विकराल अकाल

(वे भारत के रत्न ही थे। वर्ष 1907 में देश के अकाल पर उन्होंने जो काम किया, जो कुछ लिखा-कहा, वह सब यही बताता है कि वे भारत रत्न थे। उन्होंने तब अकाल और रेल का सम्बन्ध भी जोड़ा था। देश का अन्न रेलों के जरिए किस तरह खींच कर विलायत भेजा जाता है और फिर किस तरह यहाँ महँगाई बढ़ती जाती है- इस पर मालवीय जी की चिन्ता कितना कुछ बता जाती है। - सम्पादकीय टिप्पणी )

सर एंटनी मैकडॉनल का अति-प्रशंसित प्रबन्ध होने पर भी 1897 के अकाल से मि. डिग्वी के अनुसार, 60 लाख से ऊपर प्राणी कम हुए थे। हमारा यह दृढ़ विश्वास है कि असंख्य मनुष्यों को भूख की आग में झुलस कर मरने से बचाने के लिए यह आवश्यक है कि गवर्नमेंट अकाल के समय देश से अन्न को विदेश जाना रोक दे।

पिछले दस वर्ष में हिन्दुस्तान की अभागी प्रजा में से सरकारी रिपोर्टों के अनुसार 55 लाख प्राणी प्लेग के कलेवा बन चुके हैं। किन्तु इतने पर भी इस देश पर दैव का कोप शान्त होता नहीं दीख पड़ता। पानी के कम बरसने से देश में एक बड़ा भयंकर अकाल उपस्थित है। एक फसल तो मारी ही जा चुकी है, किन्तु यदि अब भी पानी बरस जाए तो आगे की फसल की कुछ आशा हो जाएगी। इस देश में अंग्रेजी राज्य ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासन से प्रारम्भ हुआ और वह शासन नब्बे बरस तक रहा। उस बीच में हिन्दुस्तान के किसी न किसी भाग में बारह बार अकाल पड़ा और चार बार बहुत महँगी की व्यथा भी हुई। किन्तु उन दिनों में अकाल की पीड़ा कम करने का कोई यत्न कम्पनी की ओर से नहीं हुआ।

जब से इग्लैंड की रानी ने हिन्दुस्तान का शासन अपने हाथ में लिया, तब से हिन्दुस्तान के किसी न किसी भाग में आठ बार अकाल पड़ा है। और एक बड़ी महँगी हुई थी, जिसकी दशा अकाल से थोड़ी-सी कम थी। गवर्नमेन्ट ने वर्ष 1880 में एक फैमिन-कमीशन नियुक्त किया। उस कमीशन ने इस बात को पूरी तरह स्वीकार किया कि गवर्नमेंट का यह धर्म है कि अकाल के समय में उन सब लोगों को सहायता दे, जिनको सहायता की आवश्यकता है। 1897-98 में जब बड़ा भयकंर अकाल पड़ा था, उस समय इस सिद्धान्त के अनसुार सर एंटोनी मैकडॉनल ने इन प्रान्तोंं में अकाल से पीड़ित प्राणियों की सहायता का बहुत उत्तम प्रबन्ध किया। 1873 के बिहार के अकाल के समय लार्ड नार्थब्रुक ने उदारता से प्रजा को बचाने का जो प्रबन्ध किया था, उसके उपरान्त देश की प्रजा गवर्नमेंट को उस प्रबन्ध के लिए पूर्ण रीति से धन्यवाद कर चुकी है। उसके उपरान्त 1899-1900 में जो मध्यप्रदेश, बरार, बम्बई, अजमेर, पंजाब में बहुत बड़ा अकाल पड़ा, उसमें इण्डिया फैमिन कमीशन की रिपोर्ट के अनुसार गवर्नमेन्ट ने पन्द्रह करोड़ रुपयों के लगभग प्रजा की सहायता में व्यय किए।

अब जो अकाल देश के सामने उपस्थित है, उसके लिए भी हम लोग आशा करते हैं कि जहाँ-जहाँ अकाल है, प्रत्येक प्रान्त की गवर्नमेन्ट वहाँ-वहाँ प्रजा की सहायता के लिए उदार उत्तम प्रबन्ध करेगी। हमको यह देखकर सन्तोष होता है कि संयुक्त प्रान्त की गवर्नमेन्ट ने प्रजा को सहायता देने का प्रबन्ध प्रारम्भ कर दिया है। इस सबके लिए हम गवर्नमेन्ट का धन्यवाद करते हैं और करेंगे, किन्तु हम यह कहना अपना धर्म समझते हैं कि यद्यपि ऊपर लिखे उपाय प्रशंसनीय हैं, यथापि वे प्रजा को अकाल की आहुति होने से बचाने के लिए पूरे नहीं हैं। सर एंटनी मैकडॉनल का अति-प्रशंसित प्रबन्ध होने पर भी 1897 के अकाल से मि. डिग्वी के अनुसार, 60 लाख से ऊपर प्राणी कम हुए थे। हमारा यह दृढ़ विश्वास है कि असंख्य मनुष्यों को भूख की आग में झुलस कर मरने से बचाने के लिए यह आवश्यक है कि गवर्नमेंट अकाल के समय देश से अन्न को विदेश जाना रोक दे।

हम जानते हैं कि आजकल के इग्लैंड के कुछ अर्थशास्त्र के पण्डित हमारे इस प्रस्ताव का उपहास करेंगे। किन्तु प्रजा की रक्षा का भार गवर्नमेंट ऑफ इण्डिया के ऊपर है और उसके अधिकारियों का यह धर्म है कि वे इस प्रस्ताव को हिन्दुस्तान की प्रजा की गवर्नमेंट की आँख से देखें, न कि इग्लैंड और यूरोप के उन अर्थशास्त्र के पण्डितों की आँख से, जिन्होंने हिन्दुस्तान की विशेष अवस्था पर विचार नहीं किया। यदि वे ऐसा करेंगे तो उनको यह निश्चय हो जाएगा कि अकाल के समय में देश के अन्न को विदेश जाने से रोकना उनका प्रथम कर्तव्य है। रेलों के बनने से देश को बहुत लाभ हुआ है। एक प्रान्त में अकाल पड़ने से दूसरे प्रान्त से जो अन्न सहज में पहुँचा दिया जाता है, यह रेलों के बनने का एक बड़ा अनमोल लाभ है।

रेलों के बनने से देश को बहुत लाभ हुआ है। एक प्रान्त में अकाल पड़ने से दूसरे प्रान्त से जो अन्न सहज में पहुँचा दिया जाता है, यह रेलों के बनने का एक बड़ा अनमोल लाभ है। किन्तु जो रेलों का बनना एक अंश में प्रजा के लिए हितकारी है, वहीं दूसरे अंश में उनके लिए अत्यन्त अहितकर हो रहा है। यह रेलों ही का सुभीता है, जिसके कारण रैली ब्रदर्स के समान अन्न के व्यापारी हिन्दुस्तान के गाँव का अन्न खींचकर अपने स्वार्थ के लिए विलायत को भेजते हैं।

किन्तु जो रेलों का बनाना एक अंश में प्रजा के लिए हितकारी है, वहीं दूसरे अंश में उनके लिए अत्यन्त अहितकर हो रहा है। यह रेलों ही का सुभीता है, जिसके कारण रैली ब्रदर्स के समान अन्न के व्यापारी हिन्दुस्तान के गाँव का अन्न खींचकर अपने स्वार्थ के लिए विलायत को भेजते हैं। इसका एक विषमय फल यह हुआ है कि अब इस देश में जहाँ अन्न बहुतायत से होता है, बारह महीने अकाल का-सा भाव छाया रहता है और सबसे अधिक हृदय को बेधने वाली बात यह है कि जबकि एक विकराल अकाल देश के सामने खड़ा हुआ है, उस समय भी प्रति सप्ताह लाखों मन अन्न हिन्दुस्तान से विलायत को ढोया चला जाता है। हम विश्वास के साथ यह कह सकते हैं कि यदि गवर्नमेंट हिन्दुस्तान के एक सिरे से दूसरे सिरे तक प्रजा की सम्मति पूछे, तो थोड़े-से गिने-चुने पुरुषों को छोड़कर, जो अन्न को देश के बाहर भेजकर और अपने जाति-भाइयों को पीड़ा पहुँच कर लाभ उठाते हैं, सब लोग एक स्वर से यह कहेंगे कि अन्न को निष्कंटक देश के बाहर जाना बन्द करना प्रजा के प्राण की रक्षा के लिए पहली आवश्यकता है।

यह मत जिस पर हमने ऊपर प्रकाश किया है, इसके समर्थन में हम मिस्टर हारेस वले के उस व्याख्यान का स्मरण दिलाते हैं जो उन्होंने 1901 में लन्दन की ‘सोसाइटी ऑफ आर्टस’ के सामने पढ़ा था। उनका मत जितना आदर पाने के योग्य था, उतना उस समय नहीं पाया। किन्तु बार-बार पड़ते हुए अकाल और गवर्नमेंट का सहायता पहुँचाने का प्रबन्ध होने पर भी उनसे होती हुई असंख्य प्राणियों की प्राण-हानि, मिस्टर वेल के प्रस्ताव का पूर्ण रूप से समर्थन करती हैं। हम यह नहीं कहते कि अन्न का विदेश जाना सब दिन के लिए बन्द कर देना चाहिए। हम केवल यही कहते हैं कि अन्न के विदेश जाने के विषय में वैसे विवेक युक्त कानून बनाए जाएँ जैसे कि इंग्लैण्ड में उस समय जारी किए गए थे, जब वहाँ उनकी आवश्यकता थी। वर्ष 1771 के कानून के अनुसार इंग्लैण्ड में ऐसा प्रबन्ध किया था कि जब गेहूँ 44 शिलिंग का एक क्वार्टर तक बिकने लगे, तब गेहूँ का देश से बाहर भेजना बन्द कर दिया जाए। 1791 में अन्न का दूसरा कानून इंग्लैण्ड में बना था, उसके अनुसार जब गेहूँ 46 शिलिंग का एक क्वार्टर बिकने लगता था, तब उसका बाहर भेजना बन्द कर दिया जाता था। इस नीति से इंग्लैण्ड के निवासियों को कितना लाभ पहुँचा, इस बात को लैकी ने अपने ‘इंग्लैण्ड के इतिहास’ के छठें भाग में बहुत अच्छी तरह दिखाया है।

हम यह नहीं कहते कि अन्न का विदेश जाना सब दिन के लिए बन्द कर देना चाहिए। हम केवल यही कहते हैं कि अन्न के विदेश जाने के विषय में वैसे विवेक युक्त कानून बनाए जाएं जैसे कि इंग्लैण्ड में उस समय जारी किए गए थे, जब वहाँ उनकी आवश्यकता थी। वर्ष 1771 के कानून के अनुसार इंग्लैण्ड में ऐसा प्रबन्ध किया था कि जब गेहूँ 44 शिलिंग का एक क्वार्टर तक बिकने लगे, तब गेहूँ का देश से बाहर भेजना बन्द कर दिया जाए। इस नीति से इंग्लैण्ड के निवासियों को कितना लाभ पहुँचा, इस बात को लैकी ने अपने ‘इंग्लैण्ड के इतिहास’ के छठें भाग में बहुत अच्छी तरह दिखाया है।

इसी उदाहरण को लेकर यदि गवर्नमेन्ट ऐसा कानून बना दे कि जब गेहूँ देश में रुपए का बारह सेर बिकने लगे, तब गेहूँ का विदेश जाना बिल्कुल बन्द कर दिया जाए और जब पन्द्रह सेर तक बिकता रहे तब तक बाहर जाने वाले गेहूँ पर टैक्स लगा दिया जाए, तो ऐसा करने से गेहूँ के उपजाने वालों को कोई हानि नहीं पहुँचेगी और प्रजा बारह महीने महँगी की व्यथा से और दुर्भिक्ष के समय अकाल-मृत्यु से बचेगी। इस प्रकार से चावल तथा अन्य भोजन के पदार्थों के विषय में भी नियम बनाना चाहिए। हम आशा करते हैं कि मनुष्य जाति के हित के लिए हमारे इस प्रस्ताव पर गवर्नमेंट उचित गौरव के साथ विचार करेगी।

इस समय हमारे देश में विचारवान देश-हितैषियों के विचारार्थ नाना प्रकार के जितने विषय उपस्थित हैं उन सब में अन्न का विषय सबसे गम्भीर, आवश्यक और चिन्ताजनक है। भारत वर्ष की भूमि संसार-भर में सबसे अधिक उपजाऊ है तब भी अन्न बिना जितना कष्ट भारतवासियों को उठाना पड़ता है, उतना किसी देश के मनुष्यों को नहीं उठाना पड़ता। जितने मनुष्य यहाँ अकाल से मरते हैं उतने और कहीं नहीं मरते। अन्न का अभाव दिन-दिन बढ़ता चला जाता है। वर्ष 1865 में यहाँ चावल रुपए में करीब 26 सेर, गेहूँ 22 सेर 8 छटाकं, चना 29 सेर, बाजरी 23 सेर 8 छटाकं और रागी 28 सेर बिकते थे। इसके चालीस बरस बाद, अर्थात 1905 में चावल का भाव रुपए में 13 सेर, गेहूँ का साढ़े 14 सेर, चना का साढ़े 16 सेर, बाजरी का साढ़े 18 सेर और रागी का 22 सेर हो गया। गत जुलाई के महीने में भाव इतना तेज हो गया कि चावल रुपए में 8 सेर, गेहूँ साढ़े 11 सेर, चना साढ़े 13 सेर, बाजरी 12 सेर और रागी 20 सेर बिकने लगे। अर्थात 42 वर्ष के बीच में माटेे हिसाब से चावल 17 सेर, गेहूँ 11 सेर, चना साढ़े 15 सेर, बाजरा साढ़े 11 सेर और रागी 8 सेर महँगे हो गए हैं।

हमारे पाठकजन भाव की इस महँगी को विचार कर अत्यन्त चकित होंगे। तेजी जितनी आश्चयर्जनक है, उतनी ही भयानक भी है। यदि इसी हिसाब से भाव बढ़ता गया, तो चालीस बरस बाद रुपए का एक सेर अन्न भी दुर्लभ हो जाएगा! हम लोग चिरकाल ऐसी घोर निद्रा में सो रहे कि हम लोगों ने न अपने व्यापार के धीरे-धीरे नाश होने पर कुछ विचार किया और न अपने देश के बचे हुए एकमात्र अवलबंन अन्न की बढ़ती हुई दुर्लभता का कुछ ख्याल किया। देश के प्रतिवर्ष बढ़ते अन्न के भाव के साथ अपनी-अपनी उन्नति करते हुए और देशों का भाव देखिए कि वह किस प्रकार प्रतिवर्ष कम हो रहा है। वर्ष 1857 में इंग्लैण्ड और वेल्स में गेहूँ औसत हिसाब से रुपए में करीब तीन सेर बिकता था और 46 वर्ष बाद वर्ष 1903 में उसका भाव करीब 6 सेर, अर्थात दूना, हो गया। इसी प्रकार चावल आदि का भाव भी घटा। फ्रांस आदि देशों में भी इंग्लैण्ड की तरह अन्न का भाव घटता गया।

ऊपर दिए हुए अंकों को देखकर पाठकों को मालूम हो जाएगा कि ज्यों-ज्यों हमारे यहाँ अन्न का भाव तेज होता जाता है, त्यों-त्यों और देशों में वह घटता जाता है। अन्न की बढ़ती हुई दुर्लभता के दो कारण हैं एक तो भारतवर्ष का अन्न विदेशों को भेजा जाता है और दूसरे, अन्न बोने के लिए भूमि दिन-प्रतिदिन कम जोती जाती है।

अत्यन्त गरीबी के कारण हमारे देश के किसानों को रुपए की अत्यन्त आवश्यकता रहती है। रैली ब्रदर्स इत्यादि विदेशी कम्पनियों के एजेंट गाँव-गाँव घूमकर, खेतिहरों को पेशगी रुपया देकर, उनका अन्न मोल ले लेते हैं और उसे विदेशों को भेज देते हैं। इतना ही नहीं, वे पेशगी रुपया देकर, जिस चीज की चाहते हैं उसी की खेती करवा लेते हैं। इससे और इसी प्रकार के और कारणों से जो भूमि अन्न के लिए जोती जाती थी, वह सन इत्यादि के लिए जोती जाने लगी है।

इसलिए ज्यों-ज्यों अपने देश के तथा और देशों के लोगों की संख्या के बढ़ने के साथ-साथ अन्न की माँग भी बढत़ी है, त्यों-त्यों अन्न का भाव महँगा होता चला जाता है और सबसे अधिक अन्न इसी देश से जाता है। यहाँ चावल-गेहूँ इत्यादि खाद्य पदार्थां के सिवा नील, अलसी, सन, कपास इत्यादि की भी खेती होती है। ये भी विदेश को भेजे जाते हैं। और वहाँ से उनका तैयार माल बनकर यहाँ आता है। इन वस्तुओं की भी माँग और देशों में बढ़ रही है, किन्तु सन को छोड़कर; क्योंकि उसकी खेती इसी देश में होती है और चीजें विदेशों में उपजती हैं और इसलिए उनके दाम या तो स्थिर रहते हैं या घटते चले जाते हैं। वर्ष 1870 में करीब 10 मन रुई के दाम 248 रुपए 14 आना थे। 1880 में 209, 1890 में 190 रुपए 4 आना, 1900 में 214 रुपए 13 आना और 1905 में 192 रुपए 2 आना थे। इसी प्रकार 1870 में 1 मन अलसी 4 रुपए 10 आना में मिलती थी, 1880 में और 1905 में 4 रुपए साढ़े 10 आना में 1900 में 6 रुपए साढ़े 9 आना में और 1905 में 4 रुपए सवा 14 आना में।

इन अंकों से जान पड़ता है कि इन पदार्थों के भाव या तो स्थिर रहे या घटे। इन पदार्थों के भाव घटे और खाने के पदार्थों के भाव बढ़े। होना तो यह चाहिए था कि खाद्य पदार्थों की खेती अधिक होती और अन्य पदार्थों की कम, किन्तु हुआ इसका उलटा। इस देश में दो प्रकार के पदार्थों की खेती होती हैः एक चावल-गेहूँ इत्यादि खाद्य पदार्थों की; और दूसरे रुई, सन, नील इत्यादि की जो कपड़े बुनने-रंगने इत्यादि कामों में आते हैं। खाद्य वस्तुओं की देश-विदेश दोनों में अधिक माँग होने पर भी पहले प्रकार के पदार्थों की खेती बहुत कम बढ़ रही है और दूसरे प्रकार के पदार्थों की शीघ्र ही बढ़ती चली जाती है। दोनों पदार्थों की खेती के लिए कुल 23 करोड़ 80.6 लाख एकड़ भूमि जोती जाती है। इसमें से पहले प्रकार के अर्थात खाने के पदार्थोंं के लिए 5 करोड़ 30.2 लाख एकड़।

1892-93 में कुल 22 करोड़ 10.2 लाख एकड़ भूमि जोती जाती थी। इसमें 18 करोड़ एकड़ पहले प्रकार के पदार्थों के लिए और 4 करोड़ 10.2 लाख एकड़ दूसरे प्रकार के पदार्थों के लिए। इससे यह परिणाम निकला कि 12 बरस में केवल 1 करोड़ 70.4 लाख एकड़ भूमि अधिक जोती गई। इसमें से 50.39 लाख एकड़ भूमि पहले प्रकार के पदार्थों के लिए और 1 करोड़ 20 लाख एकड़ दूसरे प्रकार के पदार्थों के लिए। अर्थात 12 वर्ष में जितने एकड़ भूमि अधिक जोती गई, उसमें दो-तिहाई से भी अधिक दूसरे प्रकार के पदार्थों के लिए जोती गई और एक-तिहाई से भी कम पहले प्रकार के पदार्थों के लिए।

प्रत्येक प्रान्त में ऐसी स्वदेशी कम्पनियाँ बननी चाहिए जो कि किसानों को पेशगी रुपया देकर उनका कुल अन्न मोल ले लें और उसको अपने ही देशवासियों के हाथ बेचें। इस प्रकार अन्न विदेशों को जाने से बच जाएगा। सन-अलसी इत्यादि पदार्थ,जो विदेशों को कपड़ा आदि बनने के लिए जाते हैं उनको यहीं उसी काम में लाने का भी उद्योग होना चाहिए। और विषयों की अपेक्षा इसी विषय में सबसे अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है।

इस बीच यहाँ की जनसंख्या 1 करोड़ 50 लाख अधिक बढ़ी। इसलिए अन्न के निमित्त जितनी भूमि अधिक जोती गई, उससे करीब-करीब दूनी जोती जानी चाहिए थी। सबसे नई रिपोर्ट से मालूम होता है कि अन्न की अपेक्षा सन-अलसी इत्यादि बोने में अधिकता बढ़ती जा रही है। 1892-93 में गेहूँ और चावल के लिए 7 करोड़ 80.1 लाख एकड़ भूमि जोती जाती थी और 1906-07 में 4 करोड़ 30.9 लाख। रुई-सन इत्यादि के लिए 1892-93 में 2 करोड़ 70 लाख एकड़ जोती जाती थी और 1906-07 में 4 करोड़ 4 लाख एकड़ जोती गई।

देश में जनसंख्या के बढ़ने से अन्न की माँग बढ़ती चली जाती है और उसका भाव भी बढ़ता चला जाता है; किन्तु सन को छोड़कर अलसी, रुई, नील इत्यादि का भाव घटता चला जाता है। इस पर भी अलसी-तिल इत्यादि के लिए जितनी अधिक भूमि जोती जाती है, उसकी अपेक्षा अन्न के लिए बहुत ही कम जोती जाती है। इसका कारण यह है विदेशों में इन चीजों की, विशेषकर सन की, बहुत माँग है। अत्यन्त गरीबी के कारण हमारे देश के किसानों को रुपए की अत्यन्त आवश्यकता रहती है। रैली ब्रदर्स इत्यादि विदेशी कम्पनियों के एजेन्ट गाँव-गाँव घूमकर, खेतिहरों को पेशगी रुपया देकर, उनका अन्न मोल ले लेते हैं और उसे विदेशों को भेज देते हैं। इतना ही नहीं, वे पेशगी रुपया देकर, जिस चीज की चाहते हैं उसी की खेती करवा लेते हैं। इससे और इसी प्रकार के और कारणों से जो भूमि अन्न के लिए जोती जाती थी, वह सन इत्यादि के लिए जोती जाने लगी है।

विदेशी सौदागरों ने हमारे शिल्प को तो नष्टप्राय कर ही दिया था, अब खेती के ऊपर भी, जो कि अब हमारे देश वासियों में से अधिकांश का एकमात्र सहारा है, उनका बुरा प्रभाव पड़ रहा है। खेतिहर लोग इस बात को नहीं समझ सकते कि विदेशी कम्पनियों के हाथ अन्न इत्यादि बेचने से देश को कितनी हानि पहुँच रही है। यदि वे समझ भी जाएं तो कर ही क्या सकते हैं? उनको लगान और माल-गुजारी देने के लिए रुपए की आवश्यकता है। यदि उनके देशवासी रैली ब्रदर्स के समान कोई ऐसा प्रबन्ध नहीं करेंगे कि समय में उनसे अन्न मोल ले लें, तो उनको विवश होकर विदेशी व्यापारियों के हाथ अपना अन्न बेचना ही पड़ेगा।

प्राणियों के लिए अन्न सबसे आवश्यक वस्तु है। इसलिए इसकी रक्षा करना सब देश हितैषियों का धर्म है। उसे विदेशों को जाने से रोकना बहुत कठिन नहीं है। केवल थोड़े उद्योग की आवश्यकता है। प्रत्येक प्रान्त में ऐसी स्वदेशी कम्पनियाँ बननी चाहिएं जो कि किसानों को पेशगी रुपया देकर उनका कुल अन्न मोल ले लें और उसको अपने ही देश वासियों के हाथ बेचें। इस प्रकार अन्न विदेशों को जाने से बच जाएगा। सन-अलसी इत्यादि पदार्थ, जो विदेशों को कपड़ा आदि बनने के लिए जाते हैं उनको यहीं उसी काम में लाने का भी उद्योग होना चाहिए। और विषयों की अपेक्षा इसी विषय में सबसे अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। बिना काफी अन्न मिले कुछ काम नहीं हो सकता।

अन्न की महँगी को कम करने का एक उपाय यह है। किन्तु अर्थशास्त्र के जिन सिद्धान्तों को हमारे विदेशीय शासक मानते हैं उनके अनुसार हमारा प्रस्ताव न विवकेयुक्त समझा जाएगा, न साध्य। और हमारे समाज की वतर्मान अवस्था में हम भी यह आशा नहीं कर सकते कि रैली ब्रदर्स के समान कोई व्यवसाय-दल शीघ्र हमारे यहाँ खड़ा हो जाएगा। दूसरा उपाय, जो प्रजा को महँगी की मौत से बचाने के लिए सम्भव है, वह यह है कि उनकी आमदनी बढ़े। यदि हमारे देश वासियों की आय बढ़ जाए और उनके पास इतना धन हो कि अन्न कितना ही महँगा क्यों न हो, वे अपना पेट भरने के लिए काफी अन्न मोल ले सकें, तो लोग अकाल से न मरेंगे, न प्लेग से उतने मरेंगे जितने अब मरते हैं।

जातीय आय बढ़ाने का एक ही उपाय यह है कि शिल्प और खनिज व्यापार की वृद्धि हो। गवर्नमेन्ट तथा प्रजा के हितैषी समस्त देशवासियों को यह परम कर्त्तव्य है कि जहाँ तक हो सके, शिल्प और वाणिज्य-व्यापार की उन्नति के लिए यत्न करें। एक तीसरा उपाय देश वासियों की आय बढ़ाने का यह है कि अनेक बड़े वेतन के ओहदे, सिविल और सेना-सम्बन्धी, जिनके द्वारा करोड़ों रुपया प्रतिवर्ष विलायत को चला जाता है, उन पर अंग्रेजों के स्थान में हिन्दुस्तानी नियत हों। एक चौथा उपाय महँगी की विपत्ति को कम करने का यह है कि प्रजा की जो थोड़ी-सी आमदनी है, उसमें से जो भाग गवर्नमेंट टैक्स के द्वारा प्रजा से ले लेती है, वह भाग कम किया जाए; इससे प्रजा को प्राण बचाने के लिए अपनी परिमित आय का अधिक भाग बच जाया करेगा।

22 बरस से कांग्रेस इन बातों के लिए गवर्नमेन्ट से प्रार्थना करती चली आई है। गवर्नमेंट ने समय-समय पर इनमें से कुछ बातों को करना अपना धर्म भी बताया है- जैसे शिल्पकला की शिक्षा का प्रचार; किन्तु खेद का विषय है कि प्रजा को बार-बार होते हुए अकाल में आहुति बनने से बचाने के लिए जैसे यत्न और उपाय आवश्यक थे, वे अब तक नहीं किए गए और अब भी नहीं किए जा रहे हैं। जब तक ये सब उपाय काम में नहीं लाए जाएँगे, तब तक प्रजा को बार-बार अकाल के भयंकर दुख और प्राणहानि सहनी पड़ेगी। किन्तु ये सब सुधार समय माँगते हैं। इस समय गवर्नमेंट का और प्रजा में सम्पन्न जनों का भी धर्म यह है कि तुरन्त करने लायक उपायों से प्रजा को बचाएँ।

गवर्नमेन्ट गरीबों को अन्न या धन पहुँचाने का जो यत्न कर रही है और करेगी, वह सब प्रकार से सराहनीय है किन्तु जैसा हम पहले अपना विश्वास प्रकाश कर चुके हैं, देश के अन्न को बाहर जाने से रोकना प्रजा को महँगी की विपत्ति से बचाने का सबसे प्रबल उपाय है। इस उपाय के अवलम्बन करने से जितने अधिक मनुष्यों को सहायता और सहारा पहुँचेगा, उतना और किसी दूसरे उपाय के अवलम्बन से नहीं होगा। इस समय सब कामों को छोड़कर अकाल से लोगों को बचाने में सब लोगों को अपना समय और अपना धन लगाना चाहिए।

अन्य राजनैतिक मामलों में एक वर्ष का विलम्ब भी हो जाएगा तो कुछ बड़ी हानि नहीं किन्तु इस काम में एक महीने के विलम्ब से भी सहस्रों प्राणियों का नाश हो जाएगा। हम लोगों की सब शक्तियाँ इसी काम में लगनी चाहिए। इस कार्य में प्रजा और गवर्नमेंट, सनातन धर्मी और आर्य समाजी, हिन्दू और मुसलमान, इसाई और पारसी, सभी को मिलकर काम करना चाहिए। दानशील धार्मिकों को भी ऐसेे अवसर पर अपना दान इन्हीं अकाल-पीड़ित और अनाथों को देना चाहिए। प्रत्येक स्त्री और पुरुष अपनी सामर्थ्य के अनुसार इनके प्राण बचाने के लिए अन्न और द्रव्य दें। कितने लोग इस समय न केवल भूख की आग से झुलस रहे हैं अपितु वस्त्र के न होने से शीत से भी ठिठुर रहे हैं। इन भूखों को अन्न और नंगों को वस्त्र देना ईश्वर को प्रसन्न करने का परम उत्तम मार्ग है।

(अभ्युदय में 25 अक्तूबर तथा 13 दिसम्बर 1907 को छपे लेख।)

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