वन क्षेत्र विनाश के कारण मिट्टी का बहाव चिन्ताजनक

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इंग्लैंड की डरहम यूनिवर्सिटी में किए गए शोध से खुलासा हुआ है कि नर्मदा नदी बेसिन और विन्ध्यांचल क्षेत्र में अत्यधिक वनों की कटाई व कृषि भूमि में विस्तार से यह क्षेत्र खतरनाक पर्यावरणीय परिस्थिति से गुजर रहे हैं जिसके कारण क्षेत्र में मृदा अपरदन (मिट्टी के कटाव) में अत्यधिक वृद्धि रिकार्ड की गई है जो अपने उच्चतम स्तर पर हैं।

नर्मदा बेसिन और विन्ध्याचल क्षेत्र की पर्यावरणीय परिवर्तन की जाँच करने हेतु धार जिले में 1,55,700 हेक्टेयर क्षेत्र में फैले मान नदी बेसिन को एक सैम्पल के तौर अध्ययन किया गया था। शोध टीम में डरहम यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर डैनी, डाॅ. लुईस जे. ब्रेकन और जितेन्द्र ठाकुर शामिल हैं। यूनिवर्सिटी का पर्यावरणीय शोध केन्द्र विश्व के श्रेष्ठ दस शोध संस्थानों में से एक है।

शोध में भारत के इसरो, अमरीका के नासा एवं जापान की स्पेस एजेंसी से सेटेलाइट डेटा प्राप्त किए गए थे। इस शोध हेतु मध्य प्रदेश सरकार द्वारा चार वर्ष हेतु आर्थिक अनुदान प्रदान किया गया था किन्तु प्रशासन ने पिछले एक वर्ष से आर्थिक सहायता रोक दी है, जिसके कारण यह रिसर्च प्रोजेक्ट आर्थिक संकट से गुजर रहा है।

वैज्ञानिकों की शोध टीम ने इस तरह के शोध कार्यों के लिये सेटेलाइट डेटा पर आधारित एक कम्प्यूटर तकनीक विकसित की है जो इस क्षेत्र में पिछले चालीस वर्षों से हो रहे वनों में परिवर्तन और इसके मिट्टी के बहाव पर पड़ने वाले प्रभाव की सटीक जानकारी कम बजट में प्रदान कर सके ताकि भविष्य में निर्मित होने वाले बंजर भूमि की स्थिति को हल करने व वनों के विनाश से होने वाले नुकसान से निपटने के लिये एक ठोस योजना बनाई जा सके तथा साथ-ही-साथ वर्तमान स्थिति पर भी निगरानी रखी जा सके।

सेटेलाइट जानकारी पर आधारित यह तकनीक दूरदराज के उन क्षेत्र के लिये वरदान है, जहाँ पर्यावरणीय शोध हेतु आवश्यक जानकारी जैसे वनस्पति, भूमि उपयोग, धरातल, मिट्टी, वर्षा, तालाब, झील तापमान सम्बन्धी आँकड़े उपलब्ध नहीं है।

इस शोध ने कई रोचक व अचम्भित कर देने वाले तथ्य उजागर किए हैं जैसे कि वर्ष 1972 के पश्चात् मान नदी बेसिन में वन क्षेत्र का एक बहुत ही बड़ा हिस्सा करीब 40 प्रतिशत जो कि 54,200 हेक्टेयर भूमि के बराबर है समाप्त हो चुका है जिसकी जगह प्रमुख रूप से कृषि भूमि ने ले ली है। वनों के अत्यधिक कटाई के कारण मान नदी बेसिन में वन विनाश की दर एक चिन्ताजनक स्तर पर पहुँच गई है जो कि देश की वर्तमान दर से कई अधिक है।

भारत में वनों के कटाव की दर (-0.43 प्रतिशत) वहीं मान नदी बेसिन में यह दर (2.16 प्रतिशत) है। शोध में देखा गया कि 1980-90 के दशक में हुई वनों की अत्यधिक कटाई इस चिंताजनक स्थिति का एक प्रमुख कारण है।

40 वर्षों में बड़े स्तर पर हुए वनों की कटाई के कारण मिट्टी के बहाव में (17.3) सात टन/प्रति हेक्टेयर/प्रतिवर्ष तक की अप्रत्याशित वृद्धि दर्ज की गई। अर्थात् 1972 में नदी बेसिन में जहाँ हर साल 13.7 टन मिट्टी एक हेक्टेयर क्षेत्र से बह जाती थी, वहीं यह आँकड़ा वर्तमान समय में 21 टन तक पहुँच गया है, जो कि देश के मौजूदा दर से 19 गुना अधिक है। भारत में 2.2 टन/प्रति हेक्टेयर/प्रतिवर्ष के हिसाब से मिट्टी बह जाती है।

यह शोध इसलिये भी महत्वपूर्ण है कि पहली बार सेटेलाइट तकनीक से विन्ध्याचल व नर्मदा बेसिन में इस तरह के हाई रिस्क स्पाॅट को रेखांकित किया गया है जो सालों पहले वनों से ढँके थे किन्तु लगातार कृषि भूमि के विस्तार और मिट्टी के बहाव के कारण पूरी तरह से बंजर भूमि में तब्दील हो गए हैं। इन हाई रिस्क स्पाॅट पर अब मिट्टी की परत पूरी तरह से बह चुकी है, जिस कारण सरकार के लिये फिर से वृक्षारोपण कर हरा-भरा करने एक बड़ी चुनौती है।

नर्मदा नदीवहीं ये हाई रिस्क स्पाॅट पहाड़ी क्षेत्र में सरकार के वृक्षारोपण कार्यक्रम असफल होने का एक बड़ा कारण भी है। यह तकनीक इन हाई रिस्क स्पाॅट का पूरा 40 साल का रिकार्ड और भूमि बंजर होने के पीछे के प्रमुख कारणों को इमेज के माध्यम से रेखांकित करने में सक्षम है जिससे इस प्रकृति के अन्य बंजर होने वाले क्षेत्र का पूर्वानुमान लगाया जा सके।

पर्यावरण क्षरण सम्बन्धी ये आँकड़े वर्तमान और भविष्य दोनों स्थिति के लिये जलवायु परिवर्तन और खाद्य सुरक्षा की दृष्टि से चिन्ता का विषय है जिसके कुछ संकेत हाल ही में मध्य प्रदेश में देखने को मिली है। वन कार्बन डाइआॅक्साइड जैसी गर्म गैसों को अवशोषित कर आॅक्सीजन जैसी ठंडी गैस को उत्सर्जित करते हैं किन्तु पिछले 40 वर्षों में इस क्षेत्र में वनों का एक बड़ा एरिया समाप्त हो चुका है जो तापमान में वृद्धि एवं जलवायु परिवर्तन के लिये उत्तरदायी हो सकता है।

हाल ही में जून 2013 में मध्य प्रदेश ने पहली बार भारी ओला वृष्टि व असामयिक भारी वर्षा रिकार्ड की गई। जिसके कारण फसलों को बहुत ही अधिक नुकसान हुआ और जिसने किसानों को गम्भीर कर्ज में धकेल कर दयनीय स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया। फसल क्षति के अलावा, ओला वृष्टि व बिजली के साथ असामयिक भारी वर्षा ने कई लोगों की जान भी ले ली। सैकड़ों मवेशी मारे गए और हजारों घर क्षतिग्रस्त हो गए। सरकारी आकलन के अनुमान से इस घटना से मध्य प्रदेश के लगभग 20 लाख किसान बुरी तरह से प्रभावित हुए।

वहीं दूसरी तरफ पहाड़ी व नदी बेसिन में लगातार मिट्टी के बह जाने की वजह से भूमि बंजर होती जा रही है, साथ ही मिट्टी की उर्वरा शक्ति, मिट्टी की नमी धारण करने की क्षमता भी कम होती जा रही है जिसका सीधा असर फसल उत्पादन में कमी एवं खाद्य सुरक्षा के रूप में सामने आ रहा है। जनगणना विभाग के अनुसार, पिछले चार दशक में (1970-2010), अध्ययन क्षेत्र में (25.53 प्रतिशत) जनसंख्या की वृद्धि देखी गई है जिनमें से ज्यादातर लोग जीविका के लिये कृषि पर निर्भर हैं।

पूर्वानुमान बताते हैं कि आबादी में यह वृद्धि आने वाले दशकों में जारी रहने की उम्मीद है। अब सवाल यह उठता है कि आने वाले दशकों में बढ़ी हुई इस आबादी के भरण-पोषण के लिये इतनी मात्रा में अनाज का उत्पादन कहाँ से किया जाएगा, जबकि ठीक उसी समय कई पर्यावरणीय चुनौतियाँ हमारे सामने होगी।

एक हल यह हो सकता था कि वनों का एक पर्याप्त हिस्से को बनाकर शेष भाग पर कृषि क्षेत्र का विस्तार कर अनाज उत्पादन में वृद्धि की जा सकती थी किन्तु दुर्भाग्य से अब यह भी सम्भव नहीं है क्योंकि मान नदी बेसिन में अब 28.4 प्रतिशत वन क्षेत्र शेष बचा है जो कि भारतीय वन विभाग द्वारा घोषित निम्नतम वन क्षेत्र (33 प्रतिशत) से काफी कम है और यही स्थिति नर्मदा बेसिन एवं विन्ध्यांचल पर्वत श्रेणी में अन्य नदी बेसिनों का भी है।

अतः अब नदी बेसिन में फिर से वन भूमि का शोषण कर दूसरा कृषि विस्तार करना और अधिक पर्यावरणीय खतरे के रूप में उभरकर सामने आ सकता है। वही इस तरह के पर्यावरणीय रिसर्च की कमी के कारण सरकार की कई योजनाएँ लोगों का आर्थिक विकास करने में असफल होती है जिसमें सरकार के बजट का एक बड़ा हिस्सा व्यर्थ चला जाता है। दूसरी तरफ इस तरह के रिसर्च को बढ़ावा देने के बजाय आर्थिक अनुदान रोकना कई दृष्टिकोण से चिन्ता का विषय है।
 

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