वनों का मनमोहक संसार

25 Nov 2014
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भारतीय मानवशास्त्रीय विभाग के अध्ययन के अनुसार भारत में इस समय 443 अनुसूचित जातियां, 426 अनुसूचित जनजातियां और 1051 पिछड़े वर्ग के समुदाय हैं। अनुसूचित जनजातियों की आबादी देश की कुल जनसंख्या का लगभग 8 प्रतिशत है। आदिवासी लगभग 105 भाषाएं तथा 225 सहायक भाषाएं बोलते हैं। पंजाब, हरियाणा, दिल्ली को छोड़कर प्रायः वे सभी राज्यों में मूल-रूप से निवास करते हैं। वे विश्व के सभी क्षेत्रों में पाए जाते हैं तथा मोटे तौर पर उनकी जनसंख्या विश्व की कुल जनसंख्या का चार प्रतिशत है।

जनजातीय समुदाय की विशिष्टताएं


विशेष रूप से जनजातीय लोग शिकार करने वाले, झूम खेती करने वाले, पशुपालक, साधारण किसान अथवा मछुवारे होते हैं। इन लोगों में अधिकांशत: निम्नलिखित विशिष्टताएं पाई जाती हैं:

भौगोलिक पृथकता अथवा अर्ध-पृथकता।
2) उनकी आबादी का समीपस्थ स्थानों पर केंद्रीकरण।
3) उनका अधिकांश आर्थिक आधार पर्यावरण अर्थात् वन एवं भूमि पर निर्भर करता है।
4) राष्ट्रीय समाज से मानव जातीय भिन्नता।
5) अनपढ़ तथा लिखित भाषा की अज्ञानता।
6) स्वछंद प्रेमी तथा अपनी पहचान बनाए रखने के इच्छुक।
7) अमुद्रीकृत अथवा आंशिक रूप से मुद्रीकृत अर्थव्यवस्था।

वनों पर आश्रित आदिवासी जीवन


आदिवासी सच्चे अर्थों में पर्वत पुत्र हैं, जिनमें स्वाभिमान की अन्यतम भावना रहती है। उनमें वन जीवन में विकसित अपनी मूल सामाजिक, सांस्कृतिक अस्मिता बनाये रखने की तीव्र चेतना विद्यमान है। शताब्दियों के बढ़ते हुए दबाव के फलस्वरूप उन्हें सघन वनों, दुर्गम घाटियों एवं पर्वतों का निवासी बनना पड़ा है। उनके व्यक्तित्व में एक ओर सहजता, सच्चाई, भोलापन है तो दूसरी ओर आतिथ्य भावना की जीवंतता का गहरा रंग है। अपनी जीवन चेतना एवं आनंद-मूलक स्वभाव के कारण ही आदिवासी सर्वप्रिय हैं। आदिवासी कठिन जीवन संघर्ष के अपराजेय सिपाही हैं। गरीब हैं पर जिंदगी से बेहद संतुष्ट। जिंदगी उनके लिए हर अर्थ में जीने के लिए है, रोने और सिसकने के लिए नहीं। यद्यपि यह जिंदगी गरीबी और अभाव का पर्यायवाची है। शरीर से वे जितने मजबूत होते हैं, अपनी रहन-सहन परंपरा के प्रति उतने ही प्रतिबद्ध। सभ्यता ने उन्हें दूषित नहीं किया है, उनके शांत जीवन-मूल्यों को हिंसा प्रभावित नहीं कर सकी है, जिन मूल्यों के प्रति वे सदैव समर्पित हैं। उनकी जरूरतें मूल रूप में जीवन-यापन संबंधी हैं जैसे, खाना, कपड़ा और साधारण रहने का आश्रय।

शताब्दियों से वन आदिवासी समाज के आनंदपूर्ण निवास-स्थल हैं। वन ही उनकी मातृदेवी के पालन-स्थल और स्वयं उनके लिए मातृभूमि रहे हैं। हजारों सालों से आदिवासियों के उन्नतस्वास्थ्य एवं सुखद निवास के मूल में जंगल ही रहे हैं, क्योंकि वानिकी ही उनका सतत आधार है। वनों से ही आदिवासियों को भोजन, पानी, वस्त्र, औषधि, रोजगार के विभिन्न अवसर उपलब्ध होते हैं। अकाल के दिनों में वन ही उनके अंतिम जीवन-आधार हैं। वनों से ही आदिवासी दिन-प्रतिदिन की जरूरतें पूरी करने के लिए वनोपज एकत्र करते हैं। महिलाएं, वृद्ध, नवयुवक सभी वनों से ही खाद्य सामग्री प्राप्त करते हैं। गुजरात में सम्पन्न एक आंकलन से निष्कर्ष निकाला गया है कि लगभग 22 से 27 प्रतिशत आदिवासी बालिग स्त्री/पुरुष और 70 से 72 प्रतिशत तक बालक-बालिकाएं जंगलों से विभिन्न वस्तुओं जैसे- जंगली कंद मूल, फल, बांस, लकड़ी, पशु-चारा और अन्य वनोपज इकट्ठा करने का कार्य करते हैं। इसी तरह बस्तर में एक संपन्न सर्वेक्षण (1980-82) से स्पष्ट है कि औसत आदिवासी परिवार (जिसमें दो बालिग पुरुष, एक बालक एवं एक वृद्ध हों) की औसत वार्षिक आय 1500 रुपये वनों से होती है, जबकि ऐसे परिवार की कुल वार्षिक आय लगभग 1750 रुपये होती है। ग्रामीण अर्थव्यवस्था के परिप्रेक्ष्य में आदिवासी परिवार की आय में योगदान की यह मात्रा अपने-आप में महत्वपूर्ण है और इसको अनदेखा नहीं किया जा सकता। आदिवासी क्षेत्र में वनोपज का संग्रहण उनके ठोस आर्थिक व्यवस्था का प्रमुख अंग है।

वनवासियों के लिए जलाऊ लकड़ी सिर्फ खाना बनाने के लिए ही उपयोगी नहीं है, वरन यह साधारणत: रोशनी देने और शीत से बचाने का एक महत्वपूर्ण माध्यम है। इन गरीब आदिवासियों के पास शीत से बचने के लिए पहनने या आने के लिए कपड़े नहीं होते, इसलिए इसी लकड़ी का उपयोग 'अलाव' जलाने के लिए होता है। अन्तराल में आदिवासी अलाव में जलती हुई आग के सहारे पूरे जाड़े का मौसम बिता देते हैं। रात में रोशनी के लिए इसी लकड़ी की आग काम देती है। जंगली जानवरों से बचने के लिए भी इसी लकड़ी की आग सहायक है। संक्षेप में, वन और उसके विविध उत्पाद आदिवासियों के जीवन आधार हैं। वनों की अनुपस्थिति में आदिवासी जीवन न सिर्फ अधूरा वरन पूरी तरह कंटकाकीर्ण हो जाता है। इस प्रकार सामाजिक, पारिवारिक, आर्थिक सभी दृष्टियों से वन और आदिवासी एक-दूसरे से अलग नहीं किये जा सकते।

वन और आदिवासी एक-दूसरे के पूरक हैं। कितनी शताब्दियों से ये दोनों एवन-दूसरे के अविच्छिन्न अंग रहे हैं। भविष्य में कब तक यह अटूट संबंध बना रहेगा, कहा नहीं जा सकता। एक प्रकार से आदिवासियों का वनों से भावनात्मक एंव आत्मिक संबंध रहा है और इसलिए वन उनके लिए प्रकृति प्रदत्त संसाधन हैं। उनके लोक-जीवन और लोकगीतों में सर्वत्र वन्य-जीवन का प्रतिबिंब झलकता है। वनों के विभिन्न संदर्भ लोकगीतों के माध्यम से सामान्य आदिवासी के जीवन को प्रेरणा और प्रफुल्लता मिलती है। इनके विभिन्न धार्मिक अनुष्ठानों और पूजा पद्धतियों में वन की विभिन्न वस्तुओं की अनिवार्यता है। वनों के कुछ वृक्ष आदिवासी देवी-देवताओं के पवित्र निवास-स्थल के रूप में मान्यता प्राप्त कर चुके हैं।

आदिवासी क्षेत्रों में कृषि कार्य एंव उससे संबंधित विभिन्न क्रियाकलाप बड़ी सीमा तक वनों पर ही निर्भर हैं। वन से प्राप्त लकड़ी एवं बांस से वे खेती के औजार बनाते हैं। उनका पशु-पालन भी अधिकतर वनों में मिलने वाली चारागाह की सुविधा पर निर्भर है। इस तरह पशुपालन एवं दूध व्यवसाय का विकास वनों से उपलब्ध पेड़ के पत्ते, सूखे चारे या घास पर निर्भर करता है।

आदिवासियों के घरों का निर्माण पूरी तरह वनोपज की उपलब्धता पर आश्रित है। घरों के निर्माण में उन्हें बांस, सूखी घास और लकड़ी की आवश्यकता रहती है। यहां तक कि घरों के बनाने में उन्हें खंभे या छत निर्माण के लिए बल्ली आदि की पूर्ति वनों से ही होती है। उनका गृह निर्माण वनों पर पूरी तरह निर्भर होने के कारण जहां वन नष्ट हो गये हैं उनके मकानों की दशा दयनीय हो गई है।

धीरे-धीरे आज उनकी शांतिपूर्ण जिंदगी की बहुत-सी आदतों का मूल रूप भंग हो रहा है। वनवासियों और प्रकृति के बीच शताब्दियों से स्थापित संतुलन आज बिगड़ रहा है। इसके मूल में जनसंख्या वृद्धि और बाहरी दुनिया के लोगों का वनों पर दबाव है। आज वनों में विभिन्न बांध, बिजली घर, उद्योग, खनन कार्य, रेल लाइनों का निर्माण तथा नई बनने वाली नगरीय बस्ती की चकाचौंधे और शोर-गुल में आदिवासियों के जीवन-संगीत की शक्ति-रागिनी मंद हो रही है। विडंबना यह है कि इन विभिन्न परिवर्तनों, क्रियाकलापों के संदर्भ में वनवासी अपने ही घर में परदेशी बनकर बाहरी शोषण का बुरी तरह शिकार हो रहा है एवं तथाकथित आधुनिकता और सभ्यता ने निर्ममता से वन्य जीवन को नष्ट करना प्रारंभ किया है। बाहरी तत्वों के शोषण ने आदिवासियों के वनों में निवास करने की संस्कारप्रियता तथा क्रियाशीलता को आक्रान्त कर दिया है।

वनवासियों के जीवन एवं उनकी समस्याओं को वन संरक्षण या वन विकास से पृथक करके नहीं देखा जा सकता। इस स्थिति से उत्पन्न आदिवासी समाज के विभिन्न आन्दोलनों के समाधान का एक मात्र मार्ग है कि वनों और वनवासियों के बीच पूरक संबंध को ध्यान में रखा जाये। नया विकास कार्यक्रम लागू करते समय प्रत्येक क्षेत्र के वन विकास कार्यक्रम में स्थानीय वनवासियों को भागीदार बनाने के प्रयास की नितांत आवश्यकता है। जब तक इस भागीदारी की वचनबद्धता को एक नियमित संतुलित व्यवस्था में परिवर्तित करने का प्रयास नहीं होगा, तब तक वनवासियों के स्थानीय स्तर पर जन-आंदोलन की संभावना से मुक्ति नहीं मिल सकती। इसके लिए सर्वोत्तम बचाव की रणनीति यही होगी कि वनों की उत्पादन पूंजी में स्थानीय वनवासियों की रुचि लेने की प्रवृत्ति जागृत की जाये।

वनों एवं आदिवासियों के विकास हेतु निम्न बातों पर ध्यान दिया जाना चाहिये:

1. वनोपज की प्राप्ति पर आदिवासियों के अधिकारों की सुरक्षा।
2. आदिवासियों एवं वनों के विकास-कार्य में एक स्वस्थ संबंध कायम करना।
3. वनोपज की मांग-पूर्ति के बीच सामंजस्य कायम करना ताकि लोगों की वनोपज मांग पूरी करने के साथ, वन-संसाधनों का लगातार विकास हो सके।
4. बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण कार्यक्रम में जन सहयोग प्राप्त करना।

लेखक ने 'आदिवासी की वनों पर निर्भरता' विषय पर बस्तर जिला का गहन अध्ययन किया तथा एक शोध प्रबंध लिखा, जिस पर गुजरात विद्यापीठ, अहमदाबाद ने पीएचडी की उपाधि दी। शोध प्रबंध के कुछ तथ्य निम्नानुसार हैं:

1. लगभग 85 प्रतिशत परिवार भू-स्वामी हैं, जिनके पास औसतन 2.24 हेक्टेयर भूमि है। अधिकतर कृषक एक ही फसल उगाते हैं एवं उत्पादकता अत्यंत कम है। खेतों में इमारती लकड़ी के वृक्ष (साल, बीजा, सागौन, साजा आदि) खड़े हैं, जिनका प्रबंध किसानों की आर्थिक दशा सुधार सकता है। कृषिवानिकी अपनाकर और यहां का किसान उत्पादकता बढ़ाकर अपनी आर्थिक दशा में आमूल परिवर्तन ला सकता है।
2. आदिवासी के पास बैल, गायें, बकरियां, भेड़ें, एंव मुर्गियां हैं, परंतु इन्हें पोषित आहार देने की कोई व्यवस्था नहीं है। पशु पूर्णरूपेण वनों की चराई पर ही निर्भर हैं।
3. अधिकांश आदिवासी परिवार इमली तथा आम लगाये हुए हैं। अमरूद, कटहल, महुआ, मुंगा, सल्फी, केला एवं रानीझाड़ा आदि रोपण की प्रथा बढ़ रही है। इमली के फल की बिक्री का समुचित प्रबंध आवश्यक प्रतीत होता है।
4. अध्ययन के दौरान एकत्रित किये गये आंकडों से पता चलता है कि वर्ष 1984 में औसतन प्रत्येक परिवार ने न्यूनतम 65 किलोग्राम तथा अधिकतम 150 किलोग्राम खाने की वस्तुएं वनों से एकत्र की। इसी वर्ष प्रत्येक परिवार द्वारा न्यूनतम 72 किलोग्राम तथा अधिकतम 684 किलोग्राम महुआ का फूल का संग्रण किया गया। महुआ का फूल एवं सालबीज की प्रत्येक परिवार द्वारा बिक्री की गई एवं उनके द्वारा चावल खरीदा गया। अनुसंधान से पता चला कि एक किलो महुआ का फूल अथवा कंदमूल इसी वजन के चावल से अधिक पौष्टिक होता है।
5. प्रत्येक परिवार द्वारा न्यूनतम 1.58 टन एवं अधिकतम 5.54 टन जलाऊ लकड़ी का उपभोग खाना पकाने एंव तापने के लिए किया गया। बस्तर में जलाऊ लकड़ी का उपभोग राष्ट्रीय जलाऊ लकड़ी के औसत उपयोग से बहुत ज्यादा पाया गया। विकास खंड में केवल कुछ लोग ही जलाऊ लकड़ी जगदलपुर शहर में बेचकर अपना जीवन-यापन करते हैं। धुआंरहित नये चूल्हे अभी यहां तक नहीं पहुंच पाये हैं।
6. लघु वनोपज के संग्रहण कार्य में प्रत्येक परिवार प्रतिवर्ष न्यूनतम 426.60 रुपये तथा अधिकतम 1450.15 रुपये की आमदनी प्राप्त कर सका। अंतराल के क्षेत्र में ग्रामीणों को लघु वनोपज से कम आमदनी का मुख्य कारण उन्हें इसे बेचने हेतु दूर जाना पडता है, जिसमें समय का अपव्यय हुआ एंव कम मात्रा में वनोपज का संग्रहण संभव हो सका।
7. आदिवासी रूढ़िगत कार्यों में अधिक रुचि लेते हैं। समन्वित ग्रामीण विकास योजनाओं के अंतर्गत विकसित क्षेत्रों में स्कीमें यहां चालू की गईं, जिनसे उनका आर्थिक सुधार संभव न हो सका। वानिकी क्षेत्र की विशेष योजनाएं आदिवासियों की आर्थिक दशा सुधारने में विशेष सहायक हो सकती हैं।

आदिवासियों की वनों पर निर्भरता के संबंध में निम्न तथ्य यहां प्रस्तुत किये जा रहे हैं:

1. वनों का अनुसूचित जनजातियों के जीवन से अंत-रंग संबंध है एंव वे उनके आर्थिक विकास में प्रमुख भूमिका निभाने की क्षमता रखते हैं। अनुसूचित जनजातियां बहुत समय से विकास की मुख्य धारा से कट गई हैं, जिससे पास-पड़ोस में उपलब्ध साधनों से फायदा उठाने की क्षमता भी खो चुकी हैं।
2. आबादी के पास के वन कटाई से बिगड़ गये हैं तथा पुनर्भरण के अभाव में आबादी के दबाव से लगातार उजड़ रहे हैं।
3. कुछ क्षेत्रों में आदिवासियों की वनों पर रचनात्मक निर्भरता के स्थान पर अरचनात्मक निर्भरता, उनके सचेत निर्णय का प्रतिफल नहीं है। अरचनात्मक स्थिरता का सहारा लाचारी एवं गरीबी के कारण लिया जाता है जिसमें व्यापारिक एवं औद्योगिक हितों की प्रधानता रहती है तथा वन संसाधनों को केवल फायदा उठाने का स्रोत माना जाता है।
4. लघु वनोपज आदिवासियों के स्वयं उपयोग एवं बेचने तथा आर्थिक समृद्धि में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। लघु वनोपज की कमी अथवा उनका कम दोहन आदिवासियों के आर्थिक विकास, स्वतंत्र रहन-सहन को सीधे प्रभावित करता है।
5. उन क्षेत्रों मे, जहां वनों की बहुतायत है एवं आदिवासियों को लघु वनोपज संगृहीत करने, स्वयं के उपभोग एंव बिक्री करने की छूट है, वहां वे इमारती लकड़ी, बांस एंव जलाऊ लकड़ी पर जीवन-यापन के लिए आश्रित नहीं हैं।
6. आदिवासी क्षेत्रों में पर्यावरण को संतुलित रखना इस क्षेत्र की मूलभूत आवश्यकता है। वनों के बिगड़ने एवं उनकी उत्पादकता घटने के कारण आदिवासियों को वांछित मात्रा में वनोपज उपलब्ध कराना संभव नहीं है।
7. जलाऊ लकड़ी इकट्ठी करने की जिम्मेदारी सामान्यत: महिलाओं की होती है। यदि जलाऊ लकड़ी आबादी के पास उपलब्ध न हो तो महिलाओं को दूर जाना पड़ता है, जिसका विपरीत प्रभाव बच्चों के लालन-पालन एवं गृहस्थी की आर्थिक दशा पर पड़ता है।
.8. बस्तर जिले में कृषि, पशु-पालन, कुटीर उद्योग एवं ग्रामीण विकास के अन्य कार्यक्रम किसी न किसी तरह वानिकी पर आश्रित हैं। विभिन्न विभागों में सामंजस्य की कमी के कारण कार्यक्रम एक-दूसरे के पूरक नहीं बन पाते। सफलता के लिए इन क्षेत्रों में समन्वित विकास की प्रक्रिया अपनाना आवश्यक है। आदिवासियों के लगातार भरण-पोषण हेतु परती भूमि में भी वन संसाधनों का विकास संभव है। इस प्रक्रिया को अपना कर भूमिहीन आदिवासियों को उत्पादित रोजगार उपलब्ध कराकर उनका आर्थिक विकास एवं पर्यावरण में सुधार लाया जा सकता है।

आदिवासियों के विकास हेतु अनुशंसाएं:

1. बस्तर मध्यप्रदेश के दक्षिण-पूर्वी भाग में स्थित प्रदेश का सबसे बड़ा जिला है जो कि वन, खनिज एवं जल संसाधनों से भरपूर है। कृषि रूढ़िगत तथा अत्यंत पिछड़ी है। सुधरी तकनीक एवं ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों को अधिक प्रभावी बनाया जाना है।
2. जनता की कार्यकुशलता, साहस एवं सामूहिक प्रयास के विकास को गति दी जा सकती है। सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन लाकर विशिष्ट उद्देश्यों और लक्ष्यों की प्राप्ति सरल हो सकती है।
3. बड़े कारखाने एवं लोहे की खानें, जो बस्तर में चालू की गईं, उनसे जहां राष्ट्र के आर्थिक विकास में मदद मिली, वहीं आदिवासियों के सामाजिक रहन-सहन में अनेक जटिलताएं पैदा हुईं, जो उनके आर्थिक विकास में बाधक बनीं।
4. अधिकांश भूमि जिस पर आदिवासी खेती करते हैं, यथार्थ में अनुपजाऊ हैं। ऐसे क्षेत्रों में कृषिवानिकी अधिक उपयुक्त हो सकती है। सूखे के प्रकोप को देखते हुए बागवानी, रेशम उत्पादन एवं वानिकी उत्पादन द्वारा आर्थिक सुधार पर आदिवासियों का अधिक विश्वासप्रतीत होता है।
5. भूमिहीनों का प्रतिशत लगातार बढ़ रहा है। बस्तर में सातवीं पंचवर्षीय योजना के अंत तक 202.210 लोगों को उत्पादित रोजगार उपलब्ध कराना है। लगभग 151 काष्ठशिल्पी एवं 325 बांस कारीगरों को सुनियोजित तरीके से विकसित करना है।
6. एक आंकलन के अनुसार बस्तर का 20 प्रतिशत वन क्षेत्र बिगड़ चुका है। यदि दस वर्षों में इन बिगड़े वनों का सुधार किया जाये तो प्रतिवर्ष 20000 हेक्टेयर क्षेत्र को पुनरुत्पादित करना होगा। यह कार्य सभी बेरोजगारों को उत्पादित रोजगार देने में सक्षम है।
7. बस्तर के अंतराल के वनों में 160 वनग्राम हैं, जिनमें 5865 आदिवासी परिवार रहते हैं। इन वनग्रामों में सरकार का अन्य कोई भी विभाग नहीं पहुंच पाता है। यहां के निवासियों को भूमि का पट्टा सीमित अवधि का दे दिया गया है ताकि वे बैंकों से कर्ज पा सके। इन आदिवासियों का समन्वित त्वरित विकास आवश्यक है।
8. लगभग 50 हजार आदिवासी परिवार, जिनके खेतों में इमारती लकड़ी के पेड़ खड़े हैं, उनका त्वरित आर्थिक विकास संभव है। इन लोगों को पेड़ो के प्रबंध एवं बिकी की प्रक्रिया समझानी होगी तथा राजस्व एवं वन नियमों को सरल बनाना होगा ताकि वानिकी को वे आर्थिक स्रोत के रूप में अपना सकें।
9. सहकारिता आंदोलन को बढ़ाने तथा सहकारी समितियों की कार्यक्षमता बढाने पर ही आदिवासियों को शोषण से बचाया जा सकता है। वन विभाग ने राष्ट्रीयकृत लघु वनोपज के क्रय की व्यवस्था अच्छे तरीके से की है जिससे आदिवासियों की आमदनी में वृद्धि हुई है। अराष्ट्रीयकृत लघु वनोपज को भी शोषकों से अलग करना होगा तथा वनोपज पर आधारित उद्योग लगाने होंगे ताकि बस्तर में आदिवासियों के असंतोष को दूर किया जा सके।
10. किसी भी योजना की सफलता उसके कटिबद्ध एवं प्रभावी तरीके से चलाने पर निर्भर करती है, आदिवासी वानिकी कार्यों में विशेष योग्यता रखते हैं। आदिवासी युवकों को विभिन्न कार्यों में प्रशिक्षण भी दिया जा चुका है। वानिकी परिवेश कार्यों में उनकी रुचि है तथा अपने परिवेश में रहते हुए इस कार्य को वे बखूबी पूरा करने की क्षमता रखते हैं। वानिकी को आधार बनाकर इन क्षेत्रों की गरीबी हटाने तथा आदिवासियों की आकांक्षाओं के अनुरूप उनके विकास को गति देना संभव है।

आदिवासी विकास


पराधीन भारत में इस देश के विदेशी शासकों (अंग्रेजों) की नीति देश की मुख्य राष्ट्रीय धारा से आदिवासियों को सर्वथा पृथक् रखने की थी। गांधी जी ने सर्वप्रथम इस नीति के विपरीत प्रतिक्रिया व्यक्त की थी। उन्होंने 1946 में असम में इस संबंध में चेतावनी देते हुए कहा था, 'यह बड़े शर्म की बात है कि आदिवासी, जो संपूर्ण राष्ट्र के अविभाज्य अंग हैं, उन्हें राष्ट्र की मुख्य धारा से अलग रखने की कोशिश की जाये।’

भारत विश्व के उन राष्ट्रों में से एक है जहां देश के संविधान में आदिवासियों के विकास एवं वन पर्यावरण के संरक्षण का सिद्धांत निहित किया गया है। संविधान की धारा 46 में प्रावधान है, जिसके अनुसार आदिवासियों के आर्थिक-शैक्षणिक हितों की सुरक्षा एवं सामाजिक अन्याय एवं शोषण से मुक्ति दिलाने का विशेष उत्तरदायित्व सरकार का है। इसी तरह भारतीय संविधान की धारा 48-ए में पर्यावरण सुधार और वन तथा वन्य जीवों की सुरक्षा का विशेष उत्तरदायित्व सरकारों के कर्तव्य में निहित किया गया है। संविधान में निर्देशित इन दोनों सिद्धांतों को लागू करने से वनों एवं आदिवासियों के पूरक संबंध सदैव बने रह सकते हैं।

श्री जवाहरलाल नेहरू की दूर-दृष्टि एवं दार्शनिक चिंतन ने 1950 में आदिवासियों के विकास के लिए नीति-निर्धारण का महत्वपूर्ण निर्णय लिया। इसके लिए उन्होंने पांच मौलिक सिद्धातों की रचना करके उन्हें 'आदिवासी पंचशील' की संज्ञा प्रदान की। इसके अनुसार आदिवासियों को वन भूमि और वन में अधिकार पाने का मौलिक सिद्धांत प्रतिपादित हुआ।

भारत सरकार द्वारा नियुक्ति आदिवासी अनुसूचित क्षेत्र आयोग (1961) ने आदिवासियों के विकास एवं संविधान में प्रदत उनके हितों की सुरक्षा के मौलिक अधिकारों के प्रयोग एवं कार्य पद्धति का मूल्यांकन किया। उसने अनुशंसा करते हुए आना अभिमत प्रकट किया कि वन विभाग को शासन की ऐसी इकाई के रूप में उत्तरदायित्व दिया जाये कि वह वन विभाग के विकास कार्यक्रम के साथ आदिवासियों के विकास कार्यक्रम का भी निर्वाह करें। शासन कोयह नीतिगत निर्णय लेना चाहिये कि वह यथासंभव वनवासियों और वन संसाधनों के शोषकों को दूर करें।

संवैधानिक प्रावधान


भारतीय संविधान में अनुसूचित जनजाति से संबंधित प्रावधानों को चार श्रेणियों में बांटा जा सकता है-(1) सुरक्षात्मक, (2) विकासमान, (3) आरक्षणीय और (4) अन्य (विविध)।स्पष्ट है कि संविधान के निर्माता अनुसूचित जनजाति की परिस्थितियों से भली-भांति अवगत थे तथा उनके उत्थान हेतु काफी उत्साही थे। संविधान का अनुच्छेद 46 जो कि राज्यों के नीतिगत निर्देशित सिद्धांतों के पाठ का एक हिस्सा है, में वर्णित है कि:

'राज्य गरीब तबके के लोगों, विशेषकर अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति के लोगों के शैक्षिक तथा आर्थिक स्तर को सुधारने में विशेष रुचि लेगा, उन्हें सामाजिक न्याय दिलवाने एवं सभी प्रकार के शोषणों से उनकी रक्षा करेगा।'

यह अकेला अनुच्छेद राज्य की नीतियों (केन्द्र तथा राज्य सरकार दोनों) के कार्यान्वयन में सहायक सिद्ध हुआ है। वास्तव में, बहुत से संवैधानिक प्रावधान इसी अनुच्छेद से क्रियान्वित हुए हैं।

विचारणीय है कि मूल अधिकार संबंधी प्रावधान होने पर भी अनुसूचित जनजाति के अनुकूल ‘यथोचित प्रतिबंध' के कारण उन्हें योग्यता के आधार पर ही सुपात्र समझा जाता है। अनुच्छेद 15 किसी नागरिक के प्रति धर्म, वंश, जाति, लिंग तथा जन्म स्थान के आधार पर किसी भी प्रकार के भेद-भाव के विरुद्ध है। किंतु धारा (4) के अंतर्गत राज्य सरकार को अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति के सदस्यों के उत्थान हेतु कार्य करने का विशेष प्रावधान किया गया है। अनुच्छेद 16 नागरिकों के लिए समानता के आधार पर रोजगार अथवा किसी सार्वजनिक कार्यालय में सीधी नियुक्ति हेतु अवसर प्रदान करता है, लेकिन राज्यों को अनुसूचित जनजाति के अभ्यर्थियों के लिए नियुक्तियों अथवा पदों में आरक्षण करने का अधिकार है। अनुच्छेद 17 के अंतर्गत बोलने की स्वतंत्रता, विधानमंडल, संस्था, संघ, संपत्ति की प्राप्ति तथा निपटान, किसी व्यवसाय को करना, व्यापार करना, देश के किसी भी भाग में भ्रमण करना तथा निवास करने का अधिकार देता है, किंतु अनुसूचित जनजाति के हितों के प्रतिकूल होने पर कानून द्वारा ऐसे किसी भी अधिकार पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है। अनुच्छेद 23 के अंतर्गत मानवीय व्यम्पार करने, 'बेगार' तथा अन्य प्रकार से बलपूर्वक काम कराने पर रोक लगाने का प्रावधान है। यह विशेष रूप से अनुसूचित जनजाति के लिए प्रासंगिक है। इस प्रकार कुछ मौलिक अधिकार काफी हद तक सीमित कर दिये गये हैं, क्योंकि यह समझा गया कि विशेषाधिकार के अंतर्गत आने वाले समुदायों अर्थात् अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति की सुरक्षा के लिए ऐसा करना आवश्यक है।

विकासमान प्रावधान


अनुसूचित जनजाति के विकासमान पहलुओं संबंधी दूसरी श्रेणी के प्रावधानों को पुनः तीन भागों में बांटा जा सकता है। प्रथम, नीतिगत मामलों से संबंधित है जो कि स्वयं अनुच्छेद 46 से निर्गत है। यह नीति समाज के कमजोर तबकों विशेषकर अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति के आर्थिक तथा शैक्षिक हितों को सावधानीपूर्वक विकसित करता है। ऐसी नीति योजनाबद्ध विकास चाहती है, जिसका उद्देश्य उनके हितों को विकसित करना होता है। यह योजनाबद्ध विकास वित्तीय संसाधनों तथा निष्पादन तंत्र की मांग करता है। वित्तीय संसाधनों के लिए अनुच्छेद 275 तथा दूसरे के लिए अनुच्छेद 244 एवं संविधान की पांचवीं अनुसूचित प्रासंगिक है। भारतीय संविधान में अनुसूचित जनजाति के लिए इन प्रावधानों तथा अन्य प्रासंगिक प्रावधानों को जोड़ने का उद्देश्य उनके विकास को सुनिश्चित करना है। अनुच्छेद 275 की धारा (1) का प्रथम उपबंध आवश्यक निधि को भारत की समेकित निधि में से निकाल कर राज्यों को देने के लिए एकमात्र प्रावधान है ताकि जनजातीय विकास योजनाओं का सही कार्यान्वयन तथा प्रशासन के स्तर को उठाने के लिए अनुसूचित क्षेत्रों में व्यय किया जा सके। इस प्रकार वितीय संसाधनों की कोई कमी नहीं हो पायेगी। अनुच्छेद 244 पांचवीं अनुसूची का स्रोत है जो अनुसूचित क्षेत्रों के प्रशासन के लिए असाधारण प्रावधानों का समावेश करता है। अनुसूचित क्षेत्र में वे सभी स्थान सम्मिलित है जिन्हें राष्ट्रपति पांचवीं अनुसूची के अंतर्गत अधिसूचित करते हैं।

. कार्यान्वयन के हिसाब से अनुसूचित क्षेत्र उन क्षेत्रों के साथ (प्रशासनिक एकक विकास खंडों की भांति) पूर्ण अथवा आंशिक तौर पर निर्धारित किए गए हैं जो कि अनुसूचित जनजाति की बहुलता वाले क्षेत्र हैं। पांचवीं अनुसूची की धारा (1) के पैरा 5 के अंतर्गत राज्य के राज्यपाल को काफी अधिकार दिये गये हैं। वह संसद या राज्य विधानमंडल के विशेष अधिनियम में फेर बदल कर सकते हैं तथा उनके कार्यान्वयन आदि पर आपत्ति कर सकते हैं। पुन: ध्यान दिया जाता है कि राज्यपाल को पूर्वापेक्षी प्रभाव से प्रावधानों को लागू करवाने का अधिकार दिया गया है। राज्य सरकार में शांति तथा व्यवस्था बनाये रखने के उद्देश्य से राज्यपाल को धारा (2) के अंतर्गत कानून बनाने का अधिकार दिया गया है। यह अधिकार विशेषकर जनजातीय भूमि के हस्तांतरण को रोकने के लिए, अनुसूचित जनजाति के सदस्यों को भूति का आवंटन के लिए तथा साहूकारी के व्यवसाय को नियंत्रित करने आदि के उद्देश्य से प्रदान किया गया है। धारा (4) तथा (5) में राज्यपाल के कार्य की प्रक्रिया को दर्शाया गया है। उसे किसी कानून को क्रियान्वित करने से पहले जनजाति सलाहकार परिषद् से परामर्श करना होता है तथा उसके अध्यक्ष की सहमति प्राप्त करनी होती है। प्रारंभिक भाग में, पांचवीं अनुसूची के अंतर्गत, जनजातीय सलाहकार परिषद् के निर्माण के लिए प्रावधान है तथा राज्यपाल को अनुसूचित क्षेत्रों के प्रशासनिक प्रगति संबंधी एक नियतकालिक (सालाना) रिपोर्ट राष्ट्रपति महोदय को प्रस्तुत करनी होती है।

ध्यान देने योग्य है कि पांचवीं अनुसूची का पैरा तीन, केन्द्र सरकार की कार्यपालिका संबंधी शक्ति का बखान करते हुए अनुसूचित क्षेत्रों के प्रशासन के संबंध में राज्य सरकार को निर्देष देता है। केन्द्र, विधि निर्माण की अवशिष्ट शक्तियों का उपयोग करता है ताकि अनुसूचित क्षेत्रों के विकास क्रम में किसी भी प्रकार की रुकावट न आने पाये। निर्देशों के लिए इसी प्रकार का प्रावधान रखते हुए हितकारी योजनाओं के आहरण एवं निष्पादन हेतु हम इसे अनुच्छेद 339 (2)से जोड़ सकते हैं, जो निम्नानुसार हैं:

'राज्य के अंतर्गत अनुसूचित जनजाति के हित में आवश्यक योजनाओं के आहरण एवं निष्पादन हेतु उल्लेखित अनुदेश में केन्द्र की कार्यकारी शक्ति राज्य को निर्देश प्रदान करती रहेगी।’

कोई संदेह नहीं हो सकता कि संविधान केन्द्र में पर्यवेक्षक तथा मध्यस्थ की भूमिका अदा करता है। परन्तु सामान्य तौर पर केन्द्रीय संवैधानिक ढांचा, शक्ति तथा सामर्थ्य का सूक्ष्म-साम्य एवं सतर्कता बनाये रखने की अपेक्षा रखता है। वह कतिपय सर्वोच्चाधिकार की आवश्यकता का प्रतिष्ठापन तथा अपने अधिकारों का प्रयोग स्वत: नहीं करता है। यह प्रासंगिक है कि केन्द्र ने इन दो प्रावधानों में एक बार भी विगत इन चालीस वर्षों में गति नहीं दर्शाई है और केन्द्र-राज्य संबंधों के अंतर्गत नियोजन एवं आपसी विचार-विमर्श पर अधिक निर्भरता दिखलाई है। दो धाराओं के बीच का अंतर समाप्त नहीं होना चाहिये। पहला, अनुसूचित क्षेत्रों के प्रशासन संबंधी निर्देशों का तथा बाद में, राज्य के अनुसूचित क्षेत्रों तथा ऐसे क्षेत्रों से बाहर-दोनों में अनुसूचित जनजाति के कल्याण हेतु आवश्यक योजनाओं के कार्यान्वयन संबंधी उल्लेख है। सूक्ष्म अथवा अधिकांश तौर पर दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं।

आरक्षणीय प्रावधान


तीसरी श्रेणी में आरक्षणीय प्रावधानों की ओर ध्यान आकर्षित किया जाता है। हमें मालूम है कि अनुच्छेद 16 किस तरह रोजगार संबंधी मामलों में समानता के अवसरों की गारंटी देता है तथा अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति और पिछड़े वर्गों के उत्थान हेतु आरक्षण प्रदान करता है। अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति के निम्न शैक्षिक तथा आर्थिक स्तर के उत्थान हेतु जनसंख्या के आधार पर इन दोनों जातियों के लिए लोकसभा में अनुच्छेद 330 के अंतर्गत तथा सार्वजनिक सेवा एवं पदों पर अनुच्छेद 335 के अंतर्गत विभिन्न सीटें आरक्षित की गई हैं। संविधान निर्माताओं ने सोचा कि यह प्रावधान कुछ निश्चित अवधि के लिए आवश्यक है ताकि इन जातियों के सदस्य इस अवधि के दौरान अपने स्तर में वृद्धि करके अन्य जातियों की समता पर आ सकें तथा आरक्षण की आवश्यकता विशेष रूप से लोकसभा एवं राज्य विधानमंडलों में एक निश्चित अवधि से आगे स्वत: ही समाप्त हो जाये। 1990 में आरक्षण की यह नीति अगले दशक के लिए और बढ़ा दी गई। विकास की वर्तमान गति पर विचार करते हुए यह असंभव लगता है कि हम आरक्षण की पकड़ से इस शताब्दी तक मुक्त हो पायेंगे।

यहां तक कि निर्वाचित विधान सभाओं में आरक्षण देने के प्रश्न पर चर्चा के दौरान भी आरक्षण की अवधारणा आलोचना का विषय थी। शैक्षिक संस्थाओं तथा सार्वजनिक सेवाओं में इन समुदाय के लोगों से जितने भी पद भरे गये हैं उनका प्रतिशत अंतिम करने में ये प्रयास सफल रहे। इसके स्पष्ट उदाहरण हैं कि 1944 में जब इन दोनों समुदायों के लिए मैट्रिकोत्तर छात्रवृति योजना प्रारंभ की गई तो छात्रवृत्ति धारकों में अनुसूचित जाति की कुल संख्या 114 तथा अनुसूचित जनजाति की संख्या शून्य थी। 1981 में अनुसूचित जाति की संख्या बढ़ कर लगभग पांच लाख तथा अनुसूचित जनजाति की एक लाख हो गई। इसी प्रकार 1960 में लगभग ढाई लाख अनुसूचित जाति के सदस्य सरकारी पदों पर नियुक्त किये गये जो 1980 तक बढ़कर लगभग पांच लाख हो गये। इसी क्रम में अनुसूचित जनजाति के सदस्यों की संख्या भी बढ़ती गई जो कि लगभग 35 हजार से बढ़कर एक लाख से अधिक हो गई।

इन प्रावधानों को संचालित किये जाने के तौर-तरीकों पर एक दृष्टि डालना आवश्यक है। अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति की सीटों के लिए संसद तथा राज्य विधानमंडलों से संबंधित आरक्षण की संख्या का सीमांकन अधिकतर उनकी जनसंख्या के आधार पर सुनिश्चित किया गया है। अनुसूचित जनजाति के मामले में सीटों का आरक्षण उन विशिष्ट क्षेत्रों के आधार पर सुनिश्चित किया जाता है जिन में ये लोग कम या अधिक रूप से निवास करते हैं। इनकीपहचान आसानी से कर ली जाती है तथा इस देश के नक्शे में, अलग-अलग क्षेत्रों के आधार पर, विशेष रूप से मध्यप्रदेश, उड़ीसा, बिहार, गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान तथा पश्चिम बंगाल आदि राज्यों में, जहां ये लोग प्रधानत: निवास करते हैं, अंकित कर दिया जाता है। परिणामस्वरूप इनकी सीटों के निर्धारण में कुछ परेशानी का सामना करना पड़ता है। अनुसूचित जाति के लिए संसद तथा राज्यों के विधानमंडलों में सीटों का निर्धारण करना आसान कार्य नहीं है, क्योंकि ये लोग अन्य जनसंख्या वाले लोगों के साथ ही मिलकर निवास करते हैं। चुनाव आयोग एवं परिसीमन आयोग ने अनुसूचित जाति के मामले में भी सीटों के आरक्षण संबंधी निर्धारण के लिए विशेष पद्धति अपनाई है। पिछले तीन दशकों से यह पद्धति संतोषजनक ढंग से कार्य कर रही है तथा अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के सदस्य राज्यों की कुछ विधानमंडलों में एक बड़ी ताकत के रूप में उभर कर सामने आये हैं।

नौकरियों में आरक्षण का क्रियान्वयन उनकी गठन संबंधी जटिलताओं के कारण एक बहुत ही कठिन कार्य प्रतीत हुआ। जातीय बंधन जिसके कारण नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था की जाती है, भर्ती के विभिन्न तरीके (सीधी भर्ती, प्रोन्नति, चयन, स्थानान्तरण), विभिन्न सिविल एवं रक्षा सेवाएं जो कि प्रशासनिक पद्धति को सुदृढ़ करती हैं आदि बातें आरक्षण के क्रियान्वयन को आसान नहीं बना पाती हैं। तथापि, यहां भी विशेष क्रिया-पद्धति अपनाने की सलाह दी गई है। कुछ राज्य सरकारें जैसे पश्चिम बंगाल और उड़ीसा ने पदों के स्तर के आधार पर आरक्षण का परिपालन सुनिश्चत किया है जबकि कुछ अन्य राज्यों एवं केन्द्र सरकार ने इन्हें कार्यकारी आदेश द्वारा क्रियान्वित किया है। अनुसूचित जाति के संबंध में यथोचित प्रतिवेदनों के मामले आये हैं जबकि अनुसूचित जनजाति के मामले में ऐसा कुछ नहीं है।

विविध प्रावधान


अनुच्छेद 342 के अंतर्गत संवैधानिक प्रावधानों की चौथी श्रेणी विविधताओं से भरी हुई है जिसमें सबसे महत्वपूर्ण अनुसूचित जनजाति से संबंधित विशेष उल्लेख है। इसके अंतर्गत राष्ट्रपति महोदय को अधिकार है कि वह जनजाति अथवा जनजातीय समुदायों की पहचान करके उन्हें अनुसूचित जनजाति के रूप में मान्यता प्रदान करें। यह प्रावधान मौलिक है। कौन-सा वर्ग अनुसूचित जनजाति की श्रेणी में लाया जाये इस आशय हेतु निम्नानुसार विवादास्पद मापदंड प्रस्तुत किये गये हैं:

'विशाल तथा पिछड़ेपन के कारण प्राचीन मान्यताओं, प्रमुख संस्कृति, भौगोलिक पृथकता एवं समुदायों के साथ संपर्क करने में संकोच'।

संविधान के प्रावधानों के अंतर्गत अनुसूचित जनजातियों का विकास कार्यक्रम कार्यान्वित किया जा रहा है।

यदि भारत की केन्द्रीय तथा प्रादेशिक सरकारें तथा भारत के प्रदेशों की जनता इन पिछड़े गरीब, अशिक्षित, सच्चे और भोले लोगों को सुखी, समृद्ध और विकसित करना चाहती हैं तो उन्हें उनके तथा इनके क्षेत्र के शोषण को सर्वप्रथम रोकना पड़ेगा और इनकी योग्यता तथा क्षमता के अनुकूल इनके वैयक्तिक, सामाजिक और क्षेत्रीय विकास की योजनाएं इनकी राय से बनानी पड़ेंगी, उनके अनुकूल इनका शिक्षण करना पड़ेगा और इन्हीं के द्वारा इन योजनाओं का संचालन तथा उनकी पूर्ति करवानी पड़ेगी।

इसके लिए निम्न आवश्यक कदम उठाने होंगे:

1. जनजातीय क्षेत्रों के लिए बनायी जाने वाली योजनाएं हितग्राही कार्यक्रमों को सर्वोच्च प्राथमिकता दें। उत्पादकता बढ़ाने के साथ मानव संसाधनों का विकास, बुनियादी ढांचे में सुधार, विपणन सुविधायें एवं शोषण से मुक्ति दिलाकर उनका आर्थिक आधार बनाया जा सकता है तथा उन्हें गरीबी रेखा के ऊपर उठाया जा सकता है।
2. देश में लगभग 6.5 लाख आदिवासी परिवार प्रतिवर्ष 10 लाख हेक्टेयर वन-क्षेत्र की सफाई कर बेवर खेती करते हैं। इन खेतों को आंध्रप्रदेश में 'पोडू’, मध्यप्रदेश में 'बेवर' और पूर्वोत्तर भारत में 'झूम' कहते हैं। यह आदिवासियों की सदियों पुरानी पारंपरिक कृषि पद्धति है। इसमें जंगल काट कर जला दिया जाता है। जले क्षेत्र में खेती की जाती है तथा दो वर्ष पश्चात् भूमि पुन: जंगल उगने हेतु छोड़ दी जाती है। आबादी बढ़ने के साथ बेवर खेती उगाने का अंतराल चक्र कम हो गया है, अतः अब इन क्षेत्रों में वनाच्छादन नहीं हो पाता तथा कृषि उपज भी लगातार गिर रही है। इस प्रकार की खेती का व्यावहारिक और वैकल्पिक रूप ढ़ूंढ़ना आवश्यक है ताकि आदिवासियों का आर्थिक विकास हो सके तथा वन-विनाश को समाप्त किया जा सके।
3. देश के वन क्षेत्रों में लगभग 5000 वन ग्राम हैं, जहां 2 लाख आदिवासी परिवार रहते हैं। अभी जो भूमि वे जोतते है उस पर उनका स्वामित्व नहीं है तथा योजनाबद्ध विकास कार्यक्रमों तक उनकी पहुंच नहीं है। वन विभाग को चाहिये कि उनके द्वारा जोती जाने वाली भूमि पर उन्हें भूस्वामी का अधिकार दे तथा इनके समग्र विकास हेतु योजना लागू करे।
4. आदिवासी क्षेत्रों में सिंचाई योजनाएं, खनन कार्य, औद्योगीकरण आदि के कारण बड़े पैमाने पर आदिवासी विस्थापित तथा बेघरबार हो रहे हैं। भूमि अधिग्रहण के फलस्वरूप विस्थापित लोगों के पुनर्वास के लिए एक सामान्य नीति तथा भलाई के विशेष उपाय आवश्यकहैं। यदि ऐसा नहीं किया जाता तो उनका आंदोलन चलाना स्वाभाविक है।
5. आदिवासी महिलाओं के पिछड़ेपन को दूर करने हेतु उनके आर्थिक विकास पर विशेष ध्यान देना होगा विकसित क्षेत्र के कार्यक्रमों की नकल करने की बजाय रूढ़िगत, लोकाचार, आवश्यकताओं एवं अपेक्षाओं को ध्यान में रखते हुए योजनाओं का सृजन करना होगा। महिलाओं के शिक्षण और प्रशिक्षण पर भी ध्यान देना होगा ताकि उनका सामाजिक-आर्थिक उत्थान हो सके।
6. आदिवासी क्षेत्रों में बहुत बड़ी संख्या में बाहर से आकर लोग बस गये हैं तथा उनकी भूमि हड़प ली है । इसी प्रकार साहूकारों ने उनका जमकर शोषण किया है। शोषण समाप्त करने हेतु संरक्षात्मक क्षेत्र में पहले से चल रहे सांविधिक उपायों को कड़ाई से कार्यान्वित किया जाना चाहिये। कृषि भूमि की वापसी, साहूकार की उधारी से मुक्ति, बंधुवा मजदूरी से छूट, उनके कृषि तथा वन उत्पादों का सही मूल्य में बिक्री आदि विषयों पर ध्यान दिया जाना चाहिये।
7. सविधान की पांचवीं तथा छठी अनुसूची में वर्णित विधिक एवं प्रशासनिक व्यवस्था को लागू करके आदिवासियों का समुचित विकास किया जा सकता है। स्वैच्छिक संस्थाओं द्वारा हितग्राहियों में प्रतिभागिता विकसित की जा सकती है।
8. दुर्गम क्षेत्रों में रह रहे अत्यंत पिछड़े आदिवासी जातियों (प्रिमिटिव ट्राइब) को विलुप्त के होने से बचाने के लिए विशेष प्रयास आवश्यक हैं। इस प्रकार की 74 जातियों की पहचान की जा चुकी है तथा उनके विकास की कार्यवाही प्रगति पर है।
9. वन एवं आदिवासी एक-दूसरे के पूरक हैं एवं आदिवासियों की आर्थिक दशा मुख्य रूप से वनों पर आधारित है। वन आदिवासियों के लिए दाता-त्राता एवं अभिरक्षक हैं, जहां से उन्हें खाद्य पदार्थ, रोजगार, आर्थिक समृद्धि एवं उनकी संस्कृति के विकास को बल मिला। वनों से जहां उन्हें ईंधन, चारा, घर बनाने की लकड़ी मिलती है वहीं उनके गहरे मनोभावों को पूर्ण संतोष मिलता है। अकाल के समय केवल वन ही आदिवासियों के पोषक रह जाते हैं। आदिवासियों ने आदिकाल से वन-पारिस्थितिकी संबंध जोड़ा है। वनों में रहने के वे इतने अभ्यस्त हो गये हैं कि उन्हें कहीं बाहर ले जाया जाये तो अधिक कठिनाई का अनुभव करते हैं।

आदिवासी विकास परिषद की मांगे


आदिवासियों के हित संवर्द्धन हेतु उनके द्वारा आदिवासी विकास परिषद स्थापना की गई। अभी तक वनों के संबंध में उसने निम्न मांगें प्रस्तुत की हैं:

भूमि सर्वेक्षण, व्यवस्थापन एवं पट्टा देनाः


आदिवासी राजस्व तथा वनभूमि पर बहुत समय से काबिज हैं परन्तु इन क्षेत्रों ने सर्वेक्षण तथा व्यवस्थापन कार्य हाथ में न लिए जाने के कारण उन्हें पट्टा नहीं मिल सका है। भूमि व्यवस्थापन का कार्य उच्च प्रश्रय पर किया जाना चाहिये ताकि वे कृषि क्षेत्र का विकास करके उत्पादन बढ़ाने में अग्रसर हो सकें।

पौधरोपण एवं प्राकृतिक वनों की सुरक्षा


कई क्षेत्रों में सागौन, यूकेलिप्टस आदि वृक्षारोपण कार्य हेतु प्राकृतिक वनों की कटाई की गई जिसमें फल-फूल, कंद- मूल, ज़ड़ी-बूटी देने वाली तथा अन्य प्रकार की उपयोगी वनस्पतियों को समाप्त कर दिया गया। आदिवासियों की यह सदैव मांग रही है कि उनकी बस्ती के पास प्राकृतिक वनों को बनाये रखा जाय तथा जीवनोपयोगी वृक्षों को नष्ट न किया जाय। फलदार वृक्षों के वृक्षरोपण को उन्होंने सदैव प्रश्रय दिया।

गौण वन उपज का विकास


गौण वन उपज आदिवासियों के सामाजिक-आर्थिक विकास का प्रमुख अंग हैं। वे चाहते हैं कि इसके प्रजनन, संग्रहण, विपणन एवं संशोधन में उन्हें शामिल किया जाय।

वनों के विकास में आदिवासियों की सहभागिता


आदिवासी सामाजिक, आर्थिक एवं भावनात्मक रूप से वनों से जुड़े हैं। वनों के संरक्षण एवं विकास में वे सहभागिता चाहते हैं। पश्चिम बंगाल में साल वनों के पुनरुत्थान में आदिवासी रक्षा समितियों ने अच्छा काम किया है। देश के अन्य भागों में उन्हें वन कार्यों में सहयोगी बनाया जा रहा है।

अत्यंत पिछड़े आदिवासियों का विकास वनों पर आश्रित


झूम खेती करने वाले, वन ग्रामों में रहने वाले, दुर्गम अलग-थलग स्थानों में रहने वाले तथा घुमंतू आदिवासियों का आर्थिक विकास पूर्णतः वनों पर निर्भर करता है। इनके त्वरित विकासहेतु समुचित योजनाएं बनाई जानी चाहिये।

राष्ट्रीय वन नीति, 1988 एवं आदिवासी विकास


प्रथम बार राष्ट्रीय वन नीति में आदिवासियों एवं वनों के बीच सहजीवी संबंध स्वीकार किया गया। वन नीति में निम्नलिखित बातों पर ध्यान देने पर जोर दिया गया:

(क) वन कार्यों में आदिवासियों को लाभदायक रोजगार उपलब्ध कराना।
(ख) राजस्व गांवों के समान वन गांवों का विकास।
(ग) आदिवासी हितग्राहियों की आर्थिक दशा में सुधार लाने हेतु परिवार अभिमुख योजनाओंको चालू करना।
(घ) लघु वन उपज के उत्पादन, संग्रहण, विपणन आदि पर ध्यान देना ताकि आदिवासियों का आर्थिक विकास हो सके।
(ड.) वनों की सुरक्षा, पुनरुद्धार, विकास में आदिवासियों की सहभागिता।
(च) झूम कृषि के स्थान पर उन्हें अन्य उत्पादन के तौर-तरीकों से परिचित कराना।

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