विनाश के विरोध में

चूंकि रेडियोएक्टिव तत्व लंबी अवधि तक खाद्य श्रृंखला, वायु, जल, जानवर जैसे तत्वों में मौजूद रहते हैं, जो आनेवाली पीढ़ियों के स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव डाल सकते हैं, जो उन्हें विकलांगता और मृत्यु तक का तोहफा दे सकते हैं, इसलिए परमाणु हादसों का आकलन वैज्ञानिक तरीके से होना चाहिए, न कि मृतकों की संख्या गिनकर। लिहाजा विद्युत उत्पादन नीति तैयार करने के लिए सरकार को सांविधानिक निष्ठा का पालन करना चाहिए, ताकि आनेवाली पीढ़ियों की स्वतंत्रता का संरक्षण हो सके।

तमिलनाडु में कूडनकुलम परमाणु इकाई के खिलाफ जनविरोध इतना प्रखर हो गया है कि मुख्यमंत्री जयललिता को इसका समर्थन करने के लिए विवश होना पड़ा है। इसके साथ ही परमाणु सुरक्षा का मुद्दा एक बार फिर बहस के केंद्र में आ गया है। इससे पहले महाराष्ट्र के जैतापुर में स्थानीय लोगों ने परमाणु प्लांट लगाने का इस आधार पर विरोध किया कि इससे पर्यावरण पर तो प्रतिकूल असर पड़ेगा ही, सैकड़ों-हजारों लोगों की आजीविका बुरी तरह प्रभावित होगी। परमाणु इकाई स्थापित करने के खिलाफ इस तरह की उठती आवाजें नई नहीं हैं। अपने देश में ही नहीं, दुनिया के दूसरे हिस्सों में भी लोग पर्यावरण पर पड़ने वाले इसके असर के खिलाफ आवाज उठाते रहे हैं। हमारी सरकार को इस मुद्दे पर गंभीरता से सोचना चाहिए।

दिक्कत यह है कि हमारी सरकार इस बारे में बहुत गंभीर और संवेदनशील नहीं दिखती। अमेरिका के साथ परमाणु समझौता पर हस्ताक्षर करने के दौरान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उसे एक ऐसा आकर्षक ऑफर बताया था, जो देश की भारी ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने में मददगार साबित होगा लेकिन आणविक राह पर लंबी दूरी का साथी बनने से पहले केंद्र सरकार ने ऊर्जा मंत्रालय, योजना आयोग, वित्त मंत्रालय, पर्यावरण मंत्रालय, विज्ञान और तकनीक मंत्रालय जैसे मंत्रालयों और संबंधित एजेंसियों की सलाह तक को दरकिनार कर दिया। अमेरिका और फ्रांस के साथ आणविक समझौता करने को लेकर प्रधानमंत्री इस कदर जल्दबाजी में थे कि वह जॉर्ज बुश के दरबार में हाजिरी तक बजा आए। आलम यह है कि लोगों के विरोध को दरकिनार कर प्रधानमंत्री संयुक्त राष्ट्र आमसभा में भाग लेने से पूर्व अमेरिका को एक बार फिर यह भरोसा दे आए कि वह परमाणु समझौते को लेकर गंभीर हैं।

आणविक व्यापार और इससे जुड़े अंतर्राष्ट्रीय समझौते में कमीशन के खेल को अनदेखा नहीं किया जा सकता। कई बार परमाणु रिएक्टर की खरीद में मानकों का ध्यान भी नहीं रखा जाता। हमारे देश में परमाणु उद्योग और व्यापार वैज्ञानिक और आर्थिक ऑडिटिंग से मुक्त है। यहां न कोई नियमित पर्यवेक्षण एजेंसी बनाई गई है, न ही किसी तरह की जिम्मेदारी तय की गई है। वर्ष 1986 के चेरनोबिल हादसे से लेकर फुकुशिमा दुर्घटना तक कई वैज्ञानिक अध्ययनों और रिपोर्टों ने स्पष्ट किया है कि अगर शांतिपूर्ण और पूर्णतः सुरक्षित आणविक ऊर्जा प्लांट में कोई परमाणु हादसा हो जाए अथवा आतंकियों द्वारा इसे निशाना बनाया जाए, तो स्थिति किस कदर खतरनाक हो सकती है। यूरोप में तो हजारों जानवर नष्ट हो गए और सड़कें, मिट्टी, हरित वन सब प्रदूषित हो गए। इसलिए क्योटो प्रोटोकॉल ने स्वच्छ विकास तंत्र से परमाणु ऊर्जा को अलग रखा था। अमेरिका, फ्रांस, रूस, जर्मनी, जापान और सभी यूरोपीय देशों ने भविष्य के लिए आणविक ऊर्जा से तौबा कर ली है। आणविक मामले में तमाम उन्नत देश इसकी जगह सौर और अक्षय ऊर्जा को बढ़ावा दे रहे हैं।

चूंकि रेडियोएक्टिव तत्व लंबी अवधि तक खाद्य श्रृंखला, वायु, जल, जानवर जैसे तत्वों में मौजूद रहते हैं, जो आनेवाली पीढ़ियों के स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव डाल सकते हैं, जो उन्हें विकलांगता और मृत्यु तक का तोहफा दे सकते हैं, इसलिए परमाणु हादसों का आकलन वैज्ञानिक तरीके से होना चाहिए, न कि मृतकों की संख्या गिनकर। लिहाजा विद्युत उत्पादन नीति तैयार करने के लिए सरकार को सांविधानिक निष्ठा का पालन करना चाहिए, ताकि आनेवाली पीढ़ियों की स्वतंत्रता का संरक्षण हो सके। हमें खगौल भौतिकी और जीन अनुसंधान जैसे क्षेत्रों में शोध को बढ़ावा देने की जरूरत है, ताकि विज्ञान की सीमाओं का प्रसार हो। हाल ही में पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम ने भविष्योन्मुखी अंतरिक्ष सौर ऊर्जा अनुसंधान परियोजना का प्रस्ताव रखा था, ताकि पूरी धरती जगमगाती रहे लेकिन हमारे नीति-नियंता इस मामले में उदासीन हैं। हमें तो यह तक नहीं मालूम कि हमारी आनेवाली पीढ़ियों को इन जोखिम भरे परमाणु रिएक्टर के लिए कितना भुगतान करना पड़ेगा।

एक रिएक्टर की जीवन अवधि महज 50 वर्ष होती है। अगर कोई दुर्घटना नहीं होती है, तो भी अमेरिका द्वारा बनाए इन रिएक्टरों को बंद करने और लंबी अवधि तक इससे निकलने वाले कचरे का प्रबंधन करने में काफी खर्च होगा। यह भी तय है कि हम चेरनोबिल और फुकुशिमा जैसे हादसों का सामना नहीं कर सकते। लिहाजा परमाणु नीति के क्षेत्र में फूंक-फूंककर कदम उठाने की जरूरत है। कूडनकुलम और जैतापुर में नागरिक अधिकारों के प्रति सांविधानिक निष्ठा का पालन करते हुए सरकार को अविलंब एक स्वतंत्र वैज्ञानिक समिति का गठन करना चाहिए, ताकि डॉ. कलाम के अंतरिक्ष सौर ऊर्जा अनुसंधान परियोजना के साथ हमारी राष्ट्रीय ऊर्जा नीति फिर से निर्धारित की जा सके। साथ ही किसी भी विदेशी आणविक आपूर्तिकर्ता से आगामी सौदे के लिए केंद्र सरकार को मूल्यांकन समिति के निष्कर्षों का इंतजार करना चाहिए।

मनमोहन सिंह सरकार को परमाणु सुरक्षा प्रावधान नियामकों से संबंधित एक श्वेतपत्र भी तैयार करना चाहिए, जिसमें स्पष्ट रूप से बताया गया हो कि कौन-सा विभाग अथवा कौन वैज्ञानिक अथवा कौन-सी देशी और विदेशी कंपनियां परमाणु समझौते के प्रति जवाबदेह हैं। फुकुशिमा के बाद अब परमाणु रिएक्टरों के बारे में गंभीरता से सोचने का समय आ गया है।
 

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