ये तो गंगा के व्यापारी निकले

26 Jun 2016
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उन्होंने कहा- “मैं आया नहीं हूँ, माँ गंगा ने बुलाया है।’’ लोगों ने समझा कि वह गंगा की सेवा करेंगे। बनारसी बाबू लोगों ने उन्हें बनारस का घाट दे दिया; शेष ने देश का राज-पाट दे दिया। उन्होंने ‘नमामि गंगे’ कहा; जल मंत्रालय के साथ ‘गंगा पुनर्जीवन’ शब्द जोड़ा; एक गेरुआ वस्त्र धारिणी को गंगा की मंत्री बनाया। पाँच साल के लिये 20 हजार करोड़ रुपए का बजट तय किया। अनिवासी भारतीयों से आह्वान किया। नमामि गंगे कोष बनाया। राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन की स्थापना की।

राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण का पुनर्गठन किया। बनारस के अस्सी घाट पर उन्होंने स्वयं श्रमदान किया। गंगा ने समझा कि यह उसके प्रति भारतीय संस्कृति की पोषक पार्टी के प्रतिनिधि और देश के प्रधानमंत्री की आस्था है। वह अभिभूत हो गई कि चलो अब उसके भी अच्छे दिन आएँगे; उसके भी गले में लगे फाँसी के फंदे हटेंगे; उसे उसका नैसर्गिक प्रवाह हासिल होगा; खुलकर बहने की आजादी मिलेगी; मल से मलीन होने से जान छूटेगी।

 

पहला झटका : नदी विकास


जल मंत्रालय के साथ ‘नदी विकास’ शब्द भी जोड़ा गया। नदी विशेषज्ञों को पहला झटका लगा। भला कहीं कोई नदी का भी विकास कर सकता है? किन्तु माँ गंगा ने इसे भी एक सन्तान का अति उत्साह ही माना। लेकिन शीघ्र ही इस नदी विकास की पोल खुलने लगी।

‘जल मंथन’ और ‘गंगा मंथन’ कार्यक्रमों में नदी जोड़ परियोजना को तेज करने और इस पर राज्यों की सहमति बनाने की कोशिश ज्यादा हुई, गंगा की अविरलता-निर्मलता पर कम। गंगा अफसोस करने लगी। उसे अब समझ में आया कि नदी विकास का मतलब, तथाकथित विकास के लिये नदी का ह्रास होता है। जिसे गंगा सेवक समझा था, वह तो गंगा का व्यापारी निकला। एक बार फिर छले जाने से माँ गंगा दुखी है।

घटना चक्र देखिए, पिछले डेढ़ दशक के सक्रिय गंगा आन्दोलनों, सामने आये अध्ययनों और जाँच समितियों की रिपोर्ट ने यह स्पष्ट कर दिया है कि अविरलता सुनिश्चित किये बगैर गंगा की निर्मलता सुनिश्चित करना सम्भव नहीं है। इसी बिना पर मैंने यह बात बार-बार दोहराई है कि गंगा निर्मलता को धन से ज्यादा धुन की जरूरत है; अविरलता सुनिश्चित करने की धुन। किन्तु क्या ‘नमामि गंगे’ के कर्णधारों ने यह धुन सुनी। नहीं, उन्होंने गंगा के नाम पर बजट बढ़ाने और व्यवसाय बनाने की चिन्ता की।

 

दूसरा झटका : दिखावटी काम, बेबस गंगा मंत्री


उन्होंने गंगा मंत्री उमा भारती जी को शोध, अध्ययन, जन-जागरुकता, गंगा किनारे औषधि विकास, गंगा ग्राम विकास, ई निगरानी विकास, घाट विकास, मल शोधन संयंत्र विकास, गंगा कार्यबल विकास और गंगा किनारे के गाँवों में शौचालय विकास का झुनझुना थमा दिया। बजाती रहिए; लोगों को भरमाती रहिए। ‘नमामि गंगे’ के पीछे छिपे असल व्यापारिक एजेंडे की पूर्ति के लिये परिवहन, पर्यावरण और ऊर्जा मंत्रियों को लगा दिया। गंगा की मूल धाराओं पर बाँध परियोजनाओं को लेकर उमा भारती जी ने पर्यावरण मंत्री को एक चिट्ठी भेजकर रस्म अदायगी भी कर दी कि देखो मैंने तो अपना विरोध दर्ज करा दिया था। अब वे नहीं सुनते, तो मैं क्या करुँ?

कभी वह कहती हैं कि गंगा के लिये कानून बनाने के लिये राज्यों से बात करेंगी। कभी कहती हैं कि सुनिश्चित करेंगी कि अवजल चाहे शोधित हो, चाहे अशोधित वह नदियों में नहीं जाये। किन्तु उनकी बात बयानों से आगे बढ़ नहीं रही। उमा भारती जी की बेबसी देखिए कि उनके मंत्रालय के ‘राष्ट्रीय भूजल प्रबन्धन बेहतरी कार्यक्रम’ का प्रारूप भी विश्व बैंक बना रहा है। शायद यह बेबसी ही है, जो उनके दिल पर बैठ गई है। ईश्वर, उमाजी को स्वस्थ रखे।

 

तीसरा झटका : अविरलता पर चुप्पी


गौर कीजिए कि उत्तराखण्ड में गंगा की अविरलता बाधित करने के लिये एक नहीं, 60 परियोजनाएँ हैं। याद कीजिए, मनमोहन सरकार में उत्तराखण्ड में बाँधों को लेकर कितनी तकरार हुई थी; कितने अनशन, कितने आन्दोलन। स्वयं केन्द्र की पहल पर गठित रवि चोपड़ा कमेटी रिपोर्ट ने यह माना भी था कि 2013 में हुई उत्तराखण्ड त्रासदी और उसके दुष्प्रभावों को बढ़ाने में जलविद्युत परियोजनाओं के तहत बने बाँधों और सुरंगों की नकारात्मक भूमिका थी।

मोदी सरकार ने तय किया कि बाँधों को लेकर चर्चा करना ही बन्द कर दो। ‘नमामि गंगे’ के बीते दो सालों में बाँधों को लेकर चुप्पी ऐसी छाई जैसे चर्चा करने वालों को भी बता दिया गया कि वे भी चर्चा न करें। आखिर कोई तो वजह होगी कि बाँधों को लेकर सक्रिय रही गंगा महासभा, उत्तराखण्ड नदी बचाओ, स्वामी सानंद, जलपुरुष राजेन्द्र सिंह, ज्योतिष्पीठ के शंकराचार्य... सभी ने चर्चा बन्द कर दी है। खैर, आगे देखिए।

 

चौथा झटका : मंजूरी मंत्री में तब्दील हुए पर्यावरण मंत्री


पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवहन मंत्री को काम दिया कि पर्यावरण का चाहे जो हो, परियोजनाओं को पर्यावरण मंजूरी देने में देर न होने पाये। प्रकाश जावड़ेकर जी ने यही किया भी। जैसे वह पर्यावरण संरक्षण मंत्री ने होकर पर्यावरण मंजूरी मंत्री हों।

गौर कीजिए पर्यावरण को नुकसान पहुँचाए बगैर विकास जारी रखने के लिये दुनिया के 170 देशों ने 1992 के रियो पृथ्वी सम्मेलन में एक औजार पेश किया था - “प्रत्येक परियोजना के पर्यावरण प्रभाव का आकलन जरूरी हो।’’ भारत ने भी इसे स्वीकारा। अब भारत सरकार का पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय वर्ष 2006 की पर्यावरण प्रभाव आकलन अधिसूचना के दस्तावेज में बदलाव करने जा रहा है।

मंत्रालय द्वारा हाल ही में जारी बदलाव के प्रारूप में पर्यावरण प्रभाव आकलन अधिसूचना का उल्लंघन करने वाली परियोजनाओं को छूट दी जा रही है कि पर्यावरण अनुपूरक योजना के साथ काम जारी रख सकेंगी। सेंटर फाॅर पाॅलिसी रिसर्च की अध्ययनकर्ताओं ने इसे पर्यावरण प्रभाव आकलन अधिसूचना की हत्या करने की ओर उठा कदम करार दिया है।

 

पाँचवाँ झटका : गंगा से ऊर्जा और पर्यटन


भारत सरकार के बिजली मंत्री पीयूष गोयल ने हाल ही में कहा है कि जल विद्युत परियोजनाओं को गति देने के लिये वह जल ऊर्जा नीति लाएँगे। पर्यटन मंत्री डाॅ. महेश शर्मा जी बनारस में ई नौका पर्यटन का खेल सजाएँगे।

 

छठा झटका : गंगा जलमार्ग परियोजना


परिवहन मंत्री नितीन गडकरी जी को गंगा से व्यापार का जिम्मा दिया गया है। वह गंगाजल मार्ग परियोजना ले आये। यहाँ भी विश्व बैंक! हर सौ किलोमीटर पर एक बैराज की घोषणा कर डाली। जहाजों को चलाने के लिये 45 मीटर की चौड़ाई में गंगा को गहरी करने का भी दावा ठोक दिया। मामला अदालती हुआ, तो बैराज नहीं बनाने का हलफनामा दे दिया।

सोचिए, क्या गंगा जलमार्ग परियोजना से गंगा को कुछ लाभ होगा? क्या इससे गंगा अविरल या निर्मल होगी?

नहीं, व्यापारियों को लाभ होगा। सउदी के लोग टापू बनाने के लिये भारतीय महासागर की रेत निकाल ले गये। ये जानते हैं कि गंगा की रेत अनोखी है; अनमोल! ये गंगा की बेशकीमती रेत बेचकर नोट बनाएँगे। जलपोत चलाकर बेरोक-टोक माल ले जाएँगे। उससे गंगा प्रदूषित होगी, तो हो। गहरीकरण करने से गंगा का पानी कम चौड़ाई में सिमटेगा। गंगा के पाट की चौड़ाई घटेगी। जो जमीन सूखी बचेगी, ये ‘रिवर फ्रंट डेवल्पमेंट’ के नाम पर उसे बेच देंगे। ऐसा करके ये पहले बिना सरकारी धन के नदी विकास करने को लेकर अपनी पीठ ठोकेंगे; फिर खरीददारों को मुनाफा कमवाएँगे। अमेरिका यूँ ही गंगा विकास में रुचि नहीं दिखा रहा है। साबरमती में यही हुआ है। उत्तर प्रदेश की गोमती और हिण्डन जैसी दो बड़ी नदियों में यही होने जा रहा है।

गौर कीजिए कि भागलपुर के कहलगाँव में गंगा के गहरीकरण का काम शुरू हो गया है। इस गहरीकरण ने मानव आहुति लेनी भी शुरू कर दी है। गहराई का अन्दाजा न मिल पाने के कारण पिछले छह महीने में वहाँ के बरारी घाट पर 20 से अधिक मौतें हुई हैं।

ऊपर गंगा बाँध दी, नीचे लहरें बेचने जा रहे हैं। क्या गंगा बख्शेगी? याद कीजिए, दक्षिणी चीन के हुआन में क्या हुआ? एक बाँध पानी नहीं रोक पाया। दो लाख बेघर हो गए।

 

सातवाँ झटका : गंगाजल बिक्री को बढ़ावा


अमेजन, आॅनलाइन खरीददारी की अग्रणी कम्पनी है। वह 299 रुपए में एक लीटर गंगाजल बेच रही है। दूरसंचार मंत्री रविशंकर प्रसाद जी ने डाक से घर-घर गंगाजल पहुँचाने की घोषणा कर दी है। उन्होंने भी गंगाजल बेचकर कमाने वालों की राह आसान करने की योजना बना ली है।

अब बताइए कि इस पूरे कार्यक्रम में गंगा की अविरलता और निर्मलता कहाँ है? यह तो नमामि गंगे की बजाय गंगा बिक्री का कार्यक्रम है।

 

आठवाँ झटका : अमेरिकी संसद में तालियों के निहितार्थ


अमेरिकी संसद में भारतीय प्रधानमंत्री के भाषण पर तालियों की गड़गड़ाहट का निहितार्थ अब पता चला है कि अमेरिका अब गंगा स्वच्छता की योजना भी बनाएगा और पैसा भी लगाएगा। अब पता चला है कि उत्तर प्रदेश चुनाव के लिये एजेंडा तय करने के लिये गंगा संगम पर हुई भाजपा राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में ‘नमामि गंगे’ को चुनावी लाभ की उपलब्धि को जनता तक ले जाना तो दूर, चर्चा करना भी क्यों मुनासिब नहीं समझा गया। अब समझ में आया कि उमा भारती जी ने प्रस्तावित उत्तर प्रदेश चुनाव के वर्ष के पश्चात के वर्ष 2018 तक गंगा सफाई सम्बन्धी बयान क्यों दिया।

 

नौवाँ झटका : स्वच्छता यानी सिर्फ शौचालय


अब समझ में आया कि स्वच्छता के नाम पर सबसे ज्यादा जोर शौचालय पर ही क्यों हैं। भारत में शौचालय बनाने के काम को लेकर आयोजन विदेशों में क्यों हो रहे हैं; देश के भीतर दबाव बनाने के लिये अधिकारी नैतिक-अनैतिक सब तरीके क्यों अपना रहे हैं। आखिरकार गाँव-गाँव बन्द कमरे के शौच से भी तो आगे बड़ा धंधा है भाई। टंकी, मोटर, सेनेटरी सामान, बिजली आपूर्ति, जलापूर्ति, पानी का बिल; सबसे बड़ा धंधा तो तब होगा, जब ग्रामीण शौचालय का मल सम्भालना मुश्किल हो जाएगा। घर-घर शौचालय के चलते भूजल प्रदूषित होगा। गाँव-गाँव तालाब और नदियाँ मल ढोने लगेंगी। उपाय के तौर पर पानी साफ करने वाली मशीनें जाएँगी। सीवेज पाइप पहुँचेगी। मल शोधन संयंत्र लगाने जरूरी हो जाएँगे। पानी का बिल और सीवेज का चार्ज तो अपने आप पहुँच जाएँगे।

 

दसवाँ झटका : वित्त मंत्री की अध्यक्षता में गंगा सफाई समिति


मेरे ख्याल से अब तक हमें यह भी समझ में आ जाना चाहिए कि गंगा सफाई और स्वच्छ भारत को लेकर वित्त मंत्री अरुण जेटली की अध्यक्षता में समिति क्यों बनाई गई है; क्योंकि उनके लिये गंगा व स्वच्छता पूर्णरूपेण एक वित्तीय एजेंडा है, पर्यावरणीय नहीं।

 

ग्यारहवाँ झटका : सांस्कृतिक बोल, वित्तीय खेल


क्या न्यायसंगत बात है कि अपने यहाँ पर्यावरण विरोधी विकास माॅडल अपनाने और परिणामस्वरूप हर माह कोई-न-कोई तबाही झेलने वाला चीन अब महाराष्ट्र का सूखा निपटाएगा और भारत को प्रदूषण मुक्ति की तकनीक बताएगा! क्या यह पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधनों के क्षेत्र में अघोषित प्रत्यक्ष विदेशी निवेश नीति है? गंगा मीटिंग में मोंटेक सिंह अहलुवालिया तो कहते ही रह गए ‘सीवेज इज ब्लैक गोल्ड, सीवेज इज ब्लैक गोल्ड’; ये मल और गंगाजल के उनसे भी तेज व्यापारी निकले। बातें नमामि संस्कृति की और निगाहें एफडीआई पर!

 

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