योजना में पर्यावरण की कीमत

31 May 2011
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जिन परियोजनाओं का जनता जी-जान से विरोध करती है, पुलिस और न्याय तंत्र का दमन सहती है, वे सरकार को देश के विकास के लिए इतनी अनिवार्य लगती हैं कि उन पर पुनर्विचार के लिए भी तैयार नहीं होती। अगर लोकतंत्र के बुनियादी संकल्प के मुताबिक सरकार जनता की इच्छाओं के अनुसार चलती है तो वह उसकी इच्छाओं का उल्लंघन कैसे कर सकती है!

आजकल बारहवीं पंचवर्षीय योजना का मसौदा तैयार किया जा रहा है। अब तक की परंपरा यह रही है कि सबसे पहले योजना आयोग विकास के लक्ष्यों और उन्हें पूरा करने में आने वाली चुनौतियों और संसाधनों की जरूरतों को लेकर एक आधारभूत पर्चा तैयार करता है। इसके बाद विभिन्न मंत्रालयों और विभागों से राय-मशविरा करके एक सहमति पर पहुंचा जाता है। आधार पत्र को कैबिनेट की मंजूरी मिलने के बाद उसे आखिरी दौर के अनुमोदन और क्रियान्वयन के लिए राष्ट्रीय विकास परिषद के समक्ष पेश किया जाता है। लेकिन इस बार आधार पत्र के प्रारूप में थोड़ा बदलाव किया गया है। योजना आयोग ने इस बार आम नागरिकों और सामाजिक संगठनों की राय जानने के लिए अपनी वेबसाइट पर सुझाव आमंत्रित किए हैं। लोकतंत्र को समावेशी उपायों से चुस्त बनाने की इस मंशा के साथ सरकार यह साबित करने की कोशिश कर रही है कि वह कोई भी योजना जनता पर थोपने के बजाय उसकी सहमति से काम करना चाहती है।

लेकिन पिछले महीने योजना आयोग की बैठक के बाद प्रधानमंत्री ने जो वक्तव्य दिया उससे रायशुमारी का यह कदम सरकार की अपनी मजबूरियों से तय होने वाला कदम ज्यादा लगता है। बैठक की परिचर्चा का समाहार प्रस्तुत करने के अंदाज में उन्होंने केवल यह कहा कि आयोग में इस बात को लेकर आम सहमति बनी है कि नीतिगत और प्रशासनिक सुधारों पर विशेष जोर दिया जाए और वृद्धि दर नौ फीसद से साढ़े नौ फीसद के बीच रखने का प्रयास किया जाए। इस संक्षिप्त टिप्पणी से यह जाहिर हो जाता है कि बारहवीं पंचवर्षीय योजना पिछले दो दशक से चलती आ रही योजनाओं से बहुत अलग नहीं होगी। उसका बस शीर्षक अलग होगा और थोड़ा-बहुत बाहरी शृंगार भिन्न ढंग से किया जाएगा।

सरकार अपना मुख्य काम तो वृद्धि दर को बढ़ाना ही मानती है। बाकी उसे यकीन है कि नीति और व्यवहार के अंतर्विरोधों को रोजमर्रा के राजनीतिक प्रबंधन से साध लिया जाएगा। अगर ध्यान दें तो वृद्धि दर की तानाशाही को जारी रखने की जिद, मजबूरी या न्यस्त स्वार्थों के बावजूद खुद को यदा-कदा जन-पक्षधर दिखाते रहने की इस फांक को सरकार के एक प्रखर मंत्री जयराम रमेश की उभयपक्षी राजनीति से समझा जा सकता है। गौरतलब है कि पर्यावरण और वन मंत्री जयराम रमेश अपने अब तक के कार्यकाल में सरकार के तमाम मंत्रियों की तुलना में ज्यादा सक्रिय और अपनी जिम्मेदारी के हिसाब से सबसे ज्यादा प्रतिबद्ध दिखाई देते हैं। अगर उनके साक्षात्कारों, वक्तव्यों और भाषणों को एक जगह रख कर पूरा चित्र बनाने की कोशिश करें तो लगता है कि जैसे सरकार ने चिंता जाहिर करने का एक विभाग ही खोल दिया है।

एक सजग नागरिक के रूप में जयराम रमेश प्राकृतिक संसाधनों को बचाना चाहते हैं, लेकिन मंत्री के तौर पर योजना आयोग यानी सरकार के वृद्धि-दर सूत्र पर बुनियादी बहस नहीं करना चाहते। उदाहरण के लिए, पर्यावरण सुरक्षा और संरक्षण को लेकर उनकी राय बहुत साफ है। उनका मानना है कि विकास और पर्यावरण संरक्षण के बीच एक लक्ष्मण रेखा का होना जरूरी है, क्योंकि अगर विकास के तर्क को एक सीमा के बाद छूट दी जाती है तो इसका मतलब पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधनों का हनन होगा। यानी इन दोनों के बीच कहीं एक कीमत है जो चुकाई जानी है। अनियंत्रित विकास चाहिए तो पर्यावरण का विनाश होता है और पर्यावरण को बचाना है तो विकास की सीमा तय की जानी चाहिए।

याद करें कि उत्तराखंड की भागीरथी जल विद्युत परियोजना को निरस्त करने के मामले में विकास समर्थक लॉबी ने जयराम रमेश की सख्त आलोचना की थी, क्योंकि उक्त परियोजना पर काफी निवेश किया जा चुका था और उसका चालीस फीसद काम भी पूरा हो चुका था। इसके बावजूद अगर उन्होंने यह कदम उठाया तो इसलिए कि उनके मुताबिक इस परियोजना से भागीरथी का पूरा पारिस्थितिक तंत्र नष्ट होने का खतरा था। इसी तरह महाराष्ट्र के तडोबाअंधारी अभयारण्य के पास खनन की योजना पर भी उनकी आपत्ति थी कि इससे वहां के जैवजगत का आंतरिक संतुलन बिखर जाएगा।

विकास समर्थकों ने तब अपने पक्ष में कहा था कि खनन के बाद वहां पुन: वृक्षारोपण किया जा सकता है, लेकिन पर्यावरण मंत्री की दलील थी कि वन संपदा का मतलब सिर्फ वृक्ष नहीं, बल्कि जैव विविधता होता है। सरकार में अपने समकक्षों के मुकाबले पर्यावरण मंत्री निस्संदेह अपने काम की बेहतर समझ रखते हैं। वन संपदा को वे महज विकास के किसी स्रोत के रूप में नहीं देखते। वे इस बात पर गाहे- बगाहे जोर देते हैं कि अर्थव्यवस्था में वन संपदा एक निश्चित प्रकार की पर्यावरण सेवा भी प्रदान करती है।

पर्यावरण के प्रति बढ़ती जनचेतना के चलते अब यह बात आम हो चुकी है कि वन कॉर्बन-उत्सर्जन को सोखने का काम भी करते हैं। लेकिन यह विचित्र है कि नुकसान रहित या टिकाऊ विकास के विमर्श की यह भाषा जितनी साफगोई के साथ सिद्धांतों को उठाती है उससे कहीं ज्यादा तत्परता के साथ समझौते की बात भी करने लगती है। गौर करें कि नीतिगत स्तर पर भारत का वन- प्रतिष्ठान यह मानता है कि वन क्षेत्र तैंतीस फीसद होना चाहिए। लेकिन पर्यावरण मंत्री अपनी समूची सदाशयता के बावजूद यहां एक नई दलील देते हैं। उनका कहना है कि छितरे और विक्षत वन क्षेत्र के मुकाबले सघन और अविकल वन क्षेत्र का होना ज्यादा बेहतर और उपादेय है। उनका मानना है कि अगर भारत में केवल इक्कीस फीसद वन क्षेत्र बचा रहे तो भी वह तैंतीस प्रतिशत के कल्पित क्षेत्र के मुकाबले ज्यादा काम का होगा।

इक्कीस से तैंतीस फीसद के बीच विकास की कितनी परियोजनाओं को शुरू किया जा सकता है और कितने बडे पैमाने पर कॉरपोरेट जगत को मनचाहे अवसर दिए जा सकते हैं, यह जानने के लिए अर्थशास्त्र का विद्वान होने की जरूरत नहीं है। ध्यान रहे कि विद्वान मंत्री आंकड़ों के मामले में भी किसी प्रशिक्षित विश्लेषक से कम हुनरमंद नहीं हैं। वे बताते हैं कि अगर आज भारत में वनों का कुल क्षेत्र आठ से नौ फीसद कॉर्बन सोखने का काम करता है तो 2020 तक, जब वनों का रकबा कम हो जाएगा, तब भी ग्रीनहाउस गैसों को सोखने की दर छह-सात फीसद से कम नहीं होगी।

इस संदर्भ में जो बात विचित्र लगती है वह यह कि पर्यावरण मंत्री के पर्यावरण-सरोकारों का उत्स कोई स्पष्ट सिद्धांत नहीं है। उनका मानना है कि विकास की हर परियोजना का आकलन स्वतंत्र रूप से किया जाना चाहिए और इसमें कुल ध्यान इस बात का रखा जाना चाहिए कि पर्यावरण और विकास के बीच किसको कितना नुकसान पहुंचता है।

असल में बाहर से सरल और साफ दिखने वाली यह दलील अंतत: उद्योग-जगत के ताकतवर समूहों के लिए ही रास्ते खोलती है। इस तरह पर्यावरण संरक्षण की यह पूरी चिंता अंत में विकास की मौजूदा रफ्तार पर सवाल उठाने के बजाय उसी से निर्देशित होने लगती है।

स्पष्ट नीति के बजाय हर परियोजना को अलग से जांचने- परखने का ही परिणाम है कि कई बार पर्यावरण मंत्री ने खुद कहा है कि उन्हें कई तरह के दबावों में काम करना पड़ता है। यानी वे भी मानते हैं कि कहीं न कहीं सरकार पर कोई दबाव होता है जिसके चलते उन्हें किसी खास परियोजना को मंजूरी देनी पड़ती है। अगर किसी स्थिति में पर्यावरण के मानकों को ताक पर रखना पड़ता है तो साफ है कि कुछ लोग या समूह इतने ताकतवर हैं कि वे कानून की अनदेखी या उसमें हेरफेर करने में भी सक्षम हैं।

अब मंत्री महोदय की समस्त सक्रियता और प्रतिबद्धता को आर्थिक वृद्धि दर के सर्वसम्मत मंत्र के साथ जोड़ कर देखें। आखिर ऐसा क्या है कि जिन परियोजनाओं का जनता जी-जान से विरोध करती है, पुलिस और न्याय तंत्र का दमन सहती है, वे सरकार को देश के विकास के लिए इतनी अनिवार्य लगती हैं कि उन पर पुनर्विचार के लिए भी तैयार नहीं होती।

अगर लोकतंत्र के बुनियादी संकल्प के मुताबिक सरकार जनता की इच्छाओं के अनुसार चलती है तो वह उसकी इच्छाओं का उल्लंघन कैसे कर सकती है! स्थूल रूप से कहें तो अगर जनता किसी खास तरह के विकास को स्वीकार नहीं करती तो फिर सरकार को उसकी इच्छा के विरुद्ध जाने का अधिकार कहां से मिलता है।

आम कामकाजी, खेतिहर या जीविका कमाने के छोटे-मोटे धंधों में लगे आदमी के नजरिए से देखें तो यह पता नहीं चलता कि इस वृद्धि दर का लाभ किसको मिल रहा है। गांवों की पारंपरिक अर्थव्यवस्था लगभग टूट चुकी है। शहरों में आधे से ज्यादा आबादी झोपड़पट्टियों में रहने को मजबूर है। कुल मिला कर बस मध्य और उच्चवर्ग ही हैं जो फल-फूल रहे हैं। ज्ञान, तकनीक और पूंजी पर आधारित होती जा रही हमारी मौजूदा अर्थव्यवस्था में यही वर्ग अपना भविष्य देख सकता है। बाकी को अपनी वह दुनिया भी अजनबी और डांवांडोल लगने लगी है जिसमें लोग अब तक जीते आ रहे थे।

इसलिए बारहवीं योजना की रूपरेखा को लेकर प्रधानमंत्री की यह टेक बीस साल पुरानी है जब उनकी अध्यक्षता में अर्थव्यवस्था को समाज के ऊपर थोपा गया था। योजना आयोग की इस बैठक में प्रधानमंत्री ने अपनी ओर से यह साफ कर दिया कि आर्थिक दिशा आगे वही रहनी है।

इसमें कुल जमा गुंजाइश यही रखी गई है कि किसी बात पर जनता की तरफ से ज्यादा हो-हल्ला हो जाए या जनता को दूरगामी ढंग से साधने की जरूरत आन पड़े तो कार्यक्रम के स्तर पर कुछ ऐसा कर दिया जाए जिससे लोगों को लगे कि यह हमारी ही सरकार है और यह हमारा ही देश है। शायद योजना के बारे में उन्होंने इसीलिए ज्यादा नहीं कहा, क्योंकि योजना आयोग को लेकर वे आश्वस्त हैं कि उसके कर्ताधर्ता वही करेंगे जो बाजार के अनुकूल होगा।

इस तरह सरकार की कार्य-योजना में जयराम रमेश की प्रश्नाकुलता, कानून के शासन को लेकर उनकी चिंता और विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन कायम करने के उनके सारे प्रयास किसी निश्चित और स्पष्ट दिशा में नहीं जा पाते। वे अपने निश्चित दायरे में कुछ फैसले सामूहिक हित में करवा जाते हैं और कुछ मसलों पर उनका भी वश नहीं चलता। अंतत: उनकी कार्रवाइयों की फौरी तेजस्विता के क्षणिक प्रभाव के बाद कॉरपोरेट जगत के समीकरण ज्यों के त्यों बने रहते हैं जिन पर इस तथ्य का कोई असर नहीं पड़ता कि सरकार किस दल की है। असल में चिंता जाहिर करने की आजादी और एक समय के बाद चुप हो जाने की आचार-संहिता उद्योग जगत के उसी देवालय में तय होती है जहां वृद्धि दर को ऋग्वेद के मंत्रों की तरह अपौरुषेय घोषित किया जाता है।

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