बोतलबंद जल,Pc-Wikipedia
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बोतलबंद जल : गुणवत्ता, वैशिष्ट्य एवं सुरक्षा की दृष्टि में

अपनी जल दैनिक आवश्यकता का मात्र 40 प्रतिशत भाग ही प्राप्त कर पा रहे हैं। किसी तरह खीच-तान के काम चलाना पड़ रहा है। जल उपभोग तेजी से बढ़ रहा है। इसी बात से अनुमान लगाया जा सकता है कि प्रत्येक व्यक्ति को प्रतिदिन के हिसाब से लगभग 60 लीटर पानी की आवश्यकता होती है। औद्योगीकरण के कारण कहीं कहीं यह मात्रा घटकर मात्र 10 से 15 लीटर प्रति व्यक्ति प्रतिदिन रह गई है।
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सम्पूर्ण जैव सृष्टि, जैव विविधता एवं अद्यतन सभ्यता के विकास के इतिहास के साथ जुड़ी है - जल की कहानी । जीवन का पर्याय बना यह शीतल, निर्मल, स्वच्छ एवं सुस्वादु जल आखिर किसे नहीं भाता और कौन नहीं अपने कंठ को तरल करता तथा पिपासा को शान्त करता । वैदिक काल में इसे "आप" की संज्ञा दी गई और इसकी व्यापकता एवं सम्मान में वैदिक साहित्य में अनेकों श्लोक एवं ऋचाएं सृजित एवं अलंकृत हुए | उदाहरणार्थ "आपे हिष्टा मयोभुव:", जिसे राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान, रुड़की ने मूल- मंत्र के रूप में आत्मसात किया ।

प्रस्तुत लेख में पृथ्वी पर उपलब्ध जल के साथ-साथ आधुनिकतम प्रचलित बोतलबंद जल के उद्भव, विकास, गुणवत्ता, वैशिष्ट्य एवं सुरक्षा के दृष्टिगत मानकों का संदर्भ प्रस्तुत किया गया है । आज बोतलबंद जल एक उद्योग बन चुका है । अत: इससे सम्बन्धित उत्पादक कम्पनियों एवं उनके उत्पादों की चर्चाओं के साथ-साथ जलशुद्धि के कृत्रिम उपायों का भी वर्णन किया गया है।

1.

परिचय

यों तो पृथ्वी पर जल प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है परन्तु पीने योग्य जल की मात्रा अपेक्षातया कम है। ऐसा अनुमान है कि पृथ्वी पर कुल उपलब्ध जल का लगभग 97% भाग समुद्र के रूप में है जो उपयोग की दृष्टि से लगभग अनुपलब्ध है। इसकी 2 प्रतिशत मात्रा उत्तरी एवं दक्षिणी ध्रुवों पर बर्फ के रूप में विद्यमान है एवं मात्र 1 प्रतिशत ही ऐसा है, जो मानव मात्र को खेती, जंगल, उद्योग-धन्धों तथा पीने के काम आता है। इस उपलब्धता का भी एक बड़ा भाग बेकार चला जाता है एवं जो बचता है वही हमें कल कारखानों, उद्योग-धन्धों, खेती एवं पीने पकाने के काम आता है।

तेजी से हो रहे शहरीकरण, औद्योगीकरण एवं जनसंख्या वृद्धि ने तो महानगरों के निवासियों को और भी बेचैन कर दिया है। वे अपनी जल दैनिक आवश्यकता का मात्र 40 प्रतिशत भाग ही प्राप्त कर पा रहे हैं। किसी तरह खीच-तान के काम चलाना पड़ रहा है। जल उपभोग तेजी से बढ़ रहा है। इसी बात से अनुमान लगाया जा सकता है कि प्रत्येक व्यक्ति को प्रतिदिन के हिसाब से लगभग 60 लीटर पानी की आवश्यकता होती है। औद्योगीकरण के कारण कहीं कहीं यह मात्रा घटकर मात्र 10 से 15 लीटर प्रति व्यक्ति प्रतिदिन रह गई है। जल खपत के अन्य पहलुओं में एक लीटर पेट्रोल बनाने में 10 लीटर एक किलो सब्जी पर 40 लीटर 1 किलो कागज हेतु 100 लीटर तथा एक टन सीमेन्ट हेतु लगभग 3500 लीटर पानी की आहुति देनी पड़ती है।

बढ़ते कीटनाशकों एवं फर्टिलाइजर के उपयोग ने कृषि फार्मों को प्रदूषित कर दिया तथा इन क्षेत्रों से निकले प्रदूषित अपशिष्ट जल ने शुद्ध जल स्त्रोत को प्रभावित किया। परिणाम स्वरूप हमारे सतही एवं भूगर्भ जल स्त्रोत आज प्रदूषित हो गये हैं। देश में कुल उपलब्ध जल का लगभग 70 प्रतिशत भाग प्रदूषित हो चुका है। फलस्वरूप इनसे कहीं-कहीं पीने योग्य जल का अभाव एवं जल जनित बिमारियों के पैदा होने का भय बना रहता है। अतः पीने हेतु बोतलबंद जल आज की सभ्यता का पर्याय बन कर सामने आया, जिसका उद्भव एवं उतरोत्तर विकास हो रहा है।

यह कैसी विडम्बना है कि "जल" जो एक समय देवता तुल्य था, गर्मी, भूख प्यास को शान्त करने के लिए सर्वत्र प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हुआ करता था, आज अन्य उत्पादों के साथ व्यावसायिक होकर बोतलबंद हो गया है। अनेकानेक कम्पनियों ने अनेकों नामों से इसे सजाकर तथा नयी नयी प्रकार की बोतलों में बंद करके बाजार में प्रस्तुत किया है। खपत की दृष्टि से बोतल बंद जल की वर्ष 1992-93 में 720 लाख तथा वर्ष 1994-95 में लगभग 900 लाख (9 करोड़ ) बोतलों की खपत हुई एवं 1996-97 में 50 करोड़ से अधिक की बिक्री का अनुमान है। 40 से 70 लाख की लागत लगाकर 150 से 450 बोतल प्रति घन्टे की दर से एक से 3 लाख लीटर प्रतिदिन तक बोतल भरे जा सकते हैं। ऐसा करने के लिए लगभग 4000 वर्ग फिट स्थान एवं 100 से 150 के. वी. ए. विद्युत की खपत होगी । आइए, ऐसे उत्पादों की गुणवत्ता, वैशिष्ट्य एवं स्वास्थ्य सुरक्षा के अन्य पहलुओं पर दृष्टिपात करें।

2. 'मिनरल वाटर एवं 'ड्रिंकिंग'वाटर

मिनरल वाटर एवं शुद्ध पेय जल (ड्रिंकिंग वाटर) दोनों ही अलग-अलग मतलब रखते हैं। मिनरल वाटर का तात्पर्य है वह जल जिसमें स्वास्थ्य परक खनिजों की आवश्यक मात्रा उपलब्ध हो। परन्तु पेय जल के लिए यह आवश्यक है कि वह रोग दोष मुक्त हो, अवांछित सूक्ष्म जीवाणु रहित एवं रसायनिक पदार्थों / अवयवों / लवणों की मानपरक स्वीकार्य मात्राओं के अनुरुप हो, सुस्वादु हो, स्वच्छ हो, गंध रहित हो एवं पीने में किसी भी प्रकार से असंतुष्टि का आभास नहीं दिलाता हो। मिनरल वाटर वह है जो सीधे प्राकृतिक जल स्त्रोतों से प्राप्त किया जाता है | मानदण्डों के अनुरूप न पाये जाने की दशा में यदि इसे भौतिक, रसायनिक विधियों के उपयोग से पीने योग्य बनाया जाता है तो इसे फोर्टिफाइड मिनरल वाटर कहा जाता है। बाजार में दोनों ही प्रकार के उत्पाद उपलब्ध हैं। स्वास्थ्य की दृष्टि से आवश्यक खनिज तत्वों की उपस्थिति से यह दैनिक जीवन में बहुत उपयोगी है ।

3. बोतलबंद जल मानक

संयुक्त राष्ट्र संघ की "विश्व खाद्य संगठन" एवं "खाद्य एवं कृषि संगठन ने वर्ष 1981 में कोडेक्स मानदण्ड - 108 निरूपति करके मिनरल वाटर को चार भागों में वर्गीकृत किया जो क्रमश: प्राकृतिक एवं कार्बोनिकृत के विभिन्न समुच्चय हैं। इस संबंध में भारतीय मानक ब्यूरो ने मिनरल वाटर, हेतु IS- 10500 (1991) एवं IS-13428 (1992), स्वास्थ संबंधी निर्देश हेतु IS - 58378 (1970), वाटर पैकेजिंग हेतु IS - 10146 (1982), IS - 10148 (1982) तथा IS - 10151 (1982) का मानक और बोतलों की गुणवत्ता हेतु IS 7402 (1986) निर्गत किया जो समान रूप से समस्त उत्पादों एवं उत्पादक इकाईयों के लिए वांछित था ।

4.

बोतलबंद जल उत्पाद को खाद्य पदार्थों में मिलावट की रोकथाम के अन्तर्गत लाकर भारतीय सरकार ने जल की बिक्री का मार्ग प्रश्स्त किया। वर्ष 1997 में इसमें मिनरल वाटर में अधिकतम खनिजों की मात्रा सुनिश्चित करने के लिए पुनः संशोधन किया गया । परन्तु यह कानून न्यूनतम मात्रा की सुनिश्चिता पर मौन साध गया। चूँकि यह केवल मिनरल वाटर पर प्रभावी था अत: अनेक कम्पनियों ने इस कानून की खामियों का लाभ उठाकर अपने उत्पादों से मिनरल वाटर हटाकर मात्र ड्रिंकिंग वाटर का लेबल चढ़ा दिया एवं प्राप्ति स्त्रोतों का उल्लेख नहीं किया। इससे ये उपभोक्ताओं को खनिजों की न्यूनतम मात्रा उपलब्ध कराने की बाध्यता से वंचित रहे । PFA डिपार्टमेन्ट द्वारा जांच करने पर अनेक अनियमितताएं सामने आई। अत: खाद्य मानको को नियंत्रित करने वाली खाद्य मंत्रालय की केन्द्रीय समिति को कानून मंत्रालय के साथ बैठकर उपभोक्ता संरक्षण प्राथमिकी नियत करनी पड़ी। कम्पनियों के लिए आवश्यक हो गया कि वे बिक्री से पूर्व बोतल बंद जल को ब्यूरो आफ इंडियन स्टेण्डर्ड (BIS) द्वारा जांच कराकर जलगुणता का सर्टिफिकेट प्राप्त करें।

ये कम्पनियां नियमत: अपने उत्पादों पर निम्न सूचना अंकित करने के लिए बाध्य हैं :

  • मिनरल वाटर का प्रकार ( प्राकृतिक अथवा फोर्टिफाइड स्त्रोत)
  •  कम्पनी के नाम एवं पते का बोतलों पर उल्लेख
  • कैसे रोग मुक्त एवं दोषमुक्त किया गया
  • निर्माण बैच एवं संख्या
  •  जल भरने का दिनांक
  • जल की अनुमानित आयु ( जिसमें उसकी गुणता एवं क्षमता का ह्रास न हो)
  •  जल का आयतन (मिली लीटर में)

इन सबका अनोखा पहलू यह है कि कोई-कोई कम्पनी ही इन नियमों एवं दिशा निर्देशों का पालन कर रही है। ऐसी दशा में उपभोक्ता इन कम्पनियों के रहमो करम पर जीने को बाध्य है।

5.

विगत दिनों उपभोक्ता प्रशिक्षण एवं अनुसंधान केन्द्र, अहमदाबाद द्वारा बोतलबंद पेय जल के 8 ब्राड़ों एवं मिनरल वाटर के 5 ब्राड़ों की जाँच की गयी । निष्कर्ष बहुत उत्साहवर्धक नहीं कहे जा सकते कुछ नमूनों में क्लोराइड आर्सेनिक एवं अल्यूमिनियम की अधिकता पाई गई। हालाँकि एक नमूने को छोड़कर बाकी में अधिकतम स्तर से इनकी मात्रा अधिक नहीं थीं । परन्तु इनकी मात्रा यदि जल में बिल्कुल ही न हो तो अच्छा है । ऐसे भी प्रकरण सामने आये जिसमें बोतलों का सही स्टेरेलाइजेशन अथवा इनकी गुणवत्ता का अभाव रहा। अनेक पर्यटन स्थलों पर बोतलों का मुहर टूटा मिलता है जिसका प्रमुख कारण है स्थानीय बिक्री केन्द्रों द्वारा साधारण जल को बोतलबंद कर पैसा बनाना। यह अपराध है एवं उपभोक्ताओं के सामान्य नागरिक अधिकारों का हनन तथा उनके साथ विश्वासघात ।

6.

जल शोधन के कृत्रिम आधुनिक उपाय

विगत में नदियों, तालाबों, कूपों, झीलों इत्यादि के जल प्राकृतिक रूप से स्वत: ही साफ- शुद्ध होते रहते थे परन्तु आज के बढ़ते प्रदूषण के कारण प्राकृतिक शुद्धीकरण की क्षमता प्रायः समाप्त हो चुकी है। बोतलबंद पानी अथवा मिनरल वाटर सामान्य के पहुँच के बाहर की वस्तु है। अतः स्थानीय स्तर पर जल को क्लोरीनेशन, स्टेरेलाइजेशन, कैन्डल फिल्टरिंग, आयोडिनीकरण, अल्ट्रावायलेट तकनीक, मेम्बरेन फिल्टर ब्लाक एवं ओजोनीकरण द्वारा शुद्ध-साफ किया जा सकता है तथा ऐसे जल को अवांछित बैक्टीरिया एवं सूक्ष्म जीवाणुओं से मुक्त करके उपयोग में लाया जा सकता है। इस दिशा में राष्ट्रीय पर्यावरण प्रौद्योगिकी अनुसंधान संस्थान, नागपुर द्वारा 'प्यूरी टेब' एवं 'स्टेरी टेब' नामक दो गोलियां बाजार में उपलब्ध कराई गई हैं जिससे रोग मुक्त जल प्राप्त किया जा सकता है।

7. निष्कर्ष

बोतलबंद जल आज की आवश्यकता के अनुरूप है तथा यह एक उद्योग का दर्जा ले चुका है। प्राय: यह देखने में आता है कि जल स्त्रोतों का गुणता निर्धारण में बहुत योगदान है। प्राकृतिक उद्गम स्थलों से प्राप्त जल अपेक्षातया उपयोगिता की दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण है। चूँकि भौम जल में पेस्टिसाइड एवं हानिकारक विष की अधिकता की संभावना बनी रहती है जिसे उत्पादक प्रायः नजर अंदाज कर देते हैं, अतः इसके बोतलों में आने पर प्रतिबन्धों की आवश्यकता है । उपभोक्ता की जागरुकता बोतलबंद जल की गुणवत्ता बनाए रखने में सहायक सिद्ध होगी। चूँकि हिमाचल प्रदेश के "सोलन" एवं उत्तराखंड  के "देहरादून" के जल में कार्बनिक एवं खनिजों की अत्यन्त अल्प मात्रा मौजूद है, अतः इन स्थलों के जल का उपयोग विदेशी मुद्रा कमाने में सार्थक सिद्ध होगा। हमारे देश की आर्थिक स्थिति सुधारने में जल एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है ।

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