विकसित देश दोषी तो हमारे अमीर क्यों नहीं

25 May 2012
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क्योटो प्रोटोकॉल को 2012 से आगे बढ़ाना, न्यायोचित सिद्धांत के आधार पर तापमान समझौता के नीतियों को पारित करना और 'सामूहिक जवाबदेही' के उसूल को संयुक्त राष्ट्र की तापमान कमेटी में समाहित कराना। भारत इन तीन लक्ष्यों के साथ क्योटो प्रोटोकॉल को आगे बढ़ाना चाहता था। भारत का प्रस्ताव यों तो न्यायसंगत लगता है। पृथ्वी का तापमान बढ़ने का कारण औद्योगिक सभ्यता है जिसका विशेष लाभ उन्नत देशों और बाकी देशों में भी अमीर आबादी को मिला है। क्योटो प्रोटोकॉल के बारे में जानकारी देते महेश राठी

भारत सरकार को सबसे पहले अपने देश के गरीबों का उत्थान करना चाहिए। ऐसी विकास पद्धति अख्तियार करनी होगी जिससे संसाधनों का इस्तेमाल आवश्यक जरूरत की वस्तुओं के उत्पादन में लगे। इससे प्रकृति से सौहार्दपूर्ण रिश्ता कायम होगा और जलवायु में सुधार होगा। भारत की डरबन में होने वाली क्षति पूरी होगी और दुनिया के दूसरे देशों के लिए मिसाल तैयार होगा।

दुनिया को 1972 में ही 'क्लब ऑफ रोम' ने आगाह किया था कि आर्थिक विकास के नाम पर इसी तरह से संसाधनों का दोहन होता रहा और प्राकृतिक नियमों से छेड़छाड़ किया जाता रहा तो दुनिया बहुत दिनों तक चलने वाली नहीं है। अभी हाल में अंतरराष्ट्रीय एनर्जी एजेंसी ने ऐलान किया है कि आर्थिक विकास और प्राकृतिक साधनों का दोहन इसी प्रकार होता रहा तो इस धरती की गर्मी इस सदी के अंत तक बढ़कर 5 से 6 डिग्री. सेल्सीयस हो जाएगी। याद रहे! वैज्ञानिकों का मानना है कि इस धरती को गर्मी बर्दास्त करने की सहनशक्ति औद्योगिक क्रांति के पहले के स्तर से दो डिग्री. सेल्सीयस तक सीमित है। गर्मी इसी तरह बढ़ती गई तो इसके कई खतरनाक परिणाम होंगे, क्योंकि गर्मी बढऩे के कारण ग्लेशियर सूखेगा, समुद्र का जल स्तर बहुत ऊंचा होगा और तापमान बढ़ने से जीवन असंभव हो जाएगा।

भारत को तापमान बढ़ने से विशेष हानि होने की संभावना है। भारत का समुद्र तट बहुत लंबा है। समुद्र जल स्तर के बढ़ने से किनारों पर बसे लोगों को उजड़ जाना पड़ेगा, मछुआरों को दिक्कत होगी और दूर तक पानी खारा हो जाएगा। भारत कृषि प्रधान देश है। 60 वर्षों के औद्योगिक विकास के प्रयास के बावजूद करीब 70 प्रतिशत देशवासियों की जिंदगी खेती के इर्द-गिर्द चलती है। उत्तर भारत की सारी नदियां ग्लेशियर से जुड़ी हुई हैं। जब ऊंचे पहाड़ों की बर्फ पिघलेगी तो पहले बाढ़ की विभीषिका होगी और बाद में सुखे का सामना करना पड़ेगा। यहां की खेती मानसून आधारित है। इसमें तब्दीली आएगी और सब मिलाकर खेती का कारोबार चौपट होगा। जमीन के नीचे का जलस्तर भी सूख जाएगा। सब मिलाकर यदि धरती के बढ़ते तापमान को नहीं रोका गया तो भारत के लोगों के लिए भविष्य भारी भयावह है।

दुनिया के दूसरे देश भी परेशान होंगे। छोटे टापू और छोटे देशों को परेशानी बहुत बढ़ेगी। औद्योगिक विकास का पूरा सिलसिला ध्वस्त हो जाएगा। इसीलिए लोगों की चिंता इस मुद्दे पर लगी है। राष्ट्र संघ ने भी एक समिति बनाई है और पिछले 20 वर्षों से, रियो के 1992 के कॉन्फ्रेंस के बाद, इस पर समझौता पारित करने के प्रयास जारी हैं। हाल में दक्षिण अफ्रीका के डरबन शहर में तापमान समझौते के लिए बैठक बुलाई गई थी। यह कई वजहों से काफी महत्वपूर्ण थी। क्योटो समझौता की अवधि 2012 में समाप्त होने वाली थी। इसलिए एक नया तापमान नियंत्रक कार्यक्रम तैयार करना जरूरी था। बढ़ते तापमान से सारी दुनिया चिंतित थी। छोटे टापू वाले देश खासतौर से चिंतित थे। इसी परिप्रेक्ष्य में 165 देशों के प्रतिनिधि डरबन में एक हफ्ते से अधिक समय तक विचार-विमर्श करते रहे। भारत 34 सदस्यों की टीम के साथ डरबन बैठक में शरीक हुआ था।

भारत की जलवायु नीति के तीन लक्ष्य थे- क्योटो प्रोटोकॉल को 2012 से आगे बढ़ाना, न्यायोचित सिद्धांत के आधार पर तापमान समझौता के नीतियों को पारित करना और 'सामूहिक जवाबदेही' के उसूल को संयुक्त राष्ट्र की तापमान कमेटी में समाहित कराना। भारत इस पर अडिग रहना चाहता था कि प्रति व्यक्ति के हिसाब से भी भारत सरीखे देशों में कार्बन का उत्सर्जन उन्नत देशों की तुलना में कम है। इसलिए उनकी खास जवाबदेही बनती है कि वे प्रदूषण को घटाने की रणनीति में अधिक बोझ उठाने के लिए सहमत हों। अमेरिका प्रति व्यक्ति के लिहाज से भारत से 19 गुना अधिक कार्बन का उत्सर्जन करता है। लेकिन डरबन में भारत को पीछे हटना पड़ा। अपने लक्ष्य के तीनों मुद्दों पर भारत की हार हुई क्योंकि कोई भी मुद्दा प्रभावकारी ढंग से विश्व सम्मेलन में स्वीकार नहीं किया गया।

कुछ लोगों ने क्योटो प्रोटोकल को आगे बढऩे की सिफारिश को जीत की संज्ञा दी है क्योंकि क्योटो प्रोटोकॉल को आगे बढ़ाने पर सहमति हुई। भारत का यह पहला मुद्दा था। क्योटो के निर्णय भारत के लिए उत्साहवर्धक थे। लेकिन यह सफलता भी अधूरी है। बड़े मुल्क क्योटो प्रोटोकॉल के खिलाफ हैं। साथ ही, दूसरे प्रस्ताव जो पारित हुए और भारत को उसका समर्थन करना पड़ा उससे स्पष्ट होता है कि विकसित और विकासशील देशों का जो विभाजन क्योटो में बना था उसकी कोई अहमियत नहीं है। प्रस्ताव में स्पष्ट है कि सब को मिलकर गिरते हुए पर्यावरण को ठीक करना है। वास्तव में डरबन जलवायु सम्मेलन में यूरोपीय संघ की जीत हुई, क्योंकि उसी का प्रस्ताव पारित हुआ। डरबन में यूरोपीय संघ अपने पक्ष में छोटे टापू के देशों, अत्यंत कम विकसित देश तथा दक्षिण अफ्रीका और ब्राजील को भी अपने पक्ष में करने में सफल हुआ। सब मिलाकर ऐसा लगता है कि डरबन में विकसित देश जलवायु को ठीक करने का भारी बोझ बड़े विकासशील देशों पर डालने में सफल हुए हैं।

भारत का प्रस्ताव यों तो न्यायसंगत लगता है। पृथ्वी का तापमान बढ़ने का कारण औद्योगिक सभ्यता है जिसका विशेष लाभ उन्नत देशों और बाकी देशों में भी अमीर आबादी को मिला है। यदि भारत सरकार का उन्नत देशों पर जलवायु ठीक करने का बोझ डालने का तर्क न्यायसंगत है तो उसी तर्क से अपने देश के अमीर वर्ग को भी जलवायु को दूषित करने के लिए जवाबदेह समझा जाना चाहिए। इसका निराकरण विकास पद्धति में परिवर्तन के मार्फत ही संभव है। भारत सरकार का विश्व के देशों के बीच न्यायोचित सिद्धांत की खोज मानव अधिकार के नजरिए से मूल्यांकन करने पर अधूरा लगता है। भारत सरकार को सबसे पहले अपने देश के गरीबों का उत्थान करना चाहिए। ऐसी विकास पद्धति अख्तियार करनी होगी जिससे संसाधनों का इस्तेमाल आवश्यक जरूरत की वस्तुओं के उत्पादन में लगे। इससे प्रकृति से सौहार्दपूर्ण रिश्ता कायम होगा और जलवायु में सुधार होगा। भारत की डरबन में होने वाली क्षति पूरी होगी और दुनिया के दूसरे देशों के लिए मिसाल तैयार होगा।

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