वो सुबह कभी तो आएगी : प्रयाग पाण्डे

21 Aug 2014
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Nainital
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सरोवर नगरी को लेकर न्यायपालिका गंभीर


जब कायदे-कानून बनाने वाले चुनिंदा नुमाइंदे और उन्हें लागू करने के लिए जिम्मेदार सरकारी मशीनरी खुद ही कायदे-कानूनों को अगूंठा दिखाने पर आमादा हो तो आम लोगों से नियम-कानूनों के पालन करने की उम्मीद बेमानी हो जाती है। नतीजे में समाज के भीतर कानून का इक़बाल खतरे में पड़ जाता है। 'जिसकी लाठी, उसकी भैंस' वाली कहावत सच होने लगती है।

समाज के भीतर प्रकारांतर में सीना ठोककर कानून की परवाह नहीं करने की अघोषित प्रतिस्पर्धा-सी शुरू हो जाती है। ऐसी सूरत में न्यायपालिका की एक छोटी-सी पहल भी किसी इलाके और वहां के निवासियों के लिए संजीवनी का काम कर सकती है। नैनीताल के बारे में उत्तराखंड उच्च न्यायालय, नैनीताल खंडपीठ ने इस महीने की तीन तारीख को एक जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान दिया अंतरिम आदेश इस बात की ताजा मिशाल है।

पिछले महीने तीन जुलाई को उत्तराखंड हाईकोर्ट, नैनीताल में दायर एक जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान न्यायमूर्ति आलोक सिंह और न्यायमूर्ति एस के गुप्ता की खंडपीठ ने नैनीताल के तालाब समेत जिले की दूसरी झीलों की कुदरती खूबसरती और सुरक्षा को लेकर कड़ा रुख अपनाते हुए नैनीताल के नालों से तत्काल अतिक्रमण हटाने, नैनीताल के सूखाताल क्षेत्र को अतिक्रमण से मुक्त करने, नैनीताल समेत जिले के सभी झील क्षेत्रों और नगरों को पॉलीथिन मुक्त करने, भवन निर्माण उपविधियों का कड़ाई से पालन सुनिश्चित करने और जनपद की सभी झीलों के तीस मीटर परिधि में निर्माण कार्यों पर पाबंदी लगाने के अंतरिम आदेश दिए।

अदालत ने नैनीताल में हुए अवैध निर्माण कामों पर रिपोर्ट देने के लिए कमिश्नर एडवोकेट की तीन सदस्यीय कमेटी बना दी। इस कमेटी में हाईकोर्ट के सीनियर वकील सीडी बहुगुणा, हरिमोहन भाटिया और सिद्धार्थ जैन को नामित कर दिया। हाईकोर्ट ने प्रशासन और स्थानीय निकाय को झीलों की साफ-सफाई के लिए तत्काल ठोस और प्रभावी कदम उठाने के निर्देश दिए।

उत्तराखंड हाईकोर्ट के इस अंतरिम आदेश से लोगों को नैनीताल की फिजां में बदलाव के संकेत नजर आने लगे हैं। नियम-कानूनों की नाफ़रमानी का लंबा दौर खत्म होने और नैनीताल के दिन फिरने की उम्मीदें जगी हैं। वीआईपी ड्यूटी, मीटिंग और प्रगति आख्याओं के बीच उलझ कर रह गई सरकारी मशीनरी को वर्षों बाद फिर से कायदों का कहकहा याद करने पर मजबूर होना पड़ा है। पर कानून बनाने वाले ज्यादातर जनप्रतिनिधियों और दबाव समूहों को उत्तराखंड हाईकोर्ट का यह अंतरिम आदेश रास नहीं आया। 'न्यायालय का सम्मान और जनता के भी साथ' वाला फार्मूला चला।

नुक्कड़ मीटिंगों और बैठकों का सिलसिला शुरू हुआ। 10 जुलाई 2014 को हाईकोर्ट में न्यायमूर्ति आलोक सिंह और न्यायमूर्ति एस के गुप्ता की खंडपीठ के समक्ष जनहित याचिका में फिर सुनवाई हुई। अदालत ने सरकारी मशीनरी को दुबारा हलफनामा पेश करने की हिदायत दी।

सुनवाई के दौरान अदालत के रुख को देखते हुए ग्यारह जुलाई से सरकारी मशीनरी एकाएक चुस्त-दुरुस्त हो गई। प्रशासन ने नैनीताल के सबसे पुराने और पहले प्रवेश मार्ग बारा पत्थर से अतिक्रमण हटाने की शुरुआत कर दी है। सरकारी अमला अब छुट्टी के रोज भी अतिक्रमण हटाने के काम में जुट गया है। नैनीताल के 'मल्ला पोखर' कहे जाने वाले सूखाताल के अतिक्रमण की बारी आ सकती है।

फिलहाल जनहित याचिका हाईकोर्ट के विचाराधीन है। नैनीताल को महफूज रखने के ख्वाहिशमंदों की उम्मीद भरी निगाहें हाईकोर्ट पर आकर ठहर गई हैं।

नैनीताल झीलदरअसल नैनीताल को भू-गर्भिक नजरिए से बेहद नाजुक नगर माना जाता है। नैनीताल के भू-गर्भिक और पारिस्थितिकीय के मिजाज में स्थायित्व कभी नहीं रहा। नैनीताल की पहाड़ियां यहां मानवीय हस्तक्षेप से पहले भी प्राकृतिक तौर पर रूठती रही हैं। रोजा (शाहजहांपुर) के शराब कारोबारी पीटर बैरन की पहल पर 1842 में नैनीताल में बसावट शुरू हुई।

एक वीरान जंगल को संसार के सबसे बेहतरीन व्यवस्थित और आदर्श नगर के रूप में विकसित करने के जज्बे से लबरेज चंद लोगों की पहल पर 1845 में यहां म्युनिसिपल कमेटी (अब नगर पालिका) बन गई। म्युनिसिपल कमेटी ने जरूरत के मुताबिक अलग-अलग वक्त पर एक आदर्श नगर के लिए जरूरी तमाम उपविधियां बनाई और उनका खुद भी पालन किया और कड़ाई के साथ दूसरे बाशिंदों से कराया भी।

1857 के पहले स्वाधीनता संग्राम ने अंग्रेजों के लिए नैनीताल को एक महत्वपूर्ण हिल स्टेशन बना दिया। नतीजन 1962 में नैनीताल 'नॉर्थ वेस्ट प्रॉविंसेज एंड अवध' की गर्मियों की राजधानी बन गया। अंग्रेज बिना जरुरी संसाधनों के नैनीताल में आदर्श नगरीय अधिसंरचनात्मक में जुटे ही थे कि बसावट शुरू होने के पंद्रह साल बाद 1867 में मल्लीताल के पॉपुलर स्टेट में भू-स्खलन हो गया। गोया इस भू-स्खलन से जन-धन की बहुत ज्यादा हानि तो नहीं हुई। पर नैनीताल ने अंग्रेजों को अपनी क्षण भंगुर पारिस्थितिकी तंत्र की इत्तला जरूर दे दी। अंग्रेजों ने प्रकृति की इस चेतावनी को गंभीरता से महसूस किया। नैनीताल की हिफाजत के लिए कई विशेषज्ञ कमेटियां बनी। संरक्षण और विकास की वैज्ञानिक नीतियां अपनाई गई।

संरक्षणनात्मक उपायों के साथ प्रकृति के दोहन पर जोर दिया गया। नैनीताल की आहलादित कर देने वाली शुद्ध हवा, प्राकृतिक वातावरण की शुद्धता और मनमोहक प्राकृतिक सौंदर्य ने अंग्रेजों को मोहा। बच्चों के पोषण और विकास के लिए नैनीताल के स्वच्छ और शुद्ध वातावरण के चलते 1869 में यहां ईसाई मिशनरी स्कूल खुलने लगे।

अनेक संरक्षणनात्मक उपायों के वावजूद 18 सितंबर 1880 को शेर का डांडा पहाड़ी में हुए विनाशकारी भू-स्खलन ने अंग्रेजों को भीतर तक हिला कर रख दिया। इस भू-स्खलन में एक सौ आठ भारतीय और तैंतालीस यूरोपियन समेत एक सौ इक्कावन लोग दब कर मर गए। भू-स्खलन ने देवी का मंदिर, विक्टोरिया होटल और इसके आसपास के कई मकान, असेम्बली रूम समेत तालाब का एक हिस्सा लील लिया।

नैनीताल को प्राकृतिक आपदाओं से बचाने के सुझाव देने के लिए कई वैज्ञानिक और इंजीनियरों की कमेटियां बनी। सबकी राय बनी कि नैनीताल को बचाए और बनाए रखने के लिए प्रकृति के साथ अनुकूलन करते हुए नाला तंत्र विकसित किया जाना जरूरी है। लिहाजा एक नायब नाला तंत्र बनाया गया। समूचे नैनीताल को छोटे-बड़े प्राइवेट और सार्वजनिक नालों से बांध दिया गया।

ब्रिटिश हुक्मरानों ने नैनीताल की कमजोर पहाड़ियों और तालाब की हिफाजत के लिहाज से नैनीताल को चार हिस्सों में बांटा। बड़ा नाला सिस्टम, शेर का डांडा नाला सिस्टम, अयारपाटा नाला सिस्टम और तालाब से बाहर गिरने वाला नाला सिस्टम बनाए गए। 1880 से 1928 के बीच शेर का डांडा नाला सिस्टम के तहत बाईस बड़े और एक सौ ग्यारह छोटे ब्रांच नाले बने।

बड़ा नाला सिस्टम में ग्यारह बड़े और इकहत्तर छोटे नाले बनाए गए। अयारपाटा नाला सिस्टम में नौ बड़े और पांच ब्रांच नाले बने। जबकि तालाब से बाहर गिरने वाले नाला सिस्टम में इकतीस बड़े और चार छोटे नाले बने। कुल मिलाकर छप्पन बड़े और दो सौ उनतीस छोटे ब्रांच नाले बनाए गए।

इन नालों की लंबाई करीब तिरेपन किलोमीटर थी। इसके अलावा नगर के भीतर दस बड़े और ग्यारह छोटे नाले और बनाए गए थे। निजी भवन मालिकों को अपने आवासीय परिसर के पानी के निकास के लिए नाले बनाने और इन नालों को पास के सार्वजनिक नालों से जोड़ना जरूरी बना दिया गया। इन नालों को नैनीताल की खून की नसें समझा जाता था। इसी संवेदनशीलता से नालों की हिफाजत की जाती थी।

नैनीताल को भू-गर्भिक नजरिए से बेहद नाजुक नगर माना जाता है। नैनीताल के भू-गर्भिक और पारिस्थितिकीय के मिजाज में स्थायित्व कभी नहीं रहा। नैनीताल की पहाड़ियां यहां मानवीय हस्तक्षेप से पहले भी प्राकृतिक तौर पर रूठती रही हैं। रोजा (शाहजहांपुर) के शराब कारोबारी पीटर बैरन की पहल पर 1842 में नैनीताल में बसावट शुरू हुई। एक वीरान जंगल को संसार के सबसे बेहतरीन व्यवस्थित और आदर्श नगर के रूप में विकसित करने के जज्बे से लबरेज चंद लोगों की पहल पर 1845 में यहां म्युनिसिपल कमेटी बन गई। 17 अगस्त 1898 को तालाब की जड़ से लगे बलिया नाले में ब्रेबरी के पास भू-स्खलन हो गया। इस हादसे में अट्ठाइस लोग मारे गए। ब्रेबरी में स्थित शराब बनाने की फैक्ट्री समेत आसपास के कई घर जमींदोज हो गए। ब्रेबरी के ताजा भू-स्खलन ने अंग्रेज हुक्मरानों को नैनीताल की सुरक्षा के बारे में नए सिरे से विचार करने पर मजबूर कर दिया। फिर विशेषज्ञ कमेटियां बनी। सर्वे हुए। तय पाया गया कि नैनीताल को जिंदा रखने की एक ही रामबाण दवा है - मजबूत और व्यवस्थित नालातंत्र। लिहाजा नैनीताल के नाला सिस्टम को और अधिक चुस्त-दुरुस्त करने की जरूरत महसूस की गई।

नैनीताल की पहाड़ियों, तालाब और नालातंत्र को व्यवस्थित और सुरक्षित रखने के लिए 6 सितंबर 1927 को 'हिल साइड सेफ्टी एवं झील विशेषज्ञ कमेटी' बनाई गई। कुमाऊं के कमिश्नर को अध्यक्ष और लोक निर्माण विभाग के अधिशाषी अभियंता को हिल साइड सेफ्टी एवं झील विशेषज्ञ कमेटी का पदेन सचिव नियुक्त किया गया। भू-गर्भ विज्ञान विभाग के भू-वैज्ञानिक समेत सिचाई, स्वास्थ्य समेत दूसरे महकमों के आला अफसरों को इस कमेटी का सदस्य बनाया गया।

नैनीताल के तालाब, पहाड़ियों और नालातंत्र के हिफाजत के लिए उपाय सुझाना और उन उपायों को जमीनी बनाने की जिम्मेदारी हिल साइड सेफ्टी एवं झील विशेषज्ञ कमेटी की थी। हिल साइड सेफ्टी एवं झील विशेषज्ञ कमेटी के सुझाव पर लोक निर्माण विभाग को वर्षा का वार्षिक औसत का रजिस्टर, तालाब के रख-रखाव और डिस्चार्ज का लेखा-जोखा, पहाड़ियों के सुरक्षा कार्यों का रिकार्ड और रजिस्टर और नगर के विभिन्न हिस्सों में बने आब्जर्वेशन पीलरों का रिकार्ड और पूरा ब्यौरा रखना होता था।

इंजीनियरों के लिए नालों, पहाड़ियों और आब्जर्वेशन पीलरों के मुआयने तय थे। मुआयने के बाद उन्हें तयशुदा फार्मों में अपनी रिपोर्ट देनी होती थी। जो कि हर साल बाकायदा छापी जाती थी। यह सब उनकी जिम्मेदारियों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था। इसके लिए उन्हें किसी आग्रह या आदेश की दरकार नहीं थी। अब हालत यह है कि अलग उत्तराखंड राज्य बनने के बाद से हिल साइड सेफ्टी एवं झील विशेषज्ञ कमेटी की बैठक नहीं हुई है। तालाब की हिफाजत की आड़ में करोड़ों रुपए की तमाम योजनाएं चल रहीं हैं। पर पिछले कई सालों से तालाब की सालाना नाप-जोख करने तक की जहमत नहीं उठाई गई है।

अनेक प्राकृतिक चुनौतियों का सामना करते हुए अंग्रेजों ने नैनीताल को एक ऐसा स्वास्थ्यप्रद और आदर्श हिल स्टेशन का दर्जा दिलाया, उस दौर में जिसकी तुलना अमेरिका के कुछ चुनिंदा विकसित नगरों से की जाती थी। यहां की नगरपालिका को 'लोकल गवर्मेन्ट' कहा जाता था। उसके पास नगर की व्यवस्थाओं के लिए एक आदर्श उपविधियां थीं।

1880 के भूस्खलन का दृश्यनगरपालिका अपनी उपविधियों और पालिका अधिनियम का पूरी ईमानदारी और निष्ठा के साथ पालन करते हुए नगरवासियों के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, पानी, बिजली, साफ-सफाई, सड़क, रास्तों, नालों, पार्क, खेल, मनोरंजन, सिनेमाघर और एक बेहतरीन पुस्तकालय समेत समाजिक जीवन के प्रत्येक छोटी-बड़ी जरूरतों का प्रबंधन करती थी। अब नगरपालिका का अपने बायलॉज के साथ मानो 'बैर' सा हो गया है। पालिका ने नगर के प्रति अपनी जिम्मेदारियों से हाथ खड़े कर लिए हैं।

1947 में भारत आजादी हो गया। करीब तीन दशक बाद तक आजाद भारत के जनप्रतिनिधियों और अफसरानों ने नगर की व्यवस्थाओं के प्रति संवेदनशीलता का परिचय दिया। 1970 के दशक में उत्तर प्रदेश में नगर निकायों को भंग कर दिया गया। नगर पालिकाएं प्रशासनिक नियंत्रण में चली गईं। करीब एक दशक तक नगर पालिका प्रशासनिक नियंत्रण में रही। इसी दौर में शिक्षा, पानी और बिजली जैसे महकमें पालिका के हाथ से निकल गए। पालिका की खुद के नियम-कायदों से दुश्मनी शुरू हो गई।

सियासी क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा बढ़ने लगी। दुर्भाग्य से नैनीताल के पेड़, पहाड़, नाले और तालाब को वोट देने का हक हासिल नहीं था। लिहाजा इनकी उपेक्षा होनी तय थी। सो हुई। सियासी वजहों के चलते सबसे पहले खुद सरकार बहादुर ने नगर के सबसे महत्वपूर्ण और संवेदनशील बड़े नाले (नाला न.26) के ऊपर लिंटर डालकर 'तिब्बती मार्केट' बनवा दी। फिर हिल साइड सेफ्टी एवं झील विशेषज्ञ कमेटी के ही इंजीनियरों ने अपने प्लाटों का रकबा बढ़ाने के लिए नालों का गला घोट कर उनकी चौड़ाई घटाने की जुर्रत की।

अनदेखी के चलते कई नालों का वजूद ही खत्म हो गया। जो बचे अतिक्रमण की भेंट चढ़ गए। हाल के वर्षों में तो नाले मानो अर्थहीन हो गए। नालों के पास एक ही काम बचा नगर के कूड़े-करकट और मिट्टी-मलबे को तालाब के उदर तक पहुंचना या बड़े नालों के जरिए जल संस्थान के पानी के मोटे सप्लाई पाइपों और छोटी नालियों काम है बरसाती पानी के बजाए जल संस्थान के सर्विस नलों के जाल को ढोना।

1986 में नैनीताल को 'बृहत्तर नैनीताल' बनाने के घोषित लक्ष्य के साथ बृहत्तर नैनीताल विकास प्राधिकरण (अब झील विकास प्राधिकरण) आ गया। प्राधिकरण ने रही-बची कसर पूरी कर दी।

नैनीताल में 1901 में मकानों की संख्या 520 थी। 1980-81 में 2243 मकान थे। 1990-91 में इनकी संख्या 2543 हो गई। 2001 तक मकानों की तादात 3950 हो गई। 2012 तक मकानों की संख्या 6800 का आंकड़ा पार कर गई। नैनीताल की बसावट 1842 से 1900 तक करीब साठ सालों के दौरान यहां कुल जमा 520 मकान बने। 1900 से 1990 तक नब्बे सालों में 2023 मकान बने। 1990 से 2001 तक 1417 और 2001 से 2012 तक सिर्फ बारह सालों के दौरान यहां 2950 बन गए। एक स्वतंत्र सर्वे के मुताबिक नैनीताल में मकानों की वास्तविक संख्या इससे कहीं ज्यादा है। पर नैनीताल की आधारभूत अधिसंरचनाओं में रत्ती भर की बढ़ोत्तरी नहीं हुई।

1901 में नैनीताल की आबादी 7609 थी। 2001 में 38559 हो गई। 2011 की जनगणना में यहां की आबादी में 41377 आंकी गई और 9329 परिवार बताए गए हैं। जाहिर है कि पिछले दो दशकों के दौरान नैनीताल की आबादी बढ़ी है। मकान, दुकान, होटल और गेस्ट हाउस बढ़े। पर्यटक बढ़े। कारोबार बढ़ा। आमदनी बढ़ी।

आमतौर पर ज्यादातर घरों में दोपहिया और चौपहिया वाहन हो गए। नगर का कोई भी मार्ग वाहनों की बेरोकटोक आवाजाही से निरापद नहीं रहा। दोपहिया और चौपहिया गाड़ियों की भरमार से पैदल चल पाना भी दूभर हो गया है। नगर के सभी सड़क-रास्ते सार्वजनिक पार्किंग में बदल गई हैं। नगर की सभी बाजारें, सड़क, रास्ते, फ्लैट्स, पार्क, सार्वजनिक स्थल और नाले गंदगी और अतिक्रमण की जबरदस्त चपेट में हैं। नगर की हरेक सड़क और गलियों में आवारा कुत्ते और दूसरे जानवरों ने अड्डा जमा लिया है। नगर का कोई भी इलाका वैध और अवैध निर्माण से अछूता नहीं है।

नैनीताल की भार-वहन क्षमता की किसी को परवाह नहीं है। नैनीताल के प्रति सियासी इच्छाशक्ति शून्य हो गई है। 'मन जाहिं राच्यों जी' के हालत पैदा हो गए हैं। नतीजन नैनीताल को रोजी-रोटी, पानी और पहचान देने वाले नैनी झील अपने वजूद के लिए संघर्ष कर रही है।

बेतरतीब बसाहटनैराश्य के इस घुप अंधेरे में अब लोगों की आशा भरी निगाहें नैनीताल की उस ऐतिहासिक और भव्य इमारत की ओर हैं, जहां एक दौर में नॉर्थ वेस्ट प्रॉविंसेज एंड अवध का गर्मियों के दिनों का सचिवालय था। तब नॉर्थ वेस्ट प्रॉविंसेज एंड अवध की गर्मियों की राजधानी के सचिवालय तौर पर इस भवन ने नैनीताल के विकास और संरक्षण में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी थी। सौभाग्य से आज उसी भवन में उत्तराखंड उच्च न्यायालय विद्यमान है। इसी हाईकोर्ट में नैनीताल के भविष्य को लेकर इन दिनों एक जनहित याचिका विचाराधीन है। अब लोगों को उम्मीद जगी है कि वो सुबह कभी तो आएगी।

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