रोजगार के साधन उपलब्ध थे।

वह भी विकास का एक रूप था, लेकिन विनाशकारी बाढ़ ने सबको सोचने पर विवश किया है कि हम एकांगी विकास के बजाय संतुलित विकास का नजरिया अपनाएं। विकास धनात्मक हो, मंगलकारी हो और स्थाई हो। विकास में सत्यम्-शिवम्-सुंदरम् की अवधारणा के सामंजस्य का यही अर्थ है।

पहाड़ में कंक्रीट के जंगल भूकंप और भूस्खलन के साथ ही बादल फटने जैसी दुर्घटनाओं के कारण बनते हैं, अत: यह आवश्यक है कि पहाड़ों में विकास के नाम पर कंक्रीट के जंगलों पर रोक लगे। यहां सवाल पर्यावरण का नहीं है, बल्कि लोगों के जीवन का है। वह विकास किस काम का, जो जीवन को ही लील जाए?

केंद्र की नई मोदी सरकार ने गंगा की सफाई को अपनी प्राथमिकताओं में एक माना है। यहां यह समझना आवश्यक है कि देशभर की नदियां तिल-तिल कर मर रही हैं। इनके किनारे बसे शहर इनका पानी ले रहे हैं और गंदा पानी इनमें छोड़ रहे हैं, जिसमें औद्योगिक कचरा भी शामिल है।

सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट बनाकर नदियों को साफ रखने की नीति असफल सिद्ध हो चुकी है। ऐसे में यह आवश्यक है कि नदियों की सफाई के साथ-साथ नदियों में प्रदूषित पदार्थों और गंदे पानी के विसर्जन पर रोक लगे। इसके लिए एक समग्र नीति की आवश्यकता है, जिसमें कचरा अलग करके उसकी उपयोगिता ढूंढ़ना, लघु उद्योगों के लिए उचित तकनीक विकसित करना और एक राष्ट्रीय स्वच्छता नीति बनाना अनिवार्य है।

दूसरी बात यह समझना आवश्यक है कि पर्यावरण और विकास को एक दूसरे के दुश्मन के रूप में पेश किया जाता है। यूपीए सरकार के दूसरे कार्यकाल में जयराम रमेश को पर्यावरण मंत्रालय छोड़ना पड़ा था, क्योंकि उन पर आरोप था कि पर्यावरण स्वीकृतियों के चक्कर में ढेरों परियोजनाएं लंबित पड़ी रहीं।

अंधाधुंध विकास से सिमटते प्राकृतिक स्रोतअसल में हमारे सामने विकास के दो मॉडल हैं। पहला मॉडल चीन का है, जहां नीति यह है कि पहले गरीबी दूर करो, पर्यावरण की चिंता बाद में होती रहेगी। दूसरा मॉडल यूरोपीय देशों का है, जहां ग्रीन हाउस प्रदूषण कम करने का प्रयास होने के साथ-साथ अर्थव्यवस्था में भी 40 फीसदी तक का इजाफा हुआ है।

ऐसे सभी मामलों में सरकार का तर्कसंगत और संतुलित नजरिया ही देश को भविष्य में होने वाले नुकसान से बचा सकता है।

सौर ऊर्जा और वायु ऊर्जा को प्रोत्साहन, घरेलू कचरे तथा औद्योगिक अपशिष्ट का रचनात्मक उपयोग यानी रिसाइकलिंग, कोयले के प्रयोग में कमी, कार्बन के उत्सर्जन पर रोकथाम के तरीके हमारी अनिवार्य आवश्यकताएं हैं। इन पर ध्यान दिए बिना किया गया विकास अंतत: विनाशकारी साबित होगा और उत्तराखंड जैसी दुर्घटनाओं की पुनरावृत्ति के लिए हम शापित होते रहेंगे।

पर्यावरण बचाने के लिए छोटे-बड़े हर स्तर पर संतुलन होना चाहिए। अभी जब हम पर्यावरण संरक्षण की बात करते हैं तो सरकार और कंपनियां विरोधियों का-सा व्यवहार करते हैं। जबकि संतुलित फ्रेमवर्क में किया गया विकास न केवल मंगलकारी होगा, बल्कि स्थाई भी होगा।

कई मामलों में सरकारी नीतियां और प्रशासनिक अधिकारियों का नजरिया जनहितकारी नहीं होता। एक गरीब की झोपड़ी गैर-कानूनी हो तो हट जाती है, लेकिन जहां कॉरपोरेट कंपनियां पर्यावरण की अनदेखी करके बड़ी-बड़ी इमारतें, यहां तक कि शहर बना देती हैं, वहां कार्यवाही नहीं होती। पैसे के दम पर और प्रशासनिक अधिकारियों व राजनेताओं की मिलीभगत के कारण ऐसी कंपनियां अदालतों में भी जीत जाती हैं।

यह कहना तो अतिशयोक्ति ही होगी कि विकसित देश पर्यावरण को नुकसान नहीं पहुंचाते, जबकि शोर सबसे ज्यादा वहीं से होता है। इसमें कोई दो राय नहीं कि हरित अर्थव्यवस्था पर ध्यान दिया जाना चाहिए, पर इसके लिए पहले कोई अंतरराष्ट्रीय और स्वीकार्य पैमाना भी बनना जरूरी है।

विकासशील देशों को तकनीकी सहायता की आवश्यकता भी होगी, ताकि उनका कार्बन उत्सर्जन कम हो सके। लेकिन जब तक ऐसा नहीं होता, विकास के लिए कुछ हद तक समझौता करना ही पड़ेगा। इसके लिए जागरूकता की आवश्यकता है, क्योंकि निचले स्तर पर भी जागरूकता आने से विकास और पर्यावरण साथ-साथ चल सकेंगे।

अभी बहुत बड़ी मात्रा में खेती योग्य जमीन उद्योगों को, विशेषकर विदेशी कंपनियों को दी जा रही है। इससे देश में अन्न के उत्पादन में कमी आएगी और अंतत: हम भोजन के लिए भी विदेशों पर निर्भर हो जाएंगे। जबकि देश में बहुत सारी बंजर जमीन है- जहां आवश्यक हो, उसे ही उद्योगों को दिया जाना चाहिए, ताकि खेती योग्य जमीन बची रह सके।

अंधाधुंध विकास से सिमटते प्राकृतिक स्रोतआरंभिक शिक्षा में ही पैदल चलने और साइकिल पर चलने की आदत का विकास होना चाहिए, ताकि स्थानीय परिवहन में गाड़ियों के अत्यधिक प्रयोग पर रोक लगे। कुशल सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था इसमें बहुत लाभदायक हो सकती है। सिर्फ नए कानून बनाना ही काफी नहीं है- तर्कसंगत और जनहितकारी कानून बनाना, उन्हें पूरी तरह से लागू करन और प्रशासनिक अधिकारियों तथा राजनेताओं में जनसंवेदी दृष्टिकोण का विकास इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए आवश्यक है।

यह स्वयंसिद्ध तथ्य है कि विकास और पर्यावरण में कोई विरोध नहीं है। समस्या तब आती है, जब हम समग्रता में नहीं देखते और एकांगी दृष्टिकोण अपनाते हैं। सच तो यह है कि पर्यावरण और विकास साथ-साथ चल सकते हैं, सिर्फ हमें अपना नजरिया बदलने की जरूरत है।

लेखक वरिष्ठ जनसंपर्क सलाहकार और विचारक हैं

ईमेल : pkkhurana@gmail.com

Tags : Global Warming in Hindi, Modern Development in Hindi, GGreenhouse gas emissions in Hindi, Environment in Hindi, Indian agriculture in Hindi, Save Environment in Hindi, Uttarakhand tragedy in Hindi

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