विश्व: प्रदूषण की चपेट में


नैरोबी में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण संरक्षण कार्यक्रम के द्वारा जारी रिपोर्ट में कहा गया है कि जंगलों की अंधाधुंध कटाई से विश्व में 25 प्रतिशत भाग रेगिस्तान बन चुका है। ब्रिटेन के हेलंसिकी क्लब के एक वैज्ञानिक ‘श्री नोर्मन मायर्स’ का कहना है कि भारत में गंगा नदी के किनारे के कुल वन क्षेत्र में से अब तक 40 प्रतिशत वन काटे जा चुके हैं, परिणामतः 220 करोड़ एकड़ भूमि कटाव से प्रभावित हुई है।

विश्वभर के मानव समुदाय के समक्ष अभी सबसे बड़ी चुनौती है ‘शुद्ध वायु’, ‘शुद्ध जल’ एवं ‘शुद्ध भोजन’ की। पर्यावरण विशेषज्ञों के अनुसार कुल क्षेत्रफल में से सबसे कम 33 प्रतिशत जमीन पर हरे भरे वन का होना अनिवार्य है, लेकिन प्राप्त आँकड़ों से ऐसा पाया गया है कि भारत में हरे-भरे वन क्षेत्र मात्र 22 प्रतिशत बचे हुए हैं। कई विकासशील एवं विकसित देशों में कुल वन क्षेत्र 20 प्रतिशत से 30 प्रतिशत शेष रह गए हैं। उत्तर प्रदेश में बड़ी संख्या में पेड़ों के कटने से 150 किलोमीटर लम्बी चौड़ी जमीन बेकार हो गयी है। रूस के खगोलशास्त्री के अनुसार पृथ्वी पर कुल वन क्षेत्र 40 से 50 प्रतिशत कम होने से जल एवं भूसंरक्षण क्षमता समाप्त हो गयी है।

वैज्ञानिकों के अनुसार पृथ्वी पर 45 अंश के ढाल, 3000 मी. की ऊँचाई एवं 35 प्रतिशत घनत्व रहना जरूरी है वरना भूस्खलन एवं भूक्षरण अधिक तेजी से होता है। भारतीय मौसम विभाग की एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले 60 वर्षों में कोयला एवं खनिज तेलों के जलने से वायुमंडल के ऑक्सीजन में 0.005 प्रतिशत की कमी आयी है और कार्बन-डाइ-ऑक्साइड में 13 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, परिणामतः: वायुमंडल का तापमान बढ़ा है। पर्यावरण विशेषज्ञों का अनुमान है कि वायुमंडल में बढ़ती हुई कार्बन-डाइ-ऑक्साइड की मात्रा पर अगर शीघ्र रोक नहीं लगी तो 2000 ई. तक 5100 करोड़ टन कार्बन डाइ-ऑक्साइड जमा होकर आकाश में एक तंबू डाल देगी, जिससे वायुमंडल में तापक्रम बढ़ जायेगा जो जलवायु परिवर्तन प्रणाली को असंतुलित कर देगी और परिणाम होगा, भूक्षरण, भूस्खलन हिमस्खलन एवं समुद्र के जल स्तर में तेजी से वृद्धि। वाशिंगटन स्थित शोध संस्थान की रिपोर्ट में ऐसा कहा गया है कि वायुमंडल का तापमान बढ़ने से धूप की तेजाबी वर्षा होगी, परिणामतः लाखों-करोडों एकड़ भूमि रेगिस्तान में बदल जाएगी और जमीन ऊसर-बंजर होकर जहर पैदा करने लगेगी। पश्चिम जर्मनी एवं चेकोस्लोवाकिया इस त्रासदी से बुरी तरह प्रभावित हो चुके हैं जिसे मुख्य रूप से तालिका में देखा जा सकता है।

वायु प्रदूषण


वायुमंडल में एक गैसीय परत होती है जो मनुष्य एवं अन्य जीव जन्तुओं के जीने के लिये आदर्श वातावरण तैयार करती है और हवा में ऑक्सीजन, नाइट्रोजन, कार्बनडाइ ऑक्साइड आदि गैसों को संतुलित बनाए रखती है। जनसंख्या में तेज गति से वृद्धि के कारण इनकी आवश्यकता एवं मांग भी तेजी से बढ़ती गई, कल कारखाने तैयार होते गए, भौतिक दौड़ में नित नये आविष्कार से भोग-विलासिता की वस्तुओं के व्यवहार में प्रतिस्पर्धा बढ़ी, परिणामतः हमारी शुद्ध हवा में भी बहुत धीमी गति से ही सही लेकिन प्रदूषण का प्रतिशत बढ़ता गया। अभी दुनिया में हाहाकार मचा हुआ है कि हम जो श्वास ले रहे हैं वह विषैला हो चुका है, जानलेवा है। पर्यावरण को बनाए रखने के लिये विश्वभर के लगभग सभी विकासशील एवं विकसित देशों ने मिलकर इस बात पर गहरी चिन्ता व्यक्त की है। रियो सम्मेलन एवं अनेक अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। वैज्ञानिकोिं का यह कहना है कि विश्व में ऐसे लगभग पाँच हजार शहर हैं जहाँ श्वास लेने वाली वायु लगभग अशुद्ध हो चुकी है या होती जा रही है। जर्मनी, जापान, अमरीका, ब्रिटेन, फ्रांस, भारत में भी बड़े-बड़े शहरों में फेफड़े की बीमारी से ग्रसित बीमारी की संख्या में वृद्धि प्रदूषण का परिणाम है। संयुक्त राष्ट्र के एक वैज्ञानिक दल ने सम्पूर्ण विश्व के वातावरण के अध्ययन के दौरान यह पाया है कि वायु में कार्बनडाइ ऑक्साइड की मात्रा 330 प्रति 10 लाख टन हो गयी है और पिछले दस वर्षों में इसमें 14 प्रतिशत की वृद्धि हुई, जो एक खतरनाक संकेत है। विश्व भर में बढ़ते उद्योग, वाहन, तेल एवं कोयला से चलने वाली भट्टियों, पेट्रोल शोधक कारखाने आदि से निकलने वाले धुएँ एवं धूल के बारे में अमरीका के वैज्ञानिकों का विचार है कि पिछले बीस वर्षों के दौरान वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड एवं अन्य दूषित गैसों की परत मोटी होती गई है जिससे ओजोन की रक्षा-परत में जगह-जगह छेद हो गया है और यह अनेक प्रकार के दुष्परिणाम का कारण बन गयी है।

दुनिया के वैज्ञानिक इस भयावह स्थिति से बचने के लिये इस ‘ओजोन परत’ के छिद्रों को बन्द करने के प्रयास में लगे हुए हैं।

जल प्रदूषण


आणविक प्रयोग, औद्योगिक क्षेत्र के बहते कचरों, रासायनिक उर्वरक, कीटनाशक दवाओं का छिड़काव, घरेलू व्यवहार में सोडा, डिटरजेंट एवं प्लास्टिक घुलकर जमीन के ऊपर एवं अन्दर के जल स्रोतों को तेजी से विषैला बना रहे हैं। कागज, चर्मशोधन, खनिज अपशिष्ट एवं रसायनिक औषधि निर्माण वाले उद्योग, प्रदूषित जल बहिस्राव करने के साथ-साथ काफी मात्रा में शीशा, पारा, जिंक, मैगनीज आदि के कण जमीन में बहा देती हैं, जो जमीन के उर्वराशक्ति बर्बाद कर उपलब्ध जल को भी बुरी तरह दूषित करते हैं, वैज्ञानिकों का अनुमान है कि विश्व भर में 5 प्रतिशत बच्चे जल प्रदूषण का शिकार होते हैं जिससे कृमि, आंत्रस्राव, डायरिया, पीलिया आदि की बीमारी होती है और मौत का कारण बन जाती है। विकासशील देशों में ऐसा अनुमान है कि एक तिहाई मृत्यु प्रदूषित पेयजल के संक्रमण से होती है। ऐसा अनुमान है कि सिर्फ भारतवर्ष में प्रतिवर्ष लगभग चौंतीस हजार टन कीटनाशक दवाओं का व्यवहार कृषि क्षेत्र में लगभग एक लाख दस हजार टन डिटरजेंट एवं सोडा का प्रयोगघरेलू व्यवहारों में होता है। वैज्ञानिकों के विचार से इन रसायनों का 20 से 25 प्रतिशत हिस्सा नदियों एवं समुद्रों में जाकर जमा होता है, फलतः नदी एवं समुद्रतटीय क्षेत्र के दोनों किनारे के क्षेत्र में उपलब्ध जल स्रोत को प्रदूषित कर देता है, यानी पीने योग्य जल नहीं रहता है। इतना ही नहीं शहरी क्षेत्र में शुद्ध एवं स्वच्छ जल आपर्ति के लिये बड़े पैमाने में ‘क्लोरीनीकरण’ किया जाता है। क्लोरीनीकरण की प्रक्रिया में हाइड्रोक्लोरिक एसिड का विखंडन होता है, फलस्वरूप अम्ल पानी के क्षेत्रीय तत्वों में मिला देता है। दूसरा पहलू ‘नेसेंट’ ऑक्सीजन में मिलकर विध्वंसकारी स्थिति तैयार करती है। कई ऐसे भी प्रमाण मिले हैं कि पानी पर तैलीय पदार्थ की परत जम जाती है, जो जल प्रदूषण को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती है।

भूमि प्रदूषण


जनसंख्या के बढ़ते दबाव, रासायनिक उर्वरक एवं कीटनाशक दवाओं के अधिकाधिक प्रयोग से भूमि की अवशोषण एवं शुद्धिकरण क्षमता में तेजी से ह्रास हुआ है। परिणामतः भूमि की उत्पादन क्षमता दिन-प्रतिदिन घटती जा रही है। विश्व में ऐसे कई उदाहरण पाए गए हैं, जहाँ अधिक मात्रा में खाद एवं कीटनाशक दवाओं का व्यवहार हुआ है फलस्वरूप भूमि का काफी बड़ा भू-भाग ऊसर-बंजर हो गया है। ऐसी परिस्थिति में भूमि को पुनर्जीवित करने के लिये वैज्ञानिक विभिन्न प्रणालियों एवं प्रक्रियाओं के द्वारा भूमि की उर्वराशक्ति को बनाए रखने के ख्याल से कुछ अवधि के लिये कृषि कार्य बंद कर देते हैं। भूमि में उपलब्ध कीट प्राणी कृषि की जैविक पूँजी मानी जाती है जो भूमि के विषैले तत्वों को अपना भौज्य पदार्थ बनाता है और अपशिष्ट उर्वरक के रूप में छोड़ता है जैसे साँप, केकड़ा, मेंढक, चारा (जोक-जोकटी) आदि। रासायन के प्रयोग से ये लाभदायक कीट मरते हैं और भूमि के लिये संकट उत्पन्न कर देते हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार कृषि भूमि में नाइट्रोजन के प्रयोग से काफी प्रदूषण बढ़ रहा है और यह नाइट्रेट रासायनिक खाद की देन है। वैज्ञानिकों के अनुसार कल-कारखानों के अवसाद, टीन एवं काँच के टुकड़े, पॉलिथीन के थैले, प्लास्टिक की वस्तुएँ आदि आसानी से जमीन में विघटित नहीं होते हैं और आस-पास की जमीन को कुछ समय के बाद अनुपयोगी बना देते हैं। ऐसे भी प्रमाण मिले हैं कि भूमि प्रदूषण के कारण खासकर शिशु के श्वास एवं हिमोग्लोबिन को प्रभावित करते हैं।

भोज्य प्रदूषण


भूमि एवं जल प्रदूषण का सीधा प्रभाव भोज्य वस्तुओं पर पड़ता है। रासायनिक उर्वरक एवं कीटनाशक दवाओं का अन्न, फल एवं सब्जी उत्पादन में बढ़ते प्रयोग के कारण मनुष्य प्रतिदिन अपने भोजन के साथ कुछ न कुछ मात्रा में जहर खा लेता है। ऊर्जा के रूप में गैस, किरोसिन तेल और भोज्य पदार्थ के संरक्षण में रसायनों का प्रयोग एवं डिब्बाबंद भोजन वगैरह हमारे भोजन को विशाक्त करते हैं और वह विषैला पदार्थ मानव शरीर में प्रवेश कर तरह-तरह की बीमारियों को जन्म देता है जो मनुष्य शरीर की पोषण क्षमता कम कर देता है और मौत का कारण बनता है।

ध्वनि प्रदूषण


शांत एवं कोलाहलपूर्ण वातावरण का भी मानव जीवन पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। कहावत है मनुष्य एवं अन्य जन्तु शान्तिप्रिय जीव है। कोलाहलपूर्ण वातावरण क्षुब्धता, बेचैनी एवं घबराहट का वातावरण तैयार करता है जो एक प्रकार का प्रदूषण है। ऐसा देखा गया है कि कोलाहलपूर्ण वातावरण में काम करने वाले श्रमिकों की आयु में ह्रास होता है। अतः स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि रेल इंजन, भारी ट्रक एवं अन्य बड़े वाहन, छोटे वाहन, वायुयान, लाउडस्पीकर, तेज आवाज वाले पटाखे आदि वातावरण को प्रदूषित करते हैं, और परोक्ष रूप से मानव स्वस्थ्य को प्रभावित करते है। विकसित देशों में सप्ताहांत में बड़ी संख्या में लोगों का शहर छोड़कर दूर-दराज में समय बिताना इस बात का ज्वलंत उदाहरण है।

धूप प्रदूषण


वायुमंडल में बढ़ते हुए कार्बन-डाइऑक्साइड एवं घटते हुए ऑक्सीजन के प्रतिशत से सौर किरणें प्रदूषित होती हैं और भू-जगत में बैंगनी किरणों की वृद्धि, चर्म रोग एवं कैंसर जैसी बीमारियों को बढ़ावा देती है। ऐसी किरण से आँख की रोशनी भी अप्रत्यक्ष एवं कभी-कभी प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होती है। वायुमडल सामान्य से अधिक गर्म होने पर तेजाबी धूप की वर्षा करता है जो मनुष्य शरीर के पोषक तत्वों का विनाश करती है या जला देती है, परिणामतः श्रम की क्षमता में ह्रास होता है।

प्राप्त आँकड़ों एवं विभिन्न एजेन्सियों के द्वारा किये गये अनुसंधान के आधार पर यह कहा जा सकता है कि बढ़ते हुए प्रदूषण को रोकने या कमी लाने में कुछ संभावित प्रयास किये जा सकते हैं जैसे विश्व भर में बढ़ती हुई जनसंख्या पर ठोस नियंत्रण सामाजिक वानिकी का विस्तार और उजड़े हुए या विनष्ट वनों के पुनर्वास की व्यवस्था, पेड़ों की कटाई पर प्रभावकारी रोक एवं वृक्ष संरक्षण कार्य को बढ़ावा, रासायनिक उर्वरक, कीटनाशक दवा के व्यवहार में सुविधानुसार कमी लाना एवं नियंत्रित करना, धुँआरहित चूल्हा, सौर ऊर्जा, पवन चक्की आदि का बड़े पैमाने पर प्रचार-प्रसार एवं व्यवहार, घरेलू उपयोग के कैमिकल्स, सोडा, डिटरजेंट आदि के व्यवहार में कमी लाना और उसके विकल्प की खोज करना तथा औद्योगिक अपशिष्ट, मानव अपशिष्ट आदि के लिये तकनीकी अनुसंधान को बढ़ावा देना, जैसे- वेस्ट रिकवरी सिस्टम, फिल्ट्रेशन टेक्नोलाॅजी, इन्प्लांट कंट्रोल आदि।

ऐसा अनुमान है कि इन सब बातों को विचार करते हुए अगर हम अपने प्रतिदिन के कार्य कलापों एवं व्यवहार की वस्तुओं के साथ-साथ प्रदूषण और पर्यावरण के महत्त्व की जानकारी प्राप्त कर लें तो इस ओर सफलता प्राप्त की जा सकती है।

लक्खी भूषण प्रसाद, संकाय सदस्य, बिहार ग्राम विकास सम्पर्क, राँची

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