यमुना के बंधन

31 Oct 2013
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लखवार बांध परियोजना ब्यासी बांध परियोजना से जुड़ी है जिसमें 86 मीटर ऊंचा बांध होगा और 2.7 कि.मी लम्बा सुरंग के द्वारा भूमिगत विद्युतगृह में 120 मेगावाट बिजली पैदा करने की बात कही गई है। इसमें कट्टा पत्थर के पास 86 मीटर उंचा बैराज भी बनाया जाएगा। ब्यासी परियोजना भी एक के बाद एक दूसरी बांध कंपनियों के हाथ में दी गई है किंतु अभी तक उसका भी कोई निश्चित नहीं हुई है। अब योजना आयोग लखवार बांध को वित्तीय निवेश की अनुमति देने के लिए विचार कर रहा है। ‘‘जितनी गंगा की उतनी ही यमुना की बर्बादी हो” इस लक्ष्य में सरकारें लगातार आगे बढ़ रही है। दिल्ली में यमुना के नाले में तब्दील करने के बाद गंगा पर टिहरी बांध से हर क्षण 300 क्यूसेक पानी का दोहन और यमुना की ऊपरी स्वच्छ धारा को भी समाप्त करके वहीं से यमुना को नहरों, पाइपलाइनों में डालकर दिल्ली की गैर जरूरतों को पानी दिया जाए इसकी कवायद चालू है। दूसरी तरफ कोका कोला कम्पनी जिसने लोगों में प्यास जगाने का ठेका लिया है उसे भी उत्तराखंड सरकार ने न्यौता दे दिया। वो भी वहीं अपनी यूनिट चालू करेगी। राज्य सचिव का कहना है कि कम्पनी भूगर्भीय जल का दोहन करेगी। उद्योग मंत्रालय के प्रमुख सचिव ने आश्वासन दिया है कि कोका कोला को पानी की कमी नहीं होने दी जाएगी। चाहे हमे यमुना बैराज की जगह पास की दूसरी नहरों से पानी लाना पड़े। किंतु इस विषय में कोई विवाद नहीं होने दिया जाएगा। सचिव जी कोका कोला कंपनी की इस उदारता पर बड़े ही नम्र है कि कंपनी ने भूमि लागत में 25 प्रतिशत छूट लेने से इंकार कर दिया। उत्तराखंड का उद्योग मंत्रालय मुख्यमंत्री श्री विजय बहुगुणा के पास ही है। जो बांधों के भी बड़े हिमायती हैं।

सरकार को यह समझ कौन दे कि पानी नदी से लो या उसके आसपास से लो कुल मिलाकर यमुना में पानी घटेगा ही। ऊपरी यमुना घाटी में छः कार्यरत, एक निर्माणाधीन और उन्नीस जलविद्युत परियोजनाएं प्रस्तावित हैं। यमुना घाटी का भविष्य भी बंधनकारी है।

बांधों को लेकर भी सरकारें अपने ही बनाए नियम-कायदे-कानूनों की अनदेखी करके आगे बढ़ रही है। योजना आयोग केवल आकड़ों में खेलता है। यमुना को इससे अलग नहीं रखा है। यमुना पर प्रस्तावित लखवार बांध परियोजना ताजा उदाहरण है। इस प्रस्तावित परियोजना में यमुना नदी पर 204 मीटर ऊंचा बांध जिसमें 580 मिलियन क्यूबिक मीटर जल धारण क्षमता होगी। जिसमें 50 गाँवों की 1385.5 हेक्टेयर भूमि डूबेगी और 868.08 हेक्टेयर वन भूमि का इस्तेमाल होगा। ये परियोजना यमुनोत्री से मात्र 130 कि. मी. नीचे है और राज्य की राजधानी देहरादून के बहुत निकट। यह उत्तराखंड के उसी गढ़वाल क्षेत्र में आता है जहां टिहरी बांध से विस्थापित आज भी सुप्रीम कोर्ट में पुनर्वास की लड़ाई लड़ रहे हैं और कई मायनों में वहां भी उन्हें पूरा न्याय नहीं मिल पा रहा है। पूरी भागीरथीगंगा के पर्यावरणीय स्वास्थ को पर्यावरण एवं वन मंत्रालय या भागीरथी नदी घाटी विकास प्राधिकरण भी सहजने में असफल रहा है।

टिहरी बांध की समस्याओं पर हर राजनीतिक दल ने सरकारों ने बार-बार यह घोषणा कि है कि वो अब टिहरी जैसा बड़ा बांध नहीं बनायेंगे और ऐसा कहते हुए गंगा घाटी में लगभग 60 बांधों की श्रृंखला चालू है। इन बांधों को रन द रिवर कह कर आगे बढ़ाया जा रहा है। हर बार हर बांध के लिए अलग-अलग तर्क देने का प्रचलन खूब है। यदि आपस में देखा जाए तो यह तर्क एक दूसरे को काटते हुए नजर आएंगे।

लखवार बांध परियोजना ब्यासी बांध परियोजना से जुड़ी है जिसमें 86 मीटर ऊंचा बांध होगा और 2.7 कि.मी लम्बा सुरंग के द्वारा भूमिगत विद्युतगृह में 120 मेगावाट बिजली पैदा करने की बात कही गई है। इसमें कट्टा पत्थर के पास 86 मीटर उंचा बैराज भी बनाया जाएगा। ब्यासी परियोजना भी एक के बाद एक दूसरी बांध कंपनियों के हाथ में दी गई है किंतु अभी तक उसका भी कोई निश्चित नहीं हुई है। अब योजना आयोग लखवार बांध को वित्तीय निवेश की अनुमति देने के लिए विचार कर रहा है। देखा जाए तो इसमें कानूनों के उल्लंघनों और आवश्यक मानकों को न पूरा करने की लंबी फेहरिस्त है किंतु इस सब से आँख मूंदे आगे बढ़ने की कोशिशें जारी हैं। इस परियोजना में आधारभूत पर्यावरण और सामाजिक असरों का आकलन नहीं हुआ है और ना ही इसमें कोई कानूनी पर्यावरणीय और वनस्वीकृति हो पाई है। कोई भी गुणात्मक अध्ययन कार्यरत प्रस्तावित और निर्माणाधीन परियोजनाओं का नहीं हुआ है, ना ही गंभीरता से इसके विकल्पों पर कोई अध्ययन हो पाया है। बांध टूटने के खतरों को जानबूझकर बहुत ही कम आंका गया है ध्यान देने योग्य बात है कि जिस दिल्ली को पानी देने के लिए बांध बनाने का तर्क है वह दिल्ली भी इसके खतरे में है। यमुना के धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व पूरी तरह से खतरे में आ गये हैं चूंकि यमुना का जो भी हिस्सा पहाड़ में सुरक्षित बह रहा था वो इसके बाद समाप्त हो जाएगा।

यमुना को बांधने की तैयारीइस परियोजना में यमुना के ऊपरी घाटी से जुड़े राज्यों में आपस में परियोजना को लेकर कोई भी लाभ लागत के बँटवारे का समझौता नहीं हुआ है जो कि किसी भी परियोजना को वित्तीय स्वीकृति लेने से पहले की आवश्यक शर्त है। इस बात पर कोई दो राय नहीं है कि यमुना नदी देश की अत्यंत संकटग्रस्त नदियों में से एक है और यह परियोजना उसके लिए अभिशाप सिद्ध होने वाली है। कुछ वर्षों से यमुना नदी के किनारे रहने वाले शहरों से खासकर इलाहाबाद से वृंदावन यह समझ विकसित हुई है कि दिल्ली ने यमुना को समाप्त कर दिया है और वे मार्च 2013 में हजारों की संख्या में लोगों ने पैदल दिल्ली पहुँचकर इस बात का नारा भी बुलंद किया था। यमुना के लिए एक प्राधिकरण बनाने के लिए भी लोगों की मांग है ऐसे में इस बांध की स्वीकृति जन्म से पहले ही उस प्राधिकरण की निरर्थकता को भी सिद्ध करती है। संड्रैप, यमुना जिए अभियान, माटू जनसंगठन आदि देश के अनेक संगठनों ने सरकार को ये सब तथ्य लिखकर भेजे पर इन पर ध्यान देना उनका काम नहीं शायद।

ब्यासी बांध की जनसुनवाई जून 2007 में हुई थी जिसमें स्थानीय लोगों के साथ माटू जनसंगठन ने कुछ तकनीकी मुद्दे भी उठाए थे जिन पर अभी कोई विचार नहीं हुआ है। ब्यासी परियोजना में लोगों की जमीनें बहुत पहले से अधिगृहित की जा चुकी है और वे लोग बांध होगा या न होगा के झूले में झूल रहे हैं। इसलिए उनकी रूचि अब मात्र मुआवजा बढ़वाने में ही है, किंतु यह एक हारी हुई बाजी का खेल नजर आता है। अपनी 43वीं बैठक में पर्यावरण आकलन समिति ने जिन मुद्दों को लखवार बांध के संदर्भ में उठाया था जो कि बहुत ही आधारभूत प्रकृति के थे जिनका अभी तक कोई निदान नहीं किया गया है।

जून आपदा 2013 के समय स्वयं लखवार गांव के कई मकान धसके हैं। यमुना का जिस तरह से उफान था वो अपने में साफ था कि आप उसे बांधने की कोशिश मत करें।

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