विश्व जल दिवस 2022 : कुछ सोच, कुछ विचार

वाटर मैनेजमेंट - वक्त की आवश्यकता  
वाटर मैनेजमेंट - वक्त की आवश्यकता  

 

विश्व जल दिवस का थीम

इस साल के विश्व जल दिवस साल का बीज वाक्य है ‘अदृश्य भूजल को दृश्य बनाना’। नीति निर्माताओं, समाज और देश का ध्यान आकर्षित करने और विषय को गंभीरता से लेने के लिए यह बहुत ही उपयुक्त थीम है पर केवल भूजल ही नहीं अपितु सतही और भूजल प्रबंधन, पर चर्चा करना, आज की नहीं वरन सर्वकालिक और सार्वभौमिक आवश्यकता है। उसे समझना और उस पर लगातार काम करना वक्त की आवश्यकता है इसलिए इस शुभ अवसर पर, मैं, जल प्रबंधन पर अपनी बात साझा करूंगा।

मेरा मानना है कि जल प्रबन्ध की फिलासफी का अन्तिम लक्ष्य है जल स्वराज। जल स्वराज, हकीकत में पानी के प्रबन्ध की वह आदर्श व्यवस्था है जिसको हासिल करने का अर्थ है - पानी की इष्टतम मात्रा की सर्वकालिक एवं सार्वभौमिक उपलब्धता। जल प्रबंधन की मदद से हासिल जल स्वराज, हकीकत में पानी का ऐसा सुशासन है जो जीवधारियों की इष्टतम आवश्यकता के साथ साथ पानी चाहने वाले प्राकृतिक घटकों की पर्यावरणीय जरूरतों को बिना व्यवधान, पूरा करता है। स्वचालित एवं स्वनियंत्रित प्राकृतिक व्यवस्था की मदद से पानी को खराब होने से बचाता है। समुद्र के खारे पानी को शुद्ध करने के लिये वाष्पीकरण को मदद करता है। वर्षा की मदद से उसे पृथ्वी पर लौटाता है। जल स्रोतों को टिकाऊ बनाता है। वह संस्कृतियों का आधार है। उसमें संस्कार पलते हैं। वह पर्यावरण हितैषी है। वह ऊँच-नीच, गरीबी-अमीरी, जाति-धर्म और भेद-भाव इत्यादि से मुक्त है। वह, प्रकृति का वरदान है।

जल प्रबन्ध की फिलासफी का बीजवाक्य है कि पानी को धरती पर उतरने के बाद जीवधारियों की मूलभूत जरूरतों को पूरा करना चाहियेे। उसे समस्त प्राकृतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक जिम्मेदारियों को पूरा करने के बाद ही समुद्र में मिलना चाहिये। धरती पर यात्रा करते समय, किसी के हक की अनदेखी, अवहेलना या चोरी नहीं करना चाहियेे। उसे, लोगों को तोड़ना नहीं जोड़ना चाहिये। उसे युद्ध का कारण नहीं बनना चाहिये। सब जानते हैं, पानी का कुप्रबन्ध फिजा बदल देता है। उसकी लम्बी बेरुखी धरती को रेगिस्तान बना सकती है। मानव सभ्यताओं तथा जीव-जन्तुओं की बसाहटों को इतिहास बना सकती है।

जल प्रबंधन के दो प्रचलित मॉडल

भारत में जल प्रबंध के दो मॉडल प्रचलन में हैं। पहला मॉडल पाश्चात्य जल विज्ञान पर आधारित पानी का केन्द्रीकृत मॉडल है। इस मॉडल में कैचमेंट के पानी को जलाशय में जमा कर कमान्ड में वितरित किया जाता है। इस मॉडल में, जलाशय, जलसंचय का केन्द्र होता है। कैचमेंट पानी मुहैया कराने वाला इलाका तथा कमांड, पानी का उपयोग करने वाला हितग्राही होता है। इस मॉडल को अँगरेजों ने लागू किया था। आजाद भारत के खाद्यान्न संकट तथा अकालों ने उसे मुख्यधारा में पहुँचाया। इस मॉडल को भारत का जल संसाधन विभाग क्रियान्वित करता है। उसका नियंत्रण सरकारी अमले के हाथ में होता है। दूसरा मॉडल पानी के स्वस्थाने जल संग्रह का मॉडल है। इस मॉडल में जहां पानी बरसता है उसे वहीं संचित कर उपयोग में लाया जाता है। उपयोग के बाद बचे पानी को आगे जाने दिया जाता है।   

सन 1990 के दशक में जल क्षेत्र की कार्यप्रणाली में दो धुरविरोधी कार्यप्रणालियों (टाप-डाउन और बाटम-अप अवधारणा) का उदय हुआ। टाप-डाउन कार्यप्रणाली में सरकार और उसका अमला नियंत्रक होता है वहीं बाटम-अप कार्यप्रणाली में कामों की बागडोर समाज के हाथों में होती है। बाटम-अप कार्यप्रणाली में सरकार की भूमिका सहयोगी और विघ्नहर्ता की होती है। 1990 के दशक में दोनों कार्यप्रणालियों की मदद से काम सम्पन्न हुए पर टाप-डाउन कार्यप्रणाली के उलट बाटम-अप कार्यप्रणाली को अधिक सराहा गया। इस सराहना का दायरा छोटी तथा कम लागत की योजनाओं तक सीमित था। इसी दौर में जल संरक्षण की छोटी छोटी योजनाओं की प्लानिंग, क्रियान्वयन, संचालन और रखरखाव में समाज की भागीदारी की कोशिश हो रही थी। इस भागीदारी की मदद से प्राकृतिक संसाधनों को समृद्ध कर जल संकट और ग्रामीण आजीविका के संकट का हल खोजा जा रहा था। इसी दौर में देश के कुछ ग्रामों में समाज की सक्रिय भागीदारी के आधार पर क्रियान्वित मॉडलों ने आशा की किरण जगाई और जलग्रहण क्षेत्र विकास कार्यक्रम को पहचान मिली। सूखी खेती वाले इलाकों के अनेक ग्रामों में जल संकट के हल की सस्ती तथा समाज नियंत्रित इबारत लिखी जाने लगी। चूँकि स्थानीय स्तर पर जल संकट में कमी आ रही थी इसलिये उसे जल स्वराज का संकेतक कहा जा सकता था।  

1990 के दशक में बाटम-अप कार्यप्रणाली और छोटी संरचनाओं के समावेशी निर्माण के बावजूद टाप-डाउन कार्यप्रणाली अस्तित्व में थी। उसकी निरन्तरता पर कोई संकट नहीं था। यही वह दौर था जब भारत में वैश्वीकरण का युग प्रारंभ हुआ। अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं के सहयोग से बाँधों की वापसी हो रही थी। सन 1987 में अस्तित्व में आई पहली राष्ट्रीय जल नीति का झुकाव समाजवादी नीतियों से हटकर पूँजीवादी व्यवस्था की ओर हो रहा था। इसी अवधारणा के चलते बाँधों को आर्थिक विकास तथा गरीबी उन्मूलन का कारगर हथियार माना जा रहा था। इसी लक्ष्य को हासिल करने के लिये सरकारी नीतियाँ व्यवस्था को बदल रहीं थीं। विश्व बैंक सहित अनेक वित्तीय संस्थाओं ने भारत के जल क्षेत्र का कायाकल्प करना प्रारंभ कर दिया। बडी परियोजनाओं के सिंचाई प्रबंधन में कसावट लाने तथा उत्तरदायित्वों में किसानों का सहयोग लिया जाने लगा। सरकार ने अपनी जिम्मेदारी नियामक आयोगों को सौंपना प्रारंभ कर दिया था। बाजार ने पानी को अपने मोहपाश में लेने के लिये शब्दावली गढ़ ली थी। इस पूरी कसरत में जल स्वराज खो गया था। यह पब्लिक प्रायवेट पार्टनरशिप (पी़पीपी.) मॉडल का उषाकाल था।

जलप्रबंध का केन्द्रीकृत मॉडल और जल उपलब्धता

जल प्रबंध के केन्द्रीकृत मॉडल की मदद से भारत की नदियों में प्रवाहित में लगभग 1869 लाख क्यूबिक मीटर पानी में से अधिकतम 690 लाख हैक्टर मीटर पानी (लगभग 28 प्रतिशत) का ही उपयोग किया जा सकता है। इस गणना में भूजल के योगदान को सम्मिलित नही किया है। यदि इसमें नदी जोड़ परियोजना के माध्यम से मिलने वाले बृम्हपुत्रा नदी घाटी के अतिरिक्त पानी को भी जोड़ लिया जाए तो भी लगभग 1123 लाख क्यूबिक मीटर पानी को उपयोग में लाया जा सकता है। इसके बाद भी प्यासे कैचमेंटों और असिंचित खेतों की समस्या का हल नहीं निकलेगा। यह मॉडल भूजल की अनदेखी कर केवल सतही जल को संज्ञान में लेता है। उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि केन्द्रीकृत मॉडल की मदद से केवल कमाण्ड को ही सरसब्ज बनाया जा सकता है। कमाण्ड के बाहर के इलाकों में पानी पहुँचाना कठिन है। अर्थात केन्द्रीकृत मॉडल द्वारा देश के हर अंचल में पानी पहुँचाना और आवश्यकताओं को पूरा करना संभव नहीं है। अर्थात केन्द्रीकृत जल प्रबन्ध मॉडल की उपयोगिता सीमित है। उसके लाभ भारत की पूरी धरती तथा देश की पूरी आबादी को नहीं मिल सकते। वह जल स्वराज का पर्याय नहीं है। वह सबको नहीं केवल कमांड में रहने वाले लोगों को उपकृत करता है। 

जलप्रबंध का विकेन्द्रीकृत मॉडल और जल उपलब्धता

जल प्रबंध के विकेन्द्रीकृत मॉडल के लिए लगभग 2259 लाख हैक्टर मीटर पानी उपलब्ध है। इसमें भूजल का हिस्सा (390 लाख हैक्टर मीटर) सम्मिलित है। यह मात्रा केन्द्रीकृत मॉडल की मात्रा की तुलना में लगभग दो गुनी अधिक है। दो गुनी अधिक उपलब्धता के कारण, पानी की इष्टतम मात्रा को देश के हर हिस्से में उपलब्ध कराया जा सकता है। अर्थात विकेन्द्रीकृत मॉडल का लाभ भारत की पूरी धरती तथा पूरी आबादी को मिलना संभव है क्योंकि यह मॉडल भूजल को भी संज्ञान में लेता है। आधा-अधूरा नहीं है। इस क्रम में कहा जा सकता कि विकेन्द्रीकृत मॉडल की मदद से हर बसाहट में जल कष्ट को समाप्त और समाज की अनिवार्य जरुरतों को पूरा करने के बाद बचे पानी को नदियों की कुदरती जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिए छोडा जा सकता है। इसके अलावा, विकेन्द्रीकृत मॉडल में उपयोग में लाई इंजीनियरिंग सरल होती है। विकेन्द्रीकृत मॉडल को अपना कर जलप्रबन्ध को मानवीय चेहरा प्रदान किया जा सकता है।

जल प्रबंध के विकेन्द्रीकृत मॉडल को लागू करने के लिए संविधान और राष्ट्रीय जलनीति 2012 में कतिपय परिवर्तन करने होंगे। पानी को समाज की धरोहर और पानी के आवंटंन में समाज की जीवनरक्षक आवश्यकताओं को पहला स्थान देना होगा। उसके बाद नदियों में पर्यावरणी प्रवाह को सुनिश्चित करना होगा। उपर्युक्त आवश्यकताओं की पूर्ति के बाद बचे पानी के उपयोग के लिये राष्ट्रीय जलनीति 2002 में उल्लेखित प्राथमिकता का क्रम अपनाया जाना चाहिये।

देश में जल विपन्न इलाकों की हमेशा हमेशा के लिये समाप्ति ही जल प्रबंध की समावेशी मंजिल है जो मौजूदा व्यवस्था, समाज तथा योजना बनाने वालों के बीच के सोच के अन्तर को समाप्त कर पानी की इष्टतम उपलब्धता सुनिश्चित करती है। जलप्रबंध की अंतिम मंजिल जल स्वराज है। वही सही जल प्रबंध है। वही जल जनित मानवीय विफलताओं को सफलता में बदलने का जरिया, समाज की अपेक्षाओं के अनुरूप रणनीति विकसित करने एवं तदनुरूप योजनाएँ जमीन पर उतारने का सशक्त जरिया है। अंग्रेजों के भारत पर कब्जा करने के पहले जल प्रबन्ध के इसी विकेन्द्रीकृत देशज मॉडल ने भारत में जल स्वराज की इबारत लिखी थी। वही इबारत, आज भी समाज, धरती की सहमति, भारतीय जलवायु और भूगोल से तालमेल तथा सहयोग से लिखी जा सकती है।

​विश्व जल दिवस की थीम

  • 2022: भूजल: अदृश्य को दृश्यमान बनाना
  • 2021: “वेल्यूइंग वाटर”
  • 2020: जल और जलवायु परिवर्तन
  • 2019: किसी को पीछे नही छोड़ना (लीवींग नो वन बीहांइड)।
  • 2018: जल के लिए प्रकृति के आधार पर समाधान।
  • 2017: अपशिष्ट जल।
  • 2016: जल और नौकरियाँ।
  • 2015: जल और दीर्घकालिक विकास।
  • 2014: जल और ऊर्जा।
  • 2013: जल सहयोग।
  • 2012: जल और खाद्य सुरक्षा।
  • 2011: शहर के लिये जल: शहरी चुनौती के लिये प्रतिक्रिया।
  • 2010: स्वस्थ विश्व के लिये स्वच्छ जल।
  • 2009: जल के पार।
  • 2008: स्वच्छता।
  • 2007: जल दुर्लभता के साथ मुंडेर।
  • 2006: जल और संस्कृति।
  • 2005: 2005-2015 जीवन के लिये पानी।
  • 2004: जल और आपदा।
  • 2003: भविष्य के लिये जल।
  • 2002: विकास के लिये जल।
  • 2001: स्वास्थ के लिये जल।
  • 2000: 21वीं सदी के लिये पानी।
  • 1999: हर कोई प्रवाह की ओर जी रहा है।
  • 1998: भूमी जल- अदृश्य संसाधन।
  • 1997: विश्व का जल: क्या पर्याप्त है।
  • 1996: प्यासे शहर के लिये पानी।
  • 1995: महिला और जल।
  • 1994: हमारे जल संसाधनों का ध्यान रखना हर एक का कार्य है।
  • 1993: शहर के लिये जल।
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